प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, श्रीमद्भागवतगीता में दूसरे अध्याय, बीसवें श्लोक में बताया गया है कि शरीरी ना कभी जन्म लेता है, ना मरता है। शरीर का नाश होता है, शरीरी का नहीं। और बाइसवें अध्याय में बताया गया है कि जैसे कपड़ा पहनकर आदमी बदल देता है, पुराने कपड़े छोड़ कर दूसरे नए कपड़े पहन लेता है, ऐसे ये शरीरी नया शरीर धारण कर लेता है। तो इससे हिम्मत तो आती है लेकिन क्या हम इसको और बारीकी से समझ सकेंगे जिससे कि हमारे सारे भय, शंकाएँ दूर हो जाएँ?
आचार्य प्रशांत: ये बात हमारे काम की सिर्फ़ तब है जब हम आत्मस्थ होकर के जी रहे हों, आत्मा बनकर जी रहे हों। तो श्री कृष्ण समझा गए आत्मा अमर है, आत्मा निरंजन है।
कौन अमर है?
प्र: आत्मा।
आचार्य: आप कौन हैं?
प्र: जीव।
आचार्य: ये तो गड़बड़ हो गई। अब गीता का ये श्लोक आपके किस काम का?
अमर कौन है?
प्र: आत्मा।
आचार्य: आप कौन हैं?
प्र: जीव। इसलिए तो मैं आपसे निवेदन कर रहा हूँ कि क्या हम उस अवस्था में पहुँच भी सकते हैं?
आचार्य: दोनों बातें साथ-साथ लेकर के चलेंगे तो श्री कृष्ण फिर आपकी सहायता नहीं कर पाएँगे न। दोहराइए।
अमर कौन है?
प्र: आत्मा।
आचार्य: आप क्या बने बैठे हैं?
प्र: जीव।
आचार्य: तो आत्मा की अमरता आपके अब कोई काम आएगी?
अमरता आपको सिर्फ़ तभी मिलेगी जब आप जी ही रहे हों आत्मा की तरह। जो आत्मा की तरह जी रहा है, सो अमर हो गया।
श्री कृष्ण बता गए हैं, आत्मा अमर है, अवध्य है, अच्छेद्य है, गीली नहीं होती, सूखती नहीं, जलती नहीं, बुझती नहीं। पर ये सब बातें किसके ऊपर लागू होती हैं?
दहन आत्मा का नहीं होता पर हमारे तो रोज़-रोज़ आग लगी रहती है।
'नैनं दहति पावकः' ये किस पर लागू होता है?
श्रोतागण: आत्मा पर।
आचार्य: और हमारे तन-मन में रोज़ क्या लगी रहती है?
श्रोतागण: आग।
आचार्य: तो भाई, उनका दहन नहीं होता होगा, हमारा तो रोज़ दहन है। अभी कोई आकर के दो चुभती हुई बातें बोल जाए, दहन हो गया कि नहीं हो गया?
लग गई आग। और श्लोक दोहरा रहे हैं गीता का, 'नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि।' और शस्त्र तो चुभ गया। चुभ गया कि नहीं? बिलकुल आर-पार हो गया। किसी को बस इतना बोलना है कि "शर्मा जी क्या पागलों जैसी बात कर रहे हो?" और शर्माजी बोल क्या रहे थे? 'नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि।' और शस्त्र ही पार हो गया। और उसने इतना ही बोल दिया, "ये क्या ये पागलों की तरह कोई मंत्र दोहराते रहते हो?" और तीर बिलकुल छाती के आर-पार।
तो फिर मूलभूत सीख क्या हुई भगवान की? जैसे जी रहे हो वैसे मत जिओ। जैसे जी रहे हो उसमें तो सिर्फ़ मृत्यु है, अमरता नहीं। जैसे जी रहे हो उसमें तो सिर्फ़ दाह है, शीतलता नहीं। गीता की शिक्षा जीव में बदलाव का सशक्त आग्रह है। दोनों बातें एक साथ बताई जा रही हैं। जैसे आप हैं वैसा होने में कोई लाभ नहीं और दूसरी बात — जो आपको होना चाहिए, जो आपका केंद्रीय सत्य है, अगर आप वैसे जी सकें तो क्या बात है।
अर्जुन को यही सिखा रहे हैं।
"अर्जुन, जो तुम अपने-आपको समझ रहे हो, जो तुम इन लोगों को समझ रहे हो, जो तुम मुझे समझ रहे हो, वो सब भ्रम मात्र है। वो भ्रम है इसीलिए अभी तुम्हें इतनी किंकर्तव्यविमूढ़ता है, इतना तुम्हें संशय है, इतना तुम्हें भय और भ्रम है। तुम ये जान लो तुम कौन हो, उसके बाद आनंद।"
क्या अर्थ हुआ आत्मा की तरह जीने का?
आत्मा निर्विकार है। जो विकारों के प्रति आग्रह, आसक्ति ना रखे, वो अपने आत्म-स्वभाव में जीने लगा।
आत्मा निराकार है। जो आकारों के प्रति आग्रह ना रखे, रूप-रंग को देखकर जो आकर्षित, व्यथित ना होता हो वो आत्मा की तरह जीने लगा।
आत्मा असंग है। जो अपने में अपूर्णता अनुभव करते हुए संगति की तलाश से मुक्त हो जाए, वो आत्मस्थ हुआ।
नहीं तो आम आदमी तो इसी भावना में जीता है कि वो आधा है, अधूरा है, अपूर्ण है और कोई और मिल जाए जो उसे पूरा कर दे। इधर से साथ मिल जाए, उधर से संग मिल जाए। ये आत्मा का लक्षण तो हुआ नहीं। आत्मा तो असंग है। आत्मा पूर्ण है और जीव सदा संचय और परिग्रह में ही लगा रहता है — ये इकट्ठा कर लूँ, वो पा लूँ, ये जमा कर लूँ।
जो दुनिया में इकट्ठा करने, जमा करने, बड़ा बन जाने, धनी बन जाने की ज़िद से मुक्त हो गया वो आत्मा की तरह जी रहा है। वो अमर हो गया।
आत्मा अनुपम है, अतुल्य है। और जीव जीता है लगातार तुलना में — मेरे पास कितना है, मेरे भाई के पास कितना है, मेरे पड़ोसी के पास कितना है। मेरे दो लड़के हैं, छोटा वाला बड़े वाले से आगे निकला जा रहा है।
जो तुलनाओं से मुक्त हो गया, वो आत्मा होने की तरफ़ बढ़ा। आत्मा का कोई नहीं, ना आत्मा किसी की है। ना आत्मा का कोई बाप है, ना आत्मा का कोई बेटा। जो अहमता-ममता के भाव से मुक्त हो गया, वो आत्मा होने की ओर बढ़ा। तो अमरता निश्चित ही उपलब्ध है आपको, लेकिन जीव बनकर जिओगे तो कोई अमरता नहीं है। जीव का तो एक ही जीवन है और वो एक जीवन भी बड़ा अनिश्चित है, ना जाने कब छिन जाए। आत्मा अनंत है पर जीव पर तो हर समय तलवार लटक रही है न?
यमराज को कभी बेरोज़गारी छाई? उनका विभाग तो फल-फूल ही रहा है। एक भैंसे से तो अब काम भी नहीं चल रहा होगा। फ़ौज खड़ी हो गई होगी भैंसों की। काहे कि जितने लोग हैं उतने ही मर भी रहे होंगे। इतनी आबादी बढ़ गई है। और ये जितने मरणशील, मरणधर्मा हैं ये सब जब मरने से बहुत डर जाते हैं तो डर कर कहते हैं — आत्मा अमर है। अरे आत्मा अमर है तो आत्मा तो भय से भी आगे की है। आत्मा तो कालातीत भी है, अकाल भी है।
अकाल होने का अर्थ समझते हो? आत्मा का कोई भविष्य नहीं है, ना उसका कोई अतीत है। उसका ना भविष्य है, ना अतीत है। और आप अगर भविष्य के बारे में सोचकर कह रहे हैं कि, "मेरी जब मौत होगी भी तो शरीर मरेगा, आत्मा तो अमर रहेगी", तो क्या आप आत्मा होकर के ये सब विचार कर रहे हैं?
आत्मा का तो कोई भविष्य नहीं होता और आप लगातार भविष्य के बारे में सोच रहे हैं। जो भविष्य के बारे में इतना व्याकुल हो वो जीव बना हुआ है या आत्मा?
श्रोतागण: जीव।
आचार्य: जीव बना हुआ है पर जीव बने-बने सोच रहा है कि वो आत्मा हैं। जीव को बड़ी संतुष्टि मिलती है ये विचार कर-कर के कि वो आत्मा है।
अरे विचार करने से जीव थोड़े ही आत्मा हो जाएगा। जीव आत्मा होगा आत्मा की तरह जी करके। इन दोनों बातों में अंतर समझिएगा। आप सौ बार विचार कर लीजिए कि आप आत्मा हैं, आत्मा तो निर्विचार भी होती है। कभी देखा है कि आत्मा बैठकर के विचार कर रही है कि, "कल क्या करना है, नाश्ते में क्या बनेगा? वसीयत लिख दूँ, किसको पैसा ज़्यादा छोड़ कर जाऊँ?"
ये सब आत्मा के काम हैं?
आत्मा को तो कोई काम ही नहीं है। एक तरफ़ वो परम-कर्ता है, दूसरी तरफ़ वो अकर्ता है। उसको कुछ लेना-देना ही नहीं, काम-धंधा ही नहीं। हमारे पास सौ काम-धंधे हैं। तो इन सौ काम-धधों के साथ हम बने तो जीव ही हुए हैं लेकिन जीव बने-बने हम ये धारणा पालना चाहते हैं कि हम तो आत्मा हैं।
ये धारणा हम क्यों पालना चाहते हैं? क्योंकि हमें मौत से बड़ा डर लगता है। जब मौत डराती है तो अपने-आपको हम बहलाते हैं ये बताकर के कि शरीर मरेगा, हम नहीं मरेंगे। नहीं, शरीर के साथ-साथ ये जो शरीर से जुड़ा हुआ है, ये भी चला जाना है। ये जो विचार कर रहा है कि अमर है वो, वो अमर नहीं है। वो तो मर ही जाएगा और पूरी तरह नष्ट हो जाएगा। जो अमर है वो कभी ये विचार नहीं करता कि वो अमर है। ये तो फँस गया मामला। जो अमर है वो कभी मृत्यु का ही विचार नहीं करता इसीलिए तो अमर हुआ वो।
अमरता और क्या है? जब मौत आपके ख़्वाबों-खयालों में आना छोड़ दे, आप अमर हो गए। जब भविष्य ना आपको आकर्षित करे, ना विकर्षित करे, ना आपको आशा दे, ना आशंका दे, आप अमर हो गए।
मृत्यु तो सदा भविष्य में ही होती है न? जो भविष्य से मुक्त हो गया वो अमर हो गया। पर हम जितना घबराते हैं भविष्य में संभावित मृत्यु से, हम उतना ज़्यादा अपने-आपको अमरता का झुनझुना सुनाते हैं कि "नहीं-नहीं, डरो नहीं रामप्रसाद तुम अमर हो।" अब रामप्रसाद के पाँव कँप रहे हैं, पसीना चू रहा है।
कौन अमर है यहाँ? ये मृत्युलोक है। यहाँ अमर कौन है भाई? यहाँ की मिट्टी क्या, हवा में भी मौत है। कौन अमर है?
तो संतों ने इसीलिए कहा कि हीरा जनम अमोल है। अगर आप अमर ही होते तो आपको क्यों बताया जाता कि ये जो जन्म है इसका सदुपयोग कर लो।
फिर तो आपके अनंत जन्म होते। आप मरने ही नहीं वाले हो। फिर कोई आपको क्यों कहता कि समय का सदुपयोग करो?
जो अमर है उसको तो समय की कोई कमी ही नहीं न, कि है?
लेकिन हमारे शुभेच्छुओं ने हमसे सदा कहा है, "एक पल भी व्यर्थ मत करना।" क्योंकि वो जानते हैं कि आत्मा अमर होगी, जीव अमर नहीं है। जीव को तो जाना है, तो जाने से पहले वो अपने समय का पूरा-पूरा उपयोग कर ले। और समय का सदुपयोग क्या हुआ? आत्मा हो जाना।
इससे पहले कि मृत्यु आए, तुम अमर हो जाओ। और विकल्प दोनों हैं, संभावनाएँ दोनों हैं। पहले अमरता भी मिल सकती है और पहले मृत्यु भी मिल सकती है। वो तुम्हारे ऊपर है कि तुम ज़िन्दगी कैसे बिता रहे हो। गाड़ी मिल भी सकती है, गाड़ी छूट भी सकती है। वो तुम्हारे ऊपर है कि जल्दी दिखा रहे हो या नहीं। जो जल्दी दिखाएँगे, जो ध्यान से एकनिष्ठ होकर गाड़ी पकड़ने की चेष्ठा करेंगे, संभावना है कि उन्हें गाड़ी मिल जाएगी। जो ग़ाफ़िल हैं ग़ुमान में उनकी गाड़ी तो छूटनी पक्की है।
जिसने भी जीव जन्म लिया है वो ध्यान से समझ ले कि उसको दोनों संभावनाएँ उपलब्ध हैं। तो ये बात निश्चित रूप से आपको साहस बहुत देगी लेकिन साहस मात्र नहीं, ये बात आप ख़तरे की तरह भी लें, चेतावनी भी है। हौसला आपको इस बात से मिलना चाहिए कि अमरता संभव है। और चेतावनी इस बात की है कि अमरता संभव तो है, अनिवार्य नहीं है।
ज़्यादातर लोग तो बस मरने के लिए ही पैदा होते हैं। कहाँ अमर हो पाते हैं? हो पाते हैं क्या? अमरता का कोई स्वाद चखे बिना ही भैंसे की सवारी कर जाते हैं। जैसे आए थे वैसे ही चले गए। कौनसी अमरता उनके जीवन में है?
जीवनभर मृत्यु से थर-थर काँपते रहें और एक दिन मृत्यु उन्हें उठा भी ले गई। कहाँ है अमरता?
श्लोक दोहराने भर से अमरता थोड़े ही मिल जाएगी। जी कर दिखाना होगा। आत्मा की तरह जियो तो आत्मा हो।
उपनिषद कहते हैं — जो माने कि बद्ध है, बंधन में है, वो बंधन में है और जो माने कि मुक्त है, वो मुक्त है। तुम जिसकी तरह जीते हो, तुम वैसे ही हो जाते हो। तुम्हारी मान्यता पर है।
हमारी मान्यता है तो हम उसे बदल भी सकते हैं न? बदल दीजिए।
आदमी की ये बड़ी विडम्बना है कि उसका स्वभाव भी उसके लिए संभावना भर है। ये बात सुनने में अजीब लगेगी। आप कहेंगे, "अगर स्वभाव है तो अनिवार्य होना चाहिए, संभावित भर क्यों है, आवश्यक होना चाहिए।" नहीं है।
आप इतने लोगों को देखते हैं, क्या आप उन्हें स्वभाव में जीता देखते हैं? हम प्रकृति में जी लेंगे, हम प्रभावों में जी लेंगे, स्वभाव में कहाँ जीते हैं हम।
स्वभाव भी अधिक-से-अधिक बस एक विकल्प है, एक संभावना है। वो विकल्प आप चुनें तो चुनें, ना चुनें तो ना चुनें। वो संभावना आप पाएँ तो पाएँ और वो संभावना अगर अमूर्त रह जाए, अनुपलब्ध रह जाए तो चूके।
इस विरोधाभास को अच्छे से समझिएगा। हमारा स्वभाव भी हमारे लिए संभावना भर है। अब आप ये भी समझ गए होंगे फिर कि धर्म किसको कहते हैं। धर्म है उस संभावना को मूर्त करना, पाना। संभावना को जीवन का यथार्थ बना देना। आत्मा सत्य है पर जीव के लिए संभावना भर है क्योंकि जीव सदा सत्य में नहीं जी रहा। जीव के लिए तो विकल्प है, सत्य भी और असत्य भी। आप चाहें तो असत्य को चुन लें।
तो आपके ऊपर है। हम कुछ ऐसे हैं कि हम पर अमरता भी ज़बरदस्ती नहीं थोपी जा सकती। हम अनिवार्य रूप से अमर नहीं हैं, हम चाहेंगे तो ही अमर होंगे। आप चाहते हो अमर होना तो फिर प्रमाण दीजिए उस चाहत का। प्रमाण कैसे देंगे? जीकर।
ऐसे जिएँ कि आपके जीवन पर मौत की छाया ही ना हो। हो गए अमर। जो जीते-जी अमर नहीं है वो मृत्यु के बाद क्या अमर होगा। जो भय में जी रहा है वो क्या अमर होगा।
और भय माने मृत्यु। और भय में वही जियेगा जो लालच में जी रहा है। तो जिसके जीवन से ये सब हट गए, वो अमर हो गया। जो देहभाव में नहीं जी रहा, वो अमर हो गया।
मौत आएगी, चिता जलेगी, किसकी? देह की। पर जो देहभाव से मुक्त ही हो चुका है, उसकी चिता अब कैसे जलेगी?
जलकर राख हो जानी है, क्या? देह। जो उस देह को ही छोड़ चुका, वो अब राख कैसे होगा।
पर जो देहभाव में ही जिया जा रहा हो, वो ये कैसे कह देगा कि, "मैं अमर हूँ"? और अगर वो कह भी रहा है कि वो अमर है तो झूठ बोल रहा है, है न?
जीते-जी अमर हो जाओ, और कोई तरीक़ा नहीं है। मौत के बाद कोई अमरता नहीं होती। मौत तो अमरता की संभावना को ही नष्ट कर देती है। मौत का मतलब है जो मियाद मिली थी अमरता को प्राप्त करने की, आत्मा तक पहुँचने की, वो मियाद, वो अवधि पूरी हो गई और तुम काम पूरा नहीं कर पाए।
काम क्या है, धर्म क्या है, जीवन का उद्देश्य क्या है? यही है उद्देश्य — अमरता की प्राप्ति। और उस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए एक सीमित अवधि बंधी हुई है। इतने साल मिले हैं भाई। और कितने साल मिले हैं ये भी पक्का नहीं, तो काम जल्दी-से-जल्दी पूरा करो। आवश्यक नहीं है कि सबको अस्सी ही साल मिले हैं, हो सकता है किसी को पचास मिले हों। कोई बीस वाला भी हो सकता है। तो व्यर्थ गँवाने के लिए एक क्षण भी नहीं है। काम बहुत बड़ा है और समय हमें पता भी नहीं कि कितना मिला है।
अमरता अर्जित करनी पड़ती है। वो कोई विरासत में मिली चीज़ नहीं है कि, "अमर तो हम हैं ही।" जिसने अमरता कमा ली इस ज़िन्दगी में वो अमर हो गया, नहीं तो आप और बहुत चीज़ें हैं उन्हें कमाते रहिए। कमाते तो सभी हैं, कोई कुछ कोई कुछ।