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जीवहत्या और हिंसा || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2015)

Author Acharya Prashant

Acharya Prashant

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जीवहत्या और हिंसा || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2015)

प्रश्न: सर हम बचपन से सुनते आ रहे हैं कि जीव हत्या करना पाप है, पर फिर भी जीवों की हत्या होती रहती है। कभी धर्म के नाम पर, कभी खाने के नाम पर। ऐसा क्यों होता है सर?

वक्ता: ये तुम दूसरों की बात कर रहे हो या अपनी?

श्रोता १: सर अपनी ही नहीं, सबकी बात कर रहे हैं। सबको सिखाया जाता है कि जीवहत्या पाप है, पर जीवहत्या तो फिर भी होती ही है।

वक्ता: तुम करते हो?

श्रोता: नहीं सर हम नहीं करते।

वक्ता: ठीक है, जो करते हैं गलत करते हैं, पर तुम मत करना। तुम समझो बात को। तुम मत करना। दुनिया में इंसान की वजह से इतना क्लेश हो रहा है, तुम्हें क्या लगता है उसमें जीवहिंसा का योगदान नहीं है? ये जो इतने जानवर रोज़ मारे जा रहे हैं, इनकी मौत का फल तो इंसान को ही भुगतना पड़ेगा ना।

जितनी देर में हमने ये बात की, इतनी देर में लाखों जानवर कट गये। तो इन सबका मुआवज़ा तो इंसान को देना ही पड़ेगा ना। पाप किया है तो फल तो मिलेगा ही। कई बार जो हमें अकारण जो पीड़ा महसूस होती है, जिसे हम और आप समझ भी नहीं पाते हैं कि क्यों हमारी पीड़ा है, उस सब में इस बात का बहुत बड़ा योगदान है कि आदमी ने प्रकृति के साथ, या नदियों और पहाड़ों के साथ, पशुओं और पक्षियों के साथ बहुत दुर्व्यवहार किया है। तो इंसान जितनी हिंसा करेगा, उतना ही दुःख भी झेलेगा।

धर्मग्रंथ गलत नहीं कहते हैं कि जीव हत्या पाप है। जीवहत्या पाप है और वो पाप हमारे मत्थे खूब चढ़ा हुआ है, इसीलिए तो हम इतने दुखी हैं, इसीलिए तो हम लगातार विनाश की ओर बढ़ रहे हैं। इंसान यूँ ही थोड़ी ही विनाश की और बढ़ रहा है। वजह है ना।

श्रोता १: सर हमने यही सवाल किसी से पूछा था तो उन्होंने कहा कि भगवान ने हमें ऐसी जगह पैदा किया जहाँ अन्न नहीं था, सब्ज़ी नहीं थी, तो उन्हें पशुओं को मारकर खाना पड़ा। और उनका दूसरा तर्क यह था कि अगर इंसान पशुओं को मारकर नहीं खाएगा तो उनकी संख्या ज़्यादा हो जाएगी, और इंसान के लिए रहना मुश्किल हो जायेगा।

वक्ता: तुम ये कह रहे हो कि इंसान अगर ना रहे तो पशु इतने बढ़ जायेंगे कि दुनिया में आफत आ जाएगी। ये कैसा तर्क है? ये तुम सिर्फ़ अपना स्वाद बचाने के लिए इस तरह के कुतर्क देते हो। किसी ने मुझसे कहा कि “गाय का दूध निकालना बहुत ज़रुरी है क्योंकि गाय अधिक दूध देती है। इतना अधिक दूध पैदा होता है कि गाय का दूध अगर इंसान ना पिये, तो वो आफ़त में आ जायेगी”। मैंने कहा कि इसका मतलब जंगल में जितनी गाय हैं, वो तो अधिक दूध की वजह से पीड़ा से मर जाती होंगी?

ये कैसा तर्क है?

श्रोता १: लेकिन कुछ इलाके ऐसे होते हैं, जैसे समुद्री इलाके जहाँ पर अन्न, साग-सब्ज़ी अधिक मात्रा में उपलब्ध नहीं होता। तो वहाँ अपना पेट भरने के लिए पशुओं का माँस खाना पड़ता है।

वक्ता: इंसान कभी ऐसी जगह पर पैदा नहीं हो सकता जो उसके परिपालन के लिए सर्वथा उपयुक्त ना हो। चाँद पर ऐसा कुछ भी नही है जिसमें इंसान पनप सके, तो चाँद पर इंसान पाया भी नही जाता। या पाया जाता है?

श्रोता २: नहीं।

वक्ता: मंगल ग्रह पर ऐसा कुछ नहीं है जिससे इंसान अपना पोषण पा सके, तो मंगल ग्रह पर इंसान पाया भी नहीं जाता है। इसीलिए पृथ्वी पर भी इंसान जहाँ भी पाया जाता है वो सब वही जगह हैं जहाँ उसके अनुकूल भोजन मौजूद है। तो ये बातें सिर्फ बहाना हैं कि हम तो ऐसी गलत जगह पैदा हो गये हैं कि यहाँ हमारे लिए कुछ मिलता ही नहीं है, तो हमें मजबूरी के कारण जानवरों को खाना पड़ रहा है। ये बातें ज़बान के चटोरेपन को छुपाने का बहाना हैं।

श्रोता २: सर ऐसे तो जब हम साँस लेते हैं उसमें ‘बैक्टीरिया’ के जीव अंदर जाते हैं और वो मरते हैं। ऐसे ही कई अलग तरीको से पेड़-पौधे भी मरते हैं।

वक्ता: हाँ, बिलकुल।

श्रोत २: सर इसको हम कैसे समझें?

वक्ता: तुम्हारी आंतों में हज़ार तरीके के बैक्टीरिया हैं जो प्रतिपल मर रहे हैं, घट रहे हैं, बढ़ रहे हैं। वहाँ तुम्हारे पास कोई ज़िम्मेदारी नहीं होती है, उनको बचाने की। अब वो घटना तुम्हारी चेतना के बाहर की है। उसमें तुम्हारी इच्छा का कोई महत्व ही नहीं है। तुम साँस ले रहे हो, साँस लेने में अंततः छोटे-मोटे जीव तुम्हरे अंदर पहुँचें, तो उनकी हत्या हो सकती है। वो तुम्हारे ‘सिस्टम’ का ही हिस्सा हैं। वो तुम हो। तो उसमें हत्या जैसा कुछ नहीं है। अगर कोई इंसान पौधे को मार कर खाता है, तो वो पाप है। इसीलिए जो चैतन्य लोग हैं उन्होंने पौधों को भी मारने से मना किया है। और प्रकृति ने इंसान के लिए ऐसी व्यवस्था बिल्कुल कर रखी है कि वो पौधों को मारे बिना भी खूब पौष्टिक भोजन खा सकता है। उदाहरण देता हूँ।

पेड़ से फल गिरता है, वो फल अपनेआप गिरा है। जब तुम उस फल को खा रहे हो तो उससे उस फल को फ़ायदा ही हो रहा है। अभी तुमने फल खाया तो तुम्हारे माध्यम से फल के बीज अब दूर-दूर तक पहुँच गये। तो पेड़ को फ़ायदा हुआ। प्रकृति ने खुद ऐसी व्यवस्था बनाई है कि तुममें और पेड़-पौधों में समायोजन बना रहे।

ये ज़रुरी नहीं है कि तुम पेड़ों को, पौधों को काट ही डालो। उदाहरण के लिए, आप पेड़ की पत्तियाँ अगर खाते हैं और सीमित मात्रा में पेड़ से पत्तियाँ तोड़ लेते हैं, तो पेड़ पर उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। क्यों? क्योंकि पत्तियाँ उँगलियों की तरह नहीं हैं। आप पत्तियाँ तोड़ेंगे तो उसकी जगह नई पत्तियाँ आ जायेंगी। पर अगर आप एक जानवर की उँगलियाँ काट कर खा गये, तो वो कभी वापस नही आयेंगी। समझ रहे हो?

तो प्रकृति ने खुद आपको पेड़ो की पत्तियाँ दी हैं, आप खाईये। हाँ, ऐसा मत करिये कि आपने पेड़ का तना ही काट दिया। आप फल खाईये, आप शाख खाईये, आप पत्तियाँ खाईये। और वो सब उचित मात्रा में पेड़ पर हैं। और कोई कहे कि आपको उससे पोषण नहीं मिलेगा, तो वो भी कुतर्क है। आज बड़े-बड़े एथलीट हैं, धावक हैं जो माँस तो छोड़ो दूध भी नहीं पीते। वो दुनिया के ऊँचे से ऊँचे, ताकतवर से ताकतवर, तेज से तेज एथलीट हैं।

तो अगर कोई ये तर्क दे कि माँस खाना, जानवरों को सताना, जानवरों को मारना, या जानवरों का दूध निकालना ज़रुरी है स्वास्थ्य के लिए, तो वो भी तथ्यपरक बात नहीं बोल रहा है। आप जानवरों को अलग छोड़ दीजिये, उनकी अपनी दुनिया है आपको हस्तक्षेप करने की ज़रूरत नहीं है। जैसे जानवर आकर आपकी दुनिया में कोई हस्तक्षेप नहीं करते हैं, ठीक उसी तरह से आप भी उनकी ज़िंदगी में बाधा मत डालिये।

श्रोता ३: और सर जैसे मांसाहारी पशु होते हैं, जैसे शेर हो गया, तो उनको प्रकृति ने मांसाहारी क्यों बनाया?

वक्ता: ये सवाल शेर को पूछने दो। शेर के लिए शेर का कर्म, मनुष्य के लिए मनुष्य का कर्म। कभी शेर आ कर मुझसे पूछेगा कि मैं जीवहत्या करूँ या ना करूँ, तो मैं शेर से बात करूँगा। तुम शेर नहीं हो न, तो शेर के पीछे छुप कर माँस क्यों खाना चाहते हो, कि “शेर खाता है तो मैं भी खाऊँगा”। जैसे शेर माँस खाता है वैसे तुम माँस खाना चाहते हो, तो जैसे शेर शिकार करता है वैसे ही शिकार भी करके दिखाओ। वो जंगल का राजा है और तुम अगर जंगल पहुँच जाओ तो तुम्हारे बारह बज जायें। तब सिंह नहीं रह जाओगे।

श्रोत ५: सर माँस खाना तो धर्म में भी लिखा है।

वक्ता: धर्म, सिर्फ तब धर्म है जब उसको समझा जाए। जीवहत्या बुरी इसलिए है क्योंकि जीवहत्या हिंसा है। हिंसा समझते हो ना क्या होता है? दूसरे को आहत करने का, सताने का भाव। अगर तुम ये सवाल भी इसीलिए पूछ रहे हो कि तुम किसी को सताना चाहते हो, परेशान करना चाहते हो, तो तुम ठीक वही काम कर रहे हो। ये जीव हत्या है। और तुम्हारी आँखों में*…(सब हँसते हैं)*।

सवाल तभी अच्छा है अगर वो साफ़ मन से पूछा जाए। अगर सवाल भी ऐसे पूछा जा रहा है जैसे बाण चलाये जा रहे हों, तो ये भी हिंसा ही है।

(सब हँसते हैं)

श्रोता ५: सर, सवाल मन में आया तो पूछ दिया।

वक्ता: (हँसते हुए) अब तुम मेरे ऊपर भी बाण चला रहे हो। (सब ज़ोर से हँसते हैं) कहीं पर निगाहें, कहीं पर निशाना। सवाल मुझसे पूछ रहे हो, रिझाना किसी और को है।

समझो ना बात को। हिंसा हज़ार रूपों में अभिव्यक्त होती है, जीवहत्या उनमें से सिर्फ़ एक रूप है। हो सकता है कोई शुद्ध शाकाहारी हो, पर वो हिंसक हो सकता है, खूब हिंसक हो सकता है।

श्रोता ५: सर एक शाकाहारी, हिंसक कैसे हो सकता है?

वक्ता: शाकाहारी घरों में बहुत लड़ाईयाँ होती हैं। बहुत ऐसे किस्से सुने होंगे कि शाकाहारी घर है, पर शाकाहारी बाप अपने शाकाहारी बेटे पर दबाव डाले हुए है कि तू ये पढ़ाई कर, और ये पढ़ाई ना कर। अब ये हिंसा हुई कि नहीं हुई? जल्दी बोलो?

श्रोता ५: हुई।

वक्ता: शाकाहारी घर से शाकाहारी नौजावान निकल कर सेना में चला गया और वहाँ गोली चलाने का अभ्यास कर रहा है। हिंसा का अभ्यास कर रहा है या नहीं कर रहा है? तो सिर्फ जीवहत्या हिंसा कैसे है? हिंसा हज़ार रूपों में सामने आती है।

और एक बात और समझना। तुमने धर्म की बात की। कोई धर्म ऐसा नहीं है जिसने धर्म के नाम पर पर्यावरण को, जानवरों को और बाकी दुनिया को परेशान ना किया हो। कोई भी धर्म ऐसा नहीं है। और मैं ये भी बताता हूँ कि वो काम किसी धर्म का नहीं होता, वो काम आदमी के अज्ञान का होता है। हाँ, आदमी अपने अज्ञान को ढकने के लिए धर्म का सहारा ले लेता है।

तुम जब भी किसी के साथ हिंसा करते हो, तो वो हिंसा तुमसे धर्म नहीं करवा रहा। वो हिंसा तुमसे तुम्हारी वृत्तियाँ करवाती हैं, तुम्हारा अज्ञान, तुम्हारा लालच करवाता है। लेकिन तुम ये नहीं कहना चाहते कि, “मैं लालची हूँ, हिंसक हूँ, अज्ञानी हूँ”। तो तुम क्या कहते हो? “ये तो मैं धर्म का काम कर रहा हूँ”। धर्म नहीं ज़िम्मेदार है इसके लिए।

धर्म अगर वास्तव में धर्म है, तो वो तुम्हें शांति की ओर ले जाएगा। हिंसा के ये गुण तुम्हें धर्म नहीं सिखाता, तुम्हारी अपनी मूढ़ता सिखाती है। हर धर्म में यही है। कहीं बलि प्रथा है, कहीं अन्य तरीकों से हिंसा है। इसके लिए धर्म को नहीं, अपने अज्ञान को जिम्मेदार मानो। अपना अज्ञान हटाओ, हिंसा अपने आप हट जाएगी, और हर रूप में हटेगी। क्योंकि हमने अभी कहा कि हिंसा हज़ार रूपों में व्यक्त होती है।

जब हिंसा मन से जाती है, तो जितने भी रूपों में अभिव्यक्त होती है, हर रूप से जाती है। अन्यथा किसी एक रूप पर आक्रमण करते रह जाओगे, और बाकी सारे रूप कायम रहेंगे।

*अज्ञान ही हिंसा है*। समझ रहे हो मेरी बात? जहाँ अज्ञान है, वहाँ हिंसा होगी ही होगी। जहाँ हिंसा देखना, समझ लेना कि ये लोग नासमझ हैं। बात नहीं समझते, अज्ञानी हैं। और ये भूलना मत कि हिंसा हज़ारों तरीकों से अभिव्यक्त होती है। सिर्फ खून बहता देखो तो उसे हिंसा मत समझ लेना।

जातिप्रथा बहुत बड़ी हिंसा है। आदमी को जन्म के नाम पर ऊँचा या नीचा सिद्ध कर देना, ये हिंसा नहीं है? बहुत बड़ी हिंसा है। और उसके पीछे क्या है? अज्ञान ही तो है। दहेज-प्रथा हिंसा नहीं है? तुम जिस काम के पैसे लेते हो, वो काम ठीक से ना करना हिंसा नहीं है? पर्यावरण को तुम अपनी गाड़ी के धुएँ से दूषित करते हो, क्या वो हिंसा नहीं है? बोलो ना?

सारी हिंसा, फिर से कह रहा हूँ, अज्ञान -जनित होती है। और जब ज्ञान उठता है, जब बोध उठता है, तो हिंसा का एक प्रकार नहीं, उसके सारे रूप हटते हैं।

~ ‘शब्द-योग सत्र’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

इस विषय पर अधिक स्पष्टता के लिए देखें:-

YouTube Link: https://youtu.be/NDqes4je5HY

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