प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, धर्म माने क्या?
आचार्य प्रशांत: धर्म का मतलब है मुक्ति की ओर बढ़ते रहना। अमुक्त हो तुम यही तुम्हारी धारणा है। धर्म का मतलब है अपनी मूल धारणा के विलय की ओर बढ़ते रहना। हमारा जीवन गवाही देता है इस बात की कि हम अपनेआप को दुख में पाते हैं, मजबूर पाते हैं, है न। तो धर्म का मतलब है जो तुम्हारी मजबूरियाँ हैं, जो तुम्हारे मूल दुख हैं उनको हटाने की दिशा में आगे बढ़ो, यही धर्म है।
कोई बहुत गहरी चीज़ थोड़े ही देखनी पड़ती है आदमी को, गुरु का काम है तुम्हें वो दिखा देना जो सामने ही है पर जिसकी तुम उपेक्षा करते रहते हो। you are not missing the secret, you are missing the obvious (आप रहस्य को नहीं चूक रहे हैं, आप स्पष्ट को चूक रहे हैं) , पोस्टर तो लगाए हुए हो, मतलब आजतक नहीं समझे। गूढ़-गुप्त सत्य की तलाश कर रहे हो, सात आसमानों के पार वाला सत्य और ये तो कभी पूछा ही नहीं कि ये कोट कहाँ से आया। नहीं, ये तो बड़ी छोटी बात है, हमें तो बड़ा वाला सत्य चाहिए! छोटी-छोटी बातें भी तो पूछ लिया करो।
‘बुल्लेशाह असमानी उ पड़या, घर बैठे नू पड़या ही नहीं’, घर में क्या चल रहा है ये देख लो आसमानी बातें तो ठीक हैं, नाद और ब्रह्मनाद।
प्र२: आचार्य जी, वो कम उम्र में ऐसी चीजों का एक्सपोज़र हो गया, मतलब ओशो को सुन लिया तो हवाई बातें, तो बस फ़िर सब ये, मतलब मैं क्या कमाना, क्या करना बस..
आचार्य: आ.. हहा.. क्या कमाना, बेटा क्या कमाना भी सिर्फ़ इसलिए बोल रहे हो क्योंकि कोई और कमा के दे रहा है, ऐसा नहीं है कि तुम्हें पैसा नहीं चाहिए, तुम्हें बस मेहनत का पैसा नहीं चाहिए। अन्तर समझना, सन्यास में और नवाबी में अन्तर क्या होता है। सन्यास कहता है पैसे की आवश्यकता से ही मुक्त हो गए, सन्यास कहता है पैसे कि आवश्यकता से मुक्त हो गए और नवाब कहता है कमाने की आवश्यकता से मुक्त हो गए। इन दोनों बातों में जमीन-आसमान का अन्तर है, तुम्हें पैसा तो चाहिए बस तुम्हें कमाना नहीं है।
प्र३: आचार्य जी, मैं अभी कोर्ट में प्रैक्टिस करता हूँ, छोटे-मोटे बेल (ज़मानत) के, सुपरदारी के केस मिल जाते हैं तो मैं देखता हूँ कि गरीब है तो मैं लेता ही नहीं, मैं कहता हूँ मुझे क्या दिक्कत है।
आचार्य: तुम इसलिए नहीं लेते तुम घर आओगे तो रोटी तुम्हें तब भी मिलेगी।
प्र: हाँ, इसलिए नहीं लेता, तो ये लेना चाहिए?
आचार्य: तुम्हें अगर पता हो कि रोटी तभी मिलेगी जब कमाओगे तब भी तुम अपनी दरियादिली बरकरार रख सको तो मानेगें तो बड़े दानी हो, ये कौन-सा दान है? ये दान तो तुम्हारे पिता जी ने नहीं किया है किया, ये दान तो तुम्हारे पिताजी ने किया है। तुम कमाकर नहीं ला रहे और फ़िर घर पर आकर कह रहे हो मैं तो कुछ कमाता नहीं पिताजी; खर्चा तुम करोगे तो वास्तव में फिर दान कौन कर रहा है — पिताजी कर रहे हैं।
ये कोई अध्यात्म नहीं होता कि पुरखों की ज़ायदाद किसलिए है, हाँ.. बाप और ताऊ काहे के लिए कम रहे हैं, हमारे ही तो लिए, हमारा क्या काम है, हम रथ लेकर के दिग्विजय पर निकले हैं, भारत भ्रमण करेंगे। हाँ.. साधना में अहंकार जलाया जाता था, यहाँ पेट्रोल जलाया जा रहा है।