जब सामने दो राहें हों || आचार्य प्रशांत, भगवद् गीता पर (2019)

Acharya Prashant

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जब सामने दो राहें हों || आचार्य प्रशांत, भगवद् गीता पर (2019)

आचार्य प्रशांत: अर्चना है देवबंध से, दूसरे अध्याय का छठा श्लोक उद्धृत करा है।

न चैत द्विदम् कतरन्नो गरियो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयु। यानेव हत्वा न जिजीविषाम स्तेअवस्थिता: प्रमुखे धार्तराष्ट्रा:।।

~श्रीमद्भगवदगीता, अध्याय २, श्लोक ६

(अर्थ: हम यह भी नहीं जानते कि हम लोगों के लिए युद्ध करना और न करना इन दोनों में से कौन सा अत्यन्त श्रेष्ठ है और हमें इसका भी पता नहीं है कि हम उन्हें जीतेंगे अथवा ये हमें जीतेंगे। जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही धृष्टराष्ट्र के सम्बन्धी हमारे सामने खड़े हैं।)

अर्जुन का द्वन्द्व सामने आता है, इन शब्दों में। कह रहे हैं अर्जुन, हम नहीं जानते के हमारे लिए युद्ध करना और न करना इन दोनों में से क्या श्रेष्ठ हैं। हम नहीं जानते, कि हम जीतेंगे कि वह जीतेंगे। और जिनको मार कर हम जीना भी नहीं चाहते वह ही हमारे अपने धृतराष्ट के पुत्र हमारे मुकाबले में खड़े हैं।

आचार्य: (प्रश्नकर्ता का लिखित प्रश्न पढ़ते हुए) अर्जुन की व्यथा कथा, दूसरा अध्याय का छठा श्लोक, प्रणाम आचार्य जी, अर्जुन को दुविधा हो रही है कि युद्ध करे या पलायन। मेरे जीवन में युद्ध जैसी स्थिति तो नहीं, पर कुछ पल होते हैं, जब दुविधा बनी रहती है। जब स्थितियाँ सामने आती हैं, तो उन्ही स्थितियों के अनुसार आचरण हो जाता है। समझना चाहता हूँ कि दुविधा के पलों में दुविधा के साथ-साथ स्थिति को समझ कर आचरण कैसे हो?

दु विधा — दो हैं। ये दो कौन है, जिनमें से चुनाव करना हो। ये दो कौन है, जिनमें से किसी एक पर आचरण करना है। कहीँ ऐसा तो नहीं, कि मीठा ज़हर और कड़वा ज़हर सामने रखा हैं, और तुम पूछ रहे हो आचार्य जी बड़ी दुविधा है कौनसा चुँनू।

काला ज़हर रख दिया है, और गुलाबी ज़हर, और तुम पूछ रहे हो कि कल्लो को चुनूँ, या गुलाबो को। आमतौर पर हमारे सामने जो भी विकल्प आते हैं, वह हमें साँपनाथ और नागनाथ में से किसी एक को चुनने कि छूट देते हैं।

जब ऐसी स्थिति हो तो भैया, किसी को मत चुनो। सबसे पहले तो यह देखो कि तुम्हारे यह दोनों ही विकल्प आ कहाँ से रहे हैं? आचार्य जी, ये दो लड़कियों के रिश्ते लायी है मैया। एक तो जे वाली है, जे बड़ी ही सुन्दर है, और जे दूसरी वाली है, जे विधायक की भांजी है। आचार्य जी किनको चुन लें? बड़ी विकट दुविधा है। चुनाव करना है। जीवन का प्रश्न है। पत्नी चुननी है।

और ये जो दोनों ही तुम विकल्प सामने रख रहे हो, यह आ कहाँ से रहे हैं, तुम्हारी मूर्खता से। तुम्हारे अज्ञान से, तुम्हारे लालच से और तुम्हारी वासना से। क्या बताऊँ, किसको चुन लो। ऐसे में अपनेआप को देखो। विकल्पों को नहीं।

जो अपनेआप को देखने लग जाता है, उसके सामने जितनें भी विकल्प मौजूद होते है, वह सब कटने लग जाते हैं। सब विकल्प मूल्यहीन पता चलने लगते हैं। शेष बचता है वह जो सही है, शुभ है, सम्यक है, करणीय है।

पर उस तक पहुँचनें के रास्ते में यह सब विकल्प ही बाधा हैं। समझना एक बात को — सत्य वास्तव में कभी कोई विकल्प होता ही नहीं है। जब तुम अपने सब विकल्पों से पार लग गये तो जो निर्विकल्पता शेष रहती है उसका नाम सच है। और बात को थोड़ा गाढ़ा करने के लिए ये भी बताए देता हूँ कि झूठे विकल्पों से पार लग नहीं सकते, जब तक निर्विकल्पता कि चाहत न हो।

दोनों चीज़ें साथ चल रही हैं, समझिएगा। पहली बात, सब विकल्पों को परे ढकेलने के बाद जो राह बचती है, वही राह सही है। और दूसरी बात, जब तक उस आख़िरी राह के प्रति प्रेम नहीं होगा, तुम ये दस-बारह, पचास जो विकल्प सामने हर समय खड़े रहते है इनको परे ढकेल नहीं पाओगे।

वो प्रेम तुममें है, नहीं तो यह सवाल नहीं पूछ रहे होते। सच जानना चाहते हो, बेहतर होना चाहते हो, इसलिए तो मेरे सामने सवाल लेकर के आये हो न। जिस नीयत से, और जिस ताक़त से, और जिस प्रेरणा से, ये सवाल यहाँ सामने रखा है उसी साफ़ नीयति के साथ, उसी ईमानदारी के साथ, जीवन में जितने विकल्प सामने आयें, उनको देख लिया करो, परख लिया करो।

विकल्प माने एक रास्ता। विकल्प माने एक लक्ष्य। विकल्प माने कुछ करके, कुछ पाने की चाह। क्या करना चाह रहे हो। क्या पाना चाह रहे हो। कौन उसका आकांक्षी है। उसे क्या तृप्ति मिल जानी है, ये पूछ ज़रूर लो।

कोई भी विकल्प आमतौर पर इतनी तहक़ीक़ात बर्दाश्त ही नहीं कर पाता, वो ढ़ेर हो जाएगा। यह विकल्प आकर्षक तभी तक लगते हैं, जब तक तुम पास जाकर इनका आई-कार्ड न माँगो। जैसे ही तुमने थोड़ी पूछताछ करी, साब कहाँ से हैं, किस मोहल्ले से हैं, माँ-बाप कौन हैं आपके। वह चम्पत हो जाएगा।

इस सवाल से तो वह बहुत ही घबराता है। माँ-बाप का नाम बताना। जैसे ही तुम पूछोगे कि तेरी पैदाइश कहाँ की है, तेरा स्त्रोत क्या है, तू आया कहाँ से है, वो बता ही नहीं पाएगा।

जब भी कभी देखो कि तुम पता करने निकले हो कि तुम्हें कोई इच्छा क्यों उठ रही है और वह इच्छा का कारण नहीं जानते हो, यह मत समझ लेना कि वह इच्छा किसी परमात्मा से आ रही है या किसी बड़े पारलौकिक या आध्यात्मिक बिन्दु से आ रही है।

अगर तुम अपनी इच्छा का कारण नहीं जानते, अगर तुम्हें ऐसा लगता है कि इच्छा किसी पीछे के घने अँधेरे, नेपथ्य से आ रही है। तो समझ लेना कि वह तुम्हारी इच्छा जंगल के घने अँधेरे से आ रही है।

अपनी इच्छाओ से बस पूछा करिए, तेरी मम्मी कौन छे, तेरा बापू कौन छे, वो चुप रह जाए, तो कहिए लावारिश है तू। शायद नाजायज़ भी। हम तेरे साथ तो रिश्ता नहीं रखेंगे। और पूछिए कि अपना पता बता, कहाँ से आयी तू, घर कहाँ है तेरा। कुछ पता ही नहीं होगा उसे।

आपको पता होता है, आपके भीतर जो वृत्तियाँ उठती है, चाहते उठती है, क्रोध उठते हैं, तमाम तरह के आकर्षण, खिंचाव, सशक्त भावनाएँ, वह कहाँ से आती हैं। कुछ पता है। कभी खोजा है?

खोजोगे तो कुछ पाओगे नहीं। क्योंकि वह अतीत की एक गहरी, काली गुफा से आती है। उसके भीतर तुम कुछ भी ऐसा नहीं पाओगे जिसे देखा जा सकता हो। वहाँ सिर्फ अँधेरा है। उसको छोड़ा जा सकता है। उसमें कुछ पाया नहीं जा सकता, क्योंकि वहाँ कुछ है ही नहीं, अँधकार के अलावा, कालिमा के अलावा।

कुछ चाहिए, क्यों। कुछ उत्तर आया। थोड़ा और आगे बढ़ो। क्यों। बड़ी मुश्किल से जुगाड़ करके फिर से कुछ उत्तर आया। तुम थोड़ा और आगे बढ़ जाओ। क्यों। अब कोई उत्तर नहीं आएगा।

उत्तर देने वाला चिढ़ जाएगा। वो तुम ही हो, तुम ही चिढ़ जाओगे। ये क्या बाल कि खाल निकाली जा रही है। हर बात में क्यों, क्या बताएँ। जहाँ तुम पाओ कि क्यों नहीं बता सकते, वहाँ या तो परम सत्ता बैठी हुई है, या अँधेरी गुफ़ा।

अपनी ज़िन्दगी को देख कर समझ लो कि परमसत्ता के होने की सम्भावना कितनी है। और याद रखना अगर परमसत्ता बैठी होती है, तो ऐसा नहीं होता है कि क्यों अनुत्तरित चला जाता है। ऐसा होता है कि क्यों बोलने वाला ही हट जाता है, मिट जाता है। अगर क्यों है, लेकिन उत्तर कुछ नहीं है। क्यों है, प्रश्न है, जवाब कुछ नहीं मिल रहा, तो समझ लो कि जवाब मिल गया।

समझ में आ रही है बात।

ऐसे करो अपनी दुविधा का निराकरण। दो रास्ते हों सामने, दोनों से ही पूछ लिया करो। कहाँ से आये भैया, कहाँ को जाते हो। और अपनेआप से पूछ लिया करो कि भैया, तुममें क्यों इतनी चाहत उमड़ रही है, इनमें से यह रास्ता चुनने की, कि वह रास्ता चुनने की। क्या है तुम्हारे भीतर जो इस रास्ते पर चलना चाहता है, कि उस रास्ते पर चलना चाहता है।

यह सवाल पूछते वक़्त ये सोचकर मत डर जाना, जब ज़िन्दगी में किसी रास्ते पर चलना ही है तो क्यों न इन दोनों में से ही किसी एक को चुन लूँ। क्योंकि बिना चले तो कोई रह नहीं सकता।

श्रीकृष्ण भी कह गये हैं कि प्रकृति के अधीन होकर कर्म तो सब ही करते हैं, तो मुझे भी कोई राह तो चुननी ही पड़ेगी। अब यह दो राह सामने आयीं हैं। तो या तो कल्लो को चुन लेता हूँ, नहीं तो गुलाबों को।

ये गज़ब मत कर देना। राहें ऐसी-ऐसी हैं, जिनका आपको कुछ पता नहीं चल सकता, जब तक आप ग़लत राह चल रहें हैं। तुम ग़लत राहों को ठुकरा कर तो देखो, सही राह खुलती है कि नहीं खुलती।

और यह घटिया और झूठा तर्क बिलकुल मत देदो कि मुझे सही राह मिली नहीं, मैं इसलिए ग़लत राह चल पड़ा। बात यह नहीं है। सही राह हमेंशा खुली होती है और उपलब्ध होती है।

वह तुम्हें इसलिए नहीं मिल रही क्योंकि तुम्हारे मन में झूठी राह चलने का आकर्षण बहुत है। झूठी राह तुम छोड़ ही नहीं पा रहे और झूठी राह पर चलने को, वैध ठहराने के लिए, जस्टीफाइ करने के लिए, तुम कह देते हो, मैं करुँ क्या, मेरे पास तो कोई विकल्प ही नहीं था। मुझे कोई मिला ही नहीं, मुझे सच्ची राह दिखाने वाला।

तो इसीलिए मुझे जो भी मिली राह, मैं उसी पर चल दिया, झूठी-झाठी। यह झूठा, बईमान तर्क है, मत दो। तुम्हें रुकना होगा पहले। और रुककर के देखो कि सही राह खुलती है कि नहीं। जब तक तुम्हारे दोनों हाथ भरे हुए है, इस विकल्प से और इस विकल्प से, और पचास और चीज़ों से, निर्विकल्प सत्य तुमको मिल कहाँ से जाएगा, भाई।

जब ज़िन्दगी ही पूरी झूठे विकल्पों से भरी हुई है, तो तुम्हें जो कुछ भी मिलेगा इन्हीं विकल्पों के अन्दर का ही मिलेगा न। तुम्हारी ज़िन्दगी में पचास चीज़ें हैं और इन्हीं पचास चीजों में तुम कभी ये, कभी वह, कभी यह कभी वह, चुनते रहते हो।

जाहिर है, तुम्हारे सब चुनाव इन्ही पचास के भीतर-भीतर के ही होंगे। और फिर कहो यही पचास तो है, बाहर का कुछ मिला नहीं, तो चुन लेते, इक्यावन की तो हम तलाश मे थे। पचास में ही व्यस्त हो, इक्यानवे का नाम ही क्यों ले रहे हो। बईमानी हो गयी।

और फिर ऐसा भी नहीं कि इन पचास में तुम्हें बड़ी तृप्ति, संतुष्टि है। हो, तो पचास में ही मगन रहो। फिर किसी सच्चाई की, किसी विज्ञान की, किसी अध्यात्म की, कोई ज़रूरत नहीं है। पर आनन्द तो छोड़ दो, खुश भी नहीं हो तुम।

दिन-रात कहते रहते हो, हैप्पी, हैप्पी चाहिए, हैप्पी, हैप्पी। आई वॉन्ट हैप्पीनेस (मैं खुशी चाहता हूँ), यू वॉन्ट हैप्पीनेस (तुम खुशी चाहते हो), विल यू कीप मी हैप्पी (क्या तुम मुझे खुश रखोगे?जॉय (आनन्द) तो छोड़ दो, हैप्पीनेस (खुशी) भी नहीं है तुम्हारे पास। कि है? दिल से बताना।

मर रही है पूरी दुनिया, किसके लिए, हैप्पीनेस मिल जाए, बस। ऐसा पगलाये हो हैप्पीनेस के लिए कि दारू पीने के समय को बोलते हो “हैप्पी आवर्स” (घंटे)। पिक्चर बनाते हो “ हैप्पी भाग गयी” या “भाग जाएगी”।

अरे! तुम उसका नाम हैप्पी रख दोगे तो तुम्हें हैप्पीनेस थोड़े ही दे देगी। उसके पास ख़ुद ही नहीं है, वह भगी जा रही है, न जाने कहाँ। और यह सब क्यों हुआ है, क्योंकि यही जो तुम्हारे पास कुल गिने चुने पचास विकल्प है, इन्ही में कभी ये टटोलते हो, कभी वो पकड़ते हो।

मैं कह रहा हूँ, इनमें अगर मिल गयी है तुम्हें, जॉय नहीं, हैप्पीनेस भी, तो खुशी-खुशी इन्हीं को पकड़े रहो भाई। मिला है? जानते हो, ये जो पचास हैं, इनमे से उनन्चास तो चीज़ें हैं, या व्यक्ति हैं। इनमे से पचासवीं कौनसी है।

ये जो पचास तुम्हारे पास विकल्प हैं, इनमें से एक को छोड़कर तो सब वस्तु हैं, व्यक्ति हैं, लक्ष्य है। पचासवीं राह कौनसी है। उस पचासवीं चीज़ का नाम है, उम्मीद। जब उनन्चास से तुम्हारा दिल टूट जाता है, जब उनन्चास से लात पड़ती है, तो पचासवीं पकड़ लेते हो। क्या नाम है उसका, उम्मीद।

सारे विकल्प आजमाओ, और जब सब विकल्पों में कूटे जाओ, पीटे जाओ, तृप्ति न पाओ, तो पचासवाँ विकल्प पकड़ लों। और पचासवें विकल्प का नाम है, आशा। आशा के साथ रहो और आशा तुमको ताक़त दे देगी कि अब फिर से शुरू कर दो।

एक-दो-तीन-चार-पाँच-छह-सात-आठ-नौ-दस-ग्यारह-बारह। मर-मर के फिर कहाँ पर आओगे, पचास पर और पचास का नाम है आशा। अब फिर से आशा बँध गयी। अब फिर तुम वापस शुरू हो जाओगे। लगे रहो।

प्रयास न करने से भी कही ज़्यादा घातक होता है, ग़लत जगह पर बार-बार प्रयास करना। यह बात समझिए ध्यान से। यह जो आज के युग का मोटिवेशन (प्रेरणा) हैं न, जिसने हमें नेवर गिव अप (कभी मत छोड़ना) के जोश से भर दिया है। यह बहुत ज़हरीला है।

एक ग़लती यह होती है कि कोशिश नहीं करी और दूसरी ग़लती यह है कि ग़लत जगह पर बार-बार पिटने के बाद भी कोशिश करते रहे और ज़िन्दगी ख़राब कर ली। विवेक कोई चीज़ होती है या नहीं।

जिन राहों पर चल रहे हो उनको ग़ौर से देखोगे या नहीं। तुम्हें जो अपने लिए विकल्प प्रतीत हो रहें हैं उनकी कोई जाँच-पड़ताल करोगे या नहीं। या बार-बार बस आजमाइश करते रहोगे कि बस कोशिश जारी है।

पत्थर पर फूल उगाने की कोशिश चल रही है। पानी को मथ-मथ के उसमें से घी निकाला जा रहा है और कहा जा रहा है, ’नेवर गिव अप।‘ और पानी को मथ-मथ के उसमें से घी निकालने की उम्मीद भी किसकी है। ढाई सौ किलो के उस आदमी की जिसका कोलेस्ट्रॉल भी साढ़े चार सौ बैठा हुआ है।

पहली बात तो पानी से घी निकलेगा नहीं, दूसरी बात तुझे उस घी कि ज़रूरत भी है क्या। कोई चमत्कार ही जो जाए, पानी से घी निकल भी आए, तो वो तेरी सफलता नहीं तेरी मौत होगी। पर लगे हुए है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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