जन्माष्टमी विशेष: औसत और साधारण ही रहना हो, तो छोड़ो कृष्ण को || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

Acharya Prashant

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जन्माष्टमी विशेष: औसत और साधारण ही रहना हो, तो छोड़ो कृष्ण को || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

आचार्य प्रशांत: हर उत्कृष्टता एक इशारा है, एक संकेत है। आसमान की ओर संकेत है और प्रकृति के विरुद्ध विद्रोह है। जब सबको एक जैसा होना चाहिए था तो कोई ख़ास हो कैसे गया? जो ख़ास हो गया, उसको तुम मानो कि वही अगर भगवान नहीं तो भगवत्ता का प्रतिनिधि ज़रूर है। समझ रहे हो बात को?

सबको एक जैसा होना चाहिए था न दुनिया में? सबको एक जैसा होना चाहिए था, क्योंकि प्रकृति अलग-अलग तो बनाती नहीं। चूहा-चूहा एक जैसा, कौवा-कौवा एक जैसा, शेर-शेर एक जैसा। सबको एक जैसा होना चाहिए था, कोई अलग कैसे हो गया?

ये जो अलग हो जाना है, ये जो ख़ास हो जाना है, विशिष्ट हो जाना है, ये बड़ी अद्भुत बात है। श्रीकृष्ण कह रहे हैं, 'तुम इसी बात का इस्तेमाल कर लो — जो अलग दिखे, तुम उसी को ईश्वरीय सत्ता का प्रतिनिधि मान लो।’ तुम कहो कि अलग तो कोई हो ही नहीं सकता। जब सब एक जैसे हैं, तो ये अलग हुआ कैसे? ज़रूर कोई जादू घटा है, ज़रूर कोई जादू घटा है। तो वो कह रहे हैं, ‘जो सबसे अलग हो, तुम उसी को कृष्ण मान लो। जो सबसे अलग हो, उसी को कृष्ण मान लो।’ और तरीक़ा क्या है? तो पर्वतों में जो सबसे ऊँचा पर्वत है, वो पूजनीय हो गया। शस्त्रधारियों में जो सबसे बलवान और विजेता शस्त्रधारी हैं, वो अलग हो गये। बाक़ी सब एक तरफ़, जो सबसे अलग है, वो बिलकुल दूसरे तल का मानो अब। क्योंकि उसको भी बाक़ियों के जैसा ही होना चाहिए था न! वो बाक़ियों के जैसा नहीं है, इसका मतलब उसमें कुछ तो है जो प्रकृति से बिलकुल अलग है। इसीलिए फिर भारत में जो उत्कृष्टताएँ हैं, उनकी पूजा की गयी।

अब देखो, पशु होते हैं सारे। बात समझना। पशु होते हैं सारे, सब पशु किसी-न-किसी तल पर आक्रामक व्यवहार दिखाते हैं। गाय ऐसा पशु है जो न्यूनतम आक्रामक व्यवहार दिखाती है। सब पशुओं में देखा जाए तो एक बेचैनी रहती है। गाय में वो बेचैनी बहुत कम पायी जाती है। गाय बड़ी आसानी से विश्वास भी कर लेती है। तो ये पाया गया कि पशु-पशु सब पशु हैं, गाय में कुछ ऐसा है जो पशुओं से भिन्न है थोड़ा। ये नहीं कहा जा रहा कि गाय पशु नहीं है, पर गाय में एक उत्कृष्टता पायी गयी। जब गाय में एक उत्कृष्टता पायी गयी, तो गाय को एक प्रतीक की तरह दैवीय सत्ता के प्रतिनिधि के रूप में स्वीकार कर लिया गया। उसे ‘गौमाता’ कह दिया गया।

ऐसा नहीं है कि जो 'गौमाता' कह रहे थे, वो नहीं जानते थे कि गाय है तो पशु ही। है तो पशु ही, पर ज़रा ख़ास पशु है। पशुओं से अलग पशु है। ऐसा पशु तुम नहीं पाओगे जिसका वज़न तुमसे तीन गुना, चार गुना, दस गुना हो, लेकिन उसके बाद भी वो तुम्हें सींग न मारे। ये छोटे-छोटे बच्चे जा रहे हैं और गैया के सींगो से लटक के खेल रहे हैं। और बच्चे की अपेक्षा उस गाय का वज़न है दस गुना, और बच्चा लटका हुआ है गाय से, कुछ कह नहीं रही, वो आराम से बैठी है। वो उत्तेजित भी नहीं हो रही, ऐसा पशु मिलता नहीं है। कृष्ण कह रहे हैं कि जहाँ कहीं ऐसा तुम्हें कोई भी उदाहरण मिले, तुम उस उदाहरण को ही पूजनीय बना लेना। तुम उस उदाहरण को ही मेरा प्रतीक मान लेना।

बात समझ में आ रही है?

एक्सीलेंस जहाँ भी दिखायी दे, डिसटिंक्शन जहाँ दिखायी दे, उत्कृष्टता और विशिष्टता जहाँ भी दिखायी दे, समझ लो ये कृष्ण का काम है, वरना ये हो ही नहीं सकती थी। प्रकृति ने तो पूरा इन्तज़ाम कर दिया था कि इस पृथ्वी पर न कुछ उत्कृष्ट हो और न कुछ विशिष्ट हो।

देखिए, पीपल का पेड़ घास के तिनके की अपेक्षा बहुत बड़ा होता है। घास में और पीपल में अन्तर होता है। पर पीपल और पीपल में अन्तर होता है क्या? नहीं होता न। प्रकृति ने पूरा इन्तज़ाम कर रखा है कि सब एक जैसे हों। और बहुत लोगों की जो विचारधारा है कि सब एक बराबर है, सब एक बराबर है, वो वास्तव में प्रकृति की बात कर रहे हैं और प्रकृति ने ऐसा करा भी है कि शरीर के तल पर सब एक बराबर होंगे।

लेकिन प्रकृति के इस प्रबन्ध के विरुद्ध अपवाद मौजूद होते हैं, एक्सेप्शंस मौजूद होते हैं। कृष्ण यहाँ पर उन्हीं अपवादों की बात कर रहे हैं। कृष्ण कह रहे हैं, ‘जहाँ कहीं भी वो अपवाद, एक्सेप्शंस दिखायी दें, बोलना कि कृष्ण मिल गये।’ गंगा भी नदी ही है, पर थोड़ी ख़ास नदी है, एक्सेप्शनल नदी है। तो फिर उनको मान लिया गया कि ये दैवीय नदी है। है कुछ नहीं, बहता पानी। पर भारत ने एक ख़ास बुद्धिमत्ता का प्रयोग करते हुए फिर उनको कहा, ‘गंगा मैया’। बात समझ में आ रही है?

हर शिखर प्रकृति के विरुद्ध एक अपवाद होता है, प्रकृति के ख़िलाफ़ एक चुनौती होता है। शिखर आ कहाँ से गया? प्रकृति को तो शिखर पसन्द ही नहीं है, वो तो ये चाहती है सब एक जैसे रहें और देखो न, प्रकृति के इन्तज़ाम में सब एक जैसे हैं कि नहीं? जो तुम्हारे साथ होता है (एक श्रोता की ओर इशारा करते हुए), वही उसके साथ होता है शारीरिक तल पर (दूसरे श्रोता की ओर इशारा करते हुए)। मानसिक तल पर भी जो तुम्हारी वृत्तियाँ होती हैं, वो उसकी वृत्तियाँ होती हैं, लेकिन बीच-बीच में अजूबा हो जाता है। कुछ ऐसा हो जाता है जो होना नहीं चाहिए था। जैसे प्रकृति के खेल में बाधा पड़ गयी हो, जैसे कुछ अलग, कुछ अजीब हो गया हो।

कृष्ण कह रहे हैं, ‘जहाँ कहीं भी तुम वैसे अपवाद देखो, उन अपवादों का इस्तेमाल कर लेना, मुझे याद कर लेना। हाथियों में ऐरावत को देखो, मुझे याद कर लो क्योंकि सब हाथी एक तरफ़, ऐरावत एक तरफ़।’

तुम्हारे मन में ये सवाल उठना चाहिए कि ऐरावत आ कहाँ से गया। फिर कहो कि प्रकृति से तो नहीं आ सकता। इसका अर्थ है कि प्रकृति से आगे की भी कोई सत्ता है, उसी का नाम ‘कृष्ण’ है। प्रकृति से सामान्य साधारण हाथी ही तो आ सकते थे न, ये ऐरावत कहाँ से आ गया? ये ऐरावत प्रकृति से तो नहीं आया है, प्रकृति से थोड़ा आगे का है। तो ऐरावत को देखना तो याद करना कि प्रकृति से बड़ा भी कोई है, प्रकृति का बाप भी कोई है। और वहीं तुम्हें पहुँचना है, उसी की तलाश में हो तुम, वही तुम्हें चाहिए।

कृष्ण कह रहे हैं कि वास्तव में कृष्णत्व कुछ और नहीं है, उत्कृष्टता की ही पूजा का नाम कृष्णत्व है। कृष्ण यहाँ पर कह रहे हैं, ‘वरशिप ऐक्सिलेंस , उत्कृष्टता की पूजा करो, ऊँचाइयों की पूजा करो।’ हर ऊँचाई कृष्णत्व का प्रतीक है। बात आ रही है समझ में?

और न जाने कितने उदाहरण देकर के उन्होंने समझाया इस बात को! जितने भी प्राकृतिक उदाहरण अर्जुन की दृष्टि में सामने थे, उन सबको लिया है कृष्ण ने और कहा, ‘देखो, इनको अगर देखोगे तो फिर इनमें मैं ये हूँ, पशुओं को अगर देखोगे तो मैं सिंह हूँ। बाक़ी जानवरों को देखना और फिर शेर को देखना, तब कहना — कुछ बात तो है! और बात तो कुछ होगी।

देखो, ये सिंह होता है, क्या ये जंगल का सबसे भारी पशु है? है क्या? इससे न जाने कितने भारी हैं बल्कि सिंह से ज़्यादा भारी तो बाघ ही होता है। क्या सिंह सबसे द्रुतगामी पशु होता है, सबसे तेज दौड़ता है? नहीं, सिंह से ज़्यादा तेज़ तो चीता दौड़ता है। क्या सिंह उड़ सकता है? क्या तैर सकता है? पेड़ पर चढ़ सकता है? पेड़ पर भी नहीं चढ़ता वो। बाघ चढ़ता है, तेंदुआ चढ़ता है, शेर को चढ़ता नहीं पाओगे। फिर भी सिंह जंगल का राजा क्यों कहलाता है? कुछ बात है! उसी बात का नाम कृष्णत्व है।

उसकी आँखों में कुछ है, उसके नज़रिये में कुछ है। न वो सबसे तेज़ दौड़ पाता है, न वो सबसे शक्तिशाली है लेकिन जीतता वही है, राजा वही है। कुछ बात है! जब भी कुछ ऐसा दिखायी दे जो होना नहीं चाहिए, फिर भी हो रहा है और बड़ा ख़ास है, कहना — ये आदमी का काम नहीं है, ये प्रकृति का काम नहीं है, ये कृष्ण का काम है।

कृष्ण कह रहे हैं कि ऐसे मौक़ों का फ़ायदा उठा लो। जहाँ भी कुछ ख़ास दिखायी दे, तुरन्त हाथ जोड़ लो, सिर झुका दो। कह दो कि लो, प्रमाण मिल गया आपके होने का। ये जो अभी मेरे सामने है, यही प्रमाण है आपके होने का। आप न होते, तो ये विशिष्टता हो नहीं सकती थी। आप न होते तो दुनिया में एक्सीलेंस कहाँ से आती? कहाँ से आती?

इसका मतलब है कि वो लोग जिनके जीवन में किसी भी तरह की उत्कृष्टता नहीं है, ऊँचाई नहीं है, वही वो लोग हैं जिनके जीवन में कृष्ण कहीं नहीं है। बस प्रकृति है, शरीर है, देह है, मलमूत्र है — यही सब है। अपनेआप से सवाल पूछिए — कोई भी क्षेत्र है जीवन का जिसमें आप उत्कृष्ट हैं, विशिष्ट हैं, एक्सीलेंट हैं? अगर नहीं हैं तो कृष्ण से तो बहुत ही दूर हैं आप। हाथी, गधा, कुत्ता, घोड़ा इन्हीं की श्रेणी में आते हैं। कहाँ हैं एक्सीलेंस, कहाँ है?

किस चीज़ में आप पर्वतराज हिमालय की भाँति हैं, बताइए? कूड़े के ढेर में भी कुछ ऊँचाई होती है, उतनी ऊँचाई है बस आपके जीवन में। आप कहते हैं, ‘मुझे ये भी आता है, मुझे वो भी आता है, मैं इसमें पारंगत हूँ, मैं उसमें निपुण हूँ।’ वो ऊँचाइयाँ उतनी ही है जितनी कूड़े के ढेरों की होती है।

हिमालय जितनी ऊँचाई जीवन के किसी भी क्षेत्र में है क्या आपके पास? और अगर नहीं है तो कूड़े से बेहतर जीवन कैसे है आपका? और उस पर भी शर्मनाक बात ये है कि हम में से ज़्यादातर लोग उस कूड़े की रक्षा करना चाहते हैं। जब मौका मिलता है, उस कूड़े से ऊपर उठने का, ऊँचाइयाँ पाने का, तो हम चिहुँक जाते हैं, पीछे हट जाते हैं, हमारा पेट ख़राब हो जाता है।

बात समझ में आ रही है?

किताबें पढ़ने से और बार-बार बोलने से कि मैं तो साहब, कृष्ण भक्त हूँ या आध्यात्मिक आदमी हूँ, आप दो कौड़ी के आध्यात्मिक नहीं हो गये। अध्यात्म अगर है आपके जीवन में तो विशिष्टता दिखायी देगी। विशिष्ट कहाँ हैं आप?

कबीर साहब विशिष्ट हुए, नानक साहब विशिष्ट हुए, तो उनका साहित्य आज तक पढ़ा जा रहा है। ज़बरदस्त साहित्यकार हो गये। अगर वो भक्त थे, तो उनकी भक्ति का प्रदर्शन उनके साहित्य की गुणवत्ता में होता है। होता है कि नहीं? उनका साहित्य आज तक पढ़ा जा रहा है। आप भी कहते हो आप बड़े भक्त हो, आपका साहित्य दो कौड़ी का है। आप लिखो कुछ, चार लोग नहीं उसको पढ़ने को राज़ी होंगे।

अगर वास्तव में आपमें कृष्णत्व होता, तो आप जगत पर छा गये होते। जगत में आपकी कोई हैसियत नहीं है, कोई काम आपको करना नहीं आता और आप बोलते हो, ‘मैं आध्यात्मिक आदमी हूँ।’ झूठे! ख़ुद को धोखा देते हो। एक काम नहीं है जो बलपूर्वक कर सको। एक काम नहीं है जिसमें तुम जंगल में शेर जैसे हो सको। एक काम नहीं है, जिसमें तुम हाथियों में ऐरावत जैसे और घोड़ों में उच्चश्रवा जैसे हो सको। लेकिन दावा यही है कि हम तो आध्यात्मिक हैं। बैठकर के आध्यात्मिक किताबें पढ़ रहे हैं, करना कुछ नहीं आता।

ऐसे लोगों को मैं बोलूँगा, बाक़ी सब किताबें छोड़कर के श्रीमद्भगवद्गीता का दसवाँ अध्याय ‘विभूति योग’ बार-बार पढ़ो और थोड़ी शर्म करो। भूलना नहीं कि प्रकृति के ख़िलाफ़ जाना, प्रकृति से ऊपर उठना अपनेआप नहीं हो जाता, मेहनत लगती है।

तुम अगर किसी भी क्षेत्र में अपनी प्रतिभा नहीं बना पाये हो, तुम किसी भी क्षेत्र में ऊँचाई हासिल नहीं कर पाये हो, तो उसकी वजह तुम्हारी क़िस्मत नहीं है, उसकी वजह तुम्हारी प्रमाद-प्रियता, आलस्य-प्रियता और झूठ-प्रियता है। बहाने मत बनाना कि मैं क्या करूँ, मेरा तो अतीत ऐसा है, वैसा है। बेकार की बात! जिसको चाहिए हो, उसको ऊँचाई मिल जाती है। तुम्हें नहीं मिली है, तुम्हें चाहिए नहीं थी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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