प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी, आचार्य जी मैं गीता सत्रों से लगभग एक साल से जुड़ा हुआ हूँ और मेरा नाम यादव है। मेरा सवाल हाल ही में हुई इटावा में एक घटना को लेकर है, जिसमें दो कथावाचक यादव परिवार से गाँव में गए थे कथा के लिए, और उनके साथ वहाँ पर दुर्व्यवहार किया जाता है और कुछ मूत्र की छींटे भी उन पर फेंकी जाती हैं, उनकी शुद्धता के लिए।
हालाँकि मैं भी आचार्य जी, यादव ही हूँ यादव परिवार से। तो आचार्य जी, मेरा सवाल ये है कि आपसे जुड़ने के बाद ख़ैर मेरे लिए ये सब मायने नहीं रखता, यादव वग़ैरह। लेकिन आचार्य जी, भविष्य में जो पीढ़ी आ रही है और हम भी जो हैं, आचार्य जी, हमारे दोस्तों में ये सब इतना ज़्यादा जाति वग़ैरह देखा नहीं जाता, मस्त रहते हैं लेकिन ये सब इंसिडेंट जब होते हैं सर, तो हमारे दिमाग़ में ये सब फिर से दोबारा भर जाता है। और जो भविष्य में पीढ़ी आ रही है, वो भी सब जात या आइडेंटिटी को पीछे छोड़ना चाह रही है सर। लेकिन ये सब इंसिडेंट जब हो जाते हैं तो फिर से वो सब दिमाग़ में कचरा भर जाता है। तो आचार्य जी, मैं इस पर आपसे समझना चाहता हूँ कि इतना ज़्यादा क्यों चीज़ें हो रही हैं?
और जब आने वाली पीढ़ी ये सब जाति, आइडेंटिटी को छोड़ना चाह रही है, दोस्तों में भी कुछ नहीं देखा होता है ये सब, लेकिन ये सब इंसिडेंट होने के बाद ये सब बढ़ने लग जाता है, आचार्य जी। इससे बड़ी दिक्कत होती है। इससे फिर दोस्तों में भी दरार आ जाती है और…।
आचार्य प्रशांत: ये उनकी सफलता हो जाएगी बेटा। वो यही चाहते हैं ना? ये उनकी सफलता हो जाएगी कि तुम अपने आप को इंसान ना समझ करके ‘यादव’ या ‘ब्राह्मण’ या कुछ और मानना शुरू कर दो। बिल्कुल भी नहीं होता आमतौर पर कि अभी गीता सत्र समाप्त हुआ है, हमने कहाँ, किस ऊँचाई की अभी बात करी है। बिल्कुल ऐसा नहीं होता कि तुम गीता सत्र के बाद मेरे सामने आते और अपना परिचय ये कह कर देते कि तुम यादव हो।
तुम कभी भी ऐसा नहीं करते। अगर तुमने मुझसे पहले कभी बात करी भी होगी, तो बस अपना नाम बताया होगा। पर देखो, आज उन्होंने मजबूर कर दिया ना तुमको कि तुमको याद रखना पड़ा और बताना पड़ा कि यादव हो। मुझे मालूम है कि तुम किस अर्थ में बता रहे हो। मुझे मालूम है, तुम इस अर्थ में नहीं बता रहे कि तुम उन बातों को महत्त्व या श्रेय देना चाहते हो। लेकिन फिर भी देखो एक शुरुआती, आंशिक सफलता तो उन लोगों को मिल गई ना? है ना?
तुम्हारे परिचय के साथ तुम्हारी जाति, वर्ण, ये सब जुड़ गए ना? और यही सब चलता रहा तो फिर मान लो और बात आगे बढ़ जाती है। मान लो दंगे हो जाते हैं। मान लो कोई पक्ष, दूसरे पक्ष की हत्या कर देता है। ये सब बहुत चलता है। उत्तर प्रदेश में हुआ है ना?
प्रश्नकर्ता: जी सर। इटावा, उत्तर प्रदेश।
आचार्य प्रशांत: हाँ, तो यूपी है हमारा। वहाँ तो मतलब, हमारे यहाँ जान की क़ीमत क्या है? ख़ासकर इस तरह की चीज़ों में, जहाँ जाति पर और जो तुम्हारा जातिगत अहंकार है, उस पर आँच आ जाए तो बहुत जल्दी खून-खच्चर हो जाता है। तो अभी दो-चार लाशें गिर गई होतीं तो बात यहाँ तक आ सकती थी कि तुम स्वयं को तो यादव के रूप में देखते ही, तुम्हें कोई पीछे से ये भी याद दिलाने लग जाता कि जिनसे तुम प्रश्न कर रहे हो, वो जन्म से ब्राह्मण कहलाते हैं।
और तुम मुझसे ये बात कर रहे होते और मान लो, माहौल अब बिल्कुल गर्मा गया है, तनाव आ गया है, दंगे हो गए हैं, कुछ हत्याएँ हो गई हैं, इन्हीं चीज़ों पर — तो तुम मुझसे ये बात भी नहीं कर पाते। तुमको भी ये लगने लग जाता कि तुम यादव हो, मैं ब्राह्मण हूँ। सहज नहीं रह पाते। हो सकता है बात कर लेते, पर भीतर कुछ न कुछ एक काँटे जैसा चुभ जाता। और यही उन मूर्खों की सफलता होती। वो चाहते ही यही हैं। ये सब घटनाएँ बहुत स्थानीय स्तर पर घटती हैं। कहने को ये लोकल इवेंट्स होते हैं, पर इनके पीछे जो मंशा होती है अक्सर, वो होती है कि ये बात फैले। ठीक वैसे जैसे आतंकवाद होता है।
आतंकवादी कोई बहुत ज़्यादा लोगों को थोड़ी ही मारते हैं। 2-4-8-20-50 इतने ही लोगों को मारते हैं आतंकवादी। कम से कम भारत जैसे देश के लिए ये कोई बहुत बड़ा आँकड़ा नहीं है। इससे कहीं ज़्यादा लोग तो प्रतिदिन भारत में सड़क दुर्घटना में मर जाते हैं। लेकिन आतंकवादी चाहते हैं कि एक लहर फैले — कि मनमुटाव फैले, कि वैमनस्य फैले, है ना? आतंक फैले, ख़ौफ़ फैले, दूरियाँ फैलें, मनमुटाव। आप दूसरे को दूसरे की तरह देखना शुरू कर दो, वो पराया है। और इस तरह की घटनाएँ आगे भी बहुत घटती रहेंगी। उनको जो तुम सबसे कड़ा जवाब दे सकते हो वो यही है, कि उनकी आँच अपने ऊपर मत आने दो।
मेरे बस में हो ना, तो मैं तो उपेक्षा ही कर दूँ सीधे-सीधे। सही कहता हूँ, मेरा एक रत्ती जी नहीं करता ये दुनिया भर में जो कूड़ा घटनाएँ घट रही हैं, उन पर बोलने पर। चाहे कहीं युद्ध चल रहा हो, चाहे कहीं कुछ हो रहा हो, इंसान ने जितनी भी बदतमीज़ियाँ कर रखी हैं उन पर बोलने का मेरा... क्योंकि बोलने में थोड़ा बहुत ही सही, इतना ही सही, तिल बराबर ही सही, पर वो बात आकर के आपको स्पर्श कर जाती है। आपने कहीं न कहीं उसको इतना महत्त्व तो दिया ही है कि आपने उस पर एक चर्चा करी, वक्तव्य दिया। लेकिन बोलता हूँ क्योंकि आपके लिए ज़रूरी है कि मैं कुछ बोलूँ, तो कभी यहाँ बोल देता हूँ, कई बार मीडिया से बोल देता हूँ।
लेकिन सच पूछो तो आदर्श स्थिति में इन घटनाओं को और ऐसे मूर्ख लोगों को जो ये सब करते हैं, इनको समुचित जवाब यही है कि इनकी पूर्ण उपेक्षा कर दी जाए। क्योंकि वो चाहते यही हैं कि उनकी उपेक्षा न हो। वो चाहते हैं कि बात फैले, वही आतंकवाद वाली चीज़। ख़बर फैले, अपने पराए का भेद पैदा हो। उनकी मंशा यही रहती है।
और फिर दूसरी समस्या ये कि इसमें हम बात करें तो शुरू कहाँ से करें? क्या बोलें? कौन कथा, कौन कथावाचक? इस पूरी चीज़ का धर्म से संबंध क्या? संभावना तो ये है कि जिनको रोका गया है कथा कहने से, उनको न भी रोका जाता तो वो जो कथा कहते, वो किसी काम की नहीं थी।
यादव-ब्राह्मण की बात नहीं है। ज़्यादातर कथावाचक जो बातें कर रहे हैं, उन बातों में गहराई होती ही कहाँ है? तो अब कितने ही कोणों से इस पूरी बात को हम टटोल सकते हैं। जैसे कि कूड़े का एक पर्वत हो पूरा, उसमें किसी भी दिशा से प्रवेश करो, घुसोगे तो कूड़े में ही न! कहाँ से जाएँ उसमें, क्या करें? मैं ये बात कर सकता हूँ कि आजकल कथाओं के नाम पर क्या चल रहा है। मैं ये बात कर सकता हूँ कि जो ब्राह्मण अपने आप को ब्राह्मण बोल रहा है, वो ब्राह्मण वास्तव में है भी क्या?
श्रुति ने, उपनिषदों ने और श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता में ब्राह्मण की तो बड़ी ऊँची परिभाषा बताई है, और कहा है कि साहब, आप जन्म से तो ब्राह्मण हो नहीं जाते।
सिर्फ़ इसलिए कि आपके पिताजी के साथ ब्राह्मण वर्ण जुड़ा हुआ था, आप उससे तो ब्राह्मण हो नहीं जाते। हाँ, लोकधर्म, लोकसंस्कृति में यही चलता है, पर ऐसे तो आप ब्राह्मण हो नहीं जाओगे। श्रीकृष्ण तो कहते हैं कि जो असली ज्ञानी होता है, वो तो ब्राह्मण को, चांडाल को, कुत्ते को, गाय को, सबको एक दृष्टि से देखता है। सबके प्रति समदर्शी हो जाता है।
तो ये जो सब अपने आप को ब्राह्मण इत्यादि बोलकर दूसरों को छोटा समझ रहे हैं, ये कौन हैं? बड़ा सवाल है ये। इस पर एक घंटे चर्चा हो सकती है। पर चूँकि एक घंटे हो सकती है, तो इसीलिए बिल्कुल मन नहीं करता चर्चा करने का। कितनी बातें करें? कचरे में घुस जाएँ? अनंत तो गंदगी फैला दी है।
श्रीकृष्ण कहते हैं बहुत वर्ण व्यवस्था को लेकर के कहते हैं — गुण-कर्म। गुण-कर्म कि इसके आधार पर है वर्ण व्यवस्था, और अपना हवाला देकर के कह रहे हैं। गुण-कर्म का क्या आशय है? एक तो ये जो तुम्हारी देह है, जो तुम्हें मनुष्य योनि मिली है, और गुण और उसके बाद कर्म। गुण है, उसके आख़िरी बाद कर्म। कर्म माने, जो तुम चयन कर रहे हो अपनी चेतना के हिसाब से। इससे तुम्हारा वर्ण होना है निर्धारित।
और तुम चयन ये कर रहे हो कि तुम दुर्व्यवहार करो, मारा-पीटी करो, जो भी करो। मान लो तुम दुर्व्यवहार नहीं भी कर रहे, पर अपने भीतर जात-पात लेकर के घूम रहे हो, तो तुम कहाँ के आध्यात्मिक आदमी हो? गिरी से गिरी हरकत है। समझ रहे हो? इससे कुछ संबंधित तुम्हारे पास कुछ सवाल हों सीधे तो पूछ लो, तो बोल दूँ। नहीं तो ऐसी चीज़ों को लेकर मेरे पास बस ऊब है और शोक है। उदासीनता ही इसमें सबसे श्रेष्ठ विकल्प है। बताओ।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रश्न यही है कि ये तो ठीक है उपेक्षा कर दी। लेकिन आचार्य जी, कहीं न कहीं से फिर भी वो बातें आ ही जाती हैं, मुड़-मड़ा के।
जैसे दोस्त लोगों के साथ भी चीज़ें गड़बड़ हो जाती हैं। और कहीं उठ-बैठ रहे हो, फिर भी चीज़ें हो जाती हैं। और एक तरीक़े से अभी तो जो 18-19-17 साल के ख़ासकर इंस्टाग्राम, यूट्यूब पर, ख़ासकर इंस्टाग्राम पर बहुत ज़्यादा ये सब चीज़ें आ जाती हैं। और वहाँ पर यूथ बहुत ज़्यादा है आज भी, बहुत ज़्यादा संख्या में।
आचार्य प्रशांत: हाँ, मैंने देखा है। ये मेरे समय में, मैं जब कॉलेज में था तब ऐसा नहीं था। ये अभी पिछले लगभग 20 साल में हुआ है कि गाड़ियों पर लिखना — ब्राह्मण, गुर्जर, यादव, त्यागी और जो भी आपका है, और जितने तरीक़े का हो सकता है सब लिखा रहता है। ये सब अभी शुरू हुआ है। और मेरे समय में कोई ये करता, तो लोग हँसते उसके ऊपर। पर हालात बिगड़े हैं, जातिवाद और घना हुआ है। जातिवाद भी और धार्मिक कट्टरता दोनों, ये साथ-साथ चले हैं। और इनके राजनैतिक कारण भी हैं।
जातिवाद जड़ पकड़ता है तो कुछ राजनैतिक दलों को फ़ायदा होता है। और जब उनको फ़ायदा होने लग जाता है, तो दूसरे राजनैतिक दल हैं, वो धार्मिक कट्टरता बढ़ाते हैं। जब धार्मिक कट्टरता बढ़ने लग जाती है, तो कुछ राजनैतिक दल हैं जो जातिवाद बढ़ाएँगे कि तुम सांपनाथ तो हम नागनाथ। समझ रहे हो? और ये फिर दोनों चीज़ें इसीलिए बढ़ती जा रही हैं, बढ़ती जा रही हैं। इसको काटने के लिए, इसको बढ़ाया जाता है। इसको काटने के लिए, इसको बढ़ाया जाता है। ऐसे-ऐसे-ऐसे, और ये दोनों कट्टरताएँ बढ़ती ही जा रही हैं।
और दोनों ही भारत राष्ट्र के लिए बहुत ख़तरनाक हैं, पूरे विश्व के लिए ख़तरनाक हैं। और ये जो कट्टरता का बढ़ना है ये हम बस भारत में नहीं, पूरे विश्व में देख रहे हैं। ये छोटी-छोटी पहचानें, ये जो क्षुद्र 'आइडेंटिटीज़' होती हैं — इनमें क़ैद हो जाना, ये हमें पूरी दुनिया में दिखाई दे रहा है।
इतना सुंदर कहा था रवींद्रनाथ ठाकुर जी ने कि, "इंटु दैट हेवन ऑफ फ्रीडम, माई फादर, लेट माई कंट्री अवेक।" किस हेवन ऑफ फ्रीडम की बात करी थी? इसमें कहा था, “वेयर मैन'स आइडेंटिटी इज़ नॉट ब्रोकन बाय नैरो डोमेस्टिक वॉल्स।” ये उनके एक्ज़ैक्ट वर्ड् नहीं हैं, क्या हैं उसको कर लेना।
जिन्होंने जाना है, उन्होंने हमेशा यही कहा है कि जितना तुमने अपने आप को किसी छोटी सी पहचान में क़ैद कर लिया, उतना तुम्हें ग़ुलाम माना जाना चाहिए। रवींद्रनाथ ये नहीं कह रहे हैं कि अंग्रेज़ों की ग़ुलामी से मुझे आज़ाद हो जाना है। वो कह रहे हैं, ये जो भीतर इस तरह की ग़ुलामियाँ होती हैं न — “मैं गोरा हूँ, मैं काला हूँ, मैं अमीर हूँ, मैं गरीब हूँ, मैं यादव हूँ, मैं ब्राह्मण हूँ, मैं यहाँ का हूँ, मैं वहाँ का हूँ, मैं स्त्री हूँ, मैं पुरुष हूँ,” ये है तुम्हारी असली क़ैद।
और इस क़ैद के ख़िलाफ़ हमें कोई स्वतंत्रता संग्राम देखने को नहीं मिलता। बल्कि क़ैद जितनी बढ़ती जाती है, हमें उतना फ़ख़्र होता जाता है। देखो हमारे भीतर कोई है ऐसा, समझो, जिसको बड़ा मज़ा आता है, और ज़्यादा दीवारें खड़ी करने में। वो ये नहीं समझते कि तुम जितनी दीवारें खड़ी कर रहे हो, तुम अपने लिए उतनी बड़ी जेल बना रहे हो। उतनी बड़ी नहीं उतनी छोटी जेल बना रहे हो।
हमारे भीतर कोई ऐसा है जो बिना बाँटे जी नहीं सकता। उसी को फिर शास्त्र “अहंकार” बोलते हैं। अहंकार की परिभाषा ये नहीं होती कि, “मैं ही सही हूँ, मैं ही सही हूँ और मैं दूसरों पर छा जाऊँगा, और मुझमें घमंड बहुत है।” ये अहंकार नहीं होता। अहंकार का मतलब होता है अपने आप को छोटा कर लेना। मैं दूसरी प्रजातियों से तो अलग हूँ ही, मुर्गा मार के खा जाऊँ, मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। दुनिया भर के पेड़ कट जाएँ, मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। मैं दूसरी प्रजातियों से तो अलग हूँ ही, मैं दूसरे राष्ट्रों से भी अलग हूँ।
किसी दूसरे राष्ट्र में बड़ी भारी आपदा आ गई, वहाँ सब लोग मर गए, वो मुझे कुछ से प्रभाव ही नहीं पड़ रहा। मैं इन सब से तो अलग हूँ ही, जो मेरे आसपास के लोग भी हैं, मैं इनसे भी अलग हूँ। काटते-काटते-काटते, मुझे अपने आप को किसी तरीक़े से अपने भाई से भी अलग घोषित कर देना है।
वो ये सोचता है कि जितनी वो छोटी अपने लिए क़ैद बना लेगा, उतना सुरक्षित हो जाएगा। उसको अहंकार कहते हैं। जैसे एक आदमी अपने चारों तरफ़ दीवार खड़ी कर ले और उन दीवारों के बीच वो अकेला खड़ा हो और अब वो कहे, "मैं बहुत सुरक्षित हूँ क्योंकि अब यहाँ कोई नहीं है जो मुझे नुकसान दे सकता है।" ये अहंकार है। उसने अपने आप को सबसे बांट लिया है, सिर्फ़ इसलिए कि वो डरा हुआ है। वो कह रहा है, "इसको भी अलग करो, इसको भी अलग करो, सब ऐसे दीवारें खड़ी कर दो, विभाजन रेखाएँ खड़ी कर दो।" ये अहंकार है।
और जो अपने आप को ऐसा कर लेगा, सोचो कितना तड़पेगा, कितना एकाकी, कितना अकेला हो जाएगा वो। फिर हम कहते हैं कि लोनलीनेस बहुत छा रही है। तो छाएगी ही न? सब तरीक़े की तुमने अपनी डिवाइसिव आइडेंटिटीज़ बना ली हैं — विभाजनकारी पहचानें, और उनके तुम ग़ुलाम बन गए हो। अब तुम परेशान तो होओगे ही।
और तो बात तुमने कही कि ये सब बातें समझते हैं, लेकिन फिर भी जो नए लड़के हैं, जो इंस्टाग्राम जेनेरेशन है, और जवान लोग, सब तो इन पर असर तो हो ही जाता है। असर इसलिए हो जाता है क्योंकि हमारी शिक्षा ने, हमारी परवरिश ने हमें कभी सिखाया नहीं कि प्रतिक्रिया करना ग़ुलामी है। तो किसी ने कोई क्रिया करी तो हम अपने आप को मजबूर पाते हैं प्रतिक्रिया करने के लिए।
हम ये नहीं समझते हैं कि क्रिया और प्रतिक्रिया सदा एक ही आयाम में होते हैं। हम ये नहीं समझते हैं कि प्रतिक्रिया के पास कोई स्वतंत्रता तो होती ही नहीं न। क्योंकि क्रिया हो गई, तो प्रतिक्रिया तो स्वतः होनी है। जो प्रतिक्रिया करे, वो तो फिर ग़ुलाम हो गया क्योंकि उसके पास तो अब कोई विकल्प नहीं था। जिसके पास कोई विकल्प न हो, उसको ग़ुलाम कहते हैं।
किसी ने कहीं कुछ कर दिया और ख़बर फैला दी, और इसके कारण सब जवान लोग उत्तेजित हो गए और रैडिकलाइज़ हो गए। ये प्रतिक्रिया है न? और इसमें भारी गुलामी है। इसका सही जवाब ये है कि "तुम कुछ भी करते रहो, हम तुम्हारे छिपे मंसूबों को सफल नहीं होने देंगे। तुम चाहते हो कि हम दूसरे से नफ़रत करें, हम दूसरे को पराया समझें। हम नहीं करेंगे। हम नहीं करेंगे।"
जब विभाजन हुआ था भारत का, जानते हो उस वक़्त लाखों हत्याएँ हुईं थी, ये तो पता ही है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद का वो सबसे खूनी काल था, दुनिया भौंचक्की रह गई थी। हिंदू, सिख, मुस्लिम सब, सब लाखों में मरे थे। जानते हो इनको मारा किसने था? अगर तुम थोड़ा सा उसके विवरण में, विस्तार में जाओगे, पढ़ोगे कि ये जितने भी मरे थे इनको मारा किसने था। इनमें से ज़्यादातर को उनके मोहल्ले वालों ने ही मारा था, उनके पड़ोसियों ने मारा था, उनके गाँव वालों ने मारा था। 80-90% लोग अजनबियों से नहीं मरे थे इसमें।
शहर तो तब बहुत ज़्यादा थे भी नहीं। शहरीकरण तब उतना नहीं था। ज़्यादातर जो मौतें थीं, वो हुई थीं पंजाब में और इधर बंगाल में। वहाँ कोई बहुत बड़े शहर तो थे ही नहीं। सब गाँव थे, और छोटे गाँवों में और छोटे कस्बों में तो सब एक-दूसरे को जानते हैं, सब परिचित होते हैं एक-दूसरे से। यही जो परिचित लोग थे, इन्होंने ही मारा था एक-दूसरे को।
और बहुत-बहुत मामलों में तो जो आपका पड़ोसी ही है, उसने मारा था। क्योंकि वो बहुत अच्छे से जानता था कि तुम कहाँ छुपे होगे। आपके गाँव में भी जो थोड़ा दूर पर रहता है, जिससे आपका कोई रिश्ता-नाता नहीं, उससे तो आप बच भी सकते हो। पड़ोसी से बचना बड़ा मुश्किल है। वो ये भी जानता है कि आपके घर में चोर दरवाज़ा कहाँ पर है। तो आपका पड़ोसी तो ज़रूर मारेगा आपको।
यहाँ तक दिलों में दूरियाँ बनवाने में सफल हो जाते हैं ये सब आतंकी। ऐसे तक मारा गया है कि, "आओ-आओ, भीड़ आई है मारने के लिए, हमारे घर में पनाह ले लो।" और वो उनको घर में बुला लिया और ख़ुद ही मार दिया। या कि, "तुम एक काम करो, तुम अपने घर में घुस जाओ, हम बाहर से ताला लगा देते हैं।" और जो तुम्हें भीड़ मारने आएगी, हम उसको बोल देंगे कि "ये लोग तो घर में हैं ही नहीं, चले गए।" और जब भीड़ मारने आई तो बता दिया, और भीड़ ने ताला नहीं तोड़ा, घर में आग लगा दी। जितने भीतर थे, वो ज़िन्दा जल गए। इस तरीक़े से लाखों मौतें हुई थीं विभाजन के समय।
इंसान को इंसान से, पड़ोसी को पड़ोसी से काट दो, रिश्तेदार को रिश्तेदार से काट दो, दोस्त को दोस्त से काट दो। कारण? उसने किया है तो हम भी करेंगे न। नहीं तो हमारी मर्दानगी में कमी आ जाएगी। हम क्या बस बर्दाश्त कर लें? उन्होंने चार मारे हैं, तो हम आठ मारेंगे।
जिसने 4 मारे हैं, वो चाहता था कि वो 12 मारे। वो 4 ही मार पाया। उसका बाक़ी काम तुमने पूरा कर दिया, 8 मार गए तुम। ये मत सोचो कि चार ‘अ’ मरे और बारह ‘ब’ मरे, उद्देश्य था कि मरें। उसे 12 मारने थे — 4 उसने मारे, 8 तुमसे मरवा दिए। कुल मिलाकर के सफल माया हो गई। तुम सोच रहे हो कि तुम 8-4 से जीत रहे हो। वो दूसरा वाला सोच रहा है कि वो 4-8 से हार रहा है। स्कोर — दंगों में स्कोर बहुत गिना जाता है। बताओ, ज़्यादा कौन मरा। तुम सोच रहे हो 8-4 है, कोई दूसरा सोच रहा है 4-8 है। ना 8-4 है, ना 4-8 है। स्कोर है 12-0। समझना है, रिऐक्ट नहीं करना है। भावनात्मक आवेग में नहीं जाना है।
और वो समझ तो देखो, या तो जीवन के निर्मम अवलोकन से आती है या फिर जो असली, गहरे, वास्तविक शास्त्र हैं उनसे आती है।
अगर आप बचपन से विसडम लिटरेचर नहीं पढ़ रहे हो, विचारकों, चिंतकों, दार्शनिकों, ज्ञानियों की बातों के संपर्क में नहीं हो, तो आप भीड़ का शिकार बनोगे ही बनोगे। भीड़ सफल हो जाएगी आपको उकसाने में। और अगर भीड़ का शिकार नहीं बनोगे, तो कोई कहेगा, ये जातिद्रोही है कोई कहेगा, वंशद्रोही है कोई कहेगा, कुलद्रोही है कोई कहेगा, देशद्रोही है कोई कहेगा, धर्मद्रोही है।
इन सारी बीमारियों का उत्तर है वास्तविक धर्म। वो वास्तविक धर्म जो शायद ना तो उनके पास है जो कथा पढ़ रहे हैं, ना उनके पास है जो कथा पढ़ने से रोक रहे हैं। और वो वास्तविक धर्म हमें उपलब्ध है। कितने ये दुर्भाग्य की बात है कि हमें मिला हुआ है, भारत की धरती से ही मिला हुआ है। लेकिन फिर भी हम उसकी उपेक्षा, अनादर करते रहते हैं। ठीक है अध्यात्म में फ़र्ज़ीवाड़ा बहुत हुआ है, लेकिन भारत में असली लोगों की भी कमी नहीं रही है। और वो बहुत ख़री बातें आपके लिए छोड़ गए हैं।
लेकिन इतना तो आपको करना पड़ेगा न कि जाकर के उनकी बातें पढ़ो, उनका कहना सुनो, उनके विचार पढ़ो, उनका दर्शन पढ़ो। और जब ये पढ़ने लग जाते हो, तो फिर ये जो बहुत निचले तल की खींचातानी होती है कि किसी ने किसी को गाली दे दी, किसी ने किसी पर पेशाब कर दिया, कोई किसी को कह रहा है कि तू शूद्र है, कोई किसी को कैसे अपमानित कर रहा है। ये बातें फिर रोमांचक नहीं लगतीं, ये बातें फिर उत्तेजक नहीं लगतीं। इन बातों पर खेद ज़रूर होता है, पर इन बातों पर कोई प्रतिक्रिया नहीं उठती। नहीं तो फिर बोल रहा हूँ, इंसान दिखाई नहीं देगा आपको। अगर ये सब जो लोग हैं, आपने इनको सफल होने का मौका दे दिया।
गांधी जब मरे तो जिन्ना से ये नहीं बोला गया, "एक अच्छा इंसान मर गया है।" उनके आसपास वालों ने बहुत बोला कि श्रद्धांजलि दे रहे हो, आख़िरी शब्द हैं आपके, कुछ अच्छा बोल दो। पर जिन्ना को इंसान दिखाई नहीं दिया। जिन्ना बोले, "एक अच्छा हिंदू मरा है।" एक हिंदू मरा, ये दिखाई दिया।
एक दूसरी दृष्टि से देखूँ, तो इस तरह की घटनाएँ कम से कम एक मामले में कुछ उपयोगिता रखती हैं। बताओ क्या? उपयोगिता ये है कि तुम्हें दिख जाती हैं कि तुम्हारे भीतर अभी भी जातीयता की भावना कितनी है। किसी ने आपकी जाति वाले को डाँट दिया, या मार दिया, या अपमान कर दिया और इससे आपका खून खौल उठा। इससे आपको ये प्रदर्शित हो जाता है, अपने भीतर स्वयं को दिख जाता है आईना जैसा, कि आपके भीतर जातिगत भावना और पहचान कितनी गहरी बैठी हुई है। एकमात्र शायद यही उपयोगिता हो सकती है, नहीं तो और क्या?
किसी के साथ अन्याय हुआ, किसी के साथ अत्याचार हुआ, मैं उसके पक्ष में इसलिए खड़ा हो जाऊँ कि एक इंसान के साथ अन्याय नहीं होना चाहिए, ये एक बात है। लेकिन किसी के साथ गलत हुआ, दुर्व्यवहार हुआ और मैं उसके पक्ष में इसलिए खड़ा हो रहा हूँ क्योंकि उसकी और मेरी जाति एक है, तो इससे मुझे मेरे बारे में पता चलता है कि मेरे भीतर भी अभी एक बीमारी शेष है। अच्छा हुआ, पता चल गया। आ रही है ना बात समझ में?
देखो, हमारे यहाँ ना ये इतनी गहरी चीज़ बैठी हुई है, "जाति," कि वो लोग भी जो दावा करते हैं कि "जाति नहीं है हमारे भीतर" और ये और वो। बिरले लोग होते हैं भारत में, जिनके सर से जाति का भूत सचमुच उतर गया होता है। मुश्किल से एक-आध, दो प्रतिशत हो आबादी के तो हों, नहीं तो इससे ज़्यादा नहीं।
कम्युनिस्ट लोग, जो कहने को जाति को बिल्कुल नहीं मानते। मैं कहीं पढ़ रहा था कि कोई कह रहा था कि फलाने थे, वो बड़े इनामी-गिनामी कम्युनिस्ट। और उनकी बेटी की शादी हुई, कई उनके बच्चों की शादी हुई। मैंने पूछा कि हर जगह जाति मिलाकर शादी करी है आपने? क्योंकि हर जगह मेल बिल्कुल बराबर का बैठा हुआ था। बोले, "आप तो समता में विश्वास रखते हैं, आप तो किसी भी तरीक़े के वर्ग भेद, वर्ण भेद में विश्वास रखते ही नहीं तो ये कैसे हो रहा है कि आपके बच्चों का भी रिश्ता बिल्कुल जाति के लिहाज़ से मेल बैठा हुआ है?" ये कैसे किया आपने?
तो जाति ऐसी चीज़ है कि यहाँ पर चाहे ज्ञानी हो, चाहे कम्युनिस्ट हो, कि कोई हो, ज्ञानी भी बोलते हैं कि जाति से मुक्त हैं और ये वामपंथी भी बोलते हैं कि जाति से मुक्त हैं। बड़ा मुश्किल है भारत में। ये (श्रीमद्भगवद्गीता की तरफ़ इंगित करते हुए) शायद मुक्त कर दे, जब तक देह-भाव से नहीं मुक्त होओगे, तब तक देह के साथ जो चीज़ जुड़ी हुई है उससे कैसे मुक्त हो जाओगे?
जाति का रिश्ता देह से ही बताया जाता है ना? कि जिस कुल में पैदा हुए हो, माने देह पैदा हुई है जो माँ का, बाप का था वही तुम्हारा होगा, वर्ण। यही तो बताया जाता है। हाँ तो जिसमें देह-भाव जितना प्रगाढ़ होगा, उसके जातिवादी होने की संभावना उतनी बढ़ जाएगी। और अध्यात्म इसलिए जरूरी है क्योंकि वो सीधे-सीधे देह-भाव पर ही सवाल उठाता है। वो पूछता है, "क्या सचमुच तुम देह हो?" और जब तुम देह नहीं, तो तुम्हारी जात कैसे हो सकती है?
जाति पर हमारी संस्था की पूरी किताब ही है। उसमें हम क्या पूछते हैं? किताब का शीर्षक है "जात।" नीचे उसमें हम पूछ रहे हैं: “अजात की क्या जात?” देह का जन्म हुआ है, तुम देह तो हो नहीं। तुम अजात हो। आत्मा को अजात बोलते हैं। तुम्हारी तो कोई जाति हो ही नहीं सकती। जात माने जिसका जन्म हुआ हो। तुम वो हो जिसका जन्म ही नहीं हुआ है। तो तुम्हारी कोई जाति कैसे हो सकती है? तो —
जब तक तुम में देह-भाव रहेगा, तब तक तुम में जाति-भाव भी होने का ख़तरा रहेगा।
जितना तुम मानोगे कि "बस इतना ही हूँ मैं और दुनिया से अलग। ये शरीर है, ये बाक़ी शरीरों से अलग है और पूरे जगत से अलग है। और ये मैं शरीर हूँ और एक विशेष क्षण में जन्म लिया है, एक क्षण में ये शरीर मिट जाएगा, उस शरीर के भीतर कोई जीवात्मा है जो फिर उड़ जाएगी और वो दोबारा शरीर ग्रहण करेगी।" ये बातें तुम जब तक पकड़े रहोगे, तब तक जाति-भेद में फंसने की तुम्हारी संभावना बनी रहेगी।
मिट्टी हूँ, शरीर उठा है। यही पंचतत्त्व हैं, इन्हीं से शरीर उठा इन्हीं में मिल जाना है — मेरा भी, तुम्हारा भी। कैसे मेरा-तुम्हारा शरीर अलग हो गया? बताओ। और हम किसी मान्यता की बात नहीं कर रहे, ठोस तथ्य है ये। हम देखते नहीं हैं क्या? इतना-सा बच्चा पैदा होता है वो माँ का शरीर है, वो भी मिट्टी से आया था। बच्चा पैदा हुआ है वो सांस ले रहा है, खाना खा रहा है, पानी पी रहा है, सब यही तो है पंचभूत। वही खाना तुम्हारा है, वही खाना किसी और वर्ण, किसी और जाति का है। कैसे अलग हो गए? वही हवा सब है सबके लिए, सांस ले रहे हैं। वही पानी सब पी रहे हैं, अलग कैसे हो गए?
खून सब जातियों का अलग-अलग होता है? बता दो! लीवर ट्रांसप्लांट हो, किडनी लगे, अब तो दिल भी लग जाता है, हार्ट ट्रांसप्लांट — वो जाति देख के लगेगा? तुम्हें पता है मज़ेदार बात, जाति छोड़ दो प्रजाति देख के भी नहीं लगता। इंसान के शरीर में सूअर के शरीर के भी कुछ अंग लगाए जा सकते हैं सफलता पूर्वक। मेडिकल साइंस वहाँ तक पहुँच रही है। क्योंकि हम तो जैसा हमारा जीवन है, कामनाएँ, सब ख़राब कर लेते हैं।
आपके शरीर में बंदर, सूअर, गोरिल्ला, इन सबके शरीरों के हिस्से लगाए जा सकते हैं। तो जाति-भेद तो छोड़ दो, तुम प्रजाति-भेद भी नहीं कर सकते। सब एक है। तुम मर रहे होगे, कोई खून देने आएगा, उसकी जाति पूछोगे? उसका लिंग पूछोगे? धर्म, मज़हब पूछोगे उसका? क्या करोगे? जो बड़े कट्टर लोग हैं, वो भी ना पूछें। वो बस राजनीति करते समय, दंगा करते समय पूछते हैं वरना नहीं पूछेंगे। तो विज्ञान की दिशा जाओ। विज्ञान भी बता देगा कि क्या ऐसी बातें कर रहे हो? दुनिया के किसी भी इंसान से, वो कहीं भी बसता हो — भारत छोड़ दो अफ्रीका में बसता हो, लैटिन अमेरिका में बसता हो, चीन में बसता हो, दुनिया का कोई भी इंसान हो, उससे जो तुम्हारा डीएनए है ना, वो 99. कितने सारे उसके आगे 9 आ जाएँगे, उतना मेल खाता है। बताओ, काहे की जाति?
और बताता हूँ, ये बात कुछ लोगों को चुभ जाएगी। ये जो जीन्स का विज्ञान है, जेनेटिक रिसर्च ये मालूम है क्या दिखाती है? कुछ नहीं होता जातिगत शुद्धता जैसा। जो कहते हैं ना कि हमारा खून साफ़ रहना चाहिए। हमारा फलाना चंद्रवंशी खून है कि सूर्यवंशी खून है, कि ब्राह्मण खून है, कि यदुवंशी खून है, ये कुछ नहीं होता।
तुम्हारे शरीर की सामग्री लेकर जब रिसर्च किया जाता है, तो पता चलता है सबके शरीर में सब कुछ मिलावटी है, मिश्रित है, मिलाजुला है। तुम अधिक से अधिक अपनी कितनी पीढ़ियों की गारंटी ले सकते हो? और गारंटी भी तुम क्या ले लोगे? तुम्हें तो वही पता है जो समाज ने बता दिया और परंपरा ने बता दिया। जो अपने आप को बहुत शुद्ध रक्त का बोलते हैं, उनके शरीर में भी हर तरफ़ से आई सामग्री मौजूद है। बस निर्भर इस पर करता है कि तुम कितनी पीढ़ी पीछे जाना चाहते हो। कोई नहीं बोल सकता कि मैं शुद्ध ये हूँ, कि शुद्ध वो हूँ, कि शुद्ध वो हूँ। सबका मामला मिलाजुला है। हाँ, अनुपात घटता-बढ़ता रहता है बस। अनुपात घटता-बढ़ता रहता है और कुछ नहीं है।
तो कोई कैसे बोल रहा है कि मैं दूसरे से अलग हूँ? कैसे अलग हो सकते हो? बताओ। तुम्हें मालूम है? अंग्रेज़ इतने दिन भारत रह के गए हैं। भारत की आबादी का बहुत बड़ा तबका है, जिसमें उनका भी खून मिला हुआ है। अब क्या करें? हाँ, घोषित नहीं होता है, क्योंकि ये सारे काम जनता को बताकर तो किए नहीं जाते। और उस समय पर डीएनए टेस्टिंग की भी कोई व्यवस्था नहीं थी। हम काले-भूरे लोग, हमारे घर में अचानक गोरा बच्चा पैदा हो गया तो हमने उसको वरदान मान लिया, भगवान का। और अब तुम अपनी रक्तगत कि, जातिगत कि, वर्णगत श्रेष्ठता का दंभ भरते हो। और कहोगे ऐसा और किसी के यहाँ हुआ होगा, हमारे यहाँ नहीं हुआ। तुम कितनी पीढ़ियों का जिम्मा उठा सकते हो? कैसे लोगे गारंटी? बताओ, तुम अपनी ले सकते हो?
तो विज्ञान की नज़र से देखो, या इतिहास की नज़र से देखो, या अध्यात्म की नज़र से देखो, किधर से भी देखो ये सब बड़ा हास्यास्पद है मामला। और हमारे देश का अभाग्य कि हम ये मूर्खता अभी तक ढोते जा रहे हैं।
प्रश्नकर्ता: और आचार्य जी, अभी जैसे हमारे गली-मोहल्ले में भी बोलते हैं कुछ, बोलने के तौर पर बोल रहा हूँ केवल व्यवहारिक तौर पे — कि जैसे पंडित वग़ैरह रहते हैं, तो उनके छोटे-छोटे बच्चे हैं। तो मेरी बहन भी है जुड़ी हुई है आप से गीता सत्रों में। वो जाती है, उनके यहाँ पढ़ाने गई थी।
तो वहाँ पर जैसे छोटे-छोटे बच्चे खेल रहे थे, हमारे यहाँ पीछे एससी-एसटी रहते हैं उनके बच्चों के साथ। उनके ही माँ-बाप उनको दूर कर रहे थे कि नहीं खेलना है, और ये-वो। तो मेरी बहन की थोड़ी बहस भी हुई उनसे और फिर वो चली आई। फिर पढ़ाने भी नहीं गई वो कि जहाँ ऐसा माहौल है, तो कौन पढ़ाएगा? तो ये देखने को बहुत मिलता है कि माँ-बाप...
आचार्य प्रशांत: यही लोग जो हैं, यही लोग जो हैं, अपने बच्चों को प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कराएँगे, ठीक है; चाहे आईआईटी वग़ैरह में भेजना हो, चाहे सरकारी नौकरी में — प्रतियोगिता से ही गुजरना होता है। और ये पहले तय करेंगे कि वहाँ जो प्रोफेसर है, वो किस जाति का है और वर्ण का है? बहन पढ़ाने जा रही है, तो वहाँ पर देख रहे हैं कि ब्राह्मण है या यादव। और जब वहाँ बैठोगे कॉलेज में, तब भी प्रोफेसर से पहले पूछोगे कि "अपनी जाति बताओ?"
और उनका क्या करोगे? और तुमने अच्छी पढ़ाई कर ली, तो तुम अमेरिका पढ़ने जाओगे। है ना? दुनिया भर में ज्ञान का सबसे बड़ा तीर्थ तो अमेरिका ही है, मानना पड़ेगा। दुनिया की सबसे अच्छी, ऊँची आईवी लीग, बढ़िया यूनिवर्सिटी सब अमेरिका में ही हैं। वहाँ पढ़ने जाओगे, तो वहाँ तो सीधे विधर्मी बैठे हैं। उनसे कैसे पढ़ना बर्दाश्त कर लोगे? चलो वापस आओ, वापस आओ! यहाँ पर तुम इतने हाँ…
प्रश्नकर्ता: वहाँ पर कुछ नहीं देखते सर।
आचार्य प्रशांत: हाँ, ये कुछ नहीं है ये फूहड़ता है बस। और जहाँ ये सब देखो, वहाँ से बस दूर हो जाना चाहिए। ऐसे लोगों का ना वर्तमान है, ना भविष्य है। वर्तमान में ये शुद्रता में जिएँगे और भविष्य में दरिद्रता में।
कह तो रहा हूँ, आज तुम्हारे आसपास ये जितनी भी विज्ञान की चीज़ें हैं, ऊँची चीज़ें हैं, ये तो सब विधर्मियों ने बनाई हैं। क्यों इस्तेमाल कर रहे हो? ज्ञान, रिसर्च — ये सब भी वहाँ अमेरिका में हो रहा है। वहाँ तो हमारे सब विधर्मी बैठे हैं, वो तो हैं ही नहीं; धर्म से बाहर के लोग हैं वो तो।
और ये नहीं कि वो हिंदू धर्म से बाहर के हैं। वो तो ईसाइयत से भी बाहर के हैं। आधा यूरोप और चौथाई अमेरिका अब बोलता है कि हम किसी धर्म का पालन नहीं करते। और जो यूनिवर्सिटीज़ में बैठे होते हैं, वो तो और ज़्यादा ऐसे ही लोग होते हैं। जो बोलते हैं, वो लिखित में देते हैं कि “हमको किसी भी धर्म में ना गिना जाए।” तो हिंदू धर्म छोड़ दो — वो तो ईसाई धर्म के भी नहीं हैं। वे तो पक्के ही धर्म के बाहर के हैं।
उनसे ज्ञान लेने क्यों जा रहे हो?
ये सब बातें ना, जैसे तुमने बोला ना कि ये मोहल्ले में होती हैं। ये सब बातें छोटे शहरों, कस्बों, गली-मोहल्लों की बातें हैं ये। इनको पता है अच्छे से अच्छा करारा जवाब क्या है? जल्दी से जल्दी उन जगहों से उठकर के बाहर निकल आओ। दूर चले जाओ। जहाँ ये सब बातें होती हैं, बहुत पुराना कचरा है। क्यों इसमें धँसना है? जाओ ना, भारत तरक़्क़ी कर रहा है। बहुत अच्छे लोग भी हैं यहाँ, बहुत खुले लोग भी हैं वहाँ जाओ उनकी संगत में रहो।
क्यों गाँव की पंचायत में सर देना है? अच्छी जगहों की ओर प्रस्थान करो। जाओ बड़े कॉलेजों में पढ़ो। जाओ, पढ़ाना भी है तो अच्छी जगहों पर पढ़ाओ। क्यों मोहल्ले के लोगों को पढ़ाना है? और ज्ञान के लिए अगर भारत से बाहर जाना पड़े, तो निःसंदेह चले जाओ। ज्ञान बहुत बड़ी बात होती है। जहाँ मिलता हो, लो।
स्वतंत्रता संग्राम में अनगिनत बड़े नाम हैं, जो बाहर से ही पढ़कर आए थे। और बाहर अगर नहीं पढ़े होते, तो भारत के लिए योगदान भी नहीं कर पाते। बाहर जाना बहुत ज़रूरी होता है कई बार। जहाँ माहौल ज्ञान के अनुकूल ना हो, वहाँ से बाहर जाने में बिल्कुल कोई बुराई नहीं है। बस, लेकिन प्रतिक्रिया मत करो।
देखो, छोटी बुद्धि यही चाहती है कि सब उसी के तल पर उतर आएँ, और उसी छोटे तल पर गाली-गलौज करें और डंडा चलाएँ। छोटे आदमी के साथ तुम छोटी बात ही करना शुरू कर दो, तो छोटा आदमी जीत गया। वो बहुत ज़बरदस्त खिलाड़ी है छुटपन का, उससे तुम जीत नहीं पाओगे।
छोटा आदमी, वो छोटे अखाड़े का ज़बरदस्त पहलवान है। ज़िंदगी भर उसने क्या किया है? उसी छुटपन के अखाड़े में उसने अभ्यास करा है। उससे नहीं जीत पाओगे। छोटे आदमी के सामने पड़ो तो उसके अखाड़े में मत लड़ो। तुम बाहर निकल जाओ, हटो। कह दो, "इस स्तर की बातें मुझे करनी ही नहीं हैं।" इस स्तर की बातें करीं, तो तू जीत गया पहले ही।
प्रश्नकर्ता: और आचार्य जी, इसमें एक फैक्टर और भी मैंने देखा है कि जैसे, कोई बड़े घर का है और वो एससी-एसटी है, और कोई छोटे घर का है ब्राह्मण है तो वहाँ आचार्य जी, खूब इनकी बन जाएगी। अगर ब्राह्मण किसी घर का है जिसके पास पैसा है, और एससी-एसटी है जिसके पास पैसा नहीं है, वहाँ पर वो कहते हैं, "ये छोटी जाति है।" ये पैसे वाला खेल भी आचार्य जी भी खूब चलता है।
आचार्य प्रशांत: तो बस, इसी से समझ जाओ सारी बात। इसी से समझ जाओ कि उलझो नहीं, आगे बढ़ो। आख़िरी जवाब यही है कि तुम्हारे तल पर रह कर के, तुम ही से नोकझोंक करते रह जाते, तो तुम्हारे जैसे रह जाते। हम आगे जाएँगे, पढ़ेंगे, लिखेंगे, हर तरीक़े से सशक्त बनेंगे, जिसमें पैसा भी शामिल है, ज्ञान भी शामिल है, अनुभव भी शामिल है। हम सब लेंगे, सबसे ज़्यादा जिसमें गहराई शामिल है। हम इंसान ऊँचे बनेंगे।
उसके बाद यही सब लोग जो छोटी जगहों पर जाति-जाति-जाति करते हैं, इसके बाद ये आ जाते हैं फिर ये जाति नहीं देखते। तुम्हारे पास अगर पद है, ओहदा है, पैसा है — तो सब झुक जाते हैं। झुक ही नहीं जाते, चाटुकारिता करते हैं।
लेकिन मैं फिर बोल रहा हूँ, ये भी एक तरह की प्रतिक्रिया हो गई। कि तुम ये लक्ष्य बनाओ कि "इन लोगों ने एक दिन मेरा अपमान करा था, तो मैं पद और पैसा पाकर एक दिन इनको अपने सामने झुकाऊँगा।" ये भी एक तरह की प्रतिक्रिया है। इतनी प्रतिक्रिया भी मत करो। नहीं तो तुम ऐसी चीज़ों के पीछे भागने लगोगे जिनके पीछे भागना ज़रूरी नहीं है। हो सकता है कि पैसा बहुत कमाना ज़रूरी ना हो, पर तुम कहोगे कि "मैं इतने करोड़ों कमाऊँगा कि जिन लोगों ने जाति के आधार पर मेरे गाँव में मेरा अपमान करा था, एक दिन वो आके मेरे आगे माथा रगड़ें।" उनसे कुछ करवाने के लिए तुम्हें फिर पैसे की अंधी दौड़ में शामिल होना पड़ेगा। ये भी प्रतिक्रियाएँ है, मत करो।
तुम बिल्कुल स्वतंत्र होकर के स्वयं से पूछो, "मैं ज़िंदगी कैसी जीना चाहता हूँ?" तब तुम्हें मान लो लेखक बनना है। लेखक बनने में हो सकता है बहुत पैसा ना हो, पर किसी को झुकाने के लिए तुम कहो, "मुझे पैसा चाहिए।" तो ये कोई अच्छी बात नहीं है कि तुमने लेखन छोड़ दिया। किसी को झुकाने के लिए तुम किसी बड़ी नौकरी के पीछे पड़ जाओ, तो तुम अपना जीवन ख़राब कर रहे हो।
ये जो अपने आप को बड़ा समझते हैं — तुम्हारे पास निजी, मौलिक दृष्टि होनी चाहिए जानने की कि वास्तव में बड़ा कौन है।
और जिसको ये पता है, उसको फिर फ़र्क़ नहीं पड़ता। वो कहता है — "मूर्खता की बातें हैं, मुझे मेरा रास्ता देखने दो। मुझे बहुत आगे, बहुत ऊँचा, बहुत दूर जाना है।" वो जो चाहते हैं, वो मत होने देना। वो चाहते हैं कि तुम अपने बारे में सोचो कि "मैं ऊँचा हूँ कि नीचा हूँ? कि मैं इस जाति का हूँ कि उस जाति का हूँ?" ये मत होने देना। यही उनका मंसूबा है। ये मत होने देना। इसी से मैंने शुरुआत करी थी। इसी से अंत कर रहा हूँ। ठीक है?
प्रश्नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी।