जब घरवाले अध्यात्म की बातें न सुनना चाहें || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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जब घरवाले अध्यात्म की बातें न सुनना चाहें || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्न: आचार्य जी, घरवालों को अध्यात्म कैसे समझाएँ?

आचार्य प्रशांत जी: देखो तिवारी जी (प्रश्नकर्ता), माँ-बाप का जीवन में एक तल पर बहुत ख़ास स्थान होता है। जब कहीं मैं ये देखता हूँ कि माँ-बाप उस तल से आगे जाकर, अनधिकृत रूप से, बच्चे के मन के दूसरे तलों पर कब्ज़ा कर रहे हैं, तब मैं कहता हूँ कि – “तुम ये गलत कर रहे हो। ये तुम अपने अधिकार से आगे की बात कर रहे हो। बच्चे के जीवन में तुम्हारे जगह निश्चित रूप से है, और बड़ी सम्माननीय जगह है तुम्हारी, लेकिन तुम ‘उस जगह’ पर अधिकार जमा लेना चाहते हो जो जगह तुमको नहीं दी जा सकती।”

तब मैं माँ-बाप से ऐसा कहता हूँ।

लेकिन साथ ही साथ जब मैं ये देखूँगा कि बच्चे-बालक, पुत्र-पुत्री, माँ-बाप को वो दर्जा भी नहीं दे रहे जिसके माँ-बाप अधिकारी हैं, तो पुत्र-पुत्री के ऊपर भी मैं बड़ा कड़ा रुख रखूँगा। अध्यात्म का मतलब ये नहीं होता कि माँ -बाप के प्रति आप असम्मान से भर जाओ, बिलकुल भी नहीं। और बातें मैं दोनों तरह की करूँगा। एक ही तरह की बात मत सुन लेना।

इधर कोई बाप बैठा हो जो कहे, “मुझे अपने बच्चे के जीवन पर मालिकाना हक़ चाहिये,” तो मैं उससे कहूँगा, “तुम खुदा हो गए? तुम मालिक कहाँ से हो गए? तुमने अपने बच्चे को अपनी जागीर समझ लिया? तुमने उसके शरीर को जन्म दिया है, या आत्मा के भी तुम बाप हो गए?” ये मैं उस पिता से कहूँगा, जो पिता अपने बच्चे के जीवन पर मालिकाना हक़ रखे। कहे,”हम ही हैं खुदा,” तो मैं कहूँगा, “नहीं! गलत बात कर रहे हो।”

लेकिन अगर इधर कोई ऐसा बच्चा बैठा होगा, जो कहेगा, “माँ-बाप को लेकर मेरे भीतर कोई सम्मान नहीं, कोई आदर नहीं, उन्हें कोई ओहदा मैं देता नहीं,” तो मैं कहूँगा, “ये तुम बड़ा गलत बता रहे हो।”

मैं दोनों बातें कहूँगा।

ये तो तुम्हें दिख रहा है कि माँ-बाप की वजह से तुम्हारी ज़िंदगी में कुछ चीज़ें गलत हो गईं। ये तुम्हें क्यों नहीं दिख रहा कि कितना कुछ गलत हो सकता था, जो माँ-बाप ने होने नहीं दिया? और मैं ये बहुत छोटी बातें कर रहा हूँ।

अभी कुछ दिनों पहले बीमार पड़े थे न? कैसा लग रहा था?

प्रश्नकर्ता: ऐसा लग रहा था कि काश वो पास होते। बहुत अकेलापन लग रहा था। लग रहा था कि ऐसे अकेले हो गए हैं कि, नहीं होना चाहिए।

आचार्य प्रशांत जी: एक शब्द में बताओ, ‘अच्छा’ लग रहा था, या ‘बुरा’?

प्रश्नकर्ता: बहुत बुरा लग रहा था।

आचार्य प्रशांत जी: तुमने कहा, “बहुत बुरा लग रहा था।” और बीमारी प्राणघातक नहीं थी। कठिन बीमारी थी, लेकिन ऐसी नहीं थी कि प्राण ही चले जाएँगे। ठीक? तुम्हें पता है तुम्हें कितनी प्राणघातक बीमारियों से माँ-बाप ने बचाया है? तुम इतनी उम्र को पा लेते, ऐसे हट्टे-कट्टे मुस्टंडे हो, ऐसे हो पाते अगर तुम्हें दस तरीके के टीके न लगवाए गये होते? किसने लगवाए वो टीके? माँ -बाप ने लगवाए थे न?

पिता से जो आश्रय मिला, माँ से जो पोषण मिला, उसके बिना ये इतना बड़ा जिस्म कहाँ से आता? मैं सिर्फ़ जन्म देने भर की घटना की बात नहीं रहा हूँ। मैं, जन्म देने के बाद माँ-बाप ने जो संवेदनशीलता दिखाई, उसकी बात कर रहा हूँ। तुमको ये तो दिख रहा है कि उन्होंने तुमको क्या नहीं दिया, ये तो तुम गिन ले रहे हो। ये तुम्हें क्यों नहीं दिखाई दे रहा कि उन्होंने तुम्हें बहुत कुछ दिया भी है?

(एक दूसरे श्रोता से सवाल पूछते हुए) कितने तरह के टीके होते हैं बच्चों के? ज़रा गिनाईये।

श्रोता १: मीज़ल्स, हेपेटाइटिस, पोलियो, निमोकोक्कल।

आचार्य प्रशांत जी: मीज़ल्स तुम्हें होता, हेपेटाइटिस तुम्हें होता, पोलियो तुम्हें होता, निमोकोक्कल तुम्हें होता, अगर माँ-बाप ने इन बीमारियों के टीके बचपन में न लगवाए होते। वो सब भूल गए? हाँ, इनमें से एक-आध टीका अगर माँ-बाप लगवाना भूल गए होते, तो तुम्हें याद रहता। तब कहते कि मेरे माँ-बाप अच्छे नहीं। एक छोटी-सी ही बात पूछी है मैंने, बताओ न।

कोई अध्यात्म ऐसा नहीं है जो यह कहता है कि माता-पिता को कचरे में डाल दो।

ये यहाँ जितनी बातें हो रही हैं, ये देहें बैठीं हैं न जो इतनी बातें कर रही हैं? देहें ही तो कर रही हैं? देह कहाँ से आई? आत्माएँ तो आपस में बातें करती नहीं। ये हमने तो नहीं सुना कि आत्माएँ बैठीं हैं और चाय पी रहीं हैं, और गपशप चल रही है। और तिवारी जी वाली आत्मा बोल रही है, “एक कप कॉफी लाना ज़रा!” ऐसा तो कहीं हमने ज़िक्र नहीं सुना है। तुमने सुना है?

ये देह बात कर रहीं हैं। ये देह कहाँ से आई?

श्रोता: माँ-बाप से।

आचार्य प्रशांत जी: और माँ-बाप से आई भर नहीं है। यहाँ जितने भी लोग बैठे हैं, उनके जिस्म को इस मुकाम तक भी माँ-बाप ने ही पहुँचाया है, या कम-से-कम उनका योगदान रहा है। रहा है या नहीं रहा है? तो अब क्यों गुस्से में लाल हो रहे हो? जितने वो तुम्हें दे सकते थे वो उन्होंने तुम्हें दे दिया, जो तुम्हें नहीं मिला उनसे, वो तुम खुद भी हासिल करो। या सब कुछ वही दे देंगे?

माँ-बाप ने शरीर दे दिया। रही मुक्ति की बात, वो तुम्हारा अपना प्रयत्न होनी चाहिए।

उन्होंने तो तुम्हें शरीर दे दिया, तुमने उन्हें क्या दिया है जो तुम इतनी ऊर्जा से क्रोध कर रहे हो? तुम तो ऐसे कह रहे हो कि उन्होंने तुमसे न जाने क्या-क्या छीन लिया है। उन्होंने तुम्हें शरीर दिया है, तुमने उन्हें क्या दिया है, बताना? जब पहली तनख्वाह आई थी तो साड़ी खरीदकर ले गये थे माँ के पास, फ़र्ज़ अदायगी हो गयी। पुत्रों का काम ऐसे ही चल जाता है। नौकरी लगती है, जब पहली तनख्वाह मिलती है, तो माँ को एक सूट दिला देते हैं। कहते हैं, “हो गया।” और तुम्हें पच्चीस की उम्र तक कितने सूट दिलवाये होंगे उन्होंने? कितने दिलवाये? तब तो तुम गिनते भी नहीं थे, जाकर बोल देते थे, “नयी पैंट लेकर आओ, स्कूल नहीं जायेंगे नहीं तो।”

उनका ऋण चुका लो, फिर इतनी बात करना।

वो तुमपर अगर हक़दारी करें, तो उनकी गलती। लेकिन तुम अगर बार-बार उनके खिलाफ शिकायत करो कि – ‘मुझे माँ-बाप से ये नहीं मिला, वो नहीं मिला, तो ये तुम्हारी गलती। वो जितना दे सकते थे, दे दिया। वो भी तो साधारण इंसान हैं न, गलतियों से भरे हुए। ऐसा तो है नहीं कि उन्होंने जानबूझकर तुमसे कुछ चीज़ें दबाकर, छुपाकर रखीं हैं। ऐसा किया है क्या?

अगर वो तुम्हारी तरफ गलतियों से भरे हुए थे, तो अपनी तरफ भी तो वो गलतियों से भरे हुए थे न। अगर तुम्हारी दाल में नमक ज़्यादा था, तो माँ की दाल में भी तो नमक ज़्यादा था न? अब शिकायत करोगे क्या, कि माँ ने मुझे ज़्यादा नमक वाली दाल खिला-खिला कर पहलवान बना दिया? जैसा उससे बना, उसने वैसा बनाकर खिला दिया तुमको। तुम्हें ज़्यादा अच्छी दाल बनानी आती है, तो खुद भी खाओ, और उन्हें भी खिलाओ। शिकायत क्यों कर रहे हो?

मैं बिलकुल भी हिमायती नहीं हूँ की बाप, बेटे पर बादशाहत करे। पर मैं इस बात के तो बिलकुल खिलाफ हूँ कि बेटा, बाप के साथ बदतमीज़ी करे। बाप चढ़ेगा बेटे पर, तो मैं बाप के सामने खड़ा हो जाऊँगा। और बेटा बाप से दुर्व्यवहार करेगा, तो मैं बेटे को माफ़ नहीं करूँगा।

सत्र में कौन बैठा है, तुम या पिताजी? तुम बैठे हो न। पिताजी ने जो कमाया, तुम्हारे साथ बाँटा, या नहीं बाँटा?

श्रोता: बाँटा।

आचार्य प्रशांत जी:

सत्र में तुम जो कमा रहे हो, तुम्हें बाँटना चाहिए। *और जब तुम बच्चे थे, तो तुम आसानी से पिताजी का दिया कुछ भी ले नहीं लेते थे। याद है न माँ खिलाने आती थी, तो तुम कितना उत्पात करते थे?* इसी तरीके से, तुम्हें यहाँ अध्यात्म की जो बातें पता चल रही हैं, तुम्हारी क्यों उम्मीद है कि तुम घर जाओगे और माँ-बाप को बताओगे, और वो आसानी से ग्रहण कर लेंगे? वो भी नहीं आसानी से ग्रहण कर रहे। अब तुम उन्हें बच्चा मनो। जब उन्होंने तुम्हें बच्चे की तरह देखा, तो उन्होंने तुम्हें स्नेह दिया था न? अब अध्यात्म की दृष्टि से मान लो कि वो बच्चे हैं। तो तुम उनको स्नेह दो, प्यार से समझाओ।

या उपद्रव करोगे?

हम बड़े शिकायत बाज़ होते हैं। दो -चार चीज़ें नहीं मिलतीं, वो तुरंत गिन लेते हैं ताकि शिकायत करने को मिले। और ये बिलकुल भूल जाते हैं कि हमें क्या-क्या मिला है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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