आचार्य प्रशांत: ये जन्म-मरण का चक्र चल क्यों रहा है? अब क्यों पूछेगा शिष्य कि ये जन्म-मरण का चक्र चल क्यों रहा है? और इस प्रश्न के पूरे मायने क्या हैं? आप जिस भी चीज़ से सन्तुष्ट होते हो उसके बारे में तो आप कोई सवाल नहीं उठाते न, आप यह थोड़े ही कहते हो कि ये क्यों है, या आप कहते हो?
इस कमरे में हवा में क़रीब बीस प्रतिशत ऑक्सीजन होगी। आप में से कितने लोगों के मन में ख़याल आया है पिछले घंटे, दो घंटे में कि हवा में बीस प्रतिशत ऑक्सीजन क्यों है? आया है? नहीं आया। अभी यहाँ पर ज़्यादा नहीं, तीस-चालीस पार्ट पर मिलियन (पीपीएम) धुआँ भर जाए, फिर आप तुरन्त क्या सवाल पूछोगे? ये धुआँ क्यों है?
श्रोतागण: ये धुआँ कहाँ से आया?
आचार्य: वही सब, कहाँ से आया, क्यों है, किधर से उठा, कारण क्या है, जिस भी तरीक़े से बोलो, पर आप जिज्ञासा करोगे। जिज्ञासा क्या बताती है? जिज्ञासा बताती है, तकलीफ़ हो रही है। ऑक्सीजन से आपको तकलीफ़ नहीं है तो आप नहीं पूछोगे, बात सहज है। आप जिस भी चीज़ के बारे में प्रश्न कर रहे हो, उस जगह पर आपकी खटपट है। उस जगह पर आपकी असहजता है।
तो शिष्य को जन्म-मरण के चक्र से कुछ दर्द है, पीड़ा है, असहजता है। क्या है? वो यह है कि यह जो जन्म-मरण का चक्र है ये दुख और दर्द का चक्र है। और जन्म-मरण के चक्र को, हमने कहा, व्यापक तौर पर जानेंगे। और व्यापक तौर पर जन्म-मरण का चक्र क्या है? पूरा संसार। क्योंकि संसार में जो कुछ है, वो सब जन्मता है और मरता है। तो शिष्य ने कुल मिलाकर जिज्ञासा करी क्या है, बताइए?
ये शिष्य बैठे हैं, (एक श्रोता को सम्बोधित करते हुए) मानिए, इन्होंने कहा, ‘गुरुवर, ये जन्म-मरण का चक्र क्यों है?’ अब इन्होंने इतने संक्षिप्त प्रश्न में वास्तव में बहुत सारी चीज़ें पूछ ली है। क्या पूछ लिया है? इन्होंने पूछ लिया है — मैं क्यों हूँ? आप क्यों हैं? ये दुनिया क्यों है? हम जीते क्यों हैं? हम मरते क्यों हैं? ये मन कहाँ से आता है? ये मन कहाँ को जाता है? हमें कुछ भी चाहिए क्यों? हम कुछ पकड़ते क्यों हैं? हम कुछ छोड़ते क्यों हैं?
बात समझ में आ रही है?
तो शिष्य ने पूरी दुनिया का ही राज़ पूछ लिया। इतनी बड़ी एक समस्या को सुलझाने के लिए एक छोटा सा सूत्र पूछ लिया। बहुत बड़े किसी ताले के लिए कुल एक अकेली चाबी माँग ली।
जन्म-मरण का चक्र क्यों है? इसका अर्थ यही नहीं है कि शिष्य बस इतना ही पूछना चाहता है कि कोई जन्मता क्यों है, कोई मरता क्यों है, चक्र क्यों चल रहा है। वो वास्तव में सबकुछ पूछ रहा है, सबकुछ। अब ये पढ़ने वाले की बुद्धि पर है कि वो इस बात को समझ जाए कि इतना ही नहीं पूछा गया है कि जन्म-मरण का चक्र क्यों है। क्योंकि अगर आपने सवाल की व्यापकता को नहीं समझा तो आप उत्तर को भी एक व्यापक तरीक़े से कभी लागू नहीं कर पाएँगे। उत्तर कहाँ तक चोट करता है, उत्तर किन-किन समस्याओं को सुलझा देता है, ये आप जान ही नहीं पाएँगे।
तो फिर उत्तर की पूरी सम्भावना का उपयोग नहीं कर पाएँगे। कि जैसे आपको एक बड़ी गाड़ी दे दी गयी हो और आप उसको बस पहले गियर में ही चलाते रह जाएँ। आपको पता भी नहीं था कि इसमें कौन-कौनसी सम्भावनाएँ हैं, इसको कैसे-कैसे चलाया जा सकता था। और वो गाड़ी ऐसी भी हो सकती है कि फ्लाइंग-मशीन (उड़ने वाली गाड़ी) हो — वो चलती भी है, उड़ती भी है। वो ऐम्फिबीअन (उभयचर) भी हो सकती है, सड़क पर भी चलती है, वो नदी में भी चलती है; यह आपको पता ही नहीं है।
वैसे ही उपनिषदों के सूत्र हैं। हमें पता भी नहीं चल पाता कि वो जो एक श्लोक है छोटा सा, वो किन-किन समस्याओं को सुलझा सकता है, वो क्या-क्या काम कर सकता है। तो हमको लगता है, अच्छा है, बस जन्म-मरण के बारे में कुछ बता दिया है। नहीं, बस जन्म-मरण के बारे में नहीं बता दिया है; आपकी ज़िन्दगी में जो कुछ है, हर एक चीज़ के बारे में बता दिया है।
बात समझ में आ रही है?
उसकी पूरी सम्भावना को हम अपने छोटे-छोटे इन हाथों में पकड़ ही नहीं पातें। इतनी बड़ी हमें चीज़ दे दी जाती है कि वो हमारी अंजुली में समाती नहीं है।
अब इसको समझिए। तो कुछ लोग तो बोलते हैं कि जो मनुष्य की मूल वृत्ति है वो इसका कारण है। यहाँ लिखा है, स्वभाव को जन्म-मरण चक्र का कारण बताते हैं। उस स्वभाव को मूल वृत्ति समझिए। जीव का स्वभाव, माने जीव की मूल वृत्ति, अहम्-वृत्ति। तो कह रहे हैं कि कुछ विद्वान सोचते हैं कि ये अहम्-वृत्ति के कारण है। जो कुछ चल रहा है ये अहम्-वृत्ति का खेल है। बहुत ग़लत तो नहीं सोचते।
कुछ लोग कहते हैं कि इसका कारण समय है। भई, समय में एक चीज़ अच्छी लगती है, कुछ समय बाद वो चीज़ बुरी लगने लग जाती है। तो कुछ लोग कहते हैं, ‘जन्म-मरण का जो चक्र है, दुनिया के ये जितने झगड़े-फ़साद हैं — जो भी है, अच्छा-बुरा, सुख-दुख, ऊँचा-नीचा — ये सबकुछ समय के कारण है, समय सारे परिवर्तन लाता है।'
लेकिन फिर ऋषि कहते हैं, ‘ये जितने भी लोग जितनी भी तरीक़े की बातें करते हैं, ये सब यथार्थ से दूर हैं और इनकी बुद्धि पर मोह छाया हुआ है। इन्हें असली बात पता नहीं चल रही है।'
तो ऋषि ने क्या करा? वही करा जो उनका सदा का तरीक़ा है। और ऋषि की विधि सदा क्या रही है? नकार की रही है। कि सच बाद में बताना, पहले झूठ काट तो दो। क्योंकि अगर झूठ काटा नहीं और सच बता दिया तो सच बस झूठ के ऊपर की एक तह बनकर रह जाता है।
आप दो-चार दिन से नहाये नहीं हैं, आपके बालों में धूल भर गयी है। आप लगा लीजिए बढ़िया वाला तेल, अब क्या होगा? करते हैं क्या आप ऐसा? चलिए, जो नहीं करते वो बताएँगे क्यों नहीं करते। बहुत सारे तो करते होंगे, मैं भी करता हूँ कभी-कभी। बालों में जब धूल जमी होती है — आप कहीं गये थे, ठीक है? ऐसी जगह गये थे जहाँ रोड टूटी हुई थी या खेतों की तरफ़ चले गये थे, धूल थी। धूल पूरे शरीर पर आ गयी है — तो ऐसा करते हो क्या कि तेल-वेल लिया और कहा, 'बहुत रूखा-रुखा हो रहा है तो तेल ऊपर ही लगा लो', ऐसा करते हो? ऐसा करोगे तो क्या होगा?
श्रोतागण: धूल और जम जाएगी सिर पर।
आचार्य: पहले क्या करते हैं हम? पहले लगाते हो शैम्पू। कहते हो, पहले गन्दगी तो हटाओ न। गन्दगी हटाये बिना जो कुछ भी करोगे वो बस गन्दगी के ऊपर की एक पपड़ी बन कर रह जाएगा। और फिर होगी खुजली। जब आप खुजलाओगे तो क्या हटाओगे? जो धूल थी। और जो आपने ऊपर से महँगा और खुशबूदार तेल भी लगाया है, वो बैठा किसके ऊपर है? धूल के ऊपर बैठा है। तो धूल हटाओगे तो साथ में क्या हट जाएगा? वो तेल भी हट जाएगा। आपको क्या मिला? आपको कुछ नहीं मिला। तेल भी पिया तो किसने पिया?
श्रोतागण: खाल ने पिया।
आचार्य: नहीं, आपकी खाल ने नहीं धूल ने पिया। तो इसलिए नकारना बहुत ज़रूरी है। कुछ आपको सीधी-सही बात बतायी जाए उससे पहले आपके मन में जो फ़ालतू बातें बैठी हैं उनको हटाना बहुत ज़रूरी है। और अगर धूल जम ही गयी हो शरीर पर तो उसे खुरचना पड़ता है। स्क्रबर लगाते हो न? और उसमें क्या होता है? दर्द भी होता है, क्योंकि वो जो धूल है वो अब खाल से जुड़ गयी है — इसी को कहते हैं ‘मोह’। क्या बोलते हैं? मोह।
आपने अपनी हस्ती से किसी ऐसी चीज़ को जोड़ दिया जिसको जोड़ना नहीं चाहिए था। और फिर जब भी खुरचोगे, रगड़ोगे, स्क्रबिंग करोगे तो थोड़ी सी तकलीफ़ होती है, होती है कि नहीं होती है? और जितने ज़्यादा समय से वो धूल आपके ऊपर बैठी है उतनी ज़्यादा तकलीफ़ होती है। खाल पर बैठी हो तो तकलीफ़ होती है। मन पर बैठी हो तो? मन पर बैठी हो तो और ज़्यादा होती है।
तो जब भी कभी कोई झूठ में फँसा हुआ हो, तो सीधे-सीधे कहा जा सकता है कि मोह में फँसा हुआ है। (दोहराते हुए) मोह में फँसा हुआ है। झूठ में फँसने की वजह बस यही होती है कि तुम इतने दिनों तक उसके साथ थे कि अपने में और उसमें अन्तर भूल गये। ऐसा लगने लग गया कि उसके बिना हमारा कोई वजूद ही नहीं है; वो हट गया तो हम ही मर जाएँगे। जैसे खाल को लगने लग जाए कि अगर ऊपर का मैल हटा दिया तो हम ही मर जाएँगे, हम ही ख़त्म हो जाएँगे।
समझ में आ रही है बात?
तो इसलिए ऋषि कहते हैं कि जिन्हें ग़लत ठहराना हो उन्हें कहते हैं मोहग्रस्त हैं — ये असली बात समझ नहीं रहे हैं। ये बिना सारी नक़ली चीज़ें हटाये असली चीज़ की बात करना चाहते हैं। तो असली चीज़ फिर क्या है? नक़ली तो दो चीज़ें हटा दीं। कहा, ‘न अहम्-वृत्ति की बात है, न काल की बात है।’ और फिर आगे असली चीज़ बतायी है।
असली चीज़ में जाएँ इससे पहले ये भी समझिएगा। देखिए, यही अपनेआप में बहुत बड़ी बात है कि कोई आपसे पूछे कि ये दुनिया में क्या चल रहा है? और आप बोल दें, ‘ये जो दुनिया में चल रहा है, ये काल है, ये समय का खेल है।' यही अपनेआप में बड़ा गहरा वक्तव्य है। या कि आप कह दें कि दुनिया में जो कुछ चल रहा है ये अहम्-वृत्ति का खेल है। ये भी अपनेआप में बहुत गहरी बात है।
अब आप ज़रा ऋषि की गहराई का अनुमान लगाइए कि वो कह रहे हैं कि जिन बातों को तुम गहरी बात समझते हो उनमें भी कोई गहराई नहीं है। भई, आम आदमी की तो बस की नहीं है इतना भी कहना कि दुनिया में जो चल रहा है वो अहम्-वृत्ति या काल का खेल है, ठीक?
आप अपने आसपास वाले से बात करिए, ‘ये सब क्या चल रहा है?’ या आप उसे अख़बार दिखाइए, उसमें दस तरह की ख़बरें हैं, इधर की, उधर की। पूछिए, ‘ये सब क्या चल रहा है?’ कौन आपसे बोलेगा कि ये अहम्-वृत्ति का खेल है? कोई बोलेगा? नहीं बोलेगा।
वैसे ही आप किसी से और भी — जिनको आप गुणी-विद्वान समझते हों — कहीं कुछ चल रहा हो, उनसे पूछिए, क्या चल रहा है? कौन बोलेगा आपसे कि ये तो काल का खेल है, ये तो बस समय का नाच है और कुछ नहीं? कोई नहीं बोलेगा। जो इतना बोल दे, वो अपनेआप में काफ़ी विद्वान हुआ।
लेकिन ऋषि जिस तल पर बैठे हैं, उस तल से ऐसी विद्वत्ता भी बहुत छोटी चीज़ दिखायी देती है। तो ऋषि इन विद्वानों को भी बोलते हैं कि ये तो मोहग्रस्त हैं; इनको समझ में नहीं आता। ऋषि किन्हें बोल रहे हैं कि मोहग्रस्त हैं और कुछ समझ में नहीं आता? उन्हें जो हमारे तल से बहुत ऊपर के हैं।
नहीं आ रही समझ में बात?
जो आम आदमी है उससे आप पूछिए, ‘ये सब क्या चल रहा है?’ तो वो बोलेगा, ‘जो चलना चाहिए, वही चल रहा है। सब सामान्य है। ज़िन्दगी चल रही है ─ सूरज उग आया, सूरज अस्त होगा, चाँद-तारें आएँगे, उसके बाद डिनर करने चलेंगे, बस यही चल रहा है।’ ये एक सामान्य तल की बातचीत है, ठीक है? जो ऊपर उठते हैं, वो फिर बोल पाते हैं कि जो हो रहा है वो काल का और अहम् का खेल है — वो जो थोड़ा ऊपर के लोग हैं।
और ऋषि न जाने किन आसमानों पर बैठे हैं कि वो कह रहे हैं कि जो लोग ये भी कहते हैं कि ये जो हो रहा है ये काल का और अहम् का खेल है, वो भी मूढ़ और मोहग्रस्त हैं। तो आप इससे ऋषि की ऊँचाई का अंदाज़ा लगाइए कि ऋषि कहाँ बैठे होंगे जो ये अहम् और काल को भी स्वीकार नहीं कर रहे हैं। कह रहें हैं, ‘ये कहाँ फँस गये तुम, अहम्, काल ये छोटे बच्चों वाली बातें हैं, आगे बढ़ो।’
तो अब फिर बड़ों वाली बात क्या है? बड़ों वाली बात में आते हैं। बड़ों वाली बात यह है कि कोई बात करो ही मत। वो कह रहे हैं, ‘जो हो रहा है यह सब परमात्म की महिमा है।' उन्होंने कह दिया है कि एक बिन्दु आना चाहिए जहाँ पर तुम जितने सवाल पूछ रहे हो वो रुक जाने चाहिए। सब सवालों की उपयोगिता इसी में है। क्योंकि तुम अगर पूछते ही रह गये कि ये चीज़ किसकी वजह से है और वो चीज़ किसकी वजह से है और वो चीज़ किसकी वजह से है, तो तुम पूछते ही रह जाओगे और इस पूछने-ताछने में मन को चलने का बहाना मिलता ही रहेगा।
तुम अपनेआप को यही ढाँढस देते रहोगे — अभी तो मुझे पूरी तरह समझ में नहीं आया न! मैं तो समझ रहा हूँ बैठ करके। मैं क्या हूँ? मैं तो चिन्तक हूँ, मैं तो विचारक हूँ। मैं पेशेवर चिन्तक हूँ। मेरा काम क्या है? चिन्तन करना। मैं बैठे-बैठे चिन्तन करता हूँ।
ऋषि जानते हैं कि इस तरह की चीज़ बड़ी लुभावनी लगती है मन को कि हम क्या कर रहे हैं? चिन्तन कर रहे हैं। और चिन्तन क्या कर रहे हैं कि जो चल रहा है क्यों चल रहा है।
उस चिन्तन को एक पूर्ण विराम देने के लिए वो कहते हैं, ‘जो चल रहा है वो बस परमात्मा चला रहा है।' और परमात्मा कौन है? जिसका चिन्तन किया नहीं जा सकता। तो तुम चिन्तन करना, बेटा, करो बन्द और ये अब छोड़ दो कि जो चल रहा है क्यों चल रहा है। एक सीमा तक सोचो, उसके बाद अगर सोच रहे हो तो तुम बहुत धूर्त हो और बेईमान हो। उसके बाद सोचना नहीं है, उसके बाद जीना है। और सोचते ही रह जाना अहंकार की चाल है बने रहने के लिए।
कोई पूछे, ‘कोई कर्म क्यों नहीं कर रहे?’ जवाब क्या दिया? 'नहीं, अभी हम विचार कर रहे हैं कि क्या करना चाहिए। अभी पूरी तरह स्पष्ट नहीं हुआ न।' बाबा, स्पष्ट तो कभी पूरी तरह हो ही नहीं सकता। क्योंकि स्पष्ट तुम्हें ही होना है न! पूर्ण स्पष्टता का मतलब है कि तुम मिट जाओ। पूर्ण स्पष्टता का मतलब है कि तुम्हारी हस्ती ही बिलकुल पारदर्शी हो जाए; तब आएगी पूर्ण स्पष्टता।
जब तक तुम्हारी हस्ती पूरी तरह पारदर्शी नहीं हुई है तब तक किसी भी एक विशिष्ट मुद्दे पर तुमको पूर्ण स्पष्टता मिल ही नहीं सकती, थोड़ा-बहुत संशय बचा ही रह जाएगा। अभी प्रयोग करके देख लीजिए। आपकी ज़िन्दगी में कोई भी ऐसा मुद्दा है, कोई भी ऐसी बात है जिसको ले करके आप शत-प्रतिशत आश्वस्त हो, कहिए? कुछ भी ऐसा है? कुछ भी ऐसा है?
निन्यानवे दशमलव नौ-नौ-नौ-नौ प्रतिशत आश्वस्ति हो सकती है, लेकिन पूर्ण आश्वस्ति नहीं हो सकती। तो अगर आप पूर्ण आश्वस्ति की प्रतीक्षा करते रहें तो आप प्रतीक्षा ही करते रह जाएँगे — जीवन छोटा सा है।
ऋषि कह रहे हैं, ‘दिमाग़ का इस्तेमाल करके उत्तर तक नहीं पहुँच पाओगे। दिमाग़ जहाँ तक ले जा सकता है, वहाँ तक दिमाग़ का उपयोग करके जाओ और उसके बाद सोचना-विचारना बन्द करो।'
कैसे पता चले कि कब सोचना-विचारना बन्द करना है? जब दिखायी दे कि विचार अब तुम्हें कोई नयी चीज़ खोल करके नहीं दिखा पा रहा है, विचार अब चक्रीय हो गया है। एक ही बात अब बार-बार सोच रहे हो। यहाँ से शुरू करे; यहाँ तक गये, फिर यहाँ से शुरू करे; यहाँ तक गये (हाथों से गोल-गोल घूमने का इशारा करते हुए)। अब एक ही बात है जो चक्कर लगा रही है दिमाग़ में। उसका तुम कितना भी विश्लेषण कर रहे हो, उसमें कोई गहराई नहीं आ रही है, कोई नया पहलू नहीं खुल रहा है।
बस ‘क’ से शुरू करके ‘ख’ पर जाते हो, फिर ‘ख’ से लौटकर फिर ‘क’ पर आ जाते हो, फिर ‘क’ से ‘ख’ पर जाते हो — तब समझ लो कि बुद्धि अब उतना कर चुकी जितना करने में सक्षम थी। अब बुद्धि का काम नहीं है। अब बस जितना पता चल गया है उतने में ही कर्म में उतर जाना है। तो ये पूछते नहीं रह जाना है कि ये दुनिया किसने बनायी, ये दुनिया किसने बनायी? सीधे बोलो, ‘ब्रह्म ने बनायी दुनिया, बात ख़त्म। हमें और सोचना ही नहीं है।'
क्योंकि ज़िन्दगी का कोई मुद्दा ऐसा नहीं है जिसमें तुम अन्त तक पहुँच सको सोच-सोचकर के। तुम मुझे बताओ कौनसी ऐसी बात है जिसमें तुम किसी आख़िरी उत्तर तक पहुँच सकते हो विचार कर-करके, बताओ? बोलो! नहीं पहुँच सकते न?
लेकिन विचार करना फिर भी ज़रूरी है। विचार एक ऐसे बिन्दु तक ले जाता है जिसके बाद तुम निर्विचार कर्म में उतर सकते हो। तो विचार ज़रूर करिए, लेकिन विचार में फँसे नहीं रह जाना है।
इसलिए ऋषि कहते हैं कि जो लोग दुनिया की किसी भी घटना या व्यवस्था का कारण दुनिया के ही किसी सिद्धान्त को बता रहे हैं, वो लोग बहुत समझते नहीं हैं, क्योंकि दुनिया में तुम्हें दुनिया का कारण नहीं मिलेगा। कारण का तो मतलब होता है — आदि, उद्गम, स्रोत, शुरुआत।
दुनिया में शुरुआत नहीं है दुनिया की; दुनिया में तो चक्र है। चक्र में बताओ शुरुआत कहाँ होती है? चक्र में कहीं कोई शुरुआत नहीं होती। तो दुनिया में तुम गोल-गोल घूम तो सकते हो और अगर गोल-गोल घूमने वाला कोई काम-धन्धा है तो ठीक है दुनिया, लेकिन अगर शुरुआत खोज रहे हो या अन्त खोज रहे हो तो दुनिया में नहीं मिलेगा। न शुरुआत मिलनी है, न अन्त मिलना है।
समझ में आ रही है बात?
तो जिन्हें शुरुआत चाहिए, अन्त चाहिए, वो एक बिन्दु पर आ करके विचार को लगाम दे दिया करें। उसी बिंदु का नाम ‘ब्रह्म’ है। इसीलिए कहा गया है कि शुरुआत भी किससे है? ब्रह्म से। अन्त भी किससे है? ब्रह्म से है। नहीं तो तुम शुरुआत को क्या करोगे? खोजते रह जाओगे।
ये चीज़ उससे आयी, तो वो चीज़ उससे आयी, तो वो चीज़ उससे आयी, तो वो चीज़ उससे आयी, तो वो चीज़ उससे आयी, तो उससे, वो उससे, उससे, उससे, उससे, उससे और यह जो श्रृंखला है, यह अनादि है। कभी इसका अन्त नहीं होना है। इसका अन्त करने के लिए ही किसको लाना पड़ता है? ब्रह्म को।
इसी त़रीके से अगर तुम आगे की ओर चलोगे, ये होगा, फिर ये होगा, फिर ये होगा, फिर ये होगा, फिर ये, फिर ऐसा होगा, ऐसा होगा — इसका अन्त करने के लिए भी किसको लाना पड़ेगा? ब्रह्म को। और ब्रह्म को लाना ज़रूरी है, क्योंकि ब्रह्म को नहीं लाए तो मन सोचते ही रहेगा, सोचते ही रहेगा, सोचते ही रहेगा। और ये मन का दुरुपयोग है, बुद्धि का दुरुपयोग है, समय का, जीवन का दुरुपयोग है कि सोचते ही रह जाओ।
समझ में आ रही है बात?
तो शिष्य जो है वो कोई बुद्धिजीवी किस्म का है, वो चिन्तक किस्म का है। वो बैठे-बैठे यही सोच रहा है कि कोई पैदा क्यों होता है बच्चा? जो पैदा हो गया वो चीज़ क्या है? उसके प्राण कहाँ हैं? उसमें चेतना कहाँ से आती है?
कहते हैं, ‘बहुत हो गया!’ जितना सोचा जा सकता है उतना सोचो। उसके बाद बस ये देख लो कि चेतना गन्दी है तो साफ़ करना है। ये पूछते ही नहीं रह जाओ कि चेतना गन्दी कहाँ से हो गयी, कहाँ से हो गयी, कहाँ से हो गयी।
अरे! नहीं पता चलेगा क्योंकि अनन्त है स्रोत जो चेतना को गन्दा करते हैं। और तुम्हें कभी नहीं पता चलेगा कि भ्रूण में चेतना प्रविष्ट करती है कि नहीं करती है, क्या होता है? ये सवाल ही सब महत्वहीन हैं। ये मत पूछो कि मुर्गी पहले कि अंडा पहले; मुर्गी की जान ख़तरे में है, उसको बचाओ, कर्म करो।
हम यही सब पूछते रह जाते हैं, ‘पर आचार्य जी मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि मैं इतना डर क्यों जाता हूँ।' भाई, जितना तुम्हें समझाया जा सकता था, तुम्हें समझा दिया गया। अब समझने की बात नहीं है, अब कह रहे हैं, ‘चलो खड़े हो जाओ और लड़ाई करो।’ 'नहीं-नहीं, लड़ना तो मैं नहीं चाहता, मुझे पहले समझाइए, मैं डरा हुआ क्यों हूँ?'
तुम्हें यह समझना है कि तुम डरे हुए क्यों हो या तुम्हें डर से आज़ादी चाहिए, बोलो? डर से आज़ादी चाहिए तो अब समझने की कोशिश छोड़ो। जो बोल रहा हूँ करो, जाकर लड़ जाओ! डर से आज़ाद हो जाओगे।
लेकिन अक्सर जो चिन्तक होते हैं, उन्हें उस चीज़ से आज़ादी नहीं चाहिए जिसका वो चिन्तन कर रहे हैं। बताओ क्यों? क्योंकि अगर चिन्तन के विषय से आज़ाद हो गये, तो चिन्तक कैसे कहलाएँगे? चिन्तन करने के लिए चिन्तन का विषय बना रहना तो ज़रूरी है न। तो हम आज़ाद होना ही नहीं चाहतें।
एक गज़ल थी, वो कुछ-कुछ इसी किस्म की थी, वो याद नहीं आएगी। वो यही था कि जब तक आप मिले नहीं थे तब तक बेहतर था। हर समय आपको सोचते तो रहते थे — और सोच पर तो हमारा पूरा कब्ज़ा है ─ जो चाहते थे सोचते थे। क्या खुशबूदार, रंगीन सोचें होती थीं। अब आप मिल गये हो, आप सामने हो तो सोचा नहीं जाता।
समझ में आ रही है बात?
तो तुम मानसिक तौर पर मज़े लेते रहो, अपने ही हिसाब से, कुछ भी काल्पनिक गढ़ के, इसके लिए ज़रूरी है कि तुम जिस चीज़ के मज़े ले रहे हो — पहले एक समस्या थी, क्या समस्या थी? आप दूर हैं। आप दूर हैं, तो हम क्या कर रहे हैं? आपकी कल्पना कर रहे हैं — वो समस्या बनी रहे, माने दूरी बनी रहे। दूरी बनी रहे तो सुविधा रहती है। क्या सुविधा रहती है? सोचो, मज़े में सोचो। समस्या बनी हुई है और हम अभी समस्या को हल करने में लगे हुए हैं और बहुत मज़ा आ रहा है समस्या को हल करने में। हम चाहते हैं समस्या बनी रहे।
समाधि का मतलब है सब समस्याओं का समाधान हो गया। अब सोचोगे कैसे? समाधि नहीं मिलती, इसकी वजह यही है — समस्या में मज़ा आने लग जाता है; और कोई वजह नहीं है। अन्यथा समाधि तो स्वभाव है।
पूछो नहीं कि ये है क्या, ये है क्या? ये मैं उनसे कह रहा हूँ जो बहुत ज़्यादा पूछते हैं। जो बिलकुल नहीं पूछते हैं उनसे मैं कहता हूँ, ज़रूर पूछो। हर एक से अलग-अलग बात की जाती है। जिसके लिए जो ज़रूरी है उससे वो कहा जाता है। जिन्होंने आदत बना ली है न बस सवाल-जवाब करने की, यह श्लोक उनके लिए है। श्लोक उनसे कह रहा है, ‘बहुत हो गयी ये बातचीत! उतरो, करो, पूछते ही नहीं रहो 'मुक्ति क्या होती है, मुक्ति क्या होती है।' बन्धन काटो।
अब मुक्ति क्या होती है, ये पूछना सस्ता काम है। बैठ गये आराम से ऐसे ─ 'मुक्ति क्या होती है?' अब मेहनत भी करें तो गुरुदेव करें समझाने की कि मुक्ति क्या होती है। ये अपना बैठ गये आराम से कुर्सी में ─ मुक्ति क्या होती है? बढ़िया सवाल पूछा है, 'मुक्ति क्या होती है?' सोचे जा रहे हैं, मुक्ति क्या होती है, मुक्ति क्या होती है। इसका जवाब एक पंक्ति में है। ये रहा औज़ार, बंधन काटो, बन्धन काटो। बन्द करो पूछना कि मुक्ति क्या होती है, बन्धनों पर काम करो।
ये अध्यात्म है ─ बन्द करो इधर-उधर की बातें, काम करो। समझ गये न कि मुक्त नहीं हो, बस इतना काफ़ी है। उसके आगे कोई सवाल-जवाब आवश्यक नहीं है। ख़त्म करो चिंतन। बैठे-बैठे क्या सोचते रहते हो? काम करो!
‘अभी मैं पूरे तरीक़े से बस, अभी बस थोड़ा-सा, अभी न निश्चित नहीं हो पा रहा है, श्योरनेस (आश्वस्ति) थोड़ी कम है।’ वो हमेशा थोड़ी कम रहेगी भाई। (दोहराते हुए) हमेशा थोड़ी कम रहेगी। तुम अगर उसके पूर्ण होने की प्रतीक्षा कर रहे हो तो करते रह जाओगे।
तो ब्रह्म माने क्या? ब्रह्म माने न खाना, न पीना, न समोसा, न इडली, न आदमी, न औरत, न बच्चा, न बूढ़ा, न देवता, न देवी। ब्रह्म माने मन की बेचैनी का अन्त। तो ब्रह्म को सिद्धान्त बोलना चाहो तो बोल सकते हो सिद्धान्त। पर सिद्धान्त बहुत मुर्दा-सी बात लगती है। और मन है हमारा जीवन। और जो चीज़ हमें जीवन दे, उसको एक मुर्दा सिद्धान्त बोलना कोई अच्छी बात नहीं होगी।
फिर तो ब्रह्म उपासना का विषय हो जाता है न?
यहाँ (सिर की ओर इशारा करते हुए) जितनी भी बीमारियाँ हैं, उन बीमारियों के अन्त का नाम है ब्रह्म। और ब्रह्म को याद करने का अर्थ होता है — इस बात में अपनी श्रद्धा अभिव्यक्त करना कि बीमार रहना ज़रूरी नहीं है, बीमारियाँ समाप्त हो सकती हैं।
समझ में आ रही है बात?
नहीं तो फिर तो मन है बस — मन, मन, मन, मन। तुम अगर खुश हो जैसा चल रहा है मन, तो फिर ठीक है जैसा चलता है जीवन, चले। लेकिन जिन्हें आगे बढ़ना है, जो जीवन से और कुछ ऊँचा चाहते हैं, उनके लिए ब्रह्म आवश्यक हो जाता है।
मन की विरल ऊँचाई का नाम है ‘ब्रह्म’। विरलता समझते हो न? रैरिफाइड। जहाँ पर चीज़ कैसी होने लगे? यानी मन जितना ऊँचा उठता है उतना विरल होता जाता है, उतना रैरीफाइड होता जाता है, कम होता जाता है। मन जब एकदम ही कम हो जाता है, तो मन की बीमारी एकदम ही कम हो जाती है। उसको कहते हैं, ‘ब्रह्मलीनता' या ब्राह्मी-स्थिति।
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