प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। महाभारत में हम देखते हैं कि युद्ध से पूर्व अर्जुन को आत्यन्तिक पीड़ा होती है अपने सगे-सम्बन्धियों के विरुद्ध युद्ध करने में। उनका मन शोक से भर जाता है, वो नहीं चाहते हैं युद्ध करना। वहीं उनके दूसरे भाई — युधिष्ठिर, भीम, नकुल, सहदेव — तैयार खड़े होते हैं युद्ध करने के लिए। इनके मन में कोई संशय नहीं होता। कोई दर्द, कोई तकलीफ़ नहीं! अर्जुन के मन में ये सारी दुविधाएँ मौजूद हैं और उनकी किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति बनी हुई है। इस दृश्य में अर्जुन हृदय से कमज़ोर जान पड़ते हैं।
अर्जुन की ऐसी स्थिति देखकर मेरे मन में प्रश्न आता है कि क्या हम अपने जीवन की परेशानियों से, दुख-दर्द से डरकर अध्यात्म की ओर आते हैं। जो लोग अध्यात्म की तरफ़ बढ़ते हैं, क्या वो इसलिए नहीं इस ओर आते हैं क्योंकि वो मन से कमज़ोर हैं और उनके मस्तिष्क में सिर्फ़ दुविधाएँ और जीवन को लेकर कई छोटे-बड़े डर हैं?
आचार्य प्रशांत: दुविधारहित होने के लिए ताक़त नहीं चाहिए, जड़ता चाहिए। जड़ता माने समझते हैं? मूर्खता, चेतना का अभाव। समझदारी का अभाव चाहिए, फिर कोई दुविधा नहीं रहती। तो अगर आप किसी को पायें कि संशय में है, सोच-विचार कर रहा है, द्वन्द्व-दुविधा में है, तो इसका मतलब ये नहीं है कि वो कमज़ोर, पागल या बुद्धू है, इसका मतलब ये है कि वो जड़ नहीं है।
पूरे तरीक़े से द्वन्द्वमुक्त दो ही कोटियों के लोग होते हैं ― या तो बिलकुल बुद्धू हो या बुद्ध हो। या तो इतने बुरे तरीक़े से संस्कारित हो, ढर्राबद्ध हो, ढाँचाबद्ध हो, यन्त्रवत हो, कि उसको उसके उद्वेगों, आवेगों के अलावा कोई विकल्प दिखाई ही न पड़ता हो। जब आपको आपके आवेगों, भावनाओं के अलावा कोई विकल्प दिखाई ही नहीं पड़ेगा तो भाई दुविधा कहाँ से उठेगी! दुविधा उठने के लिए कम-से-कम दो विकल्प चाहिए न? ‘द्व-विधा’। दो विधाएँ हों, दो रास्ते हों, तब न द्वन्द्व उठता है। और कोई इतना ज़्यादा ढल गया हो पुराने तयशुदा ढाँचों में कि ढाँचे के अतिरिक्त उसको और कुछ न दिखाई देता हो, न सुनाई देता हो, न समझ में आता हो, तो उसको क्योंकर दुविधा उठेगी! ऐसे लोग आपको आत्मविश्वास से परिपूर्ण दिखाई देंगे। आप उनके पास जाएँगे, वो कहेंगे, ‘सब पता है, कोई दिक्क़त नहीं, कोई तनाव नहीं, नो टेंशन ब्रो , सबकुछ स्पष्ट है, ऑल सॉर्टेड आउट!'
वो एक आता है न, इमोजी भी आता है उसका, मीम भी बनता है ऐसे (सब पता है का अभिनय करते हुए)! कुछ ध्यान आ रहा है? ऐसे (आँख बन्द, एक हाथ उपर)! इसका मतलब समझते हैं क्या है? क्या? ‘अपुन को सब पता है भाई! कोई टेंशन नहीं, कोई लफड़ा इच नहीं!’
हमें कभी किसी तरह का कोई सन्देह, संशय उठता ही नहीं। खेद की बात ये है कि दुनिया में नब्बे-पिच्चानवे, जाने निन्यानवे प्रतिशत लोग इसी तरीक़े के हैं!
कुरुक्षेत्र के मैदान पर आप कह रही हैं न कि इतने सारे खड़े हैं, किसी को कोई समस्या ही नहीं हो रही। आज भी वही हाल है! किसी को कोई समस्या ही नहीं हो रही! सबको लगता है कि सारा मामला बिलकुल स्पष्ट है, सेट एंड सेटल्ड ! ‘हाँ, बिलकुल पता है, हमसे पूछो, हम बताएँगे।’
कइयों को इतना ज़्यादा पता होता है कि जहाँ उनसे उत्तर माँगा नहीं जा रहा होता है, वो वहाँ भी पूछते हैं ऐसे-ऐसे (हाथ उठाते हुए) — 'मे आइ आंसर दैट?' अंग्रेज़ी में इसलिए बोलना पड़ता है, क्योंकि ऐसे ज़्यादातर लोग अंग्रेज़ी वाले ही होते हैं। कुछ बेवकूफ़ियाँ हैं जो हिन्दी में की नहीं जा सकतीं, उनके लिए अंग्रेज़ी ही चाहिए।
तो ये जो अति-आत्मविश्वास है, ये जो मूर्खतापूर्ण अपने ऊपर अन्धविश्वास है, ये बहुत आसान है। और ये जीवन में किसी ऊँचाई, किसी उपलब्धि की नहीं, बल्कि मूर्खता की, सम्वेदनहीनता की, जड़ता की, अज्ञान की निशानी है। कमज़ोरी नहीं है ये। कभी ऐसा मत सोचिएगा आइन्दा!
इंसान की चेतना का विकास हो रहा है, ये सर्वप्रथम पता ही इस बात से चलता है कि उसके भीतर द्वन्द्व उठते हैं, एक आन्तरिक संघर्ष शुरू हो जाता है, वो अपनी ज़िन्दगी के पूर्ववर्ती ढर्रों पर सवाल खड़े करता है, एक प्रश्नचिन्ह से रू-ब-रू होता है। ये किसी समस्या का नहीं, भीतर के विकास का संकेत है। अब आप बढ़ रहे हो, पौधे में पत्तियाँ फूट रही हैं, कलियाँ खिल रही हैं।
याद रखिएगा — जब भी बढ़त होती है, विकास, वो प्रकृति में हमेशा संघर्ष के ही फलस्वरूप होती है। पौधा जब बड़ा होता है तो एक तरफ़ से वो ज़मीन को, मिट्टी को धक्का दे रहा होता है। हुआ न संघर्ष! अगर पौधा मिट्टी को, ज़मीन को धक्का न दे, तो बड़ा हो सकता है क्या? और दूसरी तरफ़ वो हवा से, धूप से, मौसम के सारे तत्वों से संघर्ष कर रहा होता है। हालाँकि वो उन्हीं से पोषण भी ले रहा है, पर उनके विरुद्ध संघर्ष भी तो कर रहा है न।
पौधा किधर को बढ़ता है? ऊपर को। दिख नहीं रहा कि गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध भी तो संघर्ष ही है! पृथ्वी उसे किधर को खींच रही है?
प्र: नीचे को।
आचार्य: तो विकास जहाँ भी हो रहा होगा, वहाँ एक द्वन्द्व ज़रूर होगा, एक खींचा-तानी ज़रूर होगी, एक उधेड़-बुन ज़रूर होगी। ख़ासतौर पर युवा लोगों में उस खींचा-तानी का, उस अन्तर्द्वन्द्व का होना बहुत ज़रूरी है। उस अन्तर्द्वन्द्व की उपस्थिति से यही पता चलता है कि आप मुर्दा नहीं हैं, आप जग रहे हैं, आप बढ़ रहे हैं। फिर अगर आपमें ईमानदारी है और आप श्रम भी कर जाते हैं, तो एक स्थिति ऐसी आती है कि आप सब अन्तर्द्वन्द्व को पार कर जाते हैं, उलझनों को सुलझा ले जाते हैं; उसके बाद फिर कोई द्वन्द्व या आन्तरिक उलझन नहीं बचती।
इस मामले में मैंने कहा, ‘बुद्ध बुद्धू जैसे हो जाते हैं।’ दोनों में क्या समानता है? दोनों में ही कोई आन्तरिक उलझन नहीं पायी जाती। पर बुद्ध में आन्तरिक उलझन इसलिए नहीं पायी जाती, क्योंकि वो सब उलझनों को काट चुके हैं, वो सब उलझनों के पार जा चुके हैं, उनकी उलझनें सुलझ चुकी हैं; बुद्ध में इसलिए नहीं पाया जाएगा अन्तर्द्वन्द्व।
और बुद्धू में किसी तरह का अन्तर्द्वन्द्व या आत्मसंशय क्यों नहीं पाया जाता? क्योंकि वो इतना जड़ है कि उसको पता ही नहीं है कि भीतर उलझन है। वो इतना सोया हुआ है, वो इतने आन्तरिक अन्धकार में है कि उसको पता ही नहीं कि भीतर कितनी गड़बड़ है। उसको यही लग रहा है कि माल तर है, उसको यही लग रहा है कि दुनिया रंगीन है, उसको यही लग रहा है कि हमारे घर में, हमारे मन में सब बढ़िया-ही-बढ़िया है। बिलकुल मूर्ख है!
समझ में आ रही है बात? यह स्पष्ट हो गया?
अन्तर्द्वन्द्व को कभी भी किस चीज़ की निशानी नहीं समझना है? कमज़ोरी की। साथ-ही-साथ मैं आगाह किये देता हूँ — अन्तर्द्वन्द्व को बहुत गौरवान्वित मत कर लीजिएगा कि जहाँ अन्तर्द्वन्द्व नहीं है, वहाँ भी ज़बरदस्ती पैदा कर मारा। उलझनों को स्वीकार करना ज़रूरी है, पर इसलिए नहीं कि उलझनें बनी रहें। उलझनों को स्वीकार करना इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि उन्हें स्वीकारोगे तभी तो उन्हें सुलझाओगे। अन्तर्द्वन्द्व का होना शुभ संकेत है, लेकिन अन्तर्द्वन्द्वों में ही उलझे रहना हमारी नियति न बन जाए, इस बात के प्रति सतर्क रहिएगा। ठीक है!
ज़िन्दगी में जो भी उलझाव हैं, उनको स्वीकार करना है। क्यों स्वीकार करना है? ताकि साहसपूर्वक और बोधपूर्वक उनको फिर सुलझा सकें; और फिर उनके पार निकल जाना है — यही जीवन का उद्देश्य है।
अब आते हैं अर्जुन पर। भई! अर्जुन कमज़ोर है क्या? उसके सब भाई-बन्धु भी हैं, वो तो नहीं जा रहे श्रीकृष्ण के पास। उनको किसी भी प्रकार की व्यग्रता, आकुलता तो हो ही नहीं रही। देखिए, अर्जुन आज का अनूठा नहीं है। आज युद्ध का पहला दिन है। आज आप देखते हैं उसको बिलकुल आकुल-व्याकुल, तो आपको फिर सवाल उठता है कि अर्जुन ही क्यों इतनी लचरता, इतनी कातरता दिखा रहा है। बाक़ी सब लोग तो मस्त हैं, अडिग से लगते हैं, अर्जुन ही क्यों इतना अलग लग रहा है!
अर्जुन आज का अलग नहीं है भाई! श्रीकृष्ण का जो सम्बन्ध रक्त के नाते, देह के नाते अर्जुन से था, वही भीम से था, वही युधिष्ठिर से था, वही नकुल-सहदेव से था। पर पाँचों पाण्डवों में कौन इकलौता था जिसने श्रीकृष्ण को गुरु, सखा, पथ-प्रदर्शक, हर रूप में स्वीकार किया? क्या भीम ने? किसने स्वीकार किया? अर्जुन ने।
और ये बात महाभारत भर की नहीं है, ये तो हमेशा से था। श्रीकृष्ण-अर्जुन साथ घूम रहे हैं, श्रीकृष्ण-अर्जुन साथ विहार कर रहे हैं, युद्ध भी कर रहे हैं, क्रीड़ा कर रहे हैं। पाण्डवों में श्रीकृष्ण को सर्वाधिक प्रिय अर्जुन, और अर्जुन के प्राण बसते हैं श्रीकृष्ण में। श्रीकृष्ण क्या किसी ऐरे-गैरे, अनजाने को अनुमति दे देते कि मेरी बहन का हरण कर ले जाओ? कहिए।
बलराम तो बिलकुल ख़िलाफ़ थे। उन्हें अर्जुन कुछ विशेष पसन्द ही नहीं थे। सच पूछिए तो उन्हें तो भीम भी पसन्द नहीं थे, थोड़ा-बहुत उनका मन तो दुर्योधन की ओर ही झुका रहता था। तो उनको जब पता चला कि बहन कह रही है कि अर्जुन से प्रेम है, अर्जुन के साथ जाना है, तो वो तो तैयार ही न हों। श्रीकृष्ण ने भी कहा कि अब बड़े भाई की सीधी अवज्ञा कौन करे, अपमान मानेंगे। तो बोले, ‘मैं उपाय करता हूँ, सब बन्दोबस्त कर दिया है। वो बाहर निकलेगी इतने बजे, इस तरीक़े से, इस रथ पर होगी, इतने लोग साथ होंगे। तुम्हें बस इतना करना है अर्जुन, बड़े धनुर्धारी हो, जाओ थोड़ा बल-प्रदर्शन करो, फ़लानी जगह पर इतने बजे उसको ले जाओ।’
ये एक भाई अपनी बहन का हरण करवा रहा है। अपहरण नहीं है, हरण है। इसी से समझ जाइए कि अर्जुन और श्रीकृष्ण का नाता क्या था। जो बहुत विश्वसनीय होगा, जिसके बारे में आपको पूरे तरीक़े से विश्वास होगा, जिसकी नीयत पर आपको आस्था होगी, जिसके अन्तर्जगत की सात्विकता से आप परिचित होंगे, जिसकी निष्ठा को आप अकम्प जानते होंगे, उसको ही तो आप ये अनुमति ही नहीं, सलाह भी देंगे कि ले जाओ मेरी बहन को। हाँ, ये जानते हुए कि बहन स्वयं भी यह चाहती है। श्रीकृष्ण कोई अपनी इच्छा बलात् नहीं थोप रहे थे, उन्हें पता था कि दोनों जन प्रेम करते हैं एक-दूसरे से।
तो ऐसा नाता पहले से रहा है श्रीकृष्ण और अर्जुन का। अर्जुन अकेले थे जिन्हें कृष्णत्व से प्रेम था। तो फिर अब बहुत सहज ही लगता है, ज़ाहिर सी बात लगती है कि जब गीता का उपदेश देने का समय आया तो एक ही सुपात्र था, जिसका नाम था अर्जुन। और अर्जुन ने अपनी पात्रता सिर्फ़ उस दिन युद्ध के मैदान पर ही नहीं सिद्ध की थी कि हम कहें कि अर्जुन अकेला है जो श्रीकृष्ण से प्रश्न पूछ रहा है, जो विचलित है, जिसके मन में उहापोह है।
नहीं, उस दिन की तो बात है ही, पर कहानी उस दिन से बहुत पहले शुरू हो चुकी है। जैसे कि अर्जुन ने बहुत-बहुत पहले निश्चय कर लिया हो कि कोई ख़ास चीज़ है जिसकी संगति में जीवन बिताना है। जैसे अर्जुन को बहुत-बहुत पहले समझ में आ चुका हो कि अपने भीतर कुछ अन्धेरा सा है और श्रीकृष्ण के भीतर कुछ रोशनी सी है, अपने भीतर के अन्धेरे को श्रीकृष्ण के भीतर की ज्योति की तलाश है। ऐसा जीवन अर्जुन बहुत पहले से जी रहे हैं।
श्रीकृष्ण को अगर सब सम्वेदनशील मुद्दों पर मशवरे के लिए कोई याद करता था तो वो अर्जुन ही थे सर्वप्रथम। द्रौपदी का स्वयंवर हो, लाक्षागृह की घटना हो, अज्ञातवास हो, हर प्रसंग में हमें दिखाई पड़ता है कि अर्जुन की सर्वाधिक आत्मीयता श्रीकृष्ण से ही है।
इसका हमारे लिए क्या अभिप्राय है? वो ये है कि जब आप पूरी ज़िन्दगी ही जी रहे होते हैं कृष्णत्व के प्रेम में, तो फिर आप इस बात के अधिकारी बनते हैं, पात्र बनते हैं कि आपके जीवन में जब कोई बड़ी दुविधा उठेगी तो श्रीकृष्ण की ओर से उतनी ही बड़ी फिर सीख मिलेगी गीता के रूप में। अन्यथा ये नहीं हो पाएगा कि जीवन भर तो आप श्रीकृष्ण की उपेक्षा, अवहेलना करते रहें, अपने ही अहंकार में, बुद्धि-विलास में, राग-रंग में मस्त रहें, और फिर जब कोई आपदा आ खड़ी हो तो आप यकायक कहें कि आओ आओ मधुसूदन, मेरी मदद करो, और आप पायें कि मधुसूदन अचानक आपकी मदद के लिए उतर पड़े। होगा ही नहीं ऐसा!
इसलिए नहीं होगा, क्योंकि सर्वप्रथम आप ही सच्ची प्रार्थना कर नहीं पाएँगे। सच्ची प्रार्थना अचानक थोड़े ही हो जाती है! और हमारी तो सब प्रार्थनाएँ अचानक ही होती हैं। दुख टूटता है जहाँ, तहाँ हमारे मुँह से प्रार्थना निकल पड़ती है। और जब तक लगता है कि सब मामला ठीक चल रहा है, सुख है, तब तक हम कहाँ किसी को याद करते हैं।
जो चौबीस घंटे याद रखे, जो आजीवन याद रखे, उसी को संकट के समय में फिर ईश्-सहायता उपलब्ध होती है, जैसे अर्जुन को हुई; बाक़ियों को नहीं होती। तो कोई ये न सोचे कि महाभारत के पहले दिन रणभूमि पर जो श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद है, वो अकस्मात् ही हो गया। अकस्मात् नहीं हो गया, उसकी तैयारी चल रही थी बहुत पहले से, कई दशकों से; अर्जुन के जन्म के समय से तैयारी चल रही थी। उस समय से तैयारी चल रही थी जब अर्जुन श्रीकृष्ण से पहली बार मिले थे और मुग्ध हो गये थे, भाव-विभोर हो गये थे। उस दिन से समझ लीजिए कि श्रीमद्भगवद्गीता की तैयारी चल रही थी।
श्रीमद्भगवद्गीता क्या है? श्रीकृष्ण और अर्जुन का प्रेम-प्रसंग है एक तरह से। गुरु और शिष्य का दैवीय सम्मिलन है श्रीमद्भगवद्गीता। शिष्य को बहुत-बहुत पहले से गुरु से स्नेह था, और गुरु का बहुत-बहुत पहले से शिष्य पर आशीर्वाद था। वो तो फिर एक दिन एक ख़ास स्थिति बनी और शब्द रूप में, छन्द रूप में, गीत रूप में वो आशीर्वाद प्रकट हो गया।
गीता और क्या है — श्रीकृष्ण का अर्जुन को आशीर्वाद। वो आशीर्वाद पहले भी था, बस एक दिन वो शब्दों के रूप में प्रकट हो गया। और अगर वो आशीर्वाद बहुत पहले से नहीं है, तो मैं आपसे कह रहा हूँ कि एक दिन अचानक, अकस्मात् शब्दों के रूप में भी प्रकट नहीं होगा।
और पहले से क्यों नहीं होगा वो आशीर्वाद? क्या श्रीकृष्ण आशीर्वाद को रोककर रखेंगे? नहीं! नहीं! नहीं! श्रीकृष्ण की ओर से तो आशीर्वाद सभी को है। पहले से तब नहीं होता जब आपकी, शिष्य की पहले से तैयारी नहीं होती। आजन्म तैयारी करनी पड़ती है, लगातार तैयार रहना पड़ता है, आशीर्वाद पाते ही रहना होता है। अन्यथा ये मत सोचिएगा कि बड़े नाटकीय तरीक़े से एक दिन यकायक कृपा-वर्षा हो जाएगी। नहीं होने वाली!
रोज़-रोज़ का अपनापन होना चाहिए, रोज़-रोज़ का सुमिरन होना चाहिए, फिर एक दिन प्राकट्य भी हो जाता है। प्राकट्य बड़ी बात है ही नहीं, प्राकट्य तो होना-ही-होना है अगर रोज़-रोज़ का सुमिरन है।
ठीक है!