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जब मन पर भावनाएं और वृत्तियाँ छाने लगे
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: भावनाओं से अनछुए नहीं रह पाती हूँ। विवेक कहता है कि भावनाओं को देखो, उनसे प्रभावित नहीं हो लेकिन फ़िर भी मैं प्रभावित हो जाती हूँ। कभी चिल्ला देती हूँ, कभी रो देती हूँ, तो इससे कैसे निजात पाएं कि मन एकदम स्थिर हो जाए।

आचार्य प्रशांत: दो तरीके हैं या तो यह देख लो कि यह जो रोना हो रहा है, चिल्लाना हो रहा है यह सब देह के कारण हैं। प्रकृति की बात है, मनुष्य की देह धारण करी है, स्त्री की देह धारण करी है, तो यह चीखना-चिल्लाना चलता रहता है इंसानी करतूतें हैं। काफी कुछ तो इसमें स्त्रैण है।

दूसरा यह तरीका है कि यह सारा रोना चिल्लाना किसी महत उद्देश्य को समर्पित कर दो। कह दो ऊर्जा तो मुझ में है ही, बहुत इच्छाएं हैं, कामनाएं हैं, तो जब कामना करनी ही है तो किसी ऊंची चीज की करूँगी। ज़ोर लगाना ही है, चीख-पुकार करनी ही है तो जो ऊँचे से ऊँचा हो सकता है उसके लिए करूँगी।

पहली विधि को 'कर्म सन्यास' कहते हैं, दूसरी विधि को 'कर्मयोग' कहते हैं। पहली विधि कह रही है कि यह जो कुछ भी कर्म हो रहे हैं, जान लो कि तुम उसके कर्ता हो ही नहीं। उनके तुम थोड़े ही कर्ता हो उनकी कर्ता तो प्रकृति है। उनके करता तो वह सब प्रभाव हैं, जो तुम्हारे ऊपर पड़े हैं। कह दो कि यह मैं थोड़े ही कर रही हूँ यह तो शरीर करवा रहा है, शरीर के हार्मोन करवा रहे हैं। भीतर के मेरे रसायन करा रहे हैं, जो मेरा अतीत रहा है वह करवा रहा है। जो मुझ पर सामाजिक प्रभाव पड़े हैं, धार्मिक प्रभाव पड़े हैं, शैक्षणिक प्रभाव पड़े हैं वह सब मुझसे करवा रहे हैं तो मैं तो इनकी कर्ता हूँ ही नहीं, होने दो इनको। मैं पैदा ही ऐसी हुई हूँ कि बात बात पर मेरे आँसू निकल आते हैं, तो बहने दो इन आँसुओं को। मेरे आँसू थोड़े ही हैं? किसके आँसू हैं? शरीर के आँसू हैं ये। मैं पैदा ही ऐसी हुई हूँ कि आँसू निकल पड़ते हैं, तो अब बह रहे हैं आँसू तो बहो! तुम्हारा काम है बहना, बहो! जैसे शरीर से अन्य इतनी सारी चीज़ें बहती हैं वैसे आँसू भी बह रहे। जैसे बाकी चीज़ों के बहने पर हम आपत्ति तो नहीं करते कि मल-मूत्र का त्याग करने गए हैं और वहाँ विचार कर रहे हैं कि अरे! इतना कुछ बह रहा है। इंसान पैदा हुए हो, जीव पैदा हुए हो तो ये सब क्रियाएँ तो चलती रहेंगी। तो वैसे ही आँसू बहे तो कह दो ये मल-मूत्र की ही तरह है। इसके बहने में हमारा कोई योगदान नहीं है। हम इन आँसुओं के कर्ता है ही नहीं। भीतर से रसायन उठते हैं और आँसू आ जाते हैं। ये कर्मसंन्यास हो गया।

कर्मयोग क्या हुआ?

कि अब रो तो रही हूँ, तो किसी ऊँची चीज़ के लिए रोऊँगी। जलेबी के लिए नहीं रोऊँगी। कोई बहुत ऊँचा ध्येय बनायेंगे और बस उसी के लिए रोते जाएंगे। हँसेंगे तो उस ध्येय लिए, रोएंगे तो उस ध्येय के लिए। यह कर्मयोग हो गया। जो कुछ भी है, वो हमारे लिए नहीं है उसके लिए है। यह कर्मयोग है। तो जो तरीका सुहाता हो उसको कर लो

श्रीकृष्ण से पूछोगे, तो श्रीकृष्ण कहेंगे- तरीके तो दोनों अच्छे हैं, कर्मयोग ज़्यादा अच्छा है, स्वयं कहते हैं गीता में।

अर्जुन ने यही पूछा था कि आपने ज्ञान योग भी बता दिया, सांख्ययोग भी बता दिया, कर्मयोग भी बता दिया तो अब बताइए 'कर्मसन्यास' और 'कर्मयोग' में से श्रेष्ठ कौन है? तो श्रीकृष्ण कहते हैं इन दोनों में से श्रेष्ठ है- कर्मयोग।

क्योंकि तुम्हारा आँसुओं के साथ रिश्ता बड़ा गहरा है, क्रोध के साथ और चित्त की तमाम वृत्तियों के साथ रिश्ता बड़ा गहरा है। तुम्हारे लिए थोड़ा मुश्किल हो जाएगा यह कहना कि यह तो शरीर का काम है, मेरा काम है ही नहीं। तुमने संबंध बड़ा ज़ोर से जोड़ लिया है। उसे संबंध को जल्दी से तोड़ नहीं पाओगे। तो उससे ज़्यादा आसान तरीका यह है कि क्रोध करेंगे तो किसी ऊँची बात पर क्रोध करेंगे। छोटी-छोटी बातों पर क्रोध नहीं करेंगे।

कह रही हो चीखना-चिल्लाना-रोना हो जाता है। ठीक है चीखना-चिल्लाना-रोना चलता रहे, लेकिन छोटी बात पर नहीं चलेगा, ऊँची से ऊँची बात पर चलेगा। अर्जुन से कहते हैं श्रीकृष्ण, अर्जुन अपने सारे कर्मों को मुझे समर्पित कर दे, इस बात का मतलब समझते हो?

जो कुछ कर, मेरे लिए कर और मेरे लिए माने किसके लिए? कृष्ण माने अनंतता, कृष्ण माने ऊँचा शिखर, अब जो भी कुछ कर, किसी ऊँचाई के लिए कर। टुच्चा जीवन मत बिता।

बाण चलाना है तो इसलिए मत चला कि चिड़िया मारनी है कि हिरण मारना है। अब अगर बाण चलाना तो धर्म की रक्षा के लिए चला। आ रही है बात समझ में? कर्मयोग पसंद आ रहा है?

प्र: हाँ!

आचार्य: बढ़िया।

प्र: आचार्य जी, अगर जीवन में चुनाव करना हो तो आदमी दिमाग का प्रयोग करके चुनाव कर तो लेता है, लेकिन आगे जाकर उसको लगता है शायद वह नहीं करना चाहिए था।

आचार्य: दिमाग का प्रयोग करके नहीं, कृष्ण का प्रयोग करके चुनाव करो, सत्य का प्रयोग करके चुनाव करो।

छोड़ सकते हो तो छोड़ दो। पर मेरे देखे तुम्हारी वो स्थिति नहीं है कि तुम एक झटके में छोड़ पाओगे। तुम्हारी अभी न उतनी नियत है न उतनी तैयारी। तो ये मत पूछो कि इन दोनों में से कौन सा एक चुनूँ? तुम्हे तो बीच का रास्ता निकलना पड़ेगा।

मुक्ति यकायक भी घट सकती है, अकस्मात भी घट सकती है, तत्काल, इसी पल भी घट सकती है, लेकिन फिर पात्र की तैयारी पूरी होनी चाहिए न?

उसे हाज़िर होना चाहिए कि जो भी कीमत अदा करनी पड़ेगी, अदा करूँगा, लेकिन मुक्ति तो इसी पल चाहिए। इतनी अभी तुम्हारी तैयारी नहीं है। इतनी गहरी सहमति दी नहीं है मुक्ति को। तो बीच का रास्ता निकालो!

बीच का रास्ता ये है कि जो तुम्हारा वर्तमान संसार है, उसकी सीमा की ओर बढो! अर्थात उसके भीतर बने रहते हुए भी, सत्य के कैसे निकट आ सकते हो की कोशिश करो। समझ रहे हो?

प्र: मतलब काम भी करते रहो और भजन भी।

आचार्य: और कोई तरीका नहीं है। उसके बाद अगर तुम्हारे भजने में सच्चाई होगी तो खुद ही तुम्हारे काम का स्वरूप बदलेगा फिर तुम्हें यह भी दिखाई देगा कि काम ज़रूरी नहीं है वैसा ही होता है जैसा अभी तुम अपने दफ्तर इत्यादि में कर रहे हो। अंधेरा फैलाना ही काम नहीं होता, रोशनी फैलाना भी बहुत बड़ा काम होता है तो कई तरह के काम होते हैं। ऐसा नहीं होता है जो अंधेरा फैलाते हैं, उन्हीं का घर चलता है और जो रोशनी का काम करते हैं, वह भूखों मरते हैं। परमात्मा इतना कठोर नहीं है कि उन्हीं पर आघात करें जो उसके प्रेमी हैं। वह परीक्षा लेता है, लेकिन परीक्षा इसलिए नहीं लेता कि तुम टूट ही जाओ। परीक्षा लेता है ताकि तुम और ज़्यादा सुपात्र होकर आगे निकलो और परीक्षा में सफल हो पाओ। तो अगर हृदय से भजोगे तो काम अपने आप बदलने लगेगा। फिर तुम्हें दिखाई देगा कि सत्य और कर्म दो अलग-अलग चीजें नहीं होती फिर तुम्हें दिखाई देगा कि सांसारिक जीवन और आध्यात्मिक जीवन अलग-अलग नहीं होता। अगर आध्यात्मिक जीवन सच्चा है तो अध्यात्म ही सांसारिक जीवन का निर्धाता बन जाता है। अध्यात्म और संसार और जीवन सब एक हो जाते हैं। अभी तो तुम जहाँ हो, जिस हालत में हो वहाँ पर जो अधिकतम कर सकते हो, उसी को करो। इसी को मैंने कहा कि अपने संसार की सीमा की ओर बढ़ो और उन सीमाओं को चुनौती भी दो। कहो कि मुझे अधिकतम करना है। अभी मैं इस संसार से बाहर नहीं जा सकता तो इसके भीतर बने हुए ही यही रहते हुए भी जो मैं ज़्यादा से ज़्यादा कर सकता हूँ, वह मुझे करना है। बस आगे की राह अपने आप स्पष्ट होती हुई चलेगी, बदलाव आने हैं अपने आप आएंगे।

प्र: आचार्य जी मैं जब विदेश जाता हूँ, तो मुझे माँसाहार भोजन करना पड़ता है क्योंकि शाकाहार भोजन वहाँ आसानी से नहीं मिलता, तो क्या यह सही है?

आचार्य: अब दुनिया में कौन ऐसी जगह है जहाँ तुम्हें शाकाहारी चीजें नहीं मिलती भाई? फल कि नहीं मिलते हैं उन जगहों पर? कौन सी ऐसी जगह है जहाँ लोग फल भी नहीं खाते?

प्र: फल से पेट नहीं भरता।

आचार्य: फल से पेट काहे नहीं भरेगा? पाँच-छह दिन की बात है एक के बाद एक फल खाओ। या पाँच-छह दिन पूरी वसूली करनी है कि बाहर गए हैं तो?

प्र: मतलब माँसाहार गलत ही होता है?

आचार्य: घर पर तुम अपने बच्चे के साथ प्रेमपूर्ण रहो, और उसको बैंकॉक ले जाकर पीटना शुरू कर दो तो सही हो जाएगा।

प्र: नहीं।

आचार्य: तो प्रेम तो प्रेम है न? बच्चे से तुम्हें घर में प्रेम है तो बैंकाक में उसे पीटना कैसे शुरू कर दोगे? जो जानवर जो पशु घर में अभक्ष्य है, घर में नहीं खाया जा सकता। तो बाहर जाकर उसकी हत्या करना कैसे शुरु कर दोगे? कैसे कर दोगे भाई?

प्र: दोस्त बताता है- कि यह लोग बचपन से यही खाते हैं तो यह लोग दुष्ट हो गए और तू ही अच्छा हो गया?

आचार्य: वह क्या हो गए, तुम छोड़ो! तुम अपने लिए 'धर्म' का पालन करो! बहुत सारी चीज़ें हैं जो तभी पता चलती हैं जब तुम्हारे परिवेश के, तुम्हारे माहौल के बाहर वाला आकर तुमको बताए। क्योंकि तुम्हारे परिवेश में वह बातें तो अब स्वीकृत हो चुकी हैं। वह बातें अब रोजमर्रा की हो चुकी हैं, तो बड़ा मुश्किल होता है उन बातों से आगे देख पाना। अगर कोई एक ऐसे देश में पैदा हुआ है जहां सब माँस ही माँस खाते हैं तो उसके लिए यह बहुत मुश्किल है अपनी ही आत्मिक रोशनी से देख पाना कि माँसाहार अपराध है। तो समझना होगा इस बात को कि वह नहीं देख पाएगा। ठीक वैसे ही जैसे तुम भारत में हो तुम्हें यह देख पाना बड़ा मुश्किल हो जाता है न? कि इतना शोर-शराबा कर रहे हैं यह गलत कैसे है? तुम्हें नहीं समझ में आता। तुम गंदगी फैलाते चलते हो सड़क पर, तुम्हें नहीं समझ में आता। पर विदेशी जब यहाँ आते हैं, तो उन्हें तुरंत लिख जाता है कि- यह गलत है! ये कितना शोर करते हैं? कितनी गंदगी करते हैं? है न?

तो कुछ बातें, विदेशी ही समझ सकता है। अगर तुम थाईलैंड जा रहे हो तो वहाँ के लिए तुम विदेशी हुए। वो लोग लगातार माँस खा रहे होंगे, पर वह नहीं समझ पाएंगे कि माँस खाने में क्या दोष है? ठीक वैसे ही, जैसे भारतीय नहीं समझ पाता की गंदगी फैलाने में क्या दोष है? कहीं भी पान की पीक मार दी। विदेशी आता है, देखता है, कहता है- पान की पीक मार दी? वो अचंभित होकर खड़ा हो जाता है। विदेशी आता है देखता है सड़क के बीचों-बीच गाय, कुत्ते घूम रहे हैं, वो ठहर जाता है और फ़ोटो लेनी शुरू कर देता है। वो कहता है सड़क के बीच में सांड बैठा हुआ है। ये हो कैसे गया? तुमको ये बड़ी साधारण बात लगती है। कहते हो ये तो यहाँ आम बात है। रोज़मर्रा का किस्सा है। कुछ बातें विदेशी ही समझ पाता है।

तो ये बात तुम्ही समझ पाओगे कि ये जो इतना माँस कहा रहे हैं, इसमें क्या दोष है? खुद भी समझो, उन्हें भी समझाओ। जैसे भारतीय आदमी विदेशियों से तमाम तरह की बातें सीखते हैं न? उसी तरीके से जब भारतीय विदेश में जाये तो उसको बहुत सारी बातें उन विदेशियों को सिखानी भी चाहिए। उल्टा नहीं करना चाहिए कि विदेश गए तो विदेशियों के सारे दोष ग्रहण कर लिए। ये वैसी ही बात होगी जैसे कोई विदेशी भारत आए और भारत से वो एक ही चीज़ सीख कर जाए कि गंदगी कैसे फैलाएँ और पान की पीक कैसे मारनी है?

अभी जब यूरोप दौरा करा था मैंने तो मुझे ऐसी कोई भी समस्या नहीं आयी थी कि शाकाहारी भोजन नहीं मिल रहा बल्कि शाकाहारी तो छोड़ दो, वीगन आउटलेट्स, वीगन रेस्टॉरेंट जितने यूरोप में हैं उतने भारत में नज़र नहीं आते। मैं नहीं दूध-दही और तमाम तरीके के पशु पदार्थों का सेवन करना चाहता हूँ। भारत में बड़ी मुश्किल हो जाती है। मैं कहूँ कि कुछ ऐसा बता दो भाई जिसमें दूध-दही-घी न पड़ा हो। यहाँ मिलता हीं नहीं। यूरोप में बड़ी सुविधा थी। वहाँ खोजो तो हर बाज़ार में एक-दो दुकानें मिल जाती थीं जो वीगन सामग्री ही बेच रही होती थीं।

कौन सा देश है जहाँ तुम कह रहे हो कि?

प्र: क्या होता है, किसी के साथ गए वहाँ, आयल रिफाइनरी भी शहर से 200 किलोमीटर दूर होता है, वहाँ उनका अपना हीं मेस अपना किचेन होता है तो उस स्थिति में दिक्कत होती है।

आचार्य: कोई बात नहीं फल खाओ फल।

प्र: हाँ! मैं अपने साथ ले जाता हूँ।

आचार्य: ले मत जाओ। वहाँ फल अच्छे मिलते हैं। वहाँ वो वाले फल मिलेंगे जो भारत में मिलते भी नहीं। त्रिनिदाद एंड टोबागो की बात कर रहे हो न? वहाँ तो ट्रॉपिकल इक्वेटोरिअल बड़े-बड़े फल मिलते हैं।

प्र: संयम खो देता हूँ।

आचार्य: संयम खो देते हो? ठीक है। एक बार खो देते हो फिर संयमित हो जाओ! जो खो दिया वो तो लौट कर नहीं आएगा। जो सामने है उसका ख़याल करो! एक बार जो गलती करी उसको दोहराओ मत। गलती का भी पूरा पूरा इस्तेमाल कर लो! गलती क्या बुरी है? अगर वो दोबारा न हो। फिर गलती में क्या बुराई है? फिर तो गलती को धन्यवाद देना चाहिए कि अच्छा हुआ तू हुई। तेरे होने से मुझे पता लग गया कि तू हो सकती थी, मेरे भीतर बैठी हुई थी। पर अब तू हो गयी है तो तेरे होने के कारण ही तुझपर पूर्ण विराम लगाता हूँ।

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