जीवन के सुख-दुःख क्या भाग्य पर निर्भर करते हैं

Acharya Prashant

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जीवन के सुख-दुःख क्या भाग्य पर निर्भर करते हैं

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, पिंगला गीता में श्लोक क्रमांक १८ से २१ से प्रश्न है।

श्लोक कहते हैं:

“संसार में विषयों की तृष्णा से जो व्याकुलता होती है, उसी का नाम दुःख है, और उस दुःख का विनाश ही सुख है। उस सुख के बाद (पुनः कामनाजनित) दुःख होता है। इस प्रकार बारम्बार दुःख ही होता रहता है।” (१८)

“सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख आता है। मनुष्यों के सुख और दुःख चक्र की भाँति घूमते रहते हैं।” (१९)

“इस समय तुम सुख से दुःख में आ पड़े हो। अब फिर तुम्हें सुख की प्राप्ति होगी। यहाँ किसी भी प्राणी को न तो सदा सुख ही प्राप्त होता है और न सदा दुःख ही।” (२०)

“यह शरीर ही सुख का आधार है और यही दुःख का भी आधार है। देहाभिमानी पुरुष शरीर से जो-जो कर्म करता है, उसी के अनुसार वह सुख एवं दुःख रूप फल भोगता है।” (२१)

पिंगला गीता से श्लोक १८ से २१ तक ‘देहाभिमान’ और ‘विषयों में तृष्णा’ की व्याकुलता को ही दुःख का आधार बताया है। आमतौर पर मेरे जीवन के सभी चुनाव शरीर को केंद्र में रख कर ही होते हैं। कृपया देहाभिमान को नष्ट करने की प्रक्रिया बताएँ।

आचार्य प्रशांत: नहीं, नहीं, शरीर किसी का केंद्र नहीं होता। केंद्र तो सबका एक ही होता है, उसका नाम है ‘अहंकार’। ‘अहम’, ‘मैं’ केंद्र होता है। फिर आप उस ‘मैं’ के आगे जो पूँछ बाँधना चाहें, बाँध दें। ‘मैं शरीर हूँ’ कह दें, ‘मैं पदार्थ हूँ’, ‘मैं सुखी हूँ’, ‘मैं दुःखी हूँ’, ‘मैं आत्मा हूँ’ — जो कह दें, पर केंद्र तो सदा ‘मैं’ ही होता है — ‘मैं’।

अब ये जो ‘अहम’ है — ‘मैं’ — ये बेचारा बड़ी विचित्र चीज़ है। ये हमेशा कुछ-न-कुछ करता रहता है — बेचैन है, परेशान है। क्यों परेशान है? क्योंकि जैसा हमने कहा, इसकी स्थिति बड़ी विचित्र है — न तो ज़मीन का है, न आसमान का है, न घर का है, न घाट का है। शरीर न हो तो अहम की कोई सगुण साकार सत्ता न होगी। तो अहम कह नहीं पायेगा कि ‘मैं ऐसा हूँ, मैं वैसा हूँ’ क्योंकि जब भी अहम कहता है कि ‘मैं ऐसा हूँ’ या ‘वैसा हूँ’ तो जो ‘ऐसा’ और ‘वैसा’ होते हैं, इनका ताल्लुक हमेशा संसार से होता है। संसार माने जो सगुण और साकार है। तो इस अहम को अपनी हस्ती को बचाए रखने के लिए संसार चाहिए ही चाहिए। और संसार है निरा पदार्थ, एकदम जड़, अतिस्थूल। तो अहंकार को स्थूलता चाहिए ही अपनेआप को बचाने के लिए। सिर्फ ‘मैं’ थोड़े ही बोलता है कभी अहंकार। अहंकार बोलता है न, ‘मैं कुछ हूँ’। ये जो ‘कुछ’ है, ये आमतौर पर कोई बड़ी स्थूल-सी ही चीज़ होती है। तो वो चाहिए अहम को। दूसरी ओर अहम जब वो स्थूल चीज़ से बंध जाता है तो भड़भड़ाता है, परेशान रहता है क्योंकि तलाश उसे किसी अतिशय सूक्ष्म वस्तु की है।

अहम ऐसा है जैसे गैस का गुब्बारा बंधा हुआ है नीचे ज़मीन से। किसी कील में उस ग़ुब्बारे की डोर बाँध दी गयी है या किसी बच्चे के हाँथ में है, आदमी-औरत के हाँथ में है, लेकिन दिशा उसकी आकाश की ओर है। तो एक तनाव रहेगा हमेशा रस्सी में। ज़मीन से उसका नाता तनाव का रहता है। देखा है न, गैस का गुब्बारा जब भी आपके हाँथ में होता है तो डोर में सदा एक तनाव होता है। अहम का रिश्ता संसार से सदा तनाव का होता है, क्योंकि संसार के साथ वो विश्राम में तो बैठ सकता नहीं और जाना उसे ऊपर है, गुब्बारे को। ऊपर वो पहुँच नहीं पा रहा, तो बस ऊपर की ओर मुँह करे बैठा रहता है। ऐसे ही हम हैं। हम भी शान्ति की ओर, किसी आखिरी चैन की ओर, समाप्ति की ओर, मुँह करे लालाहित बैठे रहते हैं। आतुर आँखों से ताकते रहते हैं कि कभी तो वो अंतिम बिंदू आएगा, कभी तो वो घड़ी आएगी जब जी ठंडा हो जाएगा। वो आती नहीं।

तो अहम ऐसा है, नीचे उसके ज़मीन, ऊपर उसके आसमान, बीच में गैस का गुब्बारा, जो बंधा हुआ है ज़मीन से। अब उसकी समस्या ही यही है कि वो बंधा हुआ है, ठीक? नीचे जो चीज़ है, उसके लिए वही उसकी समस्या है —‘स्थूलता’ का तल। तो आपको अभी तीन तल दिखाई दे रहे होंगे। एक ज़मीन का, जहाँ वो खूँटी गढ़ी है, जिससे गुब्बारा बंधा है। दूसरा तल है गुब्बारे का, जो बीच मे है त्रिशंकु की नाईं। तीसरा तल दिखाई दे रहा होगा आकाश का। ये तीन तल हैं। जो ऊपर है, वो सूक्ष्म-अतिसूक्ष्म है। जो बीच वाला है, वो धोबी का कुत्ता है। वो फँसा हुआ तल है। थोड़ा नीचे का है, थोड़ा ऊपर का है। हाँ, ये पक्का है कि नीचे वो बंधे रहना चाहता नहीं। और सबसे नीचे जो तल है, वो तो अतिस्थूल है। वो जो अतिस्थूल तल है, उसी को देह कहते हैं, उसी को संसार कहते हैं —देह-मिट्टी, संसार-मिट्टी।

संसार से देह उठती है — दोनों भौतिक हैं, दोनों ही पार्थिव हैं। अब आप समझिए कि बात क्या है। अहम को चैन चाहिए। बेचैनी का कारण ये है कि वो बंधा हुआ है ज़मीन से। अब अगर बेचैनी का कारण ये है कि वो ज़मीन से बंधा हुआ है, तो क्या उसको चैन और ज़्यादा ज़मीन में लोट कर मिलेगा? तो अहम है बीच में, नीचे है देह, ऊपर है मुक्ति। और अहम को चाहिए चैन। उसी चैन को चलिए हम कह देते हैं ‘सुख’। जो आखिरी चैन हमें चाहिए, उसको अभी इस वार्ता के संदर्भ में हम कह देते हैं ‘सुख’। और सुख पाना कोई अपराध नहीं हो गया। बस मूर्खतापूर्ण सुख पाने की कोशिश अपने प्रति अपराध है। मूर्खतापूर्ण सुख को ‘सुख’ कहते हैं, और होशियारी से जो सुख पाया जाए, उसी के लिए फिर दूसरा शब्द बनाना पड़ता है — ‘आनंद’।

अब ये जो बीच में गुब्बरा है, इसको सुख चाहिए। बढ़िया बात है कि सुख चाहिए। सुख पर सबका हक है। सुख में कौन-सी बुराई है, भाई? लेकिन जो तुम्हारे दुःख का कारण है, तुम उसी के पास बार-बार जाओ और सोचो कि सुख मिल जाएगा, तो तुम पगले हो। गुब्बारे के दुःख का कारण है — ज़मीन से उसकी जो ज़ंजीर बंधी हुई है। वो उसी ज़ंजीर को बांधे-बांधे ज़मीन में और लोटे, पाँच-सात तरीकों से और अपने लिए बंधन पैदा करे, तो ये पागलपन है। तो इसलिए देहाभिमान बुरा बताया जाता है क्योंकि भाई तुम देह को साधन की तरह इस्तेमाल कर रहे हो, सुख पाने के लिए। जबकि तथ्य ये है कि तुम्हारे दुःख का कारण ही ‘देहबद्धता’ है। जो तुमको तकलीफ़ दिए जा रहा है, तुम इस आशा में बैठे हो कि उसी के माध्यम से तुम सुख पा लोगे, ये पागलपन है न। इसीलिए मना करा गया है कि इतना शरीर-भाव मत रखो। शरीर में अपनेआप में कोई बुराई नहीं है, न तुम्हारी अनंतसुख की कामना में कोई बुराई है। बुराई तब है जब तुम ये दोनों को मिला देते हो। जब तुम अपने सुख की पूर्ति की कामना करना चाहते हो देह को साधन बना के, देह को माध्यम बना के — नहीं होगा बाबा! देह के माध्यम से नहीं मिलेगा। तुम्हें जिसके माध्यम से मिलेगा, उसको तुम जानते हो। उसकी ओर तुम वैसे ही मुँह करके खड़े हो। नज़रें तुम्हारी आसमान की ओर है, गुब्बारे हो तुम गैस के। तो सुख तुमको मिलना ऊपर है, और बार-बार तुम लोटने पहुँच जाते हो नीचे — ये पागलपन है, ये मूर्खता है। देह से वो उम्मीद मत रखो जो देह नहीं पूरी कर सकती। देह और अपने नाते को ध्यान से समझो, उसके बाद देह तुम्हारे लिए दुःख का कारण नहीं बनेगी।

आशय क्या है मेरा इससे? तो अब गुब्बारा बेचारा अटका हुआ है। ज़मीन से डोर उठ रही है और उसको बाँधे हुए है, वो आकाश तक पहुँच ही नहीं पा रहा। तो उसको ज़मीन पर आना तो पड़ेगा, पर ज़मीन पर इसलिए आना पड़ेगा ताकि वो नीचे आए और यहाँ जो गाँठ है, उसको खोल दे। बहुत फर्क है — ‘नीचे आने’ और ‘नीचे आने’ में; संसार में जीने में और संसार में; ज़माने से एक तरह का सम्बंध रखने में और ज़माने में बस ही जाने में। जो होशियार व्यक्ति होता है, वो भी ज़मीन से ताल्लुक रखता है, पर वो ज़मीन से ताल्लुक इस तरह रखता है कि ज़मीन में उसने अपने लिए जितने भी बन्धन, जितनी भी तकलीफें पैदा कर रखी हैं, उनको वो खोल सके।

सोचिए, गुब्बारा होशियार हो गया और गुब्बारा झुक गया, नीचे आया। गुब्बारे ने कहा, “ऐसे में अगर मैं ऊपर की ओर ही मुँह फाड़े बैठा रहूँगा तो मुक्ति मिलने से रही — तो मैं ज़रा कुछ अकल लगता हूँ”। उसने क्या अकल लगाई? उसने अकल लगाई कि चलो नीचे चलते हैं। नीचे आते हैं, देखते हैं कि डोर बंधी कहाँ हुई है। जहाँ डोर बंधी है, उसको खोल देते हैं, या किसी से सहायता माँग लेते हैं, या कोई औज़ार पकड़ लेते हैं जिसके माध्यम से डोर काटी जाए। कुछ तो करें नीचे जाकर, ऐसे अटके रहने से क्या मिल जाना है?

ये रिश्ता होता है आध्यात्मिक आदमी का दुनिया के साथ। वो दुनिया का इस्तेमाल करता है, दुनिया के पार जाने के लिए। जैसे गुब्बारा ज़मीन को आ रहा हो, ज़मीन से आज़ाद होने के लिए। ये रिश्ता होता है आध्यात्मिक आदमी का जगत के साथ। जगत में रहना है इसीलिए नहीं कि जगत को भोगना है; जगत में रहना है गुप्तचर की तरह, जासूस की तरह, जो दुश्मनों के अड्डे में है और देखे कि चल क्या रहा है। “देखूँगा कि यहाँ कौन-कौन सी तैयारीयाँ हैं मेरे खिलाफ। देखूँगा कि यहाँ किस-किस तरीके से मुझे बाँधा जाता है।” अब आप समझ ही गए होंगे कि ‘धर्म’ क्या है। धर्म है जगत को देखना और यह देखना कि किन-किन तरीकों से तुम अबद्ध हो यहाँ पर। पहचान लो जगत की माया को, आज़ाद हो जाओ। यही सम्यक रिश्ता है आदमी का और जगत का।

तुम्हें अंनत सूक्ष्मता चाहिए, वही स्वभाव है तुम्हारा। उसके बिना शांति तो तुम्हें वैसे भी नहीं मिलनी।

जिसे अंनत सूक्ष्मता चाहिए हो, वो पागल है क्या कि वो स्थूल में आकर बार-बार चिपके, लोटे? जो तुम्हें चाहिए, अगर उसके विपरीत काम करोगे और उम्मीद रखोगे शांति की, तो उम्मीद कहाँ पूरी होगी? सुख चाहना, मैं दोहरा रहा हूँ, कोई गलत बात नहीं हो गई। कोई गलत जगह सुख चाहना तो निसंदेह गलत बात है। मिलेगा नहीं, और मिलेगा, तो वैसा ही मिलेगा जैसा इन श्लोकों में वर्णित है। सुख आएगा और उसके पीछे-पीछे बोरी भर के दुःख आ जाएगा।

जो सुख-दुख आएंगे — जैसा कि पिंगला गीता बार-बार समझाती है — वो भाग्य भरोसे आएंगे, और तुम ऐसे ही झूला झूलते रहोगे। भाग्य की लहरों पर तुम्हारी उठा-पटक चलती रहेगी। कभी सुख मिल गया अनायास और कभी अनायास दुःख मिल गया। कोई लाभ नहीं न?

सुख और सुख में जब चयन करना हो तो तरीका समझ लीजिए। देख लीजिए कि आपको कहाँ पर सूक्ष्म सुख मिल रहा है, और कहाँ स्थूल सुख। हमारे पास कई बार निर्णय की घड़ियाँ आती हैं न — दोराहे-चौराहे आते हैं — हमें चुनना होता है कि ये सुख लें कि ये सुख लें। दोनों ही दिशाएं बुला रही होती हैं। एक कहती है कि आओ, सुख है यहाँ, दूसरी कहती है कि आओ, सुख यहाँ है। तो वहाँ पर चुनाव करने की ये विधि है कि देख लो कि सूक्ष्म सुख किधर है। जिधर सूक्ष्म सुख है, उधर ही आपका रास्ता है।

निसर्गदत्त महाराज इसको बड़े प्यारे तरीके से कहते थे। वो कहते थे कि एक होता है ‘देह’ का सुख और एक होता है ‘चेतना’ का सुख — निर्णय साफ है, कौन-सा चाहिए? आध्यात्मिक आदमी ‘सुख’ विरोधी नहीं होता, वो ‘मूर्खता’ विरोधी होता है। वो मूर्खतापूर्ण सुखों का त्याग करता है; वो सूक्ष्म सुखों का पान करता है; उससे ज़्यादा आनन्दित आदमी तो कोई होता ही नहीं। कोई ये न सोच ले कि अध्यात्म में सुख की वर्जना है तो अध्यात्म जैसे दुख-समर्थक हो गया। नहीं-नहीं, अध्यात्म दुखद नहीं होता। अध्यात्म में छोटे सुख की वर्जना है क्योंकि तुम्हारा अधिकार है बड़े सुख पर, तुम्हारी कामना है बड़े सुख की — उससे नीचे हम मानने वाले नहीं है। तो अध्यात्म वही करता है क्योंकि बात बिलकुल सीधी है। जिस चीज़ से नीचे तुम्हें मानना नहीं है, उस चीज़ से नीचे की चीज़ पर निशाना काहे को लगाना? तुम्हें शर्ट आती है ४० की और तुम ऐसी दुकान में घुस जाओ जिसमें कपड़ें मिलते हैं बस बच्चों के। वहाँ बड़ी-से-बड़ी शर्ट का नाप है ३६। ज़िन्दगी भर तुम वहाँ पर खींचा-तानी करते रहो, एक के बाद दूसरी शर्ट आजमाते रहो, दुकानदार से जिरह करते रहो, तो पागल तुम हो कि नहीं हो? और फिर वहाँ से निकलो और सोचो कि दूसरी दुकान आज़माउंगा। जितनी दुकानें हैं सब वो बच्चों के ही बाजार की हैं। उनमें किसी में तुम्हारे नाप की शर्ट मिलनी ही नहीं है। अध्यात्म कहता है कि तुम वहाँ जाओ न जहाँ तुम्हारे नाप की चीज़ मिलेगी। जिससे तुम्हें कुछ तृप्ति भी होगी।

देह को साधन बना कर के जो सुख मिलने हैं, वो सुख बहुत निकृष्ट, निम्न कोटी की गुणवत्ता के होंगे। वो सुख हैं तो सही, पर उनसे पेट नहीं भरेगा, चरमराए से रहोगे सूखे-सूखे से। मैं इनकार नहीं कर रहा हूँ कि देह सुख दे ही नहीं सकती है। देह सुख दे सकती है, पर वो वैसा ही है जैसे चार दिन के भूखे आदमी को प्याज़ रख के दे दो। उसका कितना पेट भरेगा? चार दिन से उसने कुछ खाया नहीं है, और तुमने उसको दे दी डेढ़ रोटी, आधी प्याज़, और चौथाई मिर्च — “खाले!”। वो खा तो लेगा पर छटपटाता ही रहेगा। वैसे ही हमारा हाल है, अनन्त समय से हम छटपटा रहे हैं और देह का सुख ऐसा ही है — सूखी रोटी और प्याज़ जितना। समझ में आ रही है बात?

इसी ‘आशा’ को त्यागना है — यही गांठ है। यही वो डोर है जिसने गुब्बारे की उड़ान को रोक रखा है। ये आशा कि यहीं पर काम बन जाएगा, नीचे-नीचे ही काम बन जाएगा। भाई, तुम गैस के गुब्बारे हो। तुम्हारा काम कैसे नीचे बन जाएगा? तुम्हें प्रवास चाहिए, तुम्हें आकाश चाहिए। नीचे चलना ही नहीं है काम। बहुत दिनों तक तुम अपनी गांठ खोलोगे नहीं तो जानते हो न गैस का गुब्बारा बहुत समय तक बंधा रहता है तो क्या होता है? उसे मौत आ जाती है। बंधे-ही-बंधे उसकी उम्र बीत जाती है। सब गैस निकल जाती है। गैस थोड़े ही बंधन मानेगी, वो उड़ गई, वो आसमान में मिल गई। गुब्बारा पिचक के नीचे आ गया। गैस तो नहीं बन्धन मान रही, चली गयी। या तो गुब्बारा अपने स्वभाव को पहचान के खुद भी उड़ जाए, नहीं तो उसके प्राण उड़ जाएंगे।

तुम मूर्खताएं करते रहो, हंसा नहीं मानेगा तुम्हारी मूर्खताएं। वो तुम्हें कुछ निश्चित समय, एक सीमाबद्ध अवधि देता है कि इतने समय में भइया परीक्षा तुमने उत्तीर्ण कर ली तो ठीक है, नहीं तो हम तो उड़ जाएंगे। गुब्बारा लटका रहा, लटका रहा हफ्ते भर। हफ्ते भर बाद देखा तो बिलकुल पिचकी हालत में नज़र आया, वो भी कहाँ? ज़मीन पर। यही अधिकांश लोगों के साथ होता है। बुढ़ापा आ जाता है, मौत आ जाती है, मुक्ति नहीं आती।

चयन तो हम अपनी नज़र में सदा सुख का ही करते हैं। है न? अच्छी बात है यदि आप सुख को लक्ष्य बना रहे हैं। पर सुखों में जो उच्चतम सुख हो, उसको चुनें। देखें कि ऊंची चेतना कौन-से सुख मानती है, और नीची चेतना कौन-से सुख मानती है। नीचे वालों को ज़रा दूर रखें। उदाहरण के लिए, आप जानते ही हो, ज़मीन के कौन-से बाशिंदे होते हैं। जो सदा ज़मीन से बंधा रहे, जो सदा ज़मीन से पासब्ध्द रहे, उसको पशु कहते हैं। विधि समझिएगा — जब कभी आपके भीतर सुख की चाहत उठ रही हो, अपनेआप से सवाल पूछ लीजिएगा, क्या ऐसा ही सुख पशु भी मांगते हैं? अगर जवाब ‘हाँ’ में आए, तो बाज़ आइए। आप जिस भी सुख के पीछे भाग रहे हैं, थोड़ा सा ठहरिए, अपनेआप से पूछ लीजिए — “क्या ये सुख पशु भी मांगते हैं या तो सीधे-सीधे, या परोक्ष तरीके से? और अगर वो सुख पशु भी मांगते हैं, तो समझ लीजिए कि वो बिलकुल ज़मीन का सुख है। वो बिलकुल समझ लीजिए कि पाशबद्ध लोगों का, पाशविकता का सुख है। वो आकाश का सुख नहीं है। वो सुख हो सकता है आपको आकर्षित कर रहा हो, काम नहीं आएगा आपके। बात समझ में आ रही है?

“किसी को डरा-धमका करके अपना वर्चस्व स्थापित कर लूँ”, इसमें सुख लगता है न? पर ये सुख क्या जानवर भी मनाते हैं या माँगते हैं? बिल्कुल करते हैं। सड़क पर कुत्तों को ही देख लीजिए, उनमें सदा एक नेता बनकर घूम रहा होता है। आपके कमरे में कीड़े हों, छिपकली हों, उनमें भी जो थोड़ी मोटी छिपकली होगी, वो बाकी सब को रगेड़ रही होती है। भई, छिपकली चलिए दूसरों पर अपनी ‘शारीरिक’ समर्थ से धौंस चलाती है। हो सकता है कि आप दूसरों पर धौंस चला रहे हों अपनी ‘बौद्धिक’ सामर्थ्य से या अपनी ‘आर्थिक’ सामर्थ्य से। तो भी आप काम तो छिपकली और कुत्ते वाला ही कर रहे हैं न? तो इसमें आपको जो सुख मिल रहा है, वो स्थूल सुख है, वो पार्थिव सुख है — ये आपके काम नहीं आएगा। इसी तरीके से अपना घर बना लेना, दीवारें खड़ी कर लेना, और उस घर में दूसरों का प्रवेश वगैरह वर्जित कर लेना — ये काम जानवर भी करते हैं न? और जानवर इसमें बड़ा सुख भी लेते हैं। लेते हैं न?

ये बाहर खरगोशों का घर है। और तीन खरगोश ऊपर भी रहते हैं। उन ऊपर रहने वाले तीन खरगोशों को जब भी यहाँ बाहर वाले खरगोशों के घरों में प्रवेश दिलाओ, तो यहाँ नीचे वाले खरगोश क्या स्वीकार करते हैं? नहीं करते न? बाहर वाले को नहीं आने देंगे, “मेरा घर है, मैंने बनाया”। ये अलग बात है कि तुमने बनाया भी नहीं, वो तो संयोग की बात है कि बन गया। पर ठीक है। यही काम अगर आप कर रहे हैं, और इसमें बड़ा सुख मान रहे हैं, कि, “देखो मेरा घर, मेरा भवन तैयार हो गया। अब मैं इसमें रहता हूँ।” दीवारें रचवा दो, बाहर एक खड़ा कर दो पहरेदार, कोई आने न पाए। “मैं रहूँगा और मेरा इसमें कुटम्ब रहेगा”, तो समझ लो कि जिस चीज़ में तुम सुख पा रहे हो, वही चीज़ है जिसमें एक चूहा भी सुख पाता है, जिसमें एक कुत्ता भी सुख पाता है, जिसमें खरगोश भी सुख पाते हैं। ये सुख तुम्हें मिल तो जाएगा, फिर कह रहा हूँ, काम नहीं आएगा। उस घर के भीतर रहोगे और जलते छटपटाते रहोगे। अच्छा तरीका है न? बस ये देखना है कि जिन चीजों में मैं सुख खोज रहा हूँ, उन चीज़ों में पशु भी सुख खोजते हैं या नहीं खोजते। इतने भर से ही ८०-९० प्रतिशत सवाल तो अपनेआप हल हो जाएंगे। यही तरीका लगा देना।

कोई व्यक्ति सामने खड़ा है। उससे तुम तीन तरह के सुख ले सकते हो। तीन तलों की हमने बात करी थी न — एक ज़मीन का तल, एक गुब्बारे का तल और एक आकाश का तल। ऐसे ही तुम्हारे ज़िन्दगी में कोई व्यक्ति आता है, उससे तुम तीन तरह के सुख ले सकते हो। ज़मीनी सुख क्या हो गया? बिलकुल पार्थिव, कि तुमने पकड़ लिया उसकी देह को और तुम्हें लगा कि देह से ही तो इसकी सुख मिल जाना है। लगे काम-क्रीड़ा करने, लगे भोग-विलास करने, या तुमने उसकी देह से कुछ और तरीके के सुख चाहे। जैसे की — “चल भई, तू अपनी देह का इस्तेमाल कर और मेरा घर साफ कर दे”। ये भी है वही। शारीरिक सुख ही ले रहे हो न दूसरे से। ये सबसे निम्न कोटि का रिश्ता है दूसरे से। दूसरा तुम्हारे काम नहीं आएगा। इससे ऊपर के तल का रिश्ता क्या हो सकता है दूसरे व्यक्ति से? देह से सूक्ष्म है विचार, कि तुमने दूसरे से वैचारिक तल पर एक सम्बन्ध बना लिया। कि अब तुम दोनों बैठे हो तो ये नहीं कर रहे हो कि देह-से-देह रगड़ रहे हो, बल्कि बातचीत हो रही है, विचारों का आदान-प्रदान हो रहा है। ये थोड़ा सा ऊंची कोटि का सुख हुआ। एक विद्वतापूर्ण वर्ता होती रहे, वो वार्ताकारों को बड़ा सुख देती है। उनसे पूछना कभी, और वो कहेंगे कि ये जो इसमें सुख है, इस बातचीत में, जो इसमें रस है, वो लपटा-झपटी में थोड़े ही है। और फिर उच्चतम कोटि का सुख हुआ कि तुम उस व्यक्ति के विचारों के पीछे भी जो आत्मा है, जो केन्द्र है, जो मौन है, उस तक पहुँच जाओ। तुम उसकी जड़ तक पहुँच गए; तुम उसके मूल तक पहुँच गए; तुम उसके हृदय तक पहुँच गए। ये उच्चतम रिश्ता हो गया।

सुख पाने के लिए तुम तीनों को साधन बना सकते हो। अब तुम्हें चुनना है कि तुम बनाओगे किसको साधन। तुम चाहो तो दूसरे से सुख पाने के लिए उसकी देह को साधन बना लो — जैसे जानवर करते हैं। तुम चाहो तो दूसरे से सुख पाने के लिए उसकी विचारधारा को, उसकी बातचीत को, उसके व्यवहार को साधन बना लो — जैसा साधारण मनुष्य करते हैं। या तुम चाहो तो दूसरे से सुख पाने के लिए उसके सत को, उसके मौन को, उसकी आत्मा को साधन बना लो। ये तीसरा काम अगर करोगे तो फिर तीसरी कोटि का माने, उच्चतम कोटि का सुख भी पाओगे।

ज़मीन पर रहना है पर आकाश का होकर के। ज़मीन पर रहना है, पर ज़मीन पर घर नहीं बना लेना है। तुम यहाँ एक मिशन पर हो भई, बसने नहीं आए हो। बस तो तुम यहाँ सकते भी नहीं। बसने की कोशिश करोगे तो भी अर्थी तो उठ ही जानी है। बसने यहाँ नहीं आए हो। तुम यहाँ एक काम के लिए आए हो। तुम्हारे पास एक मिशन है, उपक्रम, एक ख़ास प्रयोजन है। वो नहीं भूलना है। रहो यहाँ पर, पर यहाँ के होकर नहीं, अपना वतन याद रखो। क्योंकि वही वतन तुम्हारा है, यहाँ तो चार दिन का ठिकाना है। ऐसे ही बीत जाएंगे।

इसका मतलब ये नहीं है कि यहाँ रहो तो यहाँ रिश्ते नाते नहीं रखने हैं या यहाँ से बेरुखी और बेगानापन रखना है। बात उल्टी है। तुम्हारे पास तो यहाँ एक बहुत बड़ा काम है पूरा करने के लिए, मिशन कहा न हमने। वो कैसे पूरा होगा अगर तुमने ज़मीन के प्रति बेरुखी और बेगानापन रखा? तुम्हें तो पता है कि यहाँ सीमित समय मिला है और उस सीमित समय में ही अपना काम पूरा कर जाना है। तो यहाँ जम कर मेहनत करो — जम कर। तुम यहाँ आराम करने नहीं आए हो, काम करने आए हो। ये है जन्म का मकसद। यहाँ डेरा नहीं डालना है। यहाँ फेरा मार के नहीं बैठ जाना है। यहाँ फटाफट काम निपटाना है। सोना नहीं है। कबीर साहब बोलते हैं, क्या सो रहा है, अभी जल्दी ही वो दिन आने वाला है जब एकदम टाँग लम्बी करके सोएगा — और बहुत लम्बी और बहुत गहरी सोएगा। तो सोने के लिए तो बहुत तुझको अभी समय मिलने वाला है। ये तो जागृति का अवसर है, तू क्यों सोया पड़ा है? काम कर भाई, काम कर, मिशन! घड़ी टिक-टिक-टिक-टिक। बाद में सो लेना। एक पल ऐसा आने वाला है कि फिर तू कहेगा भी कि तुझे जगना है तो तुझे जगने की अनुमति नहीं मिलेगी, तुझे अनिवार्यतः सुला दिया जाएगा। जब तब सो ही लेना है, तो अभी काम कर ले न!

ये रिश्ता होता है आध्यात्मिक आदमी का इस जगत से — जगत उसकी कर्म-भूमि होती है, विश्रामगृह नहीं, हरम नहीं, निद्रालय नहीं — रणभूमि, संघर्षस्थली। सोएंगे तो हम अपने ही घर जाकर, चैन वहीं मिलेगा। यहाँ तो सो भी लेते हो तो कहाँ चैन मिलता है? मिलता है क्या? है कोई जो इस दुनिया में चैन की नींद सो पाता हो, बोलो? चैन की नींद भी आती है तो बस घण्टे-दो-घण्टे की, जिसको हम कह देते हैं ‘सुषुप्ति’। वो भी सबको नहीं नसीब होती, और रोज़ नहीं नसीब होती है। और जिन्हें नसीब होती भी है, वो बस थोड़े ही देर के लिए आती है। नहीं तो सोते समय भी संसार उपद्रव मचाता ही रहता है — कभी ये सपना, कभी वो सपना, कभी ये खलबली, कभी वो खलबली। यहाँ सोने से फायदा क्या जब यहाँ सोते समय भी चैन नहीं मिल रहा। वहाँ सोएंगे न जहाँ पूरा चैन मिलेगा। तो यहाँ कम सोना है। जितनी न्यूनतम आवश्यकता है विश्राम की, बस उतनी पूरी करो यहाँ। यहाँ तो रगड़ दो अपनेआप को। ये देह इसीलिए है, इसको रगड़ दो। बचा के क्या करोगे? जलानी है? बहुत खूब बचा ली, बहुत सारी बचा ली। सुंदर-सुंदर बचा ली, चिकनी-चिकनी बचा ली। जीवन भर उसपर चिकनाई रगड़ते रहे। और बचा कर के फिर क्या किया उसका? — “फूँक दियो जैसे होली रे!” बचा के क्या करोगे? ये तो वैसे भी झड़ ही जाने वाली है। ये स्वंय झड़ जाए, उससे पहले क्यों न हम इसे रगड़ जाएं। आ रही है बात समझ में?

ये है हमारा ज़मीन से सही रिश्ता। बात महीन है, समझिएगा। एक तरफ तो हमें इस ज़मीन से मुक्ति चाहिए, दूसरी तरफ, हमें इसमें ही रम कर के कर्म करना है। ये बात बहुत लोगों को विरोधाभासी लगती है। और आदमी ने इस तरह की बहुत गलतियां करी हैं अतीत में। लोगों ने कहा कि जब इस दुनिया से हमें मुक्ति ही चाहिए तो हम कुछ भी क्यों करें? वो अकर्मण्य हो गए — “दैव-दैव आलसी पुकारा”। वो लगे भगवान की बातें करने, जबकि कुछ नहीं, आलस था उनका बस। तर्क उन्होंने यही दिया कि हम तो जी गुब्बारे हैं, हमारा ठिकाना तो आकाश है, तो हम दुनिया में कुछ करें ही काहे को? पागल, तेरा ठिकाना आकाश होगा, तू आकाश तक पहुँचेगा ही नहीं अगर दुनिया में कुछ नहीं करेगा। गुब्बारा पहुँच जाएगा आकाश तक अगर अपनी डोर नहीं कटेगा? डोर काटना ही पुरूषार्थ है। डोर काटना ही सम्यक कर्म और धर्म है। डोर काटना ही जीवन का प्रयोजन है। और बड़ी मेहनत लगती है। डोर काटना ही साधना है।

ये सब नहीं साधना होती कि बैठ कर के मन्त्र जप रहे हैं और ये सब कर रहे हैं। आजकल साधना के नाम के साथ भी बड़ी बदसलूकी की जा रही है। गुरु लोग आते हैं और कहते हैं कि — “देखो, आज मैं तुम्हें एक साधना दे रहा हूँ। भेंट दे रहा हूँ साधना।” साधना भेंट दी जाने वाली चीज़ है? साधना कमाई जाती है। साधना अपने खून से सींची जाती है। साधना कोई गुलाब का फूल है कि किसी ने भेंट दे दिया तुमको?

ताकि आज़ाद हो सको, इसीलिए खूब काम करना है, जम के काम करना है, जल्दी-जल्दी काम करना है। जो ये नहीं करेंगे, उनको सज़ा ये मिलेगी कि आज़ादी तो नहीं ही मिलेगी, गुब्बारा पिचक और जाएगा। और बड़ा भद्दा लगता है। गुब्बारा जब तक फुलाया नहीं गया हो, तब तक तो फिर भी उसमें एक शोभा होती है, एक संभावना होती है। देखा है? गुब्बारा अभी बस एक सम्भावना भर है, बच्चा भर है, फुलाया ही नहीं गया। तुम उसे हाँथ में लेते हो, कहते हो ‘बढ़िया’, गुब्बारा रबर है अभी। फिर तुम उसे फुला दो, वो फूल गया। अब फूलने के बाद या तो उसको आकाश मिलेगा या तो दुर्गति मिलेगी। तुम देख लो क्योंकि अब तुम फूले हुए गुब्बारे हो। अब तुमको ये सुविधा नहीं मिलेगी कि तुम्हारी हवा निकाल दी जाए और फिर तुम पुनः अपनी पुरानी और मासूम स्थिति को प्राप्त कर लो, वो नहीं मिलेगा। गुब्बारा अब फुला दिया गया है। फिर उसकी दशा देखी है, हफ्ते-दो हफ्ते-चार हफ्ते बाद कैसी हो जाती है? देखा होगा। कई बार घरों में होता है — जन्मोत्सव वगैरह में गुब्बारा लगा देते हैं। और वो टँगा हुआ है। जानते हो किस काम आता है? अगर किसी को याद हो तो। ऐसे फुले हुए और आधे पिचके हुए गुब्बारों पर मक्खियां बैठती हैं बड़े शौक से। मक्खियां उसपर अड्डा मारती हैं। और वो फिर सूखने लगता है, चुसा हुआ सा प्रतीत होने लगता है। झुर्रियां पड़ती हैं, लटकने लगता है। देखे हैं ऐसे गुब्बारे? ये उसको सज़ा मिल रही है। तूने क्यों भरसक प्रयत्न करके आज़ादी नहीं पाई? तू आकाश में होता अभी। ये जो तू अटका रह गया न, इसीलिए अब अपनी दुर्दशा देख। जब पूरा फूला हुआ था तो बढ़िया था, एकदम लगता था गोल-गोल, तना हुआ। और देखो सात दिन बाद, जो तना हुआ था, वो चुसा हुआ हो गया। अधिकांश मानवता इसी गति को प्राप्त होती है। एक चुसा हुआ जीवन।

ये जो तुमको ताकत दी जाती है जवानी में, ये इसलिए है कि इसका इस्तेमाल कर लो और उड़ जाओ। इस्तेमाल नहीं करोगे तो सज़ा ये मिलेगी कि अस्सी साल जिओगे। भक! अस्सी साल जीने से ज़्यादा भयानक कोई सज़ा हो सकती है? अस्सी चुसे हुए साल। और हर बीतते साल के साथ तुम्हारी शक्ल और चुस्ती जा रही है। संसार तुमको चूस रहा है, तुम रसहीन होते जा रहे हो।

तो याद रखना है — सुख ऊपर है, काम नीचे है। नीचे काम करना है, ऊपर आराम करना है। नीचे का तल्ला काम का, ऊपर का आराम का। नीचे आराम नहीं करने का। नीचे आराम? नहीं करने का! नीचे सुख? नहीं खोजने का!

हम यहाँ सुख पाने नहीं आए हैं। हम यहाँ काम करने आए हैं। हम यहाँ अपने बंधन काटने आए हैं। हम यहाँ अपना कर्ज़ा उतारने आए हैं। हम यहाँ मौज मारने नहीं आए हैं। हम यहाँ हैप्पी होने नहीं आए हैं। जो लोग यहाँ सुख की और हैप्पीनेस की तलाश कर रहे हैं, उनसे ज़्यादा अभागा कोई नहीं है। वो ये समझ ही नहीं रहे हैं कि यहाँ आने का तुम्हारा प्रयोजन ही नहीं है सुख। तुम गलत चीज़ माँग रहे हो गलत जगह पर। जैसे कि किसी पगले को अस्पताल भेजा गया हो कि जा और अस्पताल में डॉक्टर से मिल के आ। वो तो पगला ठहरा, वो अस्पताल जाता है, वो अस्पताल के कैंटीन में बैठ कर भरपेट खाता है और वापस आ जाता है। वो भूल ही गया है कि वो अस्पताल में खाने नहीं आया था। वैसे ही हम हैं, हम भूल ही जाते हैं कि हम यहाँ किसलिए आए हैं। हम यहाँ पर भोगने नहीं आए हैं। हम यहाँ पर सुख के लिए नहीं आए हैं। हम यहाँ अपनी चिकित्सा के लिए आए हैं। हमें साधना करनी है, काम करना है भई।

बहुत गलत तरीकों से जी रहे हैं हम। बहुत गलत उम्मीदें पाल रखी हैं। कल्पना कर लीजिए उस पागल आदमी की। वो गया है अस्पताल और वहाँ वो क्या कर रहा है? बैठ गया है कैंटीन में और दना-दन दना-दन खाए जाता है — खाता है और सोता है, खाता है और सोता है, खाता है और सोता है। वहीं घर ही बना रहा है कैंटीन में। कह रहा है कि यहीं रहूँगा, बढ़िया है, खाऊंगा-सोऊंगा, खाऊंगा-सोऊंगा। जितना वो खा रहा है, जितना वो खाकर सोता जा रहा है, उतना उसका पागलपन और बढ़ता, भयानक होता जा रहा है। याद रखा करो कि तुम कौन हो। फिर भूलोगे नहीं कि तुम यहाँ क्यों हो। और फिर एक लाभ ये मिलेगा बड़ा कि जीवन से ये शिकायत विदा हो जाएगी कि ‘यार मज़ा नहीं आ रहा’।

बहुत लोगों को ये कहते सुना है न, ये शिकायत करते हुए — ‘यार, मज़ा नहीं आ रहा’। एक चमाट! उनसे पूछो कि तुमसे ये कहा किसने कि ज़िन्दगी मज़े लेने के लिए है? तुमने ये उम्मीद पाल कैसे ली कि मज़ा आना चाहिए? देखिए, सबका यही है कि ‘सुख नहीं है, और हैप्पीनेस चाहिए’।

जो आदमी जीवन में सही काम में, सही मिशन में लगा होता है, ये उसको पुरस्कार में मिलता है कि वो मज़े की उम्मीद से आज़ाद हो जाता है। वो फिर ये शिकायत करता हुआ नहीं पाया जाएगा कि ‘अरे, मुझे सुख नहीं मिला’। वो कहेगा कि सुख चाहिए किसको था? हम तो काम कर रहे हैं। मज़े थोड़े ही मारने आए हैं, काम करने आए हैं। मज़े चाहिए किसको थे? दूसरी ओर जो काम नहीं कर रहा सही से, उसको तुम पहचान ही लोगे इस बात से कि वो बार-बार शिकायत करता पाया जाएगा — ‘यार, कुछ मज़ा नहीं आ रहा’। जैसे ही कोई मिले जो कहे बार-बार कि कुछ मज़ा नहीं आ रहा, उसकी गर्दन पकड़ लो — ये कामचोर आदमी है। ये अधार्मिक आदमी है। ये वो आदमी है जो जीवन गलत तरीके से जी रहा है। ये वो आदमी है जो स्वंय भी विकृत है और दूसरों में भी विकृति का संक्रमण फैला रहा है। ये मज़ेखोर है। ‘हराम’ शब्द का मतलब समझते हो? वो जिसका भोग निसिद्ध है। वो जो नहीं किया जाना चाहिए। तो मज़ेखोरी ही हरामखोरी है। जो मज़ाखोर है, वो हरामखोर है। हर आदमी जो सुख की तलाश में घूम रहा है, जो पूछ रहा है कि, “मैं और हैप्पी कैसे हो सकता हूँ?”, वही आदमी तो हरामखोर है।

प्रहार मूवी थी। तो उसमें जो नए-नए प्रशिक्षार्थी आते हैं, कैडेट्स, ट्रेनीज़ — उसमें नाना पाटेकर का जो पात्र है, वो उनका प्रशिक्षक, ट्रेनर होता है। तो उसका मुझे एक दृश्य याद है। सब-के-सब को सुबह-सुबह बिस्तर से घसीट कर खड़ा कर दिया जाता है। अभी पौ भी नहीं फ़टी होती, अंधेरे में उन सबको खड़ा कर दिया गया है। और वो जो ट्रेनर का चरित्र है, नाना पाटेकर द्वारा अभिनीत, वो कहता है, “जोकर्स, हम यहाँ पिकनिक के लिए नहीं आए हैं”। तो मैं चाहता हूँ कि पूरी दुनिया, कम-से-कम हमारी संस्था के जोकर्स ये बात याद रखें लगातार। क्या? “जोकर्स, हम यहाँ पिकनिक के लिए नहीं आए हैं”। काम करना है भाई।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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