जब गुरु दनादन पीटे

Acharya Prashant

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जब गुरु दनादन पीटे

बस्स कर जी हुण बस्स कर जी

काई गल असां नाल हस्स कर जी।

तुसीं दिल मेरे विच वस्सदे सी, तद सानु दूर क्यों दसदे सी,

घत्त जादू दिल नु खस्सदे सी, हुण आइयो मेरे वस कर जी।

तुसीं मोयां नूं मार ना मुक्कदे सी, नित्त खिद्दो वांङ कुट्टदे सी,

गल्ल करदे सा गल घुट्टदे सी, हुण तीर लगायो कस्स कर जी।

तुसीं छपदे हो असां पकड़े हो, असां विच्च जिगर दे जकड़े हो।

तुसीं अजे छपन नूं तकड़े हो, हुण रहा पिंजर विच वस कर जी।

बुल्ल्हा शौह असीं तेरे बरदे हां, तेरा मुक्ख वेखण नूं मरदे हां।

बंदी वांगु मिन्नतां करदे हां, हुण कित वल नासों नस कर जी।

।। अनुवाद ।।

बस करो जी अब बस करो।

नाराज़गी छोड़कर हमसे थोड़ा हँसकर कोई बात करो।

यो तो तुम सदा मेरे दिल में वास करते रहे,

किन्तु कहते यही रहे कि हम दूर हैं।

जादू डालकर दिल छीन लेने वाले, अब जाकर कहीं मेरे बस में आए हो।

तुम इतने निर्दयी कैसे हो कि मरे हुए को भी मारते रहे?

और तुम्हारा मारना तो कभी समाप्त न हुआ।

कपड़ों की गेंद की तरह हमें पीटते रहे तुम।

हम बात करना चाहते हैं, तो तुम गला घोंट कर हमें चुप करा देते हो।

और अब की बार तो तुमने हम पर कस कर बाण चलाया है।

तुम छुपना चाहते हो, लेकिन हमने तुम्हें पकड़ लिया है।

पकड़ ही नहीं लिया बल्कि हमने तुम्हें जी-जान से जकड़ लिया है।

हम जानते हैं कि तुम बहुत बलवान हो।

अभी भी भागकर छुप सकते हो।

लेकिन अब तो तुम हमारे अस्थि-पिंजर में ही रहो।

बुल्ला कहता है कि- हे प्राणपति! हम तो तुम्हारे परम दास हैं।

तुम्हारा मुख देखने के लिए तरस रहे हैं।

बंधी की तरह अनुनय-विनय कर रहे हैं।

इस विनय के सामने भला अब दौड़ कर किधर जाओगे?

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम, बुल्लेशाह कह रहे हैं कि गुरु उन्हें गेंद की तरह पीटता है और उस दिल की बात बताने जाते हैं तो उन्हें जबरदस्ती चुप करवा देता है। बुल्लेशाह जी की ये फ़रियाद शायद उन दिनों की है, जब उनके गुरु ने उन्हें आश्रम से निकाल दिया था। आचार्य जी, जैसे बुल्लेशाह जी ने अपनी पूरी मेहनत लगाकर गुरु को मनाने का हर संभव प्रयास किया, और आख़िरकार गुरु ने उन्हें वापस आश्रम में बुला ही लिया, और विरह मिलन में बदल गया है। तो मैं अपनी विरह को मिलन में कैसे बदलूँ?

मुझे लगता है कि जब मैं प्रयास करता हूँ तो एक सीमा के बाद रुक जाता हूँ। प्रयासों में निरंतरता और ईमानदारी कैसे बनी रहे? अक्सर सुना है कि श्रद्धा की असली परीक्षा तो विपरीत स्थितियों में ही होती है, कृपया मार्ग दिखलाएँ।

आचार्य प्रशांत: गलत समझ रहे हो। तुम सोच रहे हो कि शिष्य को गेंद की तरह तब पीटता है, शिष्य को दुःख का अनुभव तब होता है, जब गुरु उसे अपने सामने से बेदख़ल कर देता है, आश्रम इत्यादि से निकाल देता है- नहीं। गुरु ने अपने सामने से शिष्य को अगर हटा दिया तब तो शिष्य की पिटाई बंद हो गई। शिष्य की पिटाई तब नहीं होती जब गुरु के सामने से हटा दिया जाता है, शिष्य की पिटाई तो गुरु के सामने रहने पर होती है। गुरु के सामने से हटा दिए जाने पर शिष्य की जो दशा होती है, अगर शिष्य उसके प्रति संवेदनशील ही होता, अगर शिष्य जानता ही होता कि गुरु के सामने से हटा दिया जाना कितनी बड़ी सज़ा होती है, तो अगर शिष्य गुरु के सामने से हटता ही क्यों?

शिष्य ऐसा आचरण, ऐसा मन ही क्यों रखता कि उसे गुरु के सामने से हटाया जाना पड़ता। पहली बात तो यह कि ये आवश्यक नहीं कि यह ‘काफ़ी’ उन दिनों की है जब गुरु ने बुल्लेशाह को कुछ दिनों के लिए बहिष्कृत कर दिया था। हो भी सकती है, नहीं भी हो सकती है।

‘अहं’ की दृष्टि से देखें, ‘अहं’ की सतही दृष्टि से देखें तो गुरु के सामने आना आफ़त है और गुरु के सामने से हट जाना राहत है। और ‘अहं’ की गहरी माँग को देखें तो गुरु के सामने से हट जाना आफ़त है और गुरु के सामने आना राहत है।

आमतौर पर लोग अपनी सतह पर जीते हैं। उन्हें अपनी ही गहराईयों का कुछ पता नहीं होता, अपने ही मन में क्या है, इसका उन्हें कुछ ज्ञान नहीं होता। इसीलिए अधिकांशतः तो गुरु के सामने आना आफ़त की ही बात है।

देखो, क्या कह रहे हैं यहाँ पर? तुम पास होकर भी दूर हो, जब तक हम सतही जीवन जी रहे हैं। तब तुम को पकड़कर रखने का एक ही तरीका हो सकता था और हमने वही तरीका प्रयुक्त कर दिया है। और वो ये था कि हम तुम्हें पकड़ कर अपने भीतर ही बैठा लें। अपने अस्थि-पिंजर में ही तुम्हारा निवास बना दे। अपनी काया में ही तुमको बसा लें।

यही एक मात्र तरीका है तुमसे दूर न हो जाने का। क्योकिं अगर इतना अपने भीतर हमने तुमको नहीं बसाया है तो हम ही तुम्हें अपने भीतर से निकाल फेकेंगे। तुम पिटाई बड़ी जबरज़स्त करते हो न? हमें कुछ ऐसा कर लेना होगा कि हम इस काबिल ही न बचें, हमें ये हक और अधिकार ही न रहे कि हम तुमसे दूर जाने का निर्णय कर सके। क्योंकि अगर मैं तुमसे अलग हो सकता हूँ तो अलग हो भी जाऊँगा। मुझे ऐसा हो जाना पड़ेगा कि मैं अलग हो सकने का निर्णय ही न कर पाऊँ।

मैं अलग क्यों हो जाऊँगा? मेरी गलती मत बताओ गुरुदेव, मैं अलग इसलिए हो जाऊँगा कि तुम बड़े बेरहम हो। तुम बड़ी पिटाई करते हो। जैसे बच्चे लकड़ी का डंडा लेकर कपड़े की गेंद की धुनाई करें, वैसे तुम मेरी धुनाई करते हो। इतनी धुनाई करते हो कि मुझे विवश होकर तुमसे दूर हो ही जाना पड़ता है। और जब दूर हो जाता हूँ तो उसमें मारा कौन गया? मैं ही मारा गया, क्योंकि दूर होकर सोचा था राहत मिलेगी, पाता कुछ और हूँ।

पाता हूँ कि जो राहत मिली है, वो तो सतही है। पर दूर होकर के अब जो बात दुनिया के हाथों धुनाई शुरू होती है, वो बड़ी ज़ालिम, घातक, जबरजस्त है। तो ले देकर के समझ में ये आता है कि पिटना तो है ही। जीव का जन्म लिया है तो पिटना तो है ही। संसारी बनेंगे, दुनिया की तरफ जाएँगे तो भी पिटेंगे, साधक बनेंगे, गुरु की तरफ जाएँगे तो भी पिटेंगे। हाँ, अगर विवेक होगा तो हम वो पिटाई चुनेंगे जिसमें हमारा कल्याण है। पर बात विवेक की नहीं होती, आदत भी तो है न? कितना भी अपने आपको समझा ले कि गुरु के पास रहने में ही भलाई है, फिर भी भागने को जी करता है। तो आख़िरी तरीका ये है कि अपने आप से भागने का हक ही छीन लो।

प्रश्नकर्ता: मैं अपनी विरह को मिलन में कैसे बदलूँ? प्रयासों में निरंतरता और ईमानदारी कैसे बनी रहे?

आचार्य प्रशांत: तरीका बता दिया। तुम्हारे प्रयासों में निरंतरता हो न हो, साधक हो अगर तुम, तो पिटाई में निरंतरता जरूर होगी। और अभी कुछ भी बोल लो, जब डंडा पड़ता है तो बड़ी जोर का लगता है। तब मन तत्काल यही कहता है, “अरे! भागो”। साधना वगैरह सब अच्छी चीज़ है, पर ज़ालिम ने सीधे हड्डी पर मारा है। टूट ही न गयी हो। अभी निकल लो, साधना वगैरह बाद में देखेंगे। अरे, साधना भी तब होगी न जब ज़िन्दा बचेंगे? कहीं फ्रैक्चर ही हो गया हो तो?

एक बड़ी सुन्दर भावाभिव्यक्ति है- जिसमें साधक कहता है, “ये मेरी टांगे मुझे गुरु के आश्रम से दूर ले जाती थीं, मैंने टांगे तुड़वा ली। ये मेरी आँखें मुझे गुरु के आश्रम से बाहर का रास्ता दिखाती थीं, मैंने ये आँखें फुड़वा ली।“ ऐसा हो जाना पड़ता है।

प्रयासों में निरंतरता और ईमानदारी अच्छी बात है, लेकिन अंततः तुम्हारी ईमानदारी नहीं, तुम्हारी मजबूरी ही काम आएँगी। व्यावहारिक समाधान बता रहा हूँ, मजबूर हो जाओ, मजबूर होने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है। ये सोचोगे कि स्वेच्छापूर्वक टिके रहोगे, तो स्वेच्छापूर्वक तो नहीं टिके रहने वाले। स्वेच्छा बड़ी चरित्रहीन चीज़ होती है, कभी इधर की तो कभी उधर की। कभी कहते हो- स्वेच्छापूर्वक गुरु के साथ रहूँगा, कभी कहते हो- स्वेच्छापूर्वक जरा संसार भ्रमण कर आता हूँ। विवश हो जाओ और कोई तरीका नहीं है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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