प्रश्नकर्ता: पश्चिम में जानवरों का माँस और जानवरों से उत्पन्न उत्पाद को खाने में प्रचुरता से उपयोग में लाया जाता है। पश्चिम के लोग शारीरिक दृष्टि से भी सम्मृद्ध हैं और आर्थिक दृष्टि से भी।
तो क्या प्रकृति को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता? और अगर पड़ता है तो किस रूप में प्रकट होता है?
आचार्य प्रशांत: दो बातें होती हैं- एक होता है ये जो शरीर और मन की बात है। एक होती है इनकी खुशी कि आप इनकी बढ़ोत्तरी में अपनी बढ़ोत्तरी देखो।
और दूसरी चीज़ होती है आत्मा या हृदय।
आप बिलकुल ऐसा कर सकते हो कि आप शरीर और मन से जुड़े रहो और ज़िन्दगी ऐसी बिताओ जिसमें इन दोनों की इच्छाएँ पूरी होती हो। आप बिलकुल ऐसा कर सकते हैं।
आप खाना ऐसा खा सकते हैं जिससे आपका शरीर और बड़ा हो जाए, तगड़ा हो जाए और शरीर बढ़ेगा तो आप कह सकते हो कि देखो मेरी भी तरक्की हो गयी।
आप जीवन ऐसा जी सकते हो जिसमें मन की जितनी भी इच्छाएँ हों आप उनको पूरी करो और पूरी हो जाएँ तो आप कहो- मेरी इच्छाएँ भी पूरी हो गयी। ये जीने का एक तरीका है।
जीने का दूसरा तरीका ये है कि जो स्वयं संतुष्ट आत्मा है तुम उससे जुड़ के जियो। वहाँ कोई इच्छा वगैरह पूरी नहीं करनी है और अगर उससे जुड़ोगे तो शरीर और मन की जो अपनी निजी इच्छाएँ हैं वो तो पूरी नहीं होंगी। क्योंकि अब तुम किसी की इच्छा पूरी करने के लिए जी नहीं रहे। अब तो तुम आत्मा में बैठे हो वहाँ कोई इच्छा होती नहीं। तो गाड़ी तुमने उसके हवाले छोड़ दी है। शरीर चल रहा है, मन चल रहा है। उन्हें कुछ मिल रहा है कुछ नहीं मिल रहा है। क्या मिल रहा है वो दैव योग है, विचित्र संयोग है। कुछ तो उन्हें मिलेगा ही। लेकिन अब ऐसा नहीं हो रहा है कि जीवन उन्हें (शरीर+मन) को पुष्ट करने के लिए जिया जा रहा है।
ऐसे समझ लो कि जैसे एक पेड़ होता है बगीचे का। वहाँ कोई लगा होता है कि इसको पुष्टि मिले। तो वो पेड़ ज़्यादा बड़ा और आकर्षक हो जाता है। और एक पेड़ होता है जंगल का वहाँ कोई लगा नहीं हुआ है विशिष्ट प्रयत्न नहीं कर रहा है कि इसे कुछ मिले। पर जी तो वह भी जाता है। मर नहीं जाता। हो सकता है आपकी आँखों को ज्यादा आकर्षक न लगे लेकिन जी तो वो भी जाता है।
तो जो लोग आत्मा से जुड़कर जीते हैं उनके शरीर और मन फिर जंगल की पेड़ की तरह विकसित होते हैं। उनमें फिर आपको कोई मानवकृत व्यवस्था नहीं दिखेगी। लेकिन ये भी सही है कि वो मर नहीं जाएँगे। उनकी अपनी एक हस्ती होगी। जंगल के पेड़ की अपनी एक खूबसूरती होती है। और जंगल के पेड़ की जो खूबसूरती होती है वो बगीचे के पेड़ की नहीं हो सकती।
तो ये जीने के दो तरीके हैं- एक तरीका यही है कि मैंने सबसे कीमती मान लिया है शरीर और मन को और मेरा जीवन इसलिए है कि मैं उनकी हसरतें पूरी करता चलूँ। और अगर तुम ऐसा जीवन जियोगे तो शरीर और मन निश्चित रूप से आकर्षक और सुंदर रहेंगे किसकी दृष्टि में? तुम्हारी ही दृष्टि में। क्योंकि तुमने अपनी ही दृष्टि के अनुसार उनको ढाल दिया।
समझ रहे हो?
और कोई गवाही देने वाला नहीं है कि तुम्हारा मन ज़्यादा सुंदर है कि तुम्हारा तन। तुम स्वयं अपनेआप को बोलोगे। तुम्हारी खाल ज़्यादा चिकनी रहेगी। तुम्हारे कपड़े ज़्यादा साफ है, तुम खाने-पीने पर लगातार ध्यान दिए रहोगे। तो हो सकता है तुम्हारा कद और खिल के उभर के सामने आए। तुम जीवन की शोभा बढ़ाने में ध्यान दोगे तो रुपया-पैसा इकट्ठा कर लोगे। तुम्हारे पास एक आकर्षक घर हो सकता है। तो तुम्हें उसका कर्मफल मिलेगा। तुम मन और शरीर में अपनी ऊर्जा का निवेश करोगे तो तुम्हें उसका फल तो मिल ही जाएगा। बिल्कुल फल मिलेगा।
तुम आर्थिक रूप से तरक्की करोगे, तुम्हारा समाज औद्योगिक रूप से तरक्की करेगा, ज्ञान की वृद्धि होगी। ये सब होगा।लेकिन क्योंकि तुमने अपना जीवन समर्पित कर दिया है मन और शरीर को तो तुम उसके साथ जुड़ने से रह जाओगे जो पहले से ही संतुष्ट है। तुम फिर सदा संतुष्टि की होड़ में रह जाओगे। संतुष्ट कभी हो नहीं पाओगे। मन और शरीर वो हैं जो संतुष्ट होना चाहते हैं और आत्मा वो है जो सदा संतुष्ट है। वो सदा से तृप्त है। उसे कुछ चाहिए नहीं। विकल्प दोनों तुम्हारे पास है तुम्हें किससे जुड़ना है?
तुम बिल्कुल ऐसा जीवन बिता सकते हो जो समर्पित हो शरीर की प्रगति को, मन की तरक्की हो और तुम ऐसा जीवन बिताओगे तो तुम्हारे जो उद्देश्य हैं वो कुछ हद तक तो सफल होंगे भी।
भई! तुमने देखा होगा जो लोग शरीर पर ध्यान देते हैं वही अक्सर गोरे-चिट्टे घूमते हैं, उन्हीं के चेहरे चमकते रहते हैं। दिन में तीन बार कभी खीरा, कभी टमाटर मलेंगे, दुनियाभर के सौंदर्य प्रसाधनों का इस्तेमाल करेंगे। दौड़ेंगे, जिम जाएँगे, खाने में प्रोटीन कितना, मिनरल कितना है, कैलोरी कितना है नापेंगे। तो जाहिर सी बात है उनके बदन ज़्यादा नपे-तुले होंगे।
वो ध्यान देंगे उनकी भाषा कैसी है, तुम पाओगे उनका उच्चारण ज़्यादा अच्छा हो सकता है, उनके शब्द ज़्यादा सधे हुए हो सकते हैं।
वो भौतिक आर्थिक तरक्की पर ध्यान देंगे, व्यापार पर ध्यान देंगे, रोज़गार पर ध्यान देंगे। समाज में अपनी स्थिति सुदृढ़ रखने पर ध्यान देंगे। तुम पाओगे इनसब क्षेत्रों में उनका जीवन अच्छा चल रहा है। ये सब उनके पास निश्चित रूप से रहेगा।
तुम्हें यही दिखाई देगा कि उनके पास क्या है। तुम ये नहीं देख पाओगे वो किस्से चूक गए। क्योंकि ये सब करने की कीमत तो अदा करनी ही पड़ती है ना?
शरीर के साथ, मन के साथ तादात्म्य बैठा लेने की कीमत तो अदा करनी ही पड़ती है। और कीमत ये होती है कि तुम अब उससे नहीं जुड़े रहोगे, जिससे जुड़ना तुम्हारा स्वभाव है, उससे छिटक जाओगे।
प्र: इससे निष्कर्ष ऐसा निकलता है जो उससे (आत्मा) जुड़ा रहेगा वो ये सारी चीज़ें नहीं करेगा। वो इससे विमुख रहेगा।
आचार्य: जंगल का पेड़ रहेगा।
प्र: जंगल का पेड़ भी तो काफी ऊँचा होता है।
आचार्य: हाँ, हो सकता है। और उसकी खूबसूरती उसकी तरह की होगी।
प्र: क्या कहने का तात्पर्य ये है कि जो आत्मा से जुड़ा हुआ है, वो सधा हुआ नहीं हो सकता?
आचार्य: उसका सधापन आत्मा के सधेपन जैसा होगा। आदमी की नज़रों को आत्मा का सधापन नज़र नहीं आता न?
भई, जंगल का पेड़ भी एक बड़ी सुंदर व्यवस्था लिए हुए होता है अपने अंदर। तुम्हे देखने में वो ऊँचा-नीचा लगेगा, तराशा हुआ नहीं लगेगा। लेकिन उसकी अपनी एक व्यवस्था होती है, अपना एक सौंदर्य होता है वो आदमी की आँखों को नज़र नहीं आएगा। आदमी कहेगा यार! ये तो आड़ा-तिरछा है।
और वही तुम बागीचे में जाओ तो माली कैंची लेकर किसी पेड़ को एक आकार दे देता है। तो तुम कहते हो ये पेड़ व्यवस्था में है। तुम बगीचे में जाओ तो पेड़ वहाँ कतार में लगे होते हैं। तो तुम कहते हो, 'व्यवस्था में हैं।' जंगल में जाओ तो वहाँ पेड़ यूहीं ऐसे-वैसे लगे होते हैं। तो तुम कहते हो, 'व्यवस्था में नहीं है।' अब व्यवस्था वहाँ भी होती है पर वह व्यवस्था आदमी के आँखों को दिखाई नहीं देती। तो आदमी फिर उसको कह देता है कि ये अव्यवस्था है। तो जब आप आत्मा से जुड़ के जियोगे तो व्यवस्था तो आपके जीवन में रहेगी ही पर वो व्यवस्था मानसिक नहीं होगी। वो व्यवस्था आपको समझ में नहीं आएगी। तो आपको तो हो सकता है इसी भाव में जीना पड़े कि व्यवस्था नहीं है। जो इस भाव में जीने को तैयार हों वही आत्मा से जुड़े रह सकते हैं। क्योंकि जो आत्मा से जुड़ा है, दुनिया तो उसको यही एहसास कराएगी कि तुम अव्यवस्था में जी रहे हो।
प्र: इसी संदर्भ में मैं अगर कृष्णमूर्ति जी और ओशो की बात करूँ तो कृष्णमूर्ति ज़्यादा व्यवस्थित लगते हैं, ज्ञानमार्गी लगते हैं और ओशो को अगर सुने तो अतिमार्गी ज़्यादा लगते हैं, वहाँ व्यवस्था की कमी दिखाई देती है। क्या यह दोनों एक ही तरफ इंगित कर रहे हैं?
आचार्य: देखिए ऐसा है नहीं। तुम अगर कृष्णमूर्ति में भी गहरे पैठो तो यही पाओगे कि एक बिंदु पर आकर वह पूरी तरह से रहस्य में खो जाते हैं, मिस्टिकल हो जाते हैं। सर झुका देते हैं और तर्क नहीं देते।
उदाहरण ले लो, दो शब्द हैं जिनका कृष्णमूर्ति बार-बार प्रयोग करते हैं- ओबवियसली और श्योरली। अब यह तुम्हारी आँखों को तो नहीं दिखाई देता कि इतना स्पष्ट है प्रकट है वह कह रहे हैं - ऑफकॉर्स। ऑफकॉर्स का अर्थ हुआ की प्रकट ही है बात, जाहिर है, खुली हुई है।
जो पढ़ते हैं उनको विचित्र लगता है, वो कहते हैं बात हमें समझ में नहीं आ रही और ये कहते हैं श्योरली। वह जो श्योरनेस है वह कहाँ से आ रही है? कृष्णमूर्ति में ये जो आश्वस्ति है ये कहाँ से आ रही है? ये श्योरनेस कहाँ से उठ रही है? वहीं से तो उठ रही है ना? आंतरिक व्यवस्था से। जो आत्मा से उठ रही है इसलिए मन उसे पकड़ नहीं पाता। जहाँ कहीं कृष्णमूर्ति बोलें श्योरली तो समझ लीजिएगा कि ये जंगल का पेड़ है। जहाँ कहीं वे बोले ऑब्वियसलि तो समझ लेना कि यह भी फिर वहीं दिल से बात निकल रही है।
अब वह कह देंगे कि "श्योरली ट्रुथ इज इनोसेंस"। अब तुम सर खुजाओगे कि यह श्योरली ट्रुथ इज इनोसेंस का क्या मतलब हो गया? हाऊ श्योरली? तुम्हें कैसे पता? उनको दिख रहा है उनको दिख इसलिए रहा है क्योंकि आत्मा से नजदीकी है। वहाँ जाकर कुछ दिखने लग जाता है तो यह जो व्यक्तव्य है "श्योरली ट्रुथ इज इनोसेंस" इसको जान लेना कि जंगल का पेड़ है, इसमें कोई तर्क की लय नहीं है।
इसके पीछे बुद्धि का छंद नहीं है यह बस यूं ही कहीं भी उग आया है जैसे जंगल के पेड़ कहीं भी उग आते हैं ना? तो यह भी बस आ गया अब इसका आगा-पीछा ढूंढने निकलोगे कि कृष्णमूर्ति जी बताइए तो कि इस व्यक्तव्य के पीछे क्या है? तो वो कुछ बता नहीं पाएँगे। जैसे जंगल के पेड़ के पीछे क्या है? खोजना बहुत ही कठिन है।
बगीचे के पेड़ के पीछे क्या है वह तुरंत पता चल जाएगा। बगीचे के पेड़ के पीछे माली का 'मन' है। जंगल के पेड़ के पीछे क्या? अस्तित्व की मर्जी। तो वैसे ही कृष्णमूर्ति के जितने भी व्यक्तय आते हैं जहाँ पर वो अचानक रहस्य में छलांग लगा देते हैं तो उनको यही जानना कि यह वक्तव्य तो सीधे-सीधे आत्मा से उद्भूत है।
प्र: आमतौर पर जो हम व्यवस्था समझते हैं- 6:00 बजे उठे, नहाए-धोए, ब्रश किया, 8:00 बजे ऑफिस गए, शाम 5:00 बजे वापस आए, खाए-पीये और सोए। आप कह रहे हैं- आत्मा से जो व्यवस्था उद्भुत होगी वह तो ऐसी होगी ही नहीं और ऐसी होगी कि मन जिसको पकड़ ही नहीं पाएगा। मेरा सवाल यह था कि जो आत्मा की व्यवस्था है क्या यह जरूरी है कि इस व्यवस्था की विपरीत ही होगी?
आचार्य: नहीं ऐसा कोई जरूरी नहीं है। उसका इससे कोई संबंध ही नहीं होगा। कभी-कभार वह इससे मेल भी खा सकती है, कभी-कभार इससे बहुत दूर भी जा सकती है, कभी थोड़ा सा दूर हो सकती है, कभी बहुत दूर हो सकती है, कभी थोड़ा दूर-थोड़ा पास हो सकती है, कोई संबंध ही नहीं है यह दो अलग-अलग तल हैं।
यहाँ जो हो रहा है और वहाँ जो हो रहा है बिल्कुल दो अलग-अलग तल हैं। संयोगवश दोनों कभी एक भी दिख सकते हैं। कभी आपको दिख सकता है कि साधु उसी सड़क पर जा रहा है जिस सड़क पर सन्यासी जा रहा है। इसका अर्थ यह नहीं है कि दोनों की मंजिल एक है या दोनों के कदम एक हैं।
प्रश्नकर्ता: अध्यात्मिकता को लेकर लोगों में जो एक विकर्षण है वह इसी कारण से है कि एक आध्यात्मिक आदमी फिर समाज में उसके दिखने की सम्भावना है वो कम हो जाएगी। अब यह विकर्षण का कारण है।
आचार्य प्रशांत: ये विकर्षण का कारण किसके लिए है? उसके लिए है ना जो मूल्य ही देता है मन को, शरीर को और मन से उठे हुए समाज को। तो जो इनको मूल्य देता है तो उसको तो बुरा ही लगेगा कि इनके ऊपर जो आत्मा है उसको मूल्य क्यों दे रहे हो?
भाई! चुनाव तो करना ही पड़ता है या तो मन को शरीर के साथ जोड़ लो कि ये आगे बढ़े। मन को खुशी मिले, मन को हर तरह के सुख मिले, उत्तेजनाए मिले, भोग मिले, विलास मिले, लिप्साए मिले यह है एक तरीका जीने का।
और इस तरीके से जी ही रहे हो तो, तुम्हें बुरा लगेगा कि मन के अलावा किसी और के गुलाम काहे हुए जाते हो? मन के अलावा किसी और को काहे समर्पित हुए जाते हो? मन के अलावा कुछ है इसको भी काहे स्वीकार किए जाते हो? फिर तो बुरा ही लगेगा ना? तो जब आप एक बात किसी सन्यासी को देखते हैं तो आप पाते हैं कि वह अपना पोषण न समाज से ले रहा है, न अपने शरीर से ले रहा है, न अपने मन से ले रहा है। उसको उसका आहार, उसका पोषण 'आत्मा' से मिल रहा है तो बुरा तो लगता ही है। क्योंकि उसका होना यह साबित कर देता है कि आप झूठे हो। उसका होना यह साबित कर देता है कि आपके पास भी विकल्प था और विकल्प है अभी भी। और आप अगर 'दुख' में हो तो अपने द्वारा चुने गए विकल्प की वजह से हो।
वरना तो यह बड़ा बढ़िया बहाना रहता ही है ना कि जीवन दुख है! और हम करें क्या? मजबूरी है! और इसके अलावा तो कोई तरीका ही नहीं था जीने का। मैं एक तरह की नौकरी 1 तरह के घर में फँसा हुआ हूँ, जीवन दुख है! लेकिन मैं करूं क्या मेरे पास किसी और तरीके से जीने का विकल्प ही नहीं है।
और जब आप किसी सन्यासी को देखते हो तो आपका झूठ पकड़ा जाता है। उसको देख कर पता चल जाता है कि देखो! विकल्प तो था, हमने चुना नहीं। वह विकल्प हमने चुना नहीं और अब हम दूसरी तरफ फँसे हुए हैं, पिज़्ज़ा खा रहे हैं और पछता रहे हैं। इसीलिए आदमी सन्यासी से ज़रा घबराता है, उससे ज़रा द्वेष करता है। सन्यासी का होना वास्तव में अपमानजनक है।
प्र: हम जैसे संस्था में बहुत सारी गतिविधियाँ करते हैं, क्या यह आवश्यक नहीं है? मैं 'रोल मॉडल' की ही बात कर रहा हूँ। क्या एक ऐसे रोल मॉडल की जरूरत नहीं है कि जिसको देखकर एक आम मन में यह भावना उठे कि ऐसा जीवन सम्भव है? क्योंकि आसपास जो दिखता है वह तो अपने जैसे ही लोग होते हैं, जिस आनंद की बात हम कर रहे हैं, वह तो हम में से बहुतों को कभी मिल ही नहीं पाता क्या ऐसे किसी रोल मॉडल की जरूरत नहीं है?
आचार्य: देखो! तुम दुनिया में जिसको भी देखते हो वही रोल मॉडल बनना चाहता है। सभी आदर्श ही बनना चाहते हैं। घटिया से घटिया आदमी ही क्यों ना हो अगर उसके बच्चे होंगे, तो उनके लिए वह स्वयं आदर्श बनना चाहेगा। वह कहेगा "मैं जैसा कह रहा हूँ वैसा करो"। अब इस व्यक्तव्य पर ध्यान देना- "मैं जैसा कह रहा हूँ वैसा करो"। अब यह बिल्कुल ही ज़लील इंसान हो सकता है, पर अपने बच्चे से कह रहा है मैं जैसा कह रहा हूँ वैसा करो। यानी कि मेरे आदर्श का पालन करो! मुझे आदर्श बनाओ! आदर्श सभी बनना चाहते हैं, लेकिन आँखें किसी ऐसे को खोजती है जो आदर्श बनने की चाहत से मुक्त हो गया हो और जब वह मिल जाता है तो वास्तविक आदर्श बन जाता है। यहाँ तो सब की बीमारी ही है कि दूसरे पर हावी होना है। 'आदर्श' होने का मतलब होता है- दूसरे की चेतना पर हावी हो जाना। मैं तुम्हारे मन पर चढ़ गया। क्या करके? आदर्श बन के।
उनके जैसे जियो, मुझे तो उनके जैसा दिखना है, वैसा आचरण हो, वैसा जीवन हो ताकि फिर उनके जैसी तारीफ भी पा सकूं।
कोई-कोई ही मिलेगा तुम्हें जो अब इस भावना से मुक्त हो गया है कि दूसरे के मन पर चढ़कर बैठ जाना है। उसकी रुचि अब इसमें नहीं है कि दूसरे को गुलाम बना लेना। दूसरे के मन पर चढ़ना यानि कि उसे गुलाम बना लेना। उसका तो अब दिल 'आज़ादी' से लग गया है और जब वो दूसरे को भी देखता है तो उसको यही लगता है कि मैं आजाद हूँ तो तुम भी आजाद हो ही सकते थे। तुम काहे फँसे हुए हो? 'मन' कहता था वैसा कोई होता नहीं। 'आत्मा जी' आपकी बात तो मीठी लगती है पर कोई प्रमाण मिलता नहीं। प्रमाण उसके रूप में मिलता है जिसने यह इच्छा ही छोड़ दी कि किसी के लिए आदर्श बनूँ। जो आदर्श बनने की होड़ से मुक्त हो गया वह परम आदर्श हो गया।
आँखें किसी ऐसे को ही ढूंढती है। यहाँ तो जिधर देखो उधर सब दुश्मन ही नजर आते हैं फंदा लिए हुए। क्योंकि हर कोई तुम्हें प्रभावित करने की होड़ में है। जो भी तुम्हें प्रभावित करना चाहे वह तुम्हारे गले में फंदा ही तो डाल रहा है। स्त्री पुरुष को प्रभावित करना चाहती है। बाजार ग्राहक को प्रभावित करना चाहता है। नेता प्रजा को प्रभावित करना चाहता है। शिष्य गुरु को प्रभावित करना चाहता है, गुरु शिष्य को प्रभावित करना चाहता है। सभी एक दूसरे पर हावी होने के लिए, सभी एक दूसरे के मन पर काबिज़ होने के प्रयासों में लगे हुए हैं। तो मन किसी ऐसे को ढूंढता है जो दुश्मन ना हो। जो इस होड़ में ना हो कि तुम्हारे मन पर छा जाए। तुम्हारे जीवन पर कब्जा कर ले। वह जब मिल जाता है तो आत्मा जो लगातार कह रही थी मन को उसकी पुष्टि हो जाती है।
प्र: आपका ही एक व्यक्तव्य है कि "गुरु उपाय जानता है"। वह 'मन' जो प्रभावों को ही समझता है, मानता है। उस मन से अगर बात करनी है तो कैसे की जाए ?
आचार्य: गुरु के उपाय तो लगातार चल ही रहे हैं ना। आत्मा ही गुरु है। उपाय तो वह जानती ही है और उपाय लगातार कर भी रही है। 'समय' भी अपने आप में एक उपाय होता है। जब तुम देखो कि किसी पर कोई भी उपाय नहीं चल रहा है तो समझ जाओ कि इसके ऊपर एक उपाय चल रहा है। कौन सा उपाय? 'समय' कि इसका समय नहीं आया है अभी। आत्मा इसका उपचार कर रही है। उपाय माने उपचार। तो आत्मा इसका उपचार कर रही है और आत्मा ने इसके लिए जो विधि चुनी है वह विधि है समय की लगा भाई तू बीस साल अभी लगा, तू दो हज़ार साल लगा, तू दो लाख साल और लगा तेरे लिए यही विधि है। आत्मा तो सबके लिए ही करुणा रखती है। उसकी करुणा किसी के सामने इस रूप में आती है कि कोई दैहिक गुरु मिल गया। जैसे दादू कहते हैं ना "गैल माही गुरुदेव मिले"। कि जा रहे हैं और गईल में अचानक गुरुदेव मिल गए। सोचा भी नहीं था, अनायास कोई प्रकट हो गया। तुमने कहा यह क्या हो गया? यह क्या आ गया जीवन में? तो किसी पर आत्मा की अनुकंपा ऐसे हो जाती है और किसी पर ऐसे हो जाती है कि तुझ पर और कोई उपाय चलेगा ही नहीं तू जैसे जी रहा है वैसे जी, और समय देगा तुझे इतनी पीड़ा कि फिर अंततः तू अपनी अकड़ छोड़कर आत्मा के चरणों में अपना सर रखेगा।
तो जिसको तुम कहते हो कि गुरु उपाय जानता है तो गुरु उपाय जानता नहीं है गुरु स्वयं उपाय है जो आत्मा द्वारा प्रदत्त है। जिसको तुम गुरु कहते हो, शारीरिक गुरु, कोई जो तुम्हारे सामने बैठा हूँ वह लगा लो कि नंबर दो का उपाय है वह निमित्त्त है। नंबर एक का उपाय वह था जो तुम्हारे भीतर बैठा था, आत्मा। आत्मा ने इस शरीरी जीव को तुम्हारे सामने बैठा दिया क्योंकि तुम्हारा समय आ गया था तुम्हारा अहंकार तुम्हें अनुमति दे चुका था कि मैं किसी प्राणी का सुन लूंगा।
अधिकांश लोग तो किसी प्राणी की सुनेंगे ही नहीं, कहेंगे "तेरे पास भी तो दो हाथ है' दो पाव है' दो आँखें हैं' दो कान है मेरी तरह तो मैं क्यों सुनू? जब तुममें इतनी लोच आ जाती है, जब तुममें इतनी विनम्रता आ जाती है कि तुम अपने ही जैसे किसी शरीरधारी में परमात्मा को देखने के लिए तैयार हो जाते हो तब 'आत्मा', 'शरीरी गुरु' तुम्हारे सामने ले आती है। आत्मा तुम्हारे सामने एक व्यक्ति को लेकर आए गुरु के रूप में इसके लिए आवश्यक है तुममें जरा यह हठ पहले कम हो कि इंसान तो सारे एक जैसे होते हैं।
प्र: इस हट से हटने के लिए भी स्वयं से बड़ा कुछ दिखना चाहिए तभी तो यह लोच आएगी।
आचार्य: वह दिख रहा होता है। मन के सामने तो आत्मा हर समय मौजूद होती ही है ना? ऐसा नहीं कि दिख नहीं रहा होता है। वह 'हाँ' नहीं बोल रहा होता है। जो 'हाँ' बोले उसके लिए एक उपाय है, जो हाँ न बोले उसके लिए 'समय' उपाय है। तो उपाय तो निरंतर कार्यरत है ही। यह मत समझना कि आत्मा की करुणा में कभी कमी आ गई। वह लगातार सब के कल्याण के लिए उपाय कर ही रही है और जब देखना की कोई उपाय नहीं चल रहा है तो जान लेना समय उपाय है।
रावण ने क्या कहा था कि मेरे ऊपर तो एक ही उपाय चलता, राम के हाथों मृत्यु, वो मिल गयी। तो उसकी आत्मा भी उपाय कर रही थी, उसकी आत्मा का उपाय उसके समक्ष 'राम' बन के और 'बाण' बन के आया। रावण की आत्मा भी लगातार उपाय कर रही थी उसके मन को समझाने का। तो रावण के लिए उपाय यही था कि राम का बाण आए और उसका प्राण हर जाए। तुम्हारे साथ जो भी हो रहा है वह लगातार उपाय ही है। हाँ तुम्हारी इच्छा यह हो कि उपाय जरा त्वरित हो तो फिर तत्काल सेवा के लिए आवेदन दो। जब आदमी तत्काल सेवा के लिए आवेदन देता है तो शरीरी गुरु सामने आ जाता है नहीं तो फिर वह जो साधारण कतार है, उसमें लगे रहो फिर जब नंबर आएगा। वह जो कतार है वह समय की कतार है कि तुम जाकर वहाँ पीछे खड़े हो गए हो, धीरे-धीरे कतार सरक रही है, सरक रही, तुम्हारा हजार, चार हजार, छः लाख साल में नंबर आएगा। पहुंच जाना तो तुम्हारा काम हो जाएगा।
प्र: निर्भर करता है कि जल्दी कितनी है?
आचार्य: जल्दी कितनी है और कीमत क्या देना चाहते हो? साधारण सेवा की कीमत है- थोड़ी और 'तत्काल सेवा' की कीमत ज्यादा बड़ी है। उसकी ज्यादा बड़ी कीमत क्यों? उसकी ज्यादा बड़ी कीमत इसलिए क्योंकि परमात्मा के आगे सर नहीं झुकाना होगा, अपने ही जैसे एक शरीर के आगे सर झुकाना होगा। बहुत बुरा लगता है। मंदिर में मूरत के आगे सर झुकाना बहुत अच्छा है, किसी किताब के आगे सर झुकाना वह भी चल जाता है, कोई मृत लेखक हो, शिक्षक हो, गुरु हो उसके भी आगे सर झुकाना चल जाता है। अतीत के थे, पुराने थे, मर गए। अब सर झुका भी दो तो बुरा नहीं लगता। कोई जीवित तुम्हारे सामने खड़ा हो, तुम्हारी तरह सांस लेता हो, तुम्हारी तरह खाता हो, तुम्हारी तरह ही कई और गुण दिखाता हो और उसके सामने सर झुका दो- यह बड़े सूरमा का काम है। यह नहीं होता आसानी से। तो जिन्हें तत्काल सेवा चाहिए उन्हें यह कीमत अदा करनी पड़ती है कि बिल्कुल तुम्हारे जैसा दिखता हुआ एक आदमी आएगा और तुम्हें उस में परमात्मा को देखना होगा। अगर तत्काल चाहते हो तो यह करके दिखा दो और यह बड़ा असम्भाव्य काम है।
'गुरु' तत्काल टिकट है, मगर ज़्यादा पैसे लगते हैं। कीमत बड़ी होती है वहाँ। गुरु मतलब दैहिक गुरु।
प्र इसके आगे की भी कोई सम्भावना होती है क्या जैसे प्रीमियम तत्काल।
आचार्य: अब जब आप तत्काल के ही दाम चुकाने के लिए तैयार नहीं तो उसके ऊपर वाले कैसे चुकाओगे? सम्भावनाएँ तो बहुत होती हैं, पर सम्भावना जितनी त्वरित होगी उसके दाम उतने ही ऊंचे होंगे। जो साधारण तत्काल सेवा उसी का लाभ उठाया जाए उसके आगे के लिए तो बहुत बड़ा खजाना लुटा देना।
प्र: यह और भी मुश्किल हो जाता है अगर आप दिन रात उस दैहिक गुरु के साथ रहते हैं।
आचार्य: तो और उसका जो देहरूप है बिल्कुल प्रधान होकर दिखता है ना? अब वैसे तो अगर वो दूर दूर बैठा है, अब वह वहाँ जाकर वह मंच पर बैठ गया है तो लगता है कि वह देव पुरुष है, उतर के आया है अभी-अभी, अभी अवतरित हुआ है और फिर तुमको भाषण देने के बाद वह वहाँ से जल्दी से विलुप्त भी हो जाता है, गया। तो करीब-करीब परमात्मा जैसी बात हो जाती है- क्षण भर को अपनी छवि दिखाई और फिर महाराज विलुप्त हो गए और वह करना भी पड़ता है इसीलिए समझ रहे हैं ना। कि लगे कि कोई देवदूत उतरा था उसने वरदान दिया और फिर प्रस्थान कर गया।
प्र: फिर सर झुकाना आसान हो जाता है।
आचार्य: फिर सर झुका सकते हो क्योंकि तुम्हारे सामने वह देवदूत की तरह जरा से समय के लिए सामने आया था।
प्र: सर झुकाना, उसके सामने रो पाना, भाव उठना।
आचार्य: सब कुछ। फिर आसान हो जाता है क्योंकि वह अपने जैसा नहीं लगता और अब वही तुम उसके साथ खा रहे हो, जी रहे हो, उसका फटा पजामा देख रहे हो तो कहोगे अरे! यह गुरुदेव हैं ? इतना बड़ा छेद तो उनके पजामे में ही है कहाँ के गुरुदेव? तो फिर मन कहता है कि यार अगर तू बिलकुल मेरे जैसा है तो मैं तेरे सामने सर कैसे झुका दूँ? और प्रमाण है तुम्हारे पास, बिल्कुल है - तुम खाते हो वह भी खाता और तुम जो खाते हो वही वह भी खाता और खाना गर्म हो तो तुम जलते हो और छाला उसे भी उठता है। जितने तरंगे तुम्हारे भीतर उठती हैं वैसी ही उससे मिलती-जुलती तरंगे तुम वहाँ भी देखते हो। जीवन के जो गुणधर्म तुम अपने में देखते हो, वही सब उधर भी दिखाई देते हैं। तो अब तुम मानो तो मानो कैसे कि यहाँ मामला दूसरा है। यह मानने के लिए फिर बड़ी कीमत देनी पड़ती है। वही कीमत है तत्काल सेवा।
प्र: जब आप फोटो के आगे सर झुका रहे हो या किसी बाहर बैठे के आगे सर झुका रहे हो तो इसका मतलब है कि आपके मन में जो छवि है आप उसके आगे सर झुका रहे हो।
आचार्य: क्योंकि फोटो आ करके तुमसे कुछ बोलेगी नहीं। फोटो तो विवशता में जीती है। वह फोटो वहाँ टंगी हुई है दीवार पर, अब वह फोटो बेबस है। तुम कुछ भी मान लो महाराज है! उन्होंने यह सोचा, यह करा, इनके आगे सर झुका दो। तुम्हीं ने टाँगी है तुम उसे उतार भी सकते हो। लेकिन जो जीता जागता, सांस लेता हुआ पुरुष तुम्हारे सामने बैठा है उसको थोड़ी ना खूंटी पर टाँग दोगे? फोटो तो तुम्हारी व्यवस्था का हिस्सा है तुम्हारा गुलाम है।
प्र: आचार्य जी, आप एक बार कह रहे थे कि मुझे शिष्य की स्थिति देखकर ज्यादा दया आती है क्योंकि गुरु तो वही है जो उसको होना होता है शिष्य को दोनों में दोनों देखने होते हैं जब वह सत्र में तो उनमें उन्हें गुरु देखना होता है और जब हँस-खेल रहे होते हैं तो उन्हें वह देखना होता है।
आचार्य प्रशांत: दोनों को अलग-अलग देखना होता है और दोनों अलग-अलग को फिर एक देखना होता है। तो बेचारा जो शिष्य है उसकी हालत तो वास्तव में दयनीय है। वह क्या देखे? तुम्हें देह समझे की आत्मा समझे? आत्मा समझे तो तुम देह के सारे गुण दिखा देते हो और देह ही समझ ले तो आत्मा से वंचित रह जाता है। और तुम कहीं पर भी टिकने देते नहीं। किसी दिन बिल्कुल मन बना कर आए, तय कि आज तो गुरुदेव को परमात्मा मान ही लिया है और आज जाकर बिल्कुल दंडवत हो जाना है और वहाँ आए और देखा कि गुरुदेव दाल-भात मुँह पर लपेटे हुए हैं, खिसिया रहे हैं और पानी-पानी चिल्ला रहे हैं और कोई पानी ला कर दे नहीं रहा है और तुमने कहा परमात्मा का जितनी तुम भावना बना कर आए थे आज कि आज तो बिल्कुल परमात्मा के ओहदे पर बिठा ही देंगे सारी भावना हो गई छितर-बितर और वहाँ पसीना चू रहा है, दो-चार बाल टूट कर गिर गए दाल-भात में, एक मक्खी है जो इधर-उधर घूम रही है तो उसको गरिया रहे हैं गुरुदेव और तुम इतनी कोमल भावनाएँ लेकर कह रहे हो महाराज! कुछ रहम करिए! थोड़ा तो छवि का ख्याल करिए। आप तो बिल्कुल ही तोड़े दे रहे हैं, एकदम आप अपने आपको पूजा के काबिल नहीं छोड़ रहे हैं। उनका चरित्र ही ऐसा है वह काहे को तुम्हारी बात पर ध्यान दें। उनको आदर्श ही अगर बनना हो तो गुरु काहे के हैं और तुमने देखा और मन में तय कर लिया कि यह तो कुछ गुरु-वुरु नहीं है, हमारी तरह ही साधारण जीव है और जहाँ तुमने यह तय किया वहाँ तुमने थोड़ी देर में कोई और ही रंग देख लिया।
अब तुम फिर पकड़े गए। तो तुमने ले देकर एक मध्यम मार्ग चुना- तुमने कहा ऐसा करते हैं विभाजन कर देते हैं - जब तक सत्र नहीं चल रहा है तो यह साधारण जीव हैं और जब सत्र चल रहा है तो यह विशिष्ट आत्मा गुरुदेव हैं और अब तुम्हें लगेगा कि ठीक बैठा लिया, अब हो गया फैसला, दूध का दूध और पानी का पानी, सत्र के बाहर पानी और सत्र में दूध कर लिया और तुम फिर पकड़े गए क्योंकि दूध और पानी तो ऐसे होते हैं कि मिल गए तो अलग हो नहीं सकते कभी दूध में पानी और जिसे पानी समझे थे वह दूध साबित हो जाता है। तभी पता चलता है कि जहाँ तुम दाल-भात देख रहे थे वहाँ सत्र निकल आता है और जहाँ सत्र सोच के आए थे वहाँ दाल-भात चालू है। अब तुम फिर फँसे। तो बेचारा शिष्य तो झंझट में ही जीता है। आत्मा से बड़ी झंझट 'मन' के लिए कोई नहीं है और गुरु से बड़ी झंझट शिष्य के लिए कोई नहीं है। गुरु के साथ होना माने झंझट से विवाह कर लेना क्योंकि जब तक तुम हो, वह झंझट बनी ही रहेगी। वह तभी मिटेगी जब तुम मिट जाओगे नहीं तो वह तुम्हें चैन से जीने नहीं देगा। तुम जहाँ भी चैन से बैठना चाहोगे वह तुम्हें पीछे से आकर नोच देगा- गलत जगह बैठे हो, गलत जगह बैठे हो। तुम चाहते हो कहीं ना कहीं बैठ जाओ, कहीं ठिकाना मिल जाए, कहीं टिक जाओ, किसी तरह का तुम कोई निष्कर्ष बना लो, किसी चीज के साथ तो जुड़ जाओ, कोई वक्तव्य तो आखरी समझ लो, वह तुम्हें किसी आखिरी जगह पर विश्राम करने नहीं देगा। वह कहेगा- "जब तक तुम बने हुए हो तुम्हें विश्राम नहीं मिल सकता, विश्राम तुम्हें एक ही तरीके से मिलना है, तुम खत्म हो। नहीं तो वह तुम्हें नोचता रहेगा, टोचता रहेगा जब तक कि तुम आखिरकार आत्महत्या ही नहीं कर लेते। तो गुरु का होना बस इसलिए होता है ताकि तुम आत्महत्या कर लो। जिसने करी आत्महत्या उसको मिल गई आत्मा।
प्र: जब आप उन लोगों की बात बता रहे थे जो जीवन में शरीर और मन में निवेश करते हैं और जब आप उनका शरीर देखते हैं तो उनका शरीर सुदृढ़ होता है मन देखते हैं तो बहुत निश्चयात्मक मन होता है।
आचार्य: बिल्कुल इस उम्मीद में तो रहना ही मत की आत्मा से मुँह चुराकर अगर शरीर की ओर जाएगा या मन की ओर जाएगा तो बहुत प्रकट सज़ा पाएगा, ना! बहुत प्रकट सज़ा नहीं मिलती।
जो लोग 'आत्मा' से मुँह चुराकर मन की सेवा में जीवन लगाते हैं, शरीर की सेवा में जीवन लगाते हैं वह अक्सर बहुत शारीरिक सुख पाते हैं। वह अक्सर मानसिक रूप से, सामाजिक रूप से बड़ी तरक्की कर जाते हैं। उनको वह मिलेगा जो वह चाहते हैं। उनकी सज़ा यह होगी कि उनको 'बस' वही मिलेगा जो वह चाहते हैं। उनको वह नहीं मिलेगा जिसके वह वास्तव में भागी थे, अधिकारी थे और जो पद उनका आरक्षित था उससे महरूम रह जाएँगे।
प्र: क्या जो लोग खुद को आध्यात्मिक बोलते हैं यह उनकी ईर्ष्या है कि वो ऐसे लोगों को बोलते हैं कि वह नर्क में जाएँगे, वह सुख भी नहीं भोग पाएँगे।
आचार्य: ना-ना, उन्हें स्वर्ग ही मिलेगा। उन्हें स्वर्ग मिलेगा बिल्कुल। जो लोग संसार में जी रहे हैं, जो लोग संसार को ही समर्पित है, जो लोग संसारी ही हो लिए हैं और जो संसार की सेवा कर रहे हैं, उद्यम कर रहे हैं, जी-जान से संसार को बेहतर जगह बनाने में लगे हुए हैं, अपने जीवन को संवारने में लगे हुए हैं, स्वर्ग उनको ही मिलेगा और उनकी सज़ा यह है कि उनको स्वर्ग ही मिलेगा।
जानते हो देवता क्या होता है? स्वर्ग क्या जगह है? स्वर्ग वह जगह है जो इतनी सुंदर है कि जहाँ से मुक्ति नहीं हो सकती। देवता वह गिरा हुआ इंसान है जो उस सुंदर जगह में जाकर फँस गया है। स्वर्ग और नर्क द्वैत के दो पहलू हैं। नर्क जितना बड़ा दुख है स्वर्ग भी उतना ही बड़ा दुख है क्योंकि स्वर्ग से मुक्ति का कोई तरीका नहीं है। इसीलिए कवियों ने, ऋषियों ने देवताओं के मुँह से यह कहलवाया है कि हम तो अब इंसान होने को लालायित हैं क्योंकि इंसान के पास यह विकल्प होता है कि वह नर्क को छोड़े और स्वर्ग को भी छोड़ दे। वह स्वर्ग पर भी ना रुके। देवता तो फँस गया है। देवता तो अब एक रूप में, रंग में, एक आकार में फँस गया है।
प्रश्नकर्ता: जो लोग और शरीर में निवेश करते हैं, उनको जो मिल रहा होता है वह बहुत प्रकट होता है लेकिन जो आध्यात्मिक यात्रा में होते हैं उनकी यात्रा अक्सर बहुत लंबी होती है। ऐसा लगता है वह बीच में कहीं फँसे हुए हैं और अक्सर जब वह संसारी को देखते हैं तो ईर्ष्या उठती है कि इससे अच्छा तो हम वही कर लेते।
अचार्य प्रशांत: नहीं बीच में फँसे हुए जैसा क्या है तुमने खुद ही चुना है ना कि तुम इस पथ पर रहोगे।
एक सड़क है उसके एक तरफ डॉक्टर का क्लीनिक है और दूसरी तरफ ब्यूटी पार्लर है। तुम बीमार हो, तुमने खुद चुना है कि तुम डॉक्टर के यहाँ जाओगे। अब तुम डॉक्टर के यहाँ बैठे हो और डॉक्टर तुम्हारी चिकित्सा कर रहा है, चीर-फाड़ कर रहा है तो तुम बहुत सुंदर तो लगते नहीं हो डॉक्टर की क्लीनिक में या लगते हो? टाँग उठा रखी है या मुँह खोल रखा है और तमाम तरह के पदार्थ तुम्हारे भीतर से बाहर आ रहे हैं, बहुत कोई शोभिनीय दृश्य तो होता नहीं और दूसरी तरफ तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है- सड़क के दूसरी ओर ब्यूटी पार्लर है जहाँ चिकने-चुपड़े लोग हैं तो तुम क्या करोगे? तुम डॉक्टर को हटाकर ब्यूटी पार्लर चले जाओगे? निश्चित रूप से वह लोग बहुत सुंदर दिख रहे। उनके अंदर होंगी बीमारियाँ मान लो कि लीवर सड़ा हुआ है, किडनी सड़ी हुई हो लेकिन उन्होंने चुना है ब्यूटी पार्लर तो उनका चेहरा तो जग मग ही रहेगा। आत्मा कैसी भी हो चेहरा तो जग मग ही रहेगा और तुम हो डॉक्टर के यहाँ पर। तुमने चुना है डॉक्टर के यहाँ होने को। तो तुम जितने भद्दे थे , डॉक्टर के यहाँ आकर उससे और भद्दे लगने लगे हो। हो सकता है तुम्हारे दांत जरा सड़े-वड़े हो लेकिन रोज की दिनचर्या में पता नहीं चलती है वह सड़न और देखा है? जब डेंटिस्ट के यहाँ जाते हो तो क्या होता है? वह सारा घिसघिस के खून निकाल देगा, मवाद निकाल देगा, तुम कहोगे इससे बेहतर तो पहले ही थे।
तो जब तुम आत्मा के संपर्क में होते हो, 'आत्मा' को ही मैं चिकित्सक कह रहा हूँ क्योंकि आत्मा के अलावा और कोई चिकित्सक होता नहीं। आत्मा ही वैद्य उसी अर्थ में जिस अर्थ में गुरु उपाय है। जब तुम आत्मा के संपर्क में रहते हो, तो जितने भद्दे तुम बाहर से पहले नहीं दिखते थे उससे ज्यादा भद्दे दिखने शुरू हो जाते हो। तुम्हारी पूरी व्यवस्था खोल कर रख दी जाती है जैसे कि कोई गाड़ी हो अच्छी-खासी वह भी जब रिपेयर के लिए जाती है तो कैसी हालत हो जाती है? उसकी बोनट खुला हुआ है, इंजन निकाल कर बाहर रख दिया है? एक पहिया ऊपर छत पर और सामने एक शोरूम है और उस शोरूम में सेकंड हैंड गाड़ियाँ बिक रही हैं लेकिन उनको चमका दिया गया है। तुम क्या चाहते हो? डॉक्टर के यहाँ होना चाहते हो या ब्यूटी पार्लर के यहाँ होना चाहते हो?
जो मन शरीर के साथ है, उन्होंने तय कर लिया है कि ब्यूटी पार्लर में ही जिएँगे। भीतर क्या है उस पर ध्यान नहीं देंगे बाहर जो है उसे चमकाएँगे। जो आत्मा के साथ है उन्होंने कहा है हम तो डॉक्टर के यहाँ जाएँगे। हम तो अपने आंतरिक चिकित्सा करवाएँगे। जो डॉक्टर के यहाँ जा रहे हो उन्हें तैयार रहना चाहिए भद्दा दिखने को।
अस्पताल से चमचमाते हुए चेहरे बाहर नहीं आते। अक्सर अस्पताल से बाहर तो आते हुए तुम्हारा चेहरा उस चेहरे से ज़्यादा क्लांत दिखता है जो अंदर गया था। भीतर जाते हुए तो फिर भी थोड़े से लिपटे-पुते होते हो, जब अस्पताल से बाहर निकलते हो तो एकदम ही मरियल निकलते। फिर लेकिन धीरे-धीरे सेहत वापस आनी शुरू होती है।
शरीर भरना शुरू होता। वह बात बिल्कुल दूसरी है जब तुम्हारी छटा निखरती है। अब तुम डॉक्टर के यहाँ से निकलोगे और ब्यूटी पार्लर में जाओगे तो तुम्हारे साथ कुछ बहुत अच्छा हो सकता है अब तुम आंतरिक रुप से स्वस्थ हो। अब जाओगे ब्यूटी पार्लर में तो अब बाहर से भी कर देगा थोड़ा रंग-रोगन, जिसकी तुम्हें अब विशेष आवश्यकता है नहीं। जंगल के पेड़ को कोई माली चाहिए नहीं, पर मान लो तुम चले गए ब्यूटी पार्लर, तुम्हें जरूरत नहीं है लेकिन तुम में वो कोई नुकसान भी नहीं कर पायेगा। लेकिन जो लोग ब्यूटी पार्लर में रह गए वह बड़ी दर्द की मौत मरेंगे।
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