भवोऽयं भावनामात्रो न किंचित् परमर्थतः।
नास्त्यभाव: स्वभावनां भावाभावविभाविनाम्।।
अष्टावक्र गीता (अध्याय १८, श्लोक ४)
अर्थ: “भाव और अभाव के माध्य स्वभाव का कभी नाश नहीं होता”
आचार्य प्रशांत: जिस सवाल का अष्टावक्र यहाँ पर जवाब दे रहें हैं, वो सवाल है कि, “क्या ‘है’?”। किसको कहा जाता है कि ‘है’? और उनका जो उत्तर है वो बड़ा सीधा-साधा है। वो कह रहें हैं: “जो दिखता है सो दिखने जैसा है, और जो दिखने का तत्व है वो तत्व जैसा है” — दोनों अपनी-अपनी जगह ‘हैं’।
तो पहले वाक्य में वो ये कहते हैं कि जो ये सब दिखाई पड़ता है, जो पूरा संसार है, वो भावना-मात्र है । वो बस एक प्रकार की प्रतीति है, विचार है। पर उसके आगे वो यही कहते हैं कि यही तो उसका होना है, और किसको कहोगे कि ‘है’?
सपना ‘है’, संसार ‘है’, यही उसका होना है। तो मिथ्या कहकर भी वो उसको मिथ्या कह नहीं रहे। वो कह रहें हैं कि संसार ‘कल्पना’ है, और आगे ये भी कहते हैं कि जानने वाले इन दोनों के होने को अलग-अलग जानते हैं। वो संसार के होने को जानते है कि उसके होने का क्या स्वभाव है, और वो परम के होने को जानते हैं कि उसके होने का क्या स्वभाव है। और क्योंकि वो दोनों का ‘होना’ जनते हैं, इसलिए, अष्टावक्र ने एक बड़ी मज़ेदार बात कही है कि कुछ भी ‘न होने जैसा’ नहीं है।
वो कह रहे हैं: ‘नॉन-बींग (न होना)’ है ही नहीं, तो मिथ्या किसी को बोलना ही मत। कुछ मिथ्या नहीं है। क्योंकि मिथ्या भी ‘है’। हमारे लिए इसमें बड़े महत्वपूर्ण सन्देश हैं। हमने अपने ऊपर काम लिया हुआ है कि जो सपने में है, उसको हम जगायेंगे। पर हम भूलें नहीं कि जो सपने में है, उसके लिए सपना ‘है’। तो ज़रा इस बात का ख्याल रहे, इस बात को ज़रा महत्व दिया जाये कि जो सपने में है, उसके लिए तो सपना ‘है’। हाँ, मिथ्या ‘है’, ठीक, पर ‘है’ न! बात समझ में आ रही है? तो दोनों बातें एक साथ कह रहें हैं, अभी जो हम थोड़े ही देर पहले कह रहे थे कि एक तरफ़ तो शुरू करते ही वो कह रहें हैं कि किंचित भी ज़ोर नहीं है संसार में, सिर्फ़ प्रतीत होता है, मानसिक है, वैचारिक है; दूसरी ओर कह रहें हैं कि जैसा भी है, ‘है’ तो सही। और जो ज्ञानी होता है, वो संसार के ‘होने’ को समझता है कि संसार क्या चीज़ है।
जिसको कहना कि ‘है’, ग़लत होगा, और जिसको ये कहना कि ‘नहीं है’, वो भी ग़लत होगा। तो जो एक धारणा चली आती है कि ब्रह्म ‘सत्य’ है, और जगत ‘मिथ्या’ है, अष्टावक्र उसका साथ नहीं देंगे। अष्टावक्र कहेंगे: “ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या है”, यह कह पाने का हक़ सिर्फ़ ब्रह्म को है, क्योंकि यदि ब्रह्म हो तुम, तो तुम कह पाओगे कि, “मैं ही परम सत्य हूँ”। पर तुम तो ब्रह्म नहीं हो, तो तुम ‘जगत-मिथ्या’ मत बोलो। तुम तो यही कहो कि जगत भी ‘है’, बिल्कुल है!
देखिये, दो अलग-अलग आयामों को एक ही तराज़ू पर नहीं तौला जा सकता। उनको एक ही भाषा में वर्णित भी नहीं किया जा सकता। हमारे पास भाषा ही दो अलग-अलग तरह की होनी चाहिए। जब आप ‘अस्ति’ कहते हैं, कि कुछ ‘है’, तो जिस भाव के साथ आप दुनिया के लिए कहते हैं कि ‘दुनिया है’, उस भाव से तो फ़िर ब्रह्म कहीं नहीं है। और जिस भाव से आप ब्रह्म के लिए कहेंगे कि ‘है’, उस भाव से फ़िर दुनिया कहीं शेष नहीं रहेगी। तो ये कोई अच्छा तरीका तो नहीं हुआ न देखने का, कि कभी आपने इधर से देखा, कभी उधर से देखा।
अष्टावक्र वहाँ से देख रहें हैं जहाँ पर उन्हें ‘दोनों’ का ‘होना’ दिखाई दे रहा है। और दोनों का होना एक साथ दिखाई दे रहा है। तो अष्टावक्र समझ लीजिए ऐसे देख रहें हैं कि “ज़मीन से भी देख रहें हैं और आसमान से भी देख रहें हैं” — दो अलग-अलग आयामों से देख रहें हैं। उदाहरण देता हूँ कि इसका हमारे जीवन में कहाँ अनुप्रयोग है: हमने करुणा की बात करी थी और हमें यह बात समझ भी समझ नहीं आई थी कि मेरे सामने कोई आता है, और उसकी बड़ी ख़राब हालत है, और मुझे ये समझ में ही आ रहा है अगर कि सारी जो पीड़ा है, वो नकली होती है, तो फ़िर मेरे मन में उसके लिए कोई भाव कैसे आ सकता है? अष्टावक्र जो कह रहें हैं, उसमें उस करुणा का सूत्र छुपा हुआ है। करुणा सिर्फ़ अष्टावक्र जैसों के लिए ही सम्भव है। सिर्फ़ वही जानते हैं कि करुणा क्या होती है, क्योंकि वो दोनों बातों को एक साथ देखेंगे। उन्हें ये तो दिख ही रहा है कि ‘मिथ्या’ है, पर उन्हें ये भी दिख रहा है कि ‘है’।
श्रोता १: ये जो नो नॉन-बींग(नहीं होना) लिखा हुआ है, उसका मतलब है कि ‘वो नहीं है’, मतलब ऐसा कुछ है ही नहीं।
वक्ता: ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे तुम कह सको कि ‘नहीं है’ — सर्वत्र एक ही सत्ता है । उस सत्ता को देखने के ढंग अलग-अलग हो सकते हैं। तो ‘कुछ भी नहीं है’, यह कभी कहा ही नहीं जा सकता। कभी भी नहीं कहा जा सकता है कि ‘कुछ भी नहीं है’। अभी हम आ रहे थे तो मैं गीता के चौथे अध्याय की बात कर रहा था, जिसमें कृष्ण कह रहें हैं कि, “अर्जुन, ज्ञानी आदमी को कभी हठ नहीं करना चाहिए क्योंकि अज्ञानी भी जो कर रहा है वो मेरे कराए ही कर रहा है”। अज्ञानी को रौशनी दिखाने का ज्ञानी आदमी को कभी बहुत हठ नहीं करना चाहिए। बड़ी मज़ेदार बात कही है कृष्ण ने, क्योंकि, ‘अज्ञानी भी जो कर रहा है वो मेरे कराए ही कर रहा है’। तो यदि माया भी है तो वो भी ब्रह्म की माया है, तो माया भी जहाँ है, तो वहाँ मौजूद कौन हुआ?
श्रोता २: ब्रह्म।
वक्ता: ब्रह्म! तो ‘नहीं है’, आप कभी नहीं कह सकते। जहाँ उसकी अनुपस्थिति दिखाई दे रही है, वहाँ वो अपनी अनुपस्थिति के माध्यम से उपस्थित हो गया। एक आदमी है जो सत्य में जी रहा है और एक आदमी है जो भ्रम में जी रहा है, तो ये मत कहियेगा कि जो भ्रम में जी रहा हैं, वहाँ सत्य नहीं है। क्योंकि वो भ्रम भी तो सत्य का ही है।
माया क्या अपने पाँव चलती है? माया को कौन चला रहा है?
अष्टावक्र यही कह रहें हैं:
‘नहीं है’ — ये कभी मत कहना;
‘है’, हाँ, होने के तरीके बदले हुए हैं,
दो अलग-अलग आयाम हैं।
‘है’ सदा वही।
अरे भाई ! तेरे फूलों से भी प्यार, तेरे काटों से भी प्यार। है तू ही, सत्य में भी तू है और भ्रम में भी तू है।
सिर्फ़ बुद्ध में है ही अगर आपको परमात्मा दिखता है तो ये कोई बड़ी बात नहीं हुई। वो जो बिल्कुल गिरा हुआ, मरा हुआ शराबी जा रहा है, जो दो अक्षर ढंग से नहीं बोल सकता, उसमें भी तो दिखाई दे। वो और कौन घूम रहा है? वो ‘कृष्ण’ ही तो घूम रहा है, और कौन है! और कृष्ण ख़ुद ही ये बात कह रहे हैं कि, “ये सब कौन कर रहा है? ये प्रपंच भी तो मेरा ही है और किसका है!”
शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।