प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आपने पिछले कुछ सत्रों में कहा कि प्रकृति मुक्ति चाहती है और उसके लिए वो इंसान के शरीर का इस्तेमाल करती है। ये प्रकृति कुछ भी चाह कैसे सकती है?
आचार्य प्रशांत: प्रकृति का काम है चाहना। अभी तुम यहाँ खड़े हो, तुम्हें कहीं भी कुछ भी पूरी तरह से स्थिर, रुका हुआ दिख रहा है क्या? शाम हो रही है, चिड़िया चहचहा रही हैं। जिनको हम चेतन या कॉन्शियस नहीं बोलते वो भी गति कर रहे हैं - सूरज, हवा। प्रकृति में कुछ भी कभी भी ठहरा हुआ नहीं रहता न? साँसें चल रही हैं तुम्हारी। और साँसें जब तक चल रही हैं तब तक जीवन में गति है।
गति का, बदलाव का मतलब क्या हुआ? इनका मतलब हुआ कि अभी जहाँ हो वहाँ पूरी तरह बात बनी नहीं है, कहीं और पहुँचना है। अभी परिवर्तन चाहिए, अभी चक्र चल ही रहा है। तुम बिस्तर पर लेटे रहने में अगर पूरे तरीके से विश्राम पा पाते, शारीरिक ही नहीं मानसिक भी, तो तुम कभी बिस्तर से उठते नहीं न? पर हम गति करते हैं, हम इधर जाते हैं, ऊधर जाते हैं, क्योंकि कुछ है जो अभी उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। यही प्रकृति है।
समय, परिवर्तन, प्रकृति इनको एक जानो। अलग-अलग संदर्भों में इनका अलग-अलग तरीके से हम इस्तेमाल कर लेते हैं, इनको अलग-अलग तरीके से सम्बोधित कर देते हैं, पर समय को, परिवर्तन को, प्रकृति को, गुणों को, बेचैनी को, दोष और विकार को, इनको एक जानो। तुम पाओगे कि ये बिलकुल आपस में जुड़े हुए हैं। चूँकि अभी जैसी हालत है उसमें तुम्हें कुछ दोष दिखाई देता है, कुछ कमी, कुछ बेचैनी, तो तुमको फिर परिवर्तन चाहिए। उस परिवर्तन में हमेशा समय लगेगा।
तो समय को तुम नाप ही सकते हो परिवर्तन के माध्यम से, नहीं तो समय नापा ही नहीं जा सकता। अगर कहीं कुछ ना हो जो परिवर्तित हो रहा हो तो समय भी समाप्त हो जाएगा। सच को इसीलिए तो फिर कालातीत कहते हैं न, समय से आगे का, क्योंकि उसमें कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। वो तो सच है, सच कैसे बदलेगा?
प्रकृति में सबकुछ जो है, वो जैसे कहीं पहुँचने के लिए तत्पर है। या इसी बात को और शुद्ध-रूप में कहना चाहते हो तो कह सकते हो कि, जो अहम् वृत्ति है, प्रकृति के बीच में जो दृष्टा और भोक्ता बनकर बैठी हुई है। ये सब दृश्य हैं, इनके दृष्टा तुम हो न? अहम्। इन दृश्यों से तुम्हें जो भी अनुभव हो रहे हैं उन सब अनुभवों के भोक्ता तुम हो न? अहम्। तो ये जो भोक्ता है जो प्रकृति के मध्य में बैठा हुआ है, यही प्रकृति के माध्यम से जो इसे ऊँचे-से-ऊँचा आनंद हासिल हो सकता है उसको ये पाना चाहता है। ध्यान रखना, प्रकृति के माध्यम से, प्रकृति में नहीं। यहीं पर भूल हो जाती है।
प्रकृति के माध्यम से सच तक पहुँचना या शांति तक पहुँचना एक बात है, और तुम सोचो सच और शांति प्रकृति में ही है, वो बिलकुल दूसरी बात है। जब तुम ये सोचने लगोगे कि जो ऊँचे-से-ऊँचा है वो प्रकृति में ही है तो तुम प्रकृति का फिर उत्पीड़न शुरू कर दोगे, फिर तुम प्रकृति के अंधे भोक्ता बन जाओगे। फिर प्रकृति तुम्हारे काम नहीं आती, क्योंकि तुम्हें क्या चाहिए था? शांति, वो तुम्हें प्रकृति से मिलेगी नहीं, और तुम प्रकृति के काम नहीं आते क्योंकि तुम प्रकृति का फिर ऐसा अँधा भोग करते हो कि प्रकृति का विनाश शुरू कर देते हो, जैसा हम आजकल कर रहे हैं।
आदमी प्रकृति से जितना ज़्यादा सम्बद्ध होता जाएगा वो प्रकृति का उतना अँधा-शोषण और विनाश करेगा। तो सारा जो बोध का क्षेत्र है वो ले-देकर के तुम्हारे और प्रकृति के बीच में सही संबंध कैसा हो, इस बारे में है। तुम प्रकृति से दूर तो जा ही नहीं सकते; तुम्हारे रेशे-रेशे में प्रकृति है। तुम आँख खोलते हो, प्रकृति है; तुम्हारी आँख भी प्रकृति है। तो तुम प्रकृति से दूर तो जा नहीं सकते। साथ-ही-साथ अगर तुम प्रकृति से चिपक ही गए बिलकुल, आसक्त हो गए, लिप्त ही हो गए तो भी तुम झंझट खड़ा करते हो अपने लिए। तो ना ये कर सकते हैं ना वो कर सकते हैं, कुछ और करना है।
हमारा इस प्रकृति के साथ, माने संसार के साथ, मन के साथ, अपने शरीर के साथ, जीवन के साथ सही संबंध क्या हो, इसी को जानना अध्यात्म है, यही अध्यात्म है। जिसने ये सही संबंध बना लिया प्रकृति के साथ, और प्रकृति पूरा समझ रहे हो न? जो कुछ है सब प्रकृति है, वो इमारतें भी प्रकृति हैं, सूरज भी प्रकृति है, ये जो खड़ा है यहाँ पर ये भी प्रकृति है, वासनाएँ-विचार ये प्रकृति हैं, स्थूल भी प्रकृति है, सूक्ष्म भी प्रकृति है और जो सूक्ष्मतम है वो भी प्रकृति है। आत्मा को तुम सूक्ष्मतम भी नहीं बोल सकते, वो कुछ और है। कहते हैं न उपनिषद, क्या? श्वेताश्वतर उपनिषद कि "अणुरणियान", कि वो जो जिसको तुम सूक्ष्मतम जान सकते हो, वो उससे भी सूक्ष्म है।
तो जो कुछ भी है जिसका तुम ख़्याल कर सकते हो, जिसके बारे में कुछ कह सकते हो, सोच सकते हो, लिख सकते हो, देख सकते हो, अनुभव कर सकते हो, भले ही सपने अनुभव करो, वो सब प्रकृति ही है। तो इससे हमें सही संबंध बनाना है। इससे सही संबंध बना लिया तो ये बात हो गई आध्यात्मिक और इससे नहीं बना पाए सही संबंध तो फिर ज़िंदगी ऐसे ही बेचैनी में तड़पते बीतती है, फिर कोई लाभ नहीं।
प्र: जिसको संबंध बनाने के लिए कह रहे हैं ये भी तो प्रकृति है।
आचार्य: हाँ, वो प्रकृति के ही जो केंद्र में दृष्टा है, भोक्ता है उससे बात हो रही है। वो, जैसा अभी एक पिछले सत्र में हमने कहा था, वो प्रकृति ही है लेकिन वो प्रकृति का वो हिस्सा है जिसको कहते हैं 'परा-प्रकृति'। सांख्य-योग में उसको 'पुरुष' कहते हैं, और इसीलिए सांख्य कहता है कि बहुत सारे पुरुष हैं, क्योंकि सबका जो अपना व्यक्तिगत अहं है वो तो भिन्न-भिन्न ही होता है, लेकिन अहं-वृत्ति एक है। 'पुरुष' माने व्यक्तिगत अहंकार सबके अलग-अलग हैं क्योंकि वो अलग-अलग लोगों से, अलग-अलग शरीरों से, अलग-अलग चीज़ों और अनुभवों से जुड़े हुए हैं, लेकिन अहम्-वृत्ति एक ही है।
तो अगर कोई प्रकृति के साथ माने दुनिया के साथ सही संबंध बनाना जाने, सही तरीके से उसको देखना जाने तो हो गया। यही तो बात है। इसीलिए कुछ कहने वालों ने कहा है कि जीवन अपने-आप में बहुत सच्चा गुरू है, अगर तुम्हें जीवन की किताब पढ़नी आती हो तो। लेकिन खेद की बात ये है कि ज़्यादातर लोगों को जीवन की किताब पढ़नी नहीं आती। उनको शुरुआत, जो दूसरी आवश्यक किताबें हैं, उनसे करनी पड़ेंगी। लेकिन अंत तक भी एक सही, बढ़िया, मुक्त, आनंदित जीवन जीने का फॉर्मूला (सूत्र) यही है - "जीवन को पढ़ो", और जीवन को पढ़ने में उनको पढ़ना भी सम्मिलित है जो जी चुके और अपने अनुभव बता गए।
जब हम कहते हैं, उदाहरण के लिए, कि प्रकृति को पढ़ो, जीवन से सीखो, तो जीवन में उनसे सीखना भी तो सम्मिलित है न जो लोग तुम्हारे लिए उपनिषद छोड़ गए हैं? वो जीवन के हिस्से नहीं हैं क्या तुम्हारे? जब तुम कहते हो कि जीवन से सीखना है, तो जीवन से सीखने का यही मतलब थोड़े ही है कि कहीं गिर गए इस बात से सीखना है, कहीं लड़ गए इस बात से सीखना है, कहीं गाली-गलौच हो गई उससे सीखना है, माने जीवन के जो निचले तल के अनुभव होते हैं बस उनसे ही सीखना है। तुम्हें जीवन में जो ऊँचे-से-ऊँचे अवसर मिल रहे हैं उनसे सीखना भी तो जीवन से सीखने का हिस्सा है न?
तो यही बात है, यहीं पर अंतर आ जाता है कि जीवन से तो सभी सीख रहे हैं, तुम जीवन में किससे सीखते हो? रिश्ते तो सभी बना रहे हैं, तुम रिश्ता किससे बनाते हो? रिश्ता तो बनाना पड़ेगा, तुम किससे संबंधित रहते हो जीवनभर? मन में ख़्याल-विचार तो सभी के चलते हैं, तुम्हारे मन में किसका विचार चल रहा है? प्रकृति की संगति तो सभी करते हैं, तुम प्रकृति के अंदर भी किसकी संगति कर रहे हो? संगति तो करनी ही पड़ेगी, तुम किसकी संगति कर रहे हो? कुछ-न-कुछ तो सभी सुनते हैं, तुम किसको सुन रहे हो?
तो इसी प्रकृति में ही तुम्हें भेद करना है। ये सबकुछ तुमको उपलब्ध है, ठीक है? सबकुछ तुमको उपलब्ध है। सही ज़िंदगी जीने का मतलब है, इसके भीतर मुझे पता होना चाहिए कहाँ सार है, कहाँ असार है। कहाँ वो है जो मेरे लिए लाभप्रद होगा और कहाँ वो है जो मुझे उलझाए और भटकाए ही रखेगा।
देखो, तैरना आता हो तो नदी बहुत मज़े की चीज़ होती है। तैराक बेचारा तैरेगा कैसे उसे अगर पानी ना मिले, नदी ना मिले? तैरना आता हो तो नदी बहुत मज़े की चीज़ है। तैरना नहीं आता तो उसी नदी में डूबोगे। यही रिश्ता समझलो तुम्हारा और प्रकृति का है। तुम तैराक हो और प्रकृति एक प्रवाह है, एक नदी है। तुम्हें अगर तैरना आता है तो इसी प्रकृति में तैरकर तुम इसको पार कर जाओगे, नदी के दूसरे तट पर पहुँच जाओगे, और तैरना नहीं आता तो इसी में डूब मरोगे। तो तुम नदी को अच्छा बोलोगे या बुरा बोलोगे? नदी ना अच्छी है ना बुरी है। तुम्हें तैरना आता है तो वो तुम्हारी दोस्त है, मज़ा आएगा, खेलोगे उसमें, छप-छप करोगे, आनंद है, क्रीड़ा है। तैरना नहीं आता तो...
प्र: इट विल बी अ ट्रबल फॉर यू, मिसरी, सफरिंग (यह आपके लिए परेशानी हो जाएगी, कष्ट, पीड़ा)।