जानवरों के प्रति संवेदना || (2018)

Acharya Prashant

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जानवरों के प्रति संवेदना || (2018)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अकसर सड़कों पर जानवरों को मृत देखता हूँ, देखकर वेदना भी उठती है। और यह भी देखता हूँ कि मैं किस प्रकार उस वेदना का गला घोट देता हूँ और आगे बढ़ जाता हूँ। कहाँ चूक हो रही है?

आचार्य प्रशांत: चूक यह हो रही है कि तुम्हारी वेदना बहुत स्थूल है। पहली बात तो - वेदना तब उठ रही है जब जानवर मर ही जाए, उससे पहले नहीं उठ रही। और दूसरी बात - सिर्फ़ उस जानवर के लिए उठ रही है जो तुम्हारी आँखों के सामने मरा पड़ा है। अभी दो-चार दिन पहले मैंने सबको एक आँकड़ा बताया था। मैंने कहा था कि प्रति-मिनट तीन लाख जानवर मारे जा रहे हैं। तब वेदना नहीं उठ रही थी तुमको? यह बड़ी स्थूल वेदना है। किसी को कष्ट मिल रहा है तो वेदना नहीं उठ रही, पहली बात तो उसे मरना चाहिए। और दूसरी बात, "उसे आँखों के सामने मरना चाहिए, तब हम में वेदना उठेगी!" जितनी देर में मैंने तुमसे यह बात करी, इतनी देर में डेढ़ लाख जानवर कट गए। वेदना उठी? हाँ?

तो असली वेदना तब होगी जब लगातार याद रखो कि हमारी यह पूरी सभ्यता, पूरी प्रगति, यह सब अरबों जानवरों की लाश पर खड़े हुए हैं। और इसीलिए इंसान कभी भी चैन से जी नहीं पाएगा।

तुम्हारा ऐसा कुछ नहीं है जो लाखों-करोड़ों जानवरों को मारकर नहीं आता हो, कुछ भी नहीं है। प्रतिपल जब वेदना तुम्हारे मन को मथ डाले, तब तुम्हारी वेदना सच्ची हुई और तब तुम्हारी वेदना कर्म में परिणीत होगी। लगातार याद रखना - इंसान की सारी प्रगति इंसान का सारा ओहदा प्रकृति के विनाश पर आधारित रहा है; और छोटा-मोटा विनाश नहीं!

अभी पढ़ा है न - दिल्ली में सरकारी कर्मचारियों के रहने के लिए घर बनाने हैं, तो सत्रह हज़ार पेड़ काट रहे हैं? और वह कह रहे हैं कि इन सत्रह हज़ार पेड़ों के एवज़ में वह लाख, दो लाख पेड़ कहीं और लगाएँगे। अब मैं एकाध-दो बातें पूछता हूँ। जहाँ ये पेड़ लगाएँगे, वह जगह खाली होगी तभी यह पेड़ लगाएँगे? जहाँ पहले ही जंगल हो, वहाँ तो पेड़ लगाओगे नहीं। वह जगह खाली क्यों है? वह जगह खाली इसलिए है क्योंकि वहाँ पेड़ उग ही नहीं सकता है, वरना प्रकृति कोई जगह खाली छोड़ती नहीं है। तुम खाली जगह पर पेड़ लगाओगे, और वह जगह ऐसी है कि जहाँ पेड़ हो ही नहीं सकता। बात समझ में आ रही है? पेड़ यदि वहाँ हो सकता तो प्राकृतिक-तौर पर होता ही। प्रकृति इतनी-सी भी ज़मीन छोड़ नहीं सकती है। पीपल तो घर की छत पर भी उग आता है, देखा है? तो क्या प्रकृति ने खाली ज़मीन छोड़ दी होती कि, "आना और यहाँ पर फॉरेस्टेशन (वनरोपण) करना"?

और दूसरी बात — तुम लगा तो दोगे, लेकिन इस बात का भी आश्वासन दे रहे हो कि वह सब बड़े होंगे? तीसरी बात — तुम लगाओगे तो अपने हिसाब से चुनकर लगाओगे कि कौन-सी प्रजाति लगा रहे हो, और प्रकृति जब पेड़ लगाती है तो वह पेड़ लगाती है जो उस भूमि, उस जगह के अनुकूल होता है। तुम तो वहाँ जाकर लगा दोगे — बबूल और कीकर, क्योंकि वही आसान होते हैं। तब हृदय में वेदना उठनी चाहिए कि, "यह क्या है!"

पानी, खाना, घर, दवाईयाँ, बिजली — यह सब आ रहा है कितने ही प्राणियों की लाश से। और ऐसा भी नहीं है कि वह सब तुम्हारे पीठ-पीछे अनजाने में ही कट जाते हैं। अभी हमने कहा कि तीन-लाख तो प्रति मिनट खाने के लिए कटते हैं। इनको तो मत कह दो कि, "अनजाने में कट रहे हैं", इनको तो जानबूझकर तुम अपने भोजन के लिए काट रहे हो।

अपनी इस वेदना को खिल जाने दो, पूरा हो जाने दो, भीतर तक उतर जाने दो — चाकू बस अभी ज़रा-सा घाव दे रहा हो, खरोंच रहा हो, कुछ बूंद ख़ून निकाल दे रहा है, तो चाकू को दिल में पूरा गहरा उतर जाने दो। फिर हो सकता है परमात्मा पशुओं की मृत्यु के माध्यम से ही तुम्हारा परिवर्तन कर देना चाहता हो। वेदना खाली नहीं जाती, वेदना में बड़ी ताक़त होती है।

प्र२: आचार्य जी, प्रणाम! क्षमा क्या है और कैसे करें?

आचार्य: क्षमा कुछ नहीं होती और किसी को क्षमा नहीं किया जा सकता है। अधिक-से-अधिक यह किया जा सकता है कि आप भूल जाएँ कि आपको कभी चोट लगी थी।

जब तक आपको याद है कि आपको चोट लगी थी, तब तक आप माफ़ नहीं कर सकते; जब आप अपनी चोट से आगे निकल जाएँ, तब आपने माफ़ कर दिया।

जब हालत यह हो जाए कि जिसने आपको चोट दी थी, वह आपसे माफ़ी माँगने आए और आप कहें कि, “माफ़ी किस बात की? चोट तो हमें लगी ही नहीं!” तब समझ लीजिए कि आपने उसे माफ़ कर दिया।

आमतौर पर हमें जिस तरह की माफ़ी की शिक्षा दी जाती है वह बहुत झूठी माफ़ी है; वह अहंकार को बढ़ाने वाली माफ़ी है। आपसे कभी नहीं कहा जाता कि - "वहाँ पहुँच जाओ जहाँ चोट लगती ही नहीं।" आपसे कभी कहा ही नहीं जाता कि - "वैसे हो जाओ जो यह जान लेता है कि मात्र अहंकार ही चोट खाता है।" आपसे कहा जाता है कि - "चोट का अनुभव करो, और फिर जब कोई आए तुम्हारे सामने जिसने चोट दी हो, तो उससे बदला इत्यादि मत ले लेना।"

अब देखिए इसमें होता क्या है। चोट तो आपको लगी है। जिसे चोट लगी होती है, उसे बदला लेने में क्या मिलता है? - सुख। आप बदला ना ले पाएँ, इसके लिए आपको एक दूसरा और ज़्यादा बड़ा सुख दिखा दिया गया — ज़्यादा बड़ा सुख है अहंकार के बड़प्पन में, "हम इतने बड़े हैं कि हमने बदला नहीं लिया।" आपसे ये नहीं कहा गया कि — "चोट-जनित अपने दुःख को ही झूठा जानो", आपसे कहा गया कि, "अगर चोट का दुःख है तो उससे ज़्यादा बड़ा सुख तुम्हें मिल जाएगा — बदला ना लेने में।" तो हमने माफ़ी को परिभाषित ही यही किया है कि - बदला ना लेना माफ़ी है।

दो तरह के लोग होते हैं। एक - जो बदला लेते हैं; दूसरे - जो माफ़ कर देते हैं। तो माफ़ी की हमारी परिभाषा क्या है? - बदला ना लेना। बदला लेने में क्या मिलता है? - सुख। उससे ज़्यादा बड़ा सुख किसमें है? - बदला ना लेने में। और वह सुख क्या है? — “तुम छोटे आदमी हो, हमको देखो, हम इतने बड़े आदमी हैं कि हमको चोट लगी भी तब भी हमने तुम्हें माफ़ कर दिया। हम यह नहीं कह रहे हैं कि हमें चोट नहीं लगी, हम कह रहे हैं कि चोट तो हमें लगी हुई है, लेकिन हम इतने बड़े आदमी हैं कि हम तुम्हें माफ़ किए दे रहे हैं।"

जो आदमी माफ़ करने में सुख पा रहा है, वह तो माँग-माँग कर चोट खाएगा न? वह कहेगा, “और चोट दो, हम तुम्हें माफ़ करेंगे। हम जितना माफ़ करेंगे हमारा बड़प्पन उतना बड़ा होगा। कुछ दिनों में हमारी मूर्ति खड़ी कर दी जाएगी — फूल, मालाएँ, क्षमादेव!” यह सिर्फ माफ़ ही करते थे। कोई किसी को पत्थर मार रहा होता था, तो सिर घुसेड़कर पत्थर अपने सर पर लेते थे और कहते थे — “जा, तुझे माफ़ किया। माफ़ करने का सुख — आ हा हा!”

माफ़ी देने में सुख है, चोट ना खाने में आनंद है — तुम चुन लो। बताओ तुम्हें कैसा होना है? बस ऐसे हो जाओ कि चोट लगे ही न!

फिर कोई माफ़ी माँगने आए, तो कहो — "भक्क! अपना भी समय ख़राब कर रहा है और मेरा भी। चोट हमें लगी ही नहीं, और यह कह रहा है, 'माफ़ करिए, हमने आपको चोट दी'।" धीरे से बोलो — "तुम्हारी इतनी औक़ात नहीं कि तुम हमें चोट दे सको! हम चाहकर भी अपने-आप को चोट नहीं दे पाते, तुम हमें क्या चोट दोगे?"

"हम वो हैं जिसके बारे में श्री कृष्ण ने कहा था नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि — शस्त्र भी नहीं छेद सकते, तुम हमें क्या चोट पहुँचाओगे? नैनं दहति पावकः — आग भी हमें नहीं जला सकती, तुम्हें देखकर हमें क्या जलन होगी? हम वो हैं। हमें चोट लग कहाँ गई?"

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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