जीना हो तो मौत को चुनना होगा || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

Acharya Prashant

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जीना हो तो मौत को चुनना होगा || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

मरते मरते जग मुआ, बहुरि न किया विचार। एक सियानी आपनी, परबस मुआ संसार।।

मरते मरते जग मुआ, औरस मुआ न कोय। दास कबीरा यों मुआ, बहुरि न मरना होय।।

~कबीर साहब

आचार्य प्रशांत: मरते सभी हैं, 'एक सयानि आपनी', एक मौत होती है जो अपनी होती है। बाक़ी संसार की जितनी मौत है, संसार में इतने लोगों को मरते देखते हो उनकी मौत बाहरी है। उनकी मौत मात्र स्थितिजन्य है कि उम्र बढ़ गई तो मर गए, किसी ने गर्दन काट दी तो मर गए। एक ही ऐसा होता है, कोई एक बिरला ही ऐसा होता है जो आप अपनी मृत्यु मरता है।

अब बताओ इसका क्या अर्थ है? 'आप अपनी मृत्यु मरना,' 'एक सयानी आपनी,' बाक़ी तो जिनकी जो मौतें होती हैं वो सब कैसी मौतें हैं? वो ऐक्सिडेंटल डेथ्स (आकस्मिक मृत्यु) हैं। कोई बिरला ही होता है जो अपनी मौत आप मरता है। अपनी मौत आप मरने का क्या मतलब है?

श्रोतागण: मन ने मन को काट दिया।

आचार्य: ठीक है? मरोगे तुम भी, मरेंगे हम भी। तुम हालात के चलते मरोगे, हम अपने हाथ मरेंगे। तुम रो-रो कर मरोगे, हम हँस-हँस कर मरेंगे। तुम्हें दूसरे मारेंगे, हम अपने बोध से हलाक़ होंगे। अंतर समझ रहे हो? और जो अपने हाथों ख़ुद मर लेता है वो फिर परबस नहीं रह जाता, वो फिर ऐसा नहीं रह जाता कि मौत उसे मारने आ रही है और वो भाग रहा है।

यह बड़ी विवशता रहती है। समझ रहे हो न? हमारी पूरी ज़िन्दगी विवशता का खेल है कि मौत हमारा पीछा करती है और हम उससे भागते फिरते है, हज़ार तरीकों से मौत से भागते फिरते हैं। और उसी को हम कहते हैं कि यही जीवन है, यही प्रोग्रेस (प्रगति) है कि कितना भाग लिए मौत से। कबीर साहब कह रहे हैं, 'गेम पलट दो। मौत तुम्हारे पीछे-पीछे भाग रही है और तुम मौत से दूर-दूर होना चाहते हो।' रुक, पलट, अब तुम मौत को दौड़ाओ, बड़ा मज़ा आएगा। तुम्हें क्या लग रहा है? तुम्हें मौत दौड़ा रही है। तुम्हें तभी तक दौड़ा रही है जब तक तुम उससे भाग रहे हो, तुम उसको दौड़ाना शुरु करो, वो भागेगी। और जो भाग रही है तुम पीछे से छलाँग मारकर उसको पकड़ लो और एक बार में मर जाओ।

"मैं कबीरा ऐसा मुआ, दूजा जनम न होय।" अब कोई तुम्हें नहीं दौड़ाएगा, अब मौज है तुम्हारी, बादशाह हो। जहाँ जाना है जाओ, जहाँ घूमना है घूमो। यह नहीं कि जहाँ जा रहे हैं वहीं पीछे से मौत खड़ी हुई है। भई, तुम रात में घूमने निकले हो, पीछे पाँच-सात कुत्ते लग लिए। अब तुम क्या टहलोगे? जहाँ जा रहे हो वहीं पछिया रहे हैं और भौंक रहे हैं और ऐसा नहीं कि काट ही लेंगे, ऐसा नहीं कि मर ही जाओगे पर लगे हुए हैं पीछे, उनका ख़ौफ़ लगातार है। तो उससे अच्छा यह है कि एक बार को मुड़ो और तुम उन्हें दौड़ा लो और दूर तक दौड़ाते जाओ। अब वो लौट कर नहीं आएँगे। और एक-आध को तो पकड़ ही लो पीछे से फिर तो बिलकुल ही लौट कर नहीं आएँगे। अब जहाँ घूमना है घूमो और जहाँ विचरना है विचरो, सब तुम्हारा मैदान है।

यही कह रहे हैं कबीर, परबस मत रहो। हमारी विवशता की हालत तो यह है कि हम मरते भी दूसरे की दया से हैं। कितने ही बुढ़वे होते हैं वो जिये जाते हैं, इंतज़ार कर रहे हैं कि मौत कब आएगी। क्या इंतज़ार कर रहे हो? टाइम हो गया है तो फ्लाइट तुम ख़ुद पकड़ो, यहाँ इंतज़ार कर रहे हो कि कोई आएगा ज़बरदस्ती तुम्हें ले जाएगा। जब दिख गया कि अब हो गया तो अब इंतज़ार क्या कर रहे हो। (व्ययंग करते हुए) ‘मौत का इंतज़ार है!’ इतना इंतज़ार न करिए श्रीमान। ऐसी क्या लाचारगी है?

जीने के लिए तो हम दूसरों पर आश्रित हैं ही, मरने के लिए भी आश्रित हैं। कबीर साहब कह रहे हैं ‘जिसने अपनी मौत ख़ुद चुन ली वो जीवन का मालिक हो जाता है’। हम जीने में बड़े उत्सुक हैं, मरने से डरते हैं। कबीर साहब कह रहे हैं ‘मरने से मत डरो, जीवन मिल जाएगा’। हमारी सारी उत्सुकता इसमें है कि मरें न और जीवन मिल जाए। मरने का ख़ौफ़ भी न रहे और राहुल जी (एक श्रोता) कैंप भी कर आएँ। हो नहीं पाएगा। मरने से डर-डरकर जीवन कहाँ मिलेगा! मृत्यु और जीवन एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं, दोनों एक साथ हैं। जिसे जीना हो वो मौत को भी चुने। हमें लगता है कि जिसे जीना हो उसे मौत से बचना पड़ेगा, हमें बहुत ग़लत लगता है। जिसे जीना हो उसे मौत को चुनना पड़ेगा, बचना नहीं पड़ेगा।

“एक सयानी आपनी”, एक मौत है जो अपनी है और कबीर साहब ने बड़ा मस्त शब्द चुना है उसके लिए, 'सयानी', परिपक्व मौत है वो। वो असली मृत्यु है, पूर्ण मृत्यु है, सयानी, पकी हुई, मैच्योर (परिपक्व), पूर्ण मृत्यु है। और एक मौत होती है जो संयोगवश आ गई। किसी ने थप्पड़ मार दिया, मर गए। हाँ? कि खाना ज्यादा खा लिया, मर गए। बाथरूम में फिसल कर गिरे और मर गए। मौत में कोई शान हो, यह ख़याल क्यों है आपको?

आपको लगता है मौत बड़ी बात है। मौत जैसी टुच्ची चीज़ नहीं होती। दो घंटे के अंदर आपकी लाश बदबू मारने लगती है और आपके जो प्रियजन होते हैं वही कहते हैं ‘जलाओ इसको’। आपको क्या लगता है मौत कोई बड़ी बात है? हममें से कईं लोग हैं जो मौत को इतनी बड़ी बात समझते हैं कि वो मौत के नाम पर ही जीते हैं। ‘तुम मेरी बात न सुनोगे तो मर जाऊँगी।’ (व्ययंग करते हुए) जैसे ही बोले ‘अभी तू इतनी बदबू मारती है, मरकर कितनी मारेगी। बड़ा तूने गंधाती हुई धमकी दी है। यह तूने कोई भावुक नहीं, ये तूने बदबूदार धमकी दी है, सड़ी हुई!’ मरे पड़े हैं ऐसे, उसमें कौनसी शान?

तुम किस बात पर इतना सेंटीमेंटल (भावुक) हो रहे हो? अभी तो दुपट्टा न सरक जाए इसी पर तुम्हारा बड़ा ख़याल रहता है। उसके बाद पजामा उधर जा रहा है और पैंट उधर जा रही है और तुम्हें पता भी रहेगा क्या हो रहा है तुम्हारा। अभी तो बैठे हो तो तुम्हें बड़ा ख़याल रहता है कि देखो, आड़ा-तिरछा न हो जाए, हमारे पिछवाड़े में दर्द होता है! और जब वहाँ लकड़ियों पर डाल दिए जाओगे, ऐसे औंगे-पौंगे पड़े हुए हो और एक लकड़ी नीचे से घुस भी गई है (श्रोतागण हँसते हैं) और फिर आग भी लगाई जा रही है उसी में।

तो यह तो तुम्हारी हालत होनी है मरकर। और उसमें कौन सी बड़ी शान बता रहे हो कि मर जाएँगे। मरोगे तो अपनी दुर्गति करोगे, मर जाओ। मर जाएँगे! तो ऐसी हमारी मौत होती है। उससे पहले ज़रा असली मृत्यु का वरण कर लो फिर वो नक़ली बहुत बड़ी नही लगेगी।

'तुम न मिले तो मर जाएँगे', 'बड़ा दुख है, ये है, वो है', 'पति मेरी बात समझता ही नहीं। बड़ा परेशान करे है। उस दिन रात को घर पहुँची, बड़ा हंगामा मचाया। ऐसा है, वैसा है।' 'अच्छा?' 'घर छोड़ दूँगी।' 'अच्छा?' 'तो छोड़ काहे नहीं देती?' 'वो न बड़ा सनकी किस्म का है। मुझे लगता है कहीं कुछ कर-कुरा न ले।'

जो आदमी जितना मूर्ख होगा वो मौत से उतना डरेगा, मरना तो सूरमा का काम है। तुम किस भ्रम में हो कि ये औंडु-पौंडु, ये मर सकते हैं? इनके पीछे तो मौत आकर के खड़ी होगी तो भी ये इधर-उधर दुबक रहे होंगें। इनकी औकात है ये मर लें? इनका तो जब मरने का टाइम भी होता है तो ये कहते हैं,‘टू मिनट्स प्लीज़’ ।

प्रश्नकर्ता: सुबह-सुबह यही धमकी सुन कर आ रही हूँ।

आचार्य: ये मर लेंगे? कोई कबीर मरता है, ये औंडु पौंडु नहीं मरते, ये तो दो सौ साल जीते हैं। ज़मीन-जायदाद, प्रॉपर्टी बेच कर जीते हैं। बेटों की बहूओं की किडनियाँ लगवा-लगवा कर जीते हैं। (श्रोतागण हँसते हैं)

प्र: गहने बटोर-बटोरकर जीते हैं।

आचार्य: सबसे ज़्यादा किडनी ट्रांसप्लांट ऐसे ही होते हैं।

प्र: ये उसका ले लें, ये होता है ऐसा?

आचार्य: और क्या?

प्र: बहूओं का?

आचार्य: और क्या। लीवर ट्रांसप्लांट का तो अनिवार्य नियम है कि वो कोई घर वाला ही है जो लीवर दे सकता है।

प्र: ये भी, और हाँ बहू भी कम बोल दिया। अख़बार में कुछ दिनों पहले ही एक न्यूज़ हिन्दी के अख़बार में था कि बेटी ने पिता को किडनी दान की। तो अब बेटी की किडनी लगवा-लगवा कर जीते हैं।

आचार्य: अब उल्टा तो होगा नहीं कि बाप बेटी को किडनी दे रहा है क्योंकि बुड्ढा तो बाप है, किडनी तो उसी की फेल होनी है।

प्र: समझौता तो हसबैंड के साथ होता है ज़्यादातर क्योंकि उसको अपना इगो बचाना होता है।

आचार्य: लीवर में तो यह होता है न कि लीवर में यदि छोटा टुकड़ा भी लगा दो लीवर का तो भी बच जाता है। और उसमें मैच नहीं करता है लीवर अगर कहीं बाहर-वाहर से हो तो। तो फिर तो पक्का है कि तुम्हारे घर परिवार में जिसका भी लीवर फेल हुआ है तो तुम्हें ही पकड़ा जाएगा, ‘इधर आ, लीवर निकाल।’ किसी और का चलेगा ही नहीं, सम्भावना ही नहीं और मिलता भी बहुत महंगा है।

प्र: पैसे नहीं देंगे?

आचार्य: तुम्हें कुछ नहीं... तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा। पर यदि किसी बाहर वाले से लीवर खरीदा जाए तो बहुत महंगा मिलता है। अब घर में ही ऐसे ही....

प्र: लीवर चाहिए तो पैदा कर दिया।

आचार्य: चार बेटे ये काहे के लिए पैदा किए थे? एक का लीवर , एक की किडनी , एक की आँत।

प्र: याद नहीं है क्या नाम था वो राजा, बेटे की जिंदगी ले ली थी उसने। यही कहानी है।

आचार्य: सुनी है न कहानी ययाती की, नहीं सुनी? वो बड़ा खिलाड़ी था, उसके एक हज़ार बेटे थे।

प्र: एक हज़ार?

आचार्य: एक लाख क्यों नहीं हो सकते?

प्र: एक हज़ार तो बहुत ज्यादा है।

आचार्य: तो बुड्ढे की मौत आई, यमराज लेने आए। बोलता है ‘अभी तो कुछ भी नहीं हूँ, अभी तो मैं जवान हूँ। हज़ार ही हुए हैं सिर्फ़, मुझे अभी और जीना है।’ तो रोने लगा, कलपने लगा कि मैं अभी सिर्फ़ सौ साल का हूँ, मुझे कैसे मार रहे हो? यह तो नाइंसाफ़ी है। सौ साल में कोई दुनिया देखता है? मैंने तो अभी कुछ किया भी नहीं। तो.. तो यमराज ने कहा ‘यार, इतना कलप रहा है इसको कुछ डिस्काउंट देते हैं।’ तो कहा ‘ठीक है, अपनी जगह किसी और को भेज दे’। तो उसने इधर-उधर जुगाड़ लगाया। अपने सारे बेटों के पास गया, उनके पाँव पड़ा कि कोई तो चले जाओ। ठीक है, तो एक चला गया। यमराज ने कहा ‘ठीक है, सौ साल तुझे और उमर दी’।

सौ साल बाद फिर यमराज आया। इसने फिर मचलना शुरु कर दिया। बोल रहा है, ‘अभी तो मैं बच्चा हूँ, अभी तो मैं पैदा हुआ हूँ। मैंने कुछ देखा भी नहीं है। दो सौ साल क्या होते हैं?’ तो यमराज ने कहा, ‘तू बहुत सही है पर तेरे पास बच्चे बहुत सारे हैं। ऐसा कर किसी और को भेज दे। तेरी वैकेंसी (ख़ाली जगह) उससे भर दूँगा’। तो फिर कलपा अपने बेटों के सामने आकर, ‘तुम मर जाओ मेरी जगह, तुम मर जाओ मेरी जगह, तुम मर जाओ।’ बेटे भी वही थे रामचंद्र के वंशज कि बाप जो बोले करेंगे ही, तो एक और चला गया।

ऐसे ऐसे करते दस बीत गए, हज़ार साल का हो गया। ठीक है? अब आख़िरी बार जो उसका बेटा बच गया था वो सबसे बेचारा छोटा गरीब बेटा था अठारह साल का, जिसकी अभी दाढ़ी-मूँछ आ ही आ ही रही थी। वो भी चला गया था। यह तक हालत हो गई थी ययाति की।

प्र: बेटे भी ऐसे होते हैं?

आचार्य: अभी कई तो ऐसे थे जो पैदा भी नहीं हुए थे उसके। तुम अठारह की बात कर रहे हो? अभी तो वो खिलाड़ी था। तो आख़िर में जब यमराज आते हैं उसके पास। कई-कई, कई-कई बार ऐसे करते-करते तब उसको थोड़ी अक़्ल आती है, बोलता है ‘समझ में आ गया है यह लोटा कभी भर नहीं सकता। इसमें इतने छेद हैं, इसमें कितना भी डालो, ये खाली ही रहेगा।’ कहता है ‘ले चलो’।

वासना तो ऐसी ही होती है, अपने को बचाने के लिए किसी की भी बलि चढ़ा दो। जाना कौन चाहता है? कौन जाना चाहता है? अस्पताल कुछ मामले में बड़ी अच्छी जगह होती है, बहुत सारे तथ्य जो रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में दिखाई ही नहीं देते वो अस्पताल में दिखाई देते हैं। क्योंकि हम जैसा बॉडी आइडेंटिफ़ाइड (शरीर केंद्रित) जीवन जीते हैं, अस्पताल उसको खोल कर रख देता है। अस्पताल तो है ही देह के लिए, अस्पताल उसको पूरा खोल कर रख देता है कि हम क्या हैं, कैसे हैं।

आमतौर पर ऐसे बैठे हैं तो सूक्ष्म इतनी होती नहीं दृष्टि कि पता चले कि किसका मन कैसा है। पर अभी बुख़ार आ जाए सबको तो उससे हमारे चारित्र के बारे में सौ बातें उद्घाटित हो जाएँगी। बुख़ार आते ही कई होंगे यहाँ जो लम्बे हो जाएँगे। कई होंगे जो चिल्ला-चिल्ला कर बेहोश होकर गिरना शुरु कर देंगे। कुछ होंगे जो भाग कर जाएँगे इधर-उधर सो जाएँगे। कुछ होंगे जो गाली-गलौज शुरु कर देंगे कि हमें तुम्हारे कारण बुख़ार आ गया। एक-ही-दो होंगे जो ऐसे बैठे रहेंगे कि ठीक, हमें पता है किसकी क्या क़ीमत है। हमें पता है बुख़ार की क्या क़ीमत है। हमें पता है इसकी क्या क़ीमत है।

देह पर जब बनती है तो उससे देह के तथ्यों का पता चलता है। आ रही है बात समझ में? जब देह अपना एहसास कराती है उस समय पता चलता है कि मन कैसा है। और उसमें ज़रूरी नहीं है कि वो बीमारी में ही अपना एहसास कराए। आप गहरी कामोत्तेजना में हैं उस समय पर पता चलता है कि आप हैं क्या। और ऐसा नहीं है कि कबीर साहब कभी काम में नहीं उतरे थे। कहानियाँ हैं कि कबीर साहब के लड़के भी थे या कम-से-कम एक लड़का तो था ही। तो कबीर साहब भी जानते थे कि काम क्या होता है। पर एक कबीर साहब जब वासना में भी लिप्त हो रहे हैं, वो तब भी कबीर साहब ही हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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