जागरण न स्वप्न न सुषुप्ति न तुरीया || आचार्य प्रशांत, अष्टावक्र गीता पर (2014)

Acharya Prashant

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जागरण न स्वप्न न सुषुप्ति न तुरीया || आचार्य प्रशांत, अष्टावक्र गीता पर (2014)

अष्टावक्र गीता – १९ अध्याय, श्लोक ५

क्व स्वप्न: क्व सुषुप्तिर्वा क्व च जागरणम तथा ।

क्व तुरीयं भयं वापि स्वमहिम्नि स्थितस्य मे ।।

अपनी महिमा में स्थित मेरे लिए क्या स्वप्न है, और क्या सुषुप्ति तथा क्या जागरण है और क्या तुरीय अवस्था है अथवा क्या भय ही है?

वक्ता: पहली पंक्ति में अष्टावक्र ने वही कहा है जिसकी अपेक्षा की जाती है- कि स्वप्न क्या, जागरण क्या, और सुषुप्ति क्या? तो ठीक लगती है बात कि हाँ, ये तो सब मन की अवस्थाएं हैं। पर उससे आगे बड़ कर वे थोड़ा झटका सा दे देते हैं। आगे कह रहे हैं, तुरीय भी क्या? तो अब परेशानी आ गयी। कोई ये बोल दे कि स्वप्न झूठा है, मन मानने को तैयार हो जाएगा, क्यों ? क्योंकि आप जगे हुए हो, आप जाग्रति में हो तो स्वप्न झूठा प्रतीत होता ही है। तो स्वप्न झूठा है, चलता है, बहुत बढ़िया बात कही, सपने झूठे। फिर थोड़ा कोई और विद्वान आदमी आ जाये आपके सामने और कहे, जाग्रति भी झूठी, तो आप कुछ सोचेंगे, विचारोगे, पर इस बात को मान लोगे। कहोगे, हाँ सही है, आँखें जो दिखाती हैं वो तो द्वैतात्मक है, जो भी संसार इन इन्द्रियों से भासित होता है वो झूठा हो सकता है। तो आसानी से मान लिया कि सपने झूठे हैं, फिर थोड़ी कठिनाई से ये भी मान लिया कि जाग्रति भी झूठी है, लेकिन अब तो इन्होंने सारी सीमाएं तोड़ दी, क्या कह रहे हैं? तुरीय भी झूठा।

तो पहली बात तो ये कि तुरीय कोई अवस्था है ही नहीं। तुरीय है क्या? “है” क्या है? किस चीज़ को आप कहते हैं ‘होना’ ? ‘है’ माने क्या होता है ? कब आप कहते हो कि कुछ है? कोई रूप हो, आकार हो, भासता हो। जहाँ पर भी ये हो रहा है कि ‘कुछ है’, तो वहाँ कोई एक होता है जिसको उसका पता चल रहा है। तो उस चीज़ को कहा जाता है- ज्ञेय (द ऑब्जेक्ट ऑफ़ नोइंग ), और एक होता है जो जान रहा होता है, उसको कहा जाता है- ज्ञाता(द सब्जेक्ट )। इनके बीच में जो प्रक्रिया चल रही होती है उसे कहा जाता है ज्ञान। लेकिन चूंकि इन तीनो को भी देखा जा सकता है तो इसलिए कोई चौथा ज़रूर होगा, उसको तुरीय कहते हैं क्योंकि वो इन तीन से हट कर के है। वो है, इसकी पुष्टि गहरे ध्यान में ही होती है। जब आप इन तीनो को देख पाओ तो मतलब के कोई चौथा है, जो इन तीनो को देख रहा है। वो जो चौथा है, चूंकि वो होने की प्रक्रिया को ही देख रहा है, इसलिए वो उन सब अवस्थाओं से हट कर होगा जहाँ कुछ भी ‘होता’ है। वो इस ‘होने’ की प्रक्रिया को ही देख रहा है, इसलिए वो उन सब अवस्थाओं से अलग होगा जहाँ कुछ भी ‘होता’ है। किन अवस्थाओं में कुछ होता है? जाग्रति में कुछ ‘होता’ है, तो वो जाग्रति से हट कर होगा। स्वप्न में भी कुछ होता है, तो वो स्वप्न से भी हट कर होगा। क्योंकि वो पूरे ‘होने’ की प्रक्रिया को ही देख रहा है। सुषुप्ति में भी कुछ होता है, शान्ति का बोध, एक अँधेरी सी शून्यता । एक वस्तु वहाँ भी मौजूद होता है, तो वो उससे भी हट कर के होगा। वो है- ‘तुरीय’।

जो ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय से भी हटकर के है, और जो जाग्रति, सुषुप्ति, और स्वप्न से भी हटकर के है। जो ‘होने’ से ही हटकर के है, उसे ‘तुरीय’ कहते हैं, तुरीय माने ‘चौथा’। जो ‘होने’ से ही हटकर है, जो ‘है ही नहीं’। जो है ही नहीं, पर ‘होने’ को देखता है। जिसके ऊपर आप ‘है’ की संज्ञा नहीं लगा सकते, पर जो समस्त ‘होने’ को जान पा रहा है- उसे कहते हैं ‘तुरीय’।

अब स्पष्ट हो रहा होगा कि ‘तुरीय’ कोई अवस्था नहीं क्योंकि अवस्थाएँ आती जाती रहती हैं । ये आने जाने वाली कोई अवस्था नहीं है, कि एक, दो, तीन, और ये चार। ये जो सब एक, दो, तीन की लीला चल रही है, तुरीय वो, चौथा वो, जो इस पूरी लीला को समझ सकता है। आपका ‘बोध’ ही है ‘तुरीय’, इसलिए उसे ‘साक्षी’ भी कहा जाता है, वो इन सब को देख सकता है ।

सुषुप्ति में भी मन के पास करने के लिए कुछ है- विश्राम, तो एक गहरी, अँधेरी शून्यता। इसलिए तुम जब खूब सपने वाली नींद के बाद उठो, और जब तुम सुषुप्ति के बाद उठो, तुम्हारे अनुभव अलग-अलग होते हैं। रात भर खूब सपने चलते रहे, तुम उठे, और रात भर तुम गहरी सुषुप्ति में थे, फिर तुम उठे, तुम्हारे अनुभव अलग-अलग होते हैं। इसका मतलब उन अनुभवों को अंकित करने वाला, रजिस्टर करने वाला कोई मौजूद था। इसका मतलब मन के पास करने के लिए कुछ है, सुषुप्ति में भी कुछ है उसके पास करने के लिए।

यदि सुषुप्ति में मन बिलकुल शांत हो गया होता तो मन के सुषुप्ति के बाद, और स्वप्न के बाद के अनुभव में अंतर कैसे हो सकता था ?

तो सुषुप्ति बड़ी खाली अवस्था होती है, लेकिन फिर भी बड़े सूक्ष्म रूप से मन कुछ न कुछ अंकित कर रहा होता है, उसमें भी।

तो जिन अर्थों में आप ‘होना’ प्रयोग कर रहे होते हो उन अर्थों में- बोध ‘होता’ ही नहीं है । बोध ‘है’ ‘ही नहीं, क्योंकि न कोई उसका रूप है, रंग है, न कोई आकार है, तो आप कैसे कहोगे कि- बोध है।

श्रोता: सर, साक्षित्व क्या है?

वक्ता: हमें ऐसा लगता है कि मैं साक्षी ‘कर’ रहा हूँ। जब भी कभी आप कुछ ‘करते’ हो तो वो एक अनुभव की तरह अंकित होता है, उसका परिणाम निकलता है – साक्षित्व इनमें से कुछ भी नहीं है । साक्षित्व कोई घटना है ही नहीं, कोई कर्म है ही नहीं। तो कोई ये कहे की साक्षी करने के लिए क्या करना पड़ेगा, क्या होता है ? कुछ भी नहीं होता । कोई ये कहे कि जब में साक्षी होता हूँ तो मुझे सब पता होता है कि क्या हो रहा है, तो बिलकुल गलत बात बोल रहा है। उसने साक्षी होने को करीब-करीब आँखों से देखने जैसी चीज़ समझ लिया है। साक्षी होना इतनी स्थूल घटना है ही नहीं कि आपको पता चल जाएगा कि क्या हो रहा है।

साक्षी होने का बस इतना ही अर्थ है कि जो हो रहा है उससे हट कर के मैं ज़रूर कुछ हूँगा, क्योंकि जो हो रहा है वो मुझे प्रभावित करता सा नहीं दिखता।

तो निश्चित रूप से मैं उस घटना में भागीदार नहीं हो सकता । मैं भागीदार नहीं हूँ, फिर भी मैं हूँ, इसका अर्थ क्या है, कि मैं क्या हूँ ? एक घटना घट रही है, और मैं उससे अप्रभावित हूँ, तो मैं उस घटना में क्या हूँ? क्या मैं पार्टिसिपेंट हूँ? यदि मैं, वहां पर उस घटना में कर्ता होता तो उसका मुझ पर कोई असर पड़ना चाहिए था ना? पर मैं उस घटना में हूँ भी, फिर भी असर नहीं पड़ रहा इसका मतलब मैं उस घटना में किस रूप से हूँ?

श्रोता : दर्शक।

वक्ता : उसी को साक्षी कहते हैं। कि हैं पूरे तरीके से, लेकिन फिर भी कुछ है जो अनछुआ है। वही साक्षीभाव है। साक्षीभाव का मतलब ये नहीं है कि मुझे पता चल रहा है क्या हो रहा है। तुम्हें यदि पता चल रहा है तो ये मात्र एक विचार है। और विचार साक्षी नहीं होता। जब भी कभी तुम्हें पता लगे कि तुम साक्षी हो तो समझ लेना कि तुम साक्षी नहीं हो। जब तुम साक्षी होओगे तो तुम्हें पता ही नहीं लगेगा कि तुम साक्षी हो। तुम्हें बस इतना पता लगेगा कि तुम कम्पित नहीं हो, हिले डुले नहीं हो। तुम घटना के रंग में रंग ही नहीं गए हो, इतना समझ जाओगे।

श्रोता : बाद में पता चलेगा?

वक्ता : बाद में इस तरीके से पता चल सकता है कि तुम तुलना करो। तुम ये कहो कि ऐसी घटनाएं पहले घटती थीं तो मुझे बुरी तरह हिला जाती थी, अब वो घट भी रहीं हैं, और मैं अभी भी उनमें मौजूद हूँ, लेकिन फिर भी मेरी शांति नहीं जाती।

जब तुम साक्षी होओगे तो तुम्हें कुछ पता नहीं लगेगा। तुम्हें पता चल रहा है तो इसका मतलब तुम साक्षी के भी साक्षी हो गए। कुछ पता नहीं लगेगा। वो कोई कर्म नहीं है कि जो तुम कर रहे हो, कि पता लग जाये।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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