जब शारीरिक दुर्बलताएँ परेशान करें || महाभारत पर (2018)

Acharya Prashant

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जब शारीरिक दुर्बलताएँ परेशान करें || महाभारत पर (2018)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, बड़ों से मिली सीख का बच्चों के जीवन पर प्रभाव पड़ता है। हमारे बड़े, या स्पष्ट कहूँ तो माँ-बाप द्वारा दी गई सीख संतान अपने जीवन में उपयोग करते हैं। अगर माता-पिता ग़लत हों, तो उनके द्वारा दी गई सीख भी ग़लत ही होती है, फिर वो कहते हैं कि तुम्हें अक़्ल नहीं है, तुम दुनियादारी नहीं जानते। ये कहाँ का नियम है?

सत्य जो है, वो तो सत्य ही रहेगा, चाहे सामने कोई भी हो। मेरा जीवन अस्त-व्यस्त है, उसका कारण ये भी है कि मैं सत्य को सत्य कहने की कोशिश करता हूँ, लेकिन बड़ी मुसीबत आती है, लोग कहते हैं कि ज़रा कूटनीति सीखो, और कूटनीतिज्ञ होना मेरा स्वभाव नहीं। इनसे कैसे पार पाऊँ?

आचार्य प्रशांत: सत्य की नाव, सत्य खिवैया, सत्य के ही चप्पू, तुम्हें क्या पार पाना है? जिसे पार पाना है, वो पा लेगा। अगर सत्य के इतने मुरीद हो तुम, तो तुम्हें फिर ये भी पता होगा कि सत्य के आगे न सिर्फ़ झूठों की कोई हैसियत नहीं है, बल्कि सच्चों की भी कोई हैसियत नहीं है। परमात्मा के आगे तो पापी और पुण्यात्मा, सब बित्ते-बित्ते भर के हैं, है न? ये तो तुम यहाँ बख़ूबी कह दे रहे हो कि तुमको दिखता है कि दूसरे झूठे हैं, उसी दृष्टि से ये भी तो देखो कि तुम बहुत छोटे हो। तुम्हारा एक ही काम हो सकता है – अपने छुटपन को स्वीकारना, और तुम्हारे भीतर जो बादशाह बैठा है, उसकी सेवा में लग जाना। आगे का काम वो बादशाह देखेगा।

कहा न, राम की नाव, राम ही खिवैया, वो कर देगा, तुम क्यों परेशान हो रहे हो? तुम्हारी परेशानी तो मुझे ये बता रही है कि तुम भी किसी-न-किसी झूठ में फँसे हुए हो। जो झूठ में नहीं फँसा हुआ, वो परेशान कैसे होगा? अगर झूठ तुम पर भारी पड़ता है तो एक बात पक्की है कि लड़ाई सच और झूठ की नहीं चल रही है, लड़ाई झूठ और झूठ की ही चल रही है। अगर झूठ तुम पर भारी पड़ता है और यही तुम्हारा सवाल है कि, "असहाय, असमर्थ हो जाता हूँ", तो एक बात पक्की समझ लेना कि दूसरी तरफ़ अगर झूठ है तो तुम्हारी तरफ़ भी झूठ ही है; क्योंकि झूठ पर तो कोई भी भारी पड़ सकता है, और झूठ जिस पर भारी पड़ता हो, वो कोई दूसरा झूठ ही होगा। सच पर झूठ कभी नहीं भारी पड़ता, तुम पर झूठ कैसे भारी पड़ने लग गया? अब तुम पता करो, जाओ, कि कौन-से झूठों के साथ तुम अभी फँसे हुए हो। जैसे ही उनको हटाओगे, वैसे ही तुम्हारा रास्ता प्रशस्त हो जाएगा, फिर कोई नहीं रोक सकता।

कल मैं कह रहा था न, कि सबसे बड़ा झूठ होती है मजबूरी। तो ये बात भी कि “दुनिया तो बहुत झूठी है लेकिन ताक़तवर बहुत ज़्यादा है, और इस झूठी दुनिया की ताक़त के सामने मैं बेबस हो जाता हूँ”, ये मजबूरी की बात धोखा है, झूठ है। ये सूत्र याद रहेगा? अगर झूठ तुम पर भारी पड़ रहा है तो तुम भी सच्चे नहीं हो; सच्चे पर झूठ नहीं भारी पड़ता। अन्याय, आतंक, अत्याचार अगर तुम पर भारी पड़ रहे हैं तो तुम भी न्यायी और सच्चे नहीं हो। दुश्मन से लड़ने की जगह या दुश्मन को गरियाने की जगह दृष्टि ज़रा अंतर्मुखी हो, अपने-आपको देखो, तुम दब कैसे जा रहे हो? लालच ही दबता है, स्वार्थ ही दबता है; और जहाँ स्वार्थ है, वहाँ परमार्थ नहीं, जहाँ लालच है, वहाँ आत्मा नहीं। तुम दब रहे हो, इसका मतलब खोट तुममें है, दबाने वाले में नहीं। मजबूरी का रोना मत रोना!

प्र२: बड़ों की भूल का बच्चों के जीवन पर भयानक प्रभाव पड़ता है, जैसा कि पांडवों और कौरवों में देखा गया, वैसा ही मेरे जीवन में भी हुआ है। मेरी शारीरिक दुर्बलताएँ हैं और इन दुर्बलताओं पर बचपन में कभी ध्यान नहीं दिया गया, निदान कैसे करूँ?

आचार्य: शरीर से कितने लाचार हो तुम? शरीर की कमज़ोरी का इलाज तो शरीर का चिकित्सक कर देगा, जितना भी हो सकता है, पर मैं तुमसे कुछ और पूछना चाहता हूँ, ज़रा उस दिशा पर ध्यान दो। शरीर समस्या है तुम्हें या तुम्हारे शरीर को लेकर दूसरों का जो अभिमत है, दृष्टिकोण है, वो समस्या है तुम्हें? एक समस्या ये हो सकती है कि, "मेरे बाज़ुओं में जान नहीं है, दुबले-पतले हाथ हैं मेरे", इस समस्या का इलाज चिकित्सक कर देगा। और चिकित्सा-शास्त्र नहीं कहता कि जीवन बिताने के लिए तुम्हारा बीस इंच, कि पच्चीस इंच का बाज़ू होना चाहिए, ऐसा कुछ आवश्यक है क्या? लेकिन अकसर समस्या यह नहीं होती कि 'मेरे बाज़ू दुबले हैं, सूखे हुए हैं', समस्या यह होती है कि लोग कहते हैं कि ये तो सींकड़ा है, दुबला-पतला है, और अभी ज़माना चल रहा है भरे हुए जिस्म का।

तो मैं फिर तुमसे पूछ रहा हूँ — समस्या तुम्हें ये है कि तुम्हारा जिस्म ठीक नहीं है, या समस्या तुम्हें ये है कि जिस्म के माध्यम से जो तुम पाना चाहते हो, वो तुम्हें नहीं मिल रहा? जिस्म के माध्यम से कभी हम सम्मान पाना चाहते हैं, कभी स्वीकार पाना चाहते हैं और कभी हम स्त्री पाना चाहते हैं। जिस्म की दुर्बलता बहुत बड़ी चीज़ नहीं होती है। स्टीफन हॉकिंग को देखा था? अभी उनकी मृत्यु हुई। स्टीफन हॉकिंग का शरीर देखा था कैसा था? कैसा था, किन्होंने देखा है? कैसा था?

तुम्हें क्या लग रहा है, उस व्यक्ति के आनंद पर कोई अंतर पड़ रहा था शरीर की दुर्बलता से? तुम उसका शोध देखो, तुम उसका ज्ञान देखो, तुम उसकी जिज्ञासा देखो, और शरीर कैसा है? दुर्बल, असहाय, आवाज़ भी नहीं निकलती, बोल पाने के लिए भी मशीन (यंत्र) लगी हुई है। चलना-फिरना तो कब का छूट गया, पचास साल पहले, अब आवाज़ निकलनी भी बंद हो चुकी थी।

तुम्हें जन्म इसलिए थोड़े ही मिला है कि तुम शरीर को सजाओ-सँवारो। शरीर का तो इतना ही एहसान बहुत है कि तुम्हें परेशान न करे। शरीर इसलिए नहीं है कि वो तुम्हारा ध्यान खींच ले, तुम्हारा पूरा दिन खींच ले, तुम्हारे जीवन का केंद्र बन जाए। शरीर का तो इतना ही उपकार मानना कि अगर शरीर तुम्हें सताता न हो, शरीर बहुत अच्छा है; बस वो तुम्हें सताए न, फिर ये न देखो कि कैसा दिख रहा है, “कैसा भी दिखता हो, चलेगा, तू बस परेशान मत किया कर।" क्योंकि शरीर तुम्हें दे तो कुछ नहीं सकता, पर तुमसे ले बहुत कुछ सकता है; पाओगे कुछ नहीं जिस्म से, पर जिस्म अगर ख़राब है तो तुम्हारा छीन बहुत कुछ ले जाएगा। अब दर्द उठ रहा है, ये हो रहा है, वो हो रहा है, तुम पेट पकड़े बैठे हो, सिर पकड़े बैठे हो, टाँग पकड़े बैठे हो। बस ऐसे ही रहो कि कहीं उपद्रव न होता हो जिस्म में, मत माँगो कि बहुत मज़बूत रहे, क्या करोगे बहुत मज़बूत भी है तो? बात समझ रहे हो?

इस आशा में शरीर पर निवेश मत करते रह जाना कि कुछ दे जाएगा तुमको; कुछ नहीं दे पाएगा। तुम उपकृत अनुभव करो अगर शरीर बस तुमसे कुछ लेता न हो। और ले वो बहुत कुछ सकता है - तुम्हारा सारा ध्यान ले सकता है। तुम लगे हुए हो कि किसी तरीके से दो इंच बाज़ू और बढ़ाना है, अब वो तुम्हारे जीवन का केंद्र है, यही बात चल रही है कि दो इंच यहाँ पर मांसपेशियाँ और आनी चाहिए। या कि लगे हुए हो कि काले से गोरा होना है, लगे हुए हो, बालों का रंग तबदील करना है, और कुछ नहीं तो पचास कोणों से अपनी सेल्फी खींच रहे हो। ये तुम क्या कर रहे हो? ये भी तो वही कोशिश है न कि किसी तरीके से जिस्म को ख़ूबसूरत दिखा दूँ। और समय कितना लगता है, देखा है कभी?

तुम्हें पता भी नहीं चलता, आधे घण्टे से तुम बस उस एक आदर्श तस्वीर की तलाश में थे, द परफेक्ट पिक्चर * । कभी इधर से खींची, कभी उधर से खींची, कभी ख़ुद खींची, कभी किसी और से खिंचवाई है। जिससे खिंचवाई, उसको गरिया रहे हो, “तुम्हें तो खींचनी नहीं आती!" और फिर बैठकर घण्टों * डिलीट (मिटाना) कर रहे हो जो खींचा है। शरीर तुमसे यह सब न करवाए, इतना ही उसका अहसान बहुत है। बात समझ रहे हो?

शरीर सहयात्री है। अभी थोड़ी देर पहले भी हमने कहा था, तुम्हें तुम्हारी मंज़िल की तरफ़ जाना है, ये जो सहयात्री है, ये बस उपद्रव न करे, तुम्हें ये चाहिए कि ये रास्ते में दंगा-फसाद न करे, बस तुम्हें ये चाहिए। तुम जा रहे हो अपनी मंज़िल की तरफ़, ये चुपचाप बैठा रहे। ये चुपचाप बैठा रहे, उत्पात न करे, बस ये चाहिए।

जिस्म में किसी मरम्मत की ज़रूरत हो तो चिकित्सक के पास ज़रूर जाओ, पूरी मरम्मत कराओ, लेकिन अपनी चेतना पर जिस्म को कभी हावी मत होने दो। कोई वास्तव में ही ऐसी समस्या हो कि दाँत खराब है, आँत खराब है, हड्डी खराब है, ठुड्डी खराब है, चले आओ चिकित्सक के पास, वो बता देगा कि क्या समाधान है। दवाई दे देगा, दवाई ले लो, ठीक हो जाओगे। पर किसी तरह की हीन भावना मत पाल लेना, शरीर को लेकर कोई उद्देश्य मत बना लेना; शरीर बस सुचारु रूप से चलता रहे, इतना बहुत है।

ऐसा समझ लो कि तुम गाड़ी में बैठे हो, जा रहे हो कहीं को, और बगल में एक बंदर बैठ गया है तुम्हारे, मान लो तुम्हारा ही बंदर है। तुम चला रहे हो गाड़ी, और बगल की सीट पर कौन बैठा है? बंदर। ये बंदर तुम्हें कोई मदद नहीं देने वाला मंज़िल तक पहुँचने में, या दे सकता है? लेकिन ये बंदर उपद्रव बहुत कर सकता है, इतना ही बहुत है कि वो उपद्रव न करे। बस तुम यही माँगो कि, "ये उपद्रव न करे, मैं अपनी मंज़िल तक पहुँच जाऊँ, ये चुप-चाप बैठा रहे बस।" ये न कर देना कि यात्रा छोड़ करके गाड़ी लगा दी और बंदर के साथ ही खेलने लग गए, या बंदर को सजाने-सँवारने लग गए। और एक भूल तो, बेटा, बिलकुल भी मत कर देना कि बंदर के ही हाथ में स्टीयरिंग दे दिया है। यहाँ ऐसे भी हैं जिन्होंने देह को ही चालक बना दिया है, जिन्होंने देह को ही राजा बना दिया है, जो कह रहे हैं, “देह ही अब तय करेगी कि हमें किस मंज़िल जाना है।" ठीक?

प्र३: आचार्य जी, प्रणाम। दुर्योधन की नीयत ही राजगद्दी पर थी, इसीलिए उसके भीतर ईर्ष्या, बदला इत्यादि विचार चलते थे, और उसके पिता के अंदर भी राजगद्दी की ही नीयत थी, इसीलिए तो उनकी संतान के अंदर भी यही थी। क्या नीयत से नीयत उत्पन्न होती है? संगत तो धृतराष्ट्र को भीष्म पितामह की भी मिली थी, फिर भी धृतराष्ट्र नहीं बदला।

आचार्य: आदमी वास्तव में निरुद्देश्य होता है, और निरुद्देश्यता ही नियति है उसकी। आदमी वास्तव में निरुद्देश्य होता है, और निरुद्देश्यता ही नियति है, लेकिन संगत के कारण नीयत आ जाती है, नियति छुप जाती है। वो जिसका कोई मकसद नहीं हो सकता, उसे बहुत मकसद मिल जाते हैं; और चूँकि उसे बहुत मकसद फिर मिल जाते हैं, इसीलिए अध्यात्म उसे एक आख़िरी मकसद देता है कि अब बेमकसद हो जाओ।

समझना, ये तीन चरण की बात है। शुद्धतम और आधारभूत बात ये है कि तुम बेमकसद हो, तुम निरुद्देश्य हो। लेकिन अब तुम वहाँ आ गए हो जहाँ बहुत सारे उद्देश्य तुमने पकड़ ही लिये हैं, ये दूसरा चरण। प्रथम बात ये है कि तुम निरुद्देश्य हो, निरुद्देश्यता स्वभाव है, आत्मा को कहीं पहुँचना नहीं। दूसरा चरण यह कि अभी तुम जैसे हो गए हो, तुम्हारे सबके पास बहुत सारे उद्देश्य हैं। तो फिर इसलिए तीसरे चरण की ज़रूरत पड़ती है, और तीसरा चरण है अध्यात्म, जो कहता है कि अब इन सारे उद्देश्यों को तिरोहित करके तुम अपने मूल स्वभाव में वापस लौटो। मकसदों का झूठ देखो और पुनः बेमकसद हो जाओ।

तो पहले चरण की जो हमने बात करी, वो है नियति की—नियति है निरुद्देश्यता। दूसरे चरण पर हमने जो बात करी, वो है नीयत की—आदमी होना माने नीयत से भरा हुआ होना। और फिर तीसरे चरण की बात है कि एक आख़िरी नीयत ले करके आओ कि अब नियति में वापस जाना है। वो आख़िरी नीयत होती है, वो आख़िरी इरादा होता है, वो आख़िरी और उच्चतम संकल्प होता है, वो ऐसा संकल्प होता है जो तुम्हें बाकी सारे संकल्पों-विकल्पों से मुक्त कर देता है। ठीक?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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