दीवाली का क्या अर्थ है?

Acharya Prashant

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दीवाली का क्या अर्थ है?
यह पिस्ते, यह मेवे, यह उपहार, यह अलंकार - ये थोड़े ही हैं दिवाली। जब मन रोशनी हुआ तब दिवाली जानना। पटाखे नहीं फोड़ने होते, झूठ फोड़ना होता है। किसी को आप क्या उपहार दोगे सच्चाई के अलावा? किशमिश में थोड़े ही सच्चाई है। मीठा तो स्नेह होता है, किशमिश थोड़े ही होती है। जीवन की बात है- जीवन पूरा ऐसा हो कि अँधेरा हावी नहीं होने देंगे। जीवन पूरा ऐसा हो कि लगातार उतरोत्तर राम की ओर ही बढ़ते रहेंगे। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

आचार्य प्रशांत: देखो, त्यौहार तो एक ही होता है और त्यौहार की रोशनी भी एक ही होती है।

राम की कोई घर वापसी नहीं होती, आप की राम वापसी होती है।

त्यौहार का मतलब होता है- ‘आप राम की ओर वापस गए।’ त्यौहार का मतलब होता है कि अँधेरे को रोशनी की सुध आ गयी और अँधेरा जब रोशनी की तरफ़ मिटता है तभी उसके कदम बढ़ते हैं। दिवाली क्या है ये जान लो फिर दिवाली अपने-आप सही तरीके से मनेगी, वर्ष भर रहेगी। त्यौहार का मतलब समझ रहे हो- ‘मज़ा आया, उत्सव हुआ, आनंदित हुए।’

रोशनी मतलब समझ रहे हो- ‘समझ में नहीं आता था, उलझे हुए थे, अँधेरा था, कुछ दिखाई नहीं पड़ता था, लड़खड़ा कर गिरते थे, उलझते थे; अब चीज़ साफ़ है, अब ठोकरें नहीं लग रही, अब चोट नहीं लग रही। वो आपको किसी एक दिन नहीं चाहिए, वो आपको लगातार चाहिए। या ऐसा है कि एक दिन चोट ना लगे और बाकी दिन लगती रहे? या ऐसा है कि रोशनी एक दिन रहे और बाकी दिन ना रहे?

अँधेरा, अँधेरे को पोषण देता है।

अँधेरे के पास अँधेरे के तर्क होते हैं। रोशनी की तरफ़ बढ़ने का कोई तर्क नहीं होता है। रोशनी की तरफ़ बढ़ने का यही मतलब होता है कि अँधेरे की जो जंज़ीरें थीं, अँधेरे के जो तर्क थे, अँधेरे के जो एजेंट थे, जो दूत थे उनको कीमत देना छोड़ा। त्यौहार का मतलब ही यही है कि सत्य को –और सत्य कोई बाहरी बात नहीं है, आप जानते हैं सत्य को– त्यौहार का मतलब ही यही है कि सत्य को कीमत दी। इधर-उधर के प्रभावों से हमेशा दबे रहे थे, अब उन प्रभावों से बचे। अँधेरे की जंजीरों को, अँधेरे के षड्यंत्र को काट डाला।

हो उल्टा जाता है। जितना ज़्यादा आप दूसरों से वर्ष भर प्रभावित नहीं रहते, उतना आप त्यौहारों में हो जाते हैं। बच्चे पटाखे फोड़ रहे हैं और वो देख रहे हैं कि पड़ोसी ने कितने फोड़े। आप घर सजा रहे हैं, आप देख रहे हैं कि आपका घर पिछले वर्ष की तुलना में कैसा लग रहा है। खरीददारी हो रही है और खरीददारी हो ही इसीलिए रही है कि हर कोई और खरीद रहा है। बाज़ारें सजी हुई हैं, क्यों सजी हुई हैं? क्योंकि सबको खरीदना है। ये तो अँधेरा और सघन हो रहा है न? ये रोशनी थोड़े ही है।

रोशनी तो निजी होती है। अँधेरा सामूहिक होता है।

त्यौहार कोई सामूहिकता की बात हो ही नहीं सकती। हाँ, प्रेम दूसरी बात है लेकिन प्रेम सामूहिक नहीं होता न। समूह तब है जब आप अलग-अलग बने रहें लेकिन झुण्ड में नज़र आएँ। प्रेम तब है जब आप भले ही अलग-अलग हैं, नज़र आते हैं अलग-अलग लेकिन अलगाव जैसा कुछ महसूस नहीं होता। समूह में करीबी दिखाई देती है, लगता है सब निकट है - ‘देखा न, साथ मिल कर के त्यौहार मना रहे हैं’। लेकिन दिलों में दूरी तब भी बनी रहती है। प्रेम में साथ-साथ दिखाई भले ही ना दें लेकिन एक एकत्व आ चुका होता है।

त्यौहार को, पहली बात तो किसी दिन विशेष से ना जोड़ें, त्यौहार संकेत है आपके होने का। यह रोशनी, यह, दीये, यह राम, यह रावण ये सब आपसे कुछ कहना चाहते हैं और जो ये आपसे कहना चाहते हैं, यह कोई एक दिन की बात नहीं है। वो जीवन की बात है- जीवन पूरा ऐसा हो कि अँधेरा हावी नहीं होने देंगे। जीवन पूरा ऐसा हो कि लगातार उतरोत्तर राम की ओर ही बढ़ते रहेंगे। अँधेरे की साज़िशों में शुमार हो कर के कौन सी दिवाली मन जानी है?

यह पिस्ते, यह मेवे, यह उपहार, यह अलंकार - ये थोड़े ही हैं दिवाली। जब मन रोशनी हुआ तब दिवाली जानना। पटाखे नहीं फोड़ने होते, झूठ फोड़ना होता है। किसी को आप क्या उपहार दोगे सच्चाई के अलावा? किशमिश में थोड़े ही सच्चाई है। मीठा तो स्नेह होता है, किशमिश थोड़े ही होती है। बादाम, छ्वारे, छुट्टियाँ; प्रेम से भी छुट्टी लेते हो कभी? तो उत्सव छुट्टी का अवसर कैसे हो सकता है? कहते हैं कि काम से छुट्टी ली है, माने कि काम में प्रेम नहीं है न?

तो इस दिवाली वो सब छोड़ ही दो जिसमें अप्रेम है। बजा दो बम, गूँज बहुत देर और दूर तक सुनाई देगी। यह जो चिटपिटियाँ छोड़ते रहते हैं इन्हें कोई बम कहते हैं? पाँच सौ की लड़ी जलाई, लड़ी ऐसी जलाओ, जो ज़िंदगी भर जले। वो पाँच सौ और पाँच हज़ार की नहीं हो सकती; फिर बजती ही रहे। जैसे सत्य अनंत है और ब्रह्म अनंत है वैसे ही ‘बजना’ अनंत है!

वरना देखा है दिवाली के अगले दिन कैसा होता है? धुआँ सा और सड़कों पर पटाखों के अवशेष पड़े हुए हैं, कागज़ के अधजले टुकड़े, हवा में बारूद की गंध है। ऐसा लगता है सुहागरात के बाद तुरंत कोई विधवा हो गया हो! हाँ या ना? और फिर चिड़चिड़ाहट और फिर सफाई घर की। बड़े शौक़ से सजाया था और इधर-उधर दीये रखे थे और जो दीये बुझ गए हैं और दीवारों पर कालिख के निशान छोड़ गए हैं। तेल गिर गया है और वो गंधा रहा है।

अब कह तो किसी से सकते नहीं पर मन में उठ रहा है शोक़, और खूब खा ली हैं पूरियाँ, गुजिया और मिठाइयाँ; गुड़गुड़ा रहा है पेट। यह दिवाली का अगला दिन है या नहीं? ये धोखा नहीं हुआ? ये कौन सा उत्सव था जो अपने पीछे मातम छोड़ गया है? धोखा हुआ कि नहीं?

दिवाली अच्छी बीती या नहीं यह दिवाली के अगले दिन को तय करने दो, और अगले हफ्ते को और अगले महीने को और काल की पूरी श्रृंखला को क्योंकि यदि असली से तुम्हारा परिचय एक बार हो तो सदा के लिए हो जाता है, वो फिर छूटेगा नहीं। उत्सव के बाद आर्तनाद नहीं आ सकता।

वास्तविक उत्सव अपने पीछे उत्सवों की एक अनंत श्रृंखला छोड़ कर जाएगा। उत्सव के बाद अनजानापन और अकेलापन नहीं आ सकता।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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