जीवन को खुद जानो || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

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जीवन को खुद जानो || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

वक्ता: तुम्हें किसने कह दिया कि बाहर से जो आ रहा है, इसके दो प्रकार होते हैं, अच्छा और बुरा?

श्रोता: ये ही सिखाया गया है, सर।

वक्ता: किसने, बाहर से?

श्रोता: बाहर से ही तो सीखेंगे।

वक्ता: तो वही तो कह रहा हूँ,

मूल अंतर बस दो हैं- ‘ बाहर और भीतर ।’

तुम्हें तो जो सही और गलत भी पता है, अच्छा और बुरा भी पता है, वो किसी बाहर वाले ने तुम्हारे मन में ठूस दिया है। ऐसा ही तो हुआ है न? बता दिया गया, सदा सच बोलो, हिंसा मत करो, झूठ न बोलो, चुरा के मत खाओ और वो तुम दिन रात करते हो।

( सब हँसते हैं)

दिन –रात इसीलिए करते हो क्योंकि बाहरी है, तुम्हारी अपनी समझ से नहीं निकला। बाहरी है न? तो जो कुछ बाहर से आया है, वो बाहर ही रह भी जाता है। हाँ, तुम दावे बड़े करोगे कि मेरे धर्म में लिखा है, ऐसा-ऐसा करना चाहिए। दावे कर लोगे पर वो तुम्हारा जीवन कभी नहीं बन पाएगा। जीवन तुम्हारा ऐसे ही रहेगा, उलझा-उलझा। बाहर से हर बच्चे को सिखाया जाएगा, हिंसा मत करो और दुनिया भरी हुई है उन लोगों से जो खून कर रहे हैं, क़त्ल कर रहे हैं, बलात्कार कर रहे हैं।

सब बच्चे थे और सबको सिखाया गया था कि हिंसा मत करो, सब बाहरी है बेटा। जितना बाहर से तुम्हें सिखाया जाएगा, जीवन में कभी काम नहीं आएगा, ये सिर्फ जीवन में उलझनें दे सकता है।

श्रोता: करें क्या सर?

वक्ता: जानो, खुद जानो न।

श्रोता: सर, 83लाख योनियों के बाद ये शरीर मिला है।

वक्ता: कैसे पता? पढ़े-लिखे हो, विज्ञान पढ़ रहे हो, इंजीनियरिंग पढ़ रहे हो, कहीं कुछ लिखा हैं तुमने मान लिया?

श्रोता: सर, वही तो हमें किया गया है ऐसा।

वक्ता: किया गया है! तुम कहाँ हो? वो कर रहा था, यहाँ तक मैंने मान लिया कि बाहर वाला तुम्हारे मन में कोई धारणा घुसेड़ रहा था, तुमने घुसने क्यूँ दी?

श्रोता: सर, गुरुत्वाकर्षण है, ‘न्यूटन’ ने बता दिया है।

वक्ता: गुरुत्वाकर्षण, न्यूटन ने बता नहीं दिया है। प्रयोगशाला है, तुम खुद जा कर नाप सकते हो, उसने बता भर नहीं दिया है।

श्रोता: 9.8 कैलकुलेट हम कर ही नहीं सकते।

वक्ता: अभी कर लो, ये किताब है, इसको उछालो यहाँ तक और कोई नाप ले कि कितने देर में नीचे आ रही है और लगा लो सीधे-सीधे फार्मूला, कौन-सा?

श्रोता: 9.8 एक्सैक्ट्ली नहीं आता है सर, मूल्य बदल जाता है।

वक्ता: अरे! मूल्य बदलेगा ही, वो इस बात पर निर्भर करती है कि किस लेटिट्यूड पर हो। गुरुत्वाकर्षण का मूल्य तो बदलेगा ही।

श्रोता: बाहर से आ रही है न सर?

वक्ता: अरे! वो भी तुम पता कर सकते हो, खुद जानो। विज्ञान का आधार है प्रयोगशाला, वो इसीलिए है कि खुद जानो, इसलिए थोड़ी है कि मान लिया। पर तुम्हारा दोष नहीं है, तुम्हारी शिक्षा ऐसी रही है कि दे दिया गया, लो पीलो।

श्रोता: ये ही कारण है न, ‘लेट द सब्सटिट्यूट बी x ‘ मान लो सर।

वक्ता: वो तुम कहते हो, वो तुम कह रहे हो कि मान लो ‘abc एक ट्रायंगल है’। वहाँ पे तुमने अपने जानते-बूझते कहा है कि ‘abc एक ट्रायंगल है।’ वो अलग बात है कि मैं खुद ही कह रहा हूँ कि मान लो ऐसा है। अब, मुझे धोखा नहीं हो सकता क्यूँकी मैंने खुद ही कहा है।

पर ये बात बिल्कुल भी ठीक नहीं है कि विज्ञान तुम से कहती है कि आँख मूँद कर के मान लो, विज्ञान कहती है कि प्रयोग करो और खुद जानो, तुम क्यों माने पड़े हो? क्यों माने पड़े हो? गणित में थ्योरम होता है, तो उसके नीचे उसका प्रूफ़ होता है, भाई। ये थोड़ी कह दिया जाता है कि थ्योरम है, देव-वाणी है, आकाश-वाणी, ब्रह्मा के मुँह से वेद निकला है चुप-चाप मान लो।

( सब हँसते हैं)

नीचे प्रूफ़ लिखा होता है।

श्रोता: सर, जितनी भी थ्योरम हैं, वो किसी व्यक्ति ने दिया चाहे हेनरी ने दिया या थॉमस ने दिया वो भी तो मौजूदा को ले करके ही आगे बढ़ता है न?

वक्ता: जो भी मौजूदा है, उसका प्रमाण मौजूद है और प्रमाण के बिना विज्ञान कुछ नहीं स्वीकार करता।

श्रोता : सर, जो गीता में लिखा है उसको मानें या नहीं?

वक्ता: सुनो बात मेरी। जीवन तुम्हारे सामने उपलब्ध है खुद जानने के लिए। अपनी आँख साफ नहीं है, तो मैं गीता का अर्थ भी कैसे जान पाऊँगा। तुम्हें पता है, गीता की कितनी अलग-अलग व्याख्याएँ हैं? गीता की सैकड़ों अलग-अलग व्याख्याएँ हैं और वो एक दूसरे से विपरीत अर्थ देती हैं।

भक्ति वाले बोलते हैं, ये भक्ति योग का ग्रन्थ है, ज्ञान वाले बोलते हैं न, भक्ति बिल्कुल नहीं हैं, ज्ञान है, कोई बोलता है कर्म है सिर्फ इसमें और कोई बोलता है कुछ भी नहीं है। गाँधी बोलते थे, महाभारत कभी हुई ही नहीं, ये सब काल्पनिक है, गीता मेरी माँ है, पर ये सब काल्पनिक है। तुम्हें कैसे पता उनमें से कौन-सी व्याख्याँ उचित है?

जब-तक कि तुम खुद न जानों। तुम्हें कैसे पता कि कौन-सी व्याख्याँ उचित है? तुम खुद भी कुछ जानोगे? तुम निश्चित रूप से किसी न किसी का लिखा हुआ व्याख्याँ या अनुवाद पढ़ रहे हो, सही? ऐसे ही पढ़ते हो न गीता को? तुम निश्चित रूप से किसी न किसी का लिखा हुआ अनुवाद या व्याख्याँ पढ़ रहे हो और तुम्हें कैसे पता कि वो बात ठीक है?

कृष्ण ने एक बात कही कृष्ण से एक मनोस्थिति में, मैं तुमसे कुछ कहूँ वो समझने के लिए, तुम्हारा ध्यान में होना आवश्यक है? ठीक, मान लिया, कही कृष्ण ने।अभी समझ कौन रहा है? क्या काबीलियत है तुममें समझने की? पर बात कर रहे हैं, गीता की।

अपनी ज़िंदगी का होश नहीं, बात कर रहे हैं, कृष्ण ने क्या कहा? कृष्ण ने कहा अपनी ऊँचाई से, बिल्कुल पर्वत पर बैठ कर और तुम रह रहे हो घाटियों के कीचड में और तुम कह रहे हो कृष्ण ने कहा।कृष्ण ने कहा होगा, तुममें समझने की काबिलियत है? जब तक तुम, ‘तुम’ हो, कृष्ण को समझ कैसे पाओगे?

तुम हो भटके हुए, कृष्ण ने जो कहा, क्या किसी से सुनके कहा था? कृष्ण ने जो कहा, क्या उन्होंने कोई बात रटी-रटाई दोहरा दी थी? कृष्ण तो कह रहे हैं, अपनी प्रतीति से, उनकी अपनी निष्पत्ति है और तुम दोहरा रहे हो कृष्ण को। देखो कि कृष्ण में और तुममें कितना अंतर है? और जब इतना अंतर है तो तुम कृष्ण को समझ कैसे पाओगे? कुछ भी समझने के लिए, अपनी आँख तो साफ होनी चाहिए न? फिर ये ही कारण है कि गीता के हजार अर्थ निकाले जाते हैं।

हिटलर का प्रचार-प्रसार मंत्री था, गोएबल्स। या गोएबल्स का है या तो हिमलर का है, हिटलर के साथ था। उसने कहा था, गीता हम जर्मन्स के लिए बड़ी कीमती है, पूछा गया, क्यूँ? बोलता है इसमें लिखा गया है, सोचो ही मत, बस मारो।

( सब हँसते है)

और किसको मारो? अपने ही भाई-बंधुओं को मारो। अपने ही साथ के लोगों को मार दो, बोलता है, जर्मनी में हम इसका खूब इस्तेमाल कर रहे हैं।

तुम जैसे होगे, तुम गीता का वही अर्थ निकाल लोगे। गीता का अर्थ निकाल सको, ये काबीलियत है तुम्हारे पास? वो आँख साफ कर ली अपनी? बात करोगे गीता की। मैं कह रहा हूँ अपना जीवन देखो पहले, अपनी आँख साफ करो, फिर पढ़ना गीता, तब तुम्हें उसमें कुछ मिलेगा भी।

अभी तो ऐसा ही है कि छोटा-सा बच्चा जाए और गीता पढ़े और बोले, “’भ’ से ‘भ’ ‘ग’ से ‘ग’, भगवद्गीता।” उसको इतना ही समझ में आएगा और गीता में भी ‘ग’ वो ऐसे बनाएगा उल्टा, हॉकी की स्टिक की तरह। कुछ भी समझने के लिए पहले मन तो अपना परिपक्व होना चाहिए न? उस मन की परिपक्वता को पाओगे पहले? या सीधे निशाना साधोगे गीता पर? लेकिन मज़े की बात ये है कि जो जितना अपरिपक्व होता है, वो उतना सुनी सुनाई बातों पर यकीन करता है।

वो वेदों की बात करेगा, वो गीता की बात करेगा, वो तमाम ग्रंथों की बात करेगा और वो सारी बात इसीलिए करेगा क्योंकि उसके पास अपनी आँख नहीं है। वो सारी बातें इसलिए करेगा क्योंकि उसके पास अपनी आँख नहीं है।जिसके पास अपनी दृष्टि होगी, वो जीवन को साफ़-साफ़ देखेगा, उपलब्ध है , वो क्यूँ इधर-उधर कहेगा कि इसने क्या कहा, उसने क्या कहा?

अरे! जीवन तुम्हारा है, जैसे जीवन उसने जीया, वैसे ही तुम भी जी रहे हो, अपनी आँख खोलो और देखो, सुबह से शाम तक क्या करते हो? उपलब्ध है और जब अपनी आँख साफ़ हो जाएगी, तब तुम्हें गीता भी मज़ा देगी क्योंकि तुम तब समझ पाओगे कि अच्छा, ठीक, जो कृष्ण ने कहा, वो मैंने भी जाना।

जो कृष्ण ने कहा, वो बात ठीक कही होगी, क्यूँ? क्यूँकि वो बात मैंने भी जानी है, तब कुछ बात बनेगी। समझ रहे हो? अपने जीवन को देखो ध्यान से, आँख साफ रखो, अपने मन को समझो फिर कहीं और उतरना। इधर-उधर इतनी जल्दी बहक मत जाया करो।

‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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