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जब एक भटकती आत्मा अचानक सामने आ गई || आचार्य प्रशांत (2023)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। आचार्य जी, मेरा प्रश्न ये है कि जैसे न आत्मा जन्म लेती है न मरती है, तो जो आम धारणा यह है कि उसकी आत्मा भटक रही है या आत्मा अतृप्त है। तो जैसा कि आप बताते हैं कि आत्मा तो जन्मती ही नहीं है, न तो मरती है। और अहम् वृत्ति ही है जो कि जन्म लेती है। तो क्या हम ये मान सकते हैं कि अहम् वृत्ति ही भटकती है, या अहम् वृत्ति ही अतृप्त रहती है?

आचार्य प्रशांत: अहम् वृत्ति कैसे भटकेगी, वो कुछ है नहीं न, वो बस वृत्ति है, टेंडेंसी है, जो प्रकृति में पायी जाती है। वो मिट्टी में पायी जाती है, वो भटकेगी कैसे? अहम् वृत्ति है– मिट्टी की ये टेंडेंसी कि वो अपनेआप को आइ (मैं) बोल दे। ये क्या है (अपने कन्धे पर हाथ थपथपाते हुए)?

प्र: आइ (मैं)।

आचार्य: ये क्या है? (पुनः अपने कन्धे पर हाथ रखते हुए)

प्र: प्रकृति।

आचार्य: अच्छा, अपने करिए (प्रश्नकर्ता से अपने ही कन्धे पर हाथ रखने को कहते हैं)। अब बोलिए—‘ये मिट्टी है’।

प्र: ये मिट्टी है (ख़ुद के शरीर की ओर इशारा करते हुए)।

आचार्य: ये याद दिलाया करिए अपनेआप को बार-बार कि ये मिट्टी है। ये मिट्टी अपनेआप को बार-बार क्या बोलती है?

प्र: अहम्, मतलब मैं हूँ।

आचार्य: आइ (मैं)

प्र: आइ (मैं)

आचार्य: ये मिट्टी में कौनसा कण है जो बोलता है? आप जब अपनेआप को ‘आइ’ बोलती हैं, तो यहाँ (सिर की तरफ़ इशारा करते हुए) रखेंगी तो क्या बोलेंगी?

प्र: मैं।

आचार्य: यहाँ रखेंगी तो क्या बोलेंगी (गर्दन पर हाथ रखते हैं)?

प्र: मैं।

आचार्य: यहाँ रखेंगी तो (बाँह पर हाथ रखते हुए)?

प्र: मैं।

आचार्य: यहाँ रखेंगी तो (पेट की ओर इशारा करते हुए)?

प्र: मैं।

आचार्य: इस मिट्टी का एक-एक कण क्या बोल रहा है?

प्र: मैं।

आचार्य: तो मिट्टी के एक-एक कण में अपनेआप को 'मैं' कहने की टेंडेंसी (वृत्ति) होती है। वो बस इंतज़ार करती है कि कब मौका मिले मैं 'मैं' कह पाऊँ। जड़ प्रतीक्षा में बैठा रहता है कि मैं बोल दूँ, मैं बोल दूँ; ये टेंडेंसी है। तो वो टेंडेंसी कोई हवा में उड़ती चीज़ थोड़ी ही है कि वो जाकर पुनर्जन्म ले लेगी। वो तो यहाँ हवा के हर कण में, मिट्टी के हर कण में है। एक-एक अणु, परमाणु में वो वृत्ति है, वृत्ति, वृत्ति। वो वृत्ति हर जगह है।

कुछ भी पैदा होगा वो 'मैं' बोलेगा। पौधा क्या बोलता है?

प्र: मैं।

आचार्य: मिट्टी पौधा बन गयी, क्या बोली? ‘मैं’। जैसे कि ‘मैं’ बोलने के लिए ही मिट्टी पौधा बनी थी। अब है वो मिट्टी ही, पर उसकी मौज आ गयी है; अपनेआप को वो क्या बोल रही है?

प्र: मैं।

आचार्य: उसकी शान देखी? उसकी अदा देखी है? वो पौधा बन गयी है और क्या फूल आया है! वो इतराकर क्या बोल रही है?

प्र: मैं।

आचार्य: वो जानवर बन गयी है, वो क्या बोल रही है?

प्र: ‘मैं’।

आचार्य: इतना सा घास का तिनका (आधी उँगली का संकेत करते हुए) इतने बड़े, ऊँचें (हाथ ऊपर उठाकर बताते हुए) नारियल के पेड़ के नीचे, और दोनों अपनेआप को क्या बोल रहे हैं?

प्र: मैं।

आचार्य: मैं, मैं, मैं, मैं, मैं। अफ्रीका में पैदा हो गया कोई, वो क्या बोल रहा है?

प्र: मैं।

आचार्य: कम्बोडिया में पैदा हो गया कोई, वो क्या बोल रहा है?

प्र: वो भी ‘मैं’ ही बोलेगा।

आचार्य: उठे दोनों किससे हैं?

प्र: मिट्टी से।

आचार्य: ले-देकर 'मैं' कौन बोल रहा है?

प्र: मिट्टी।

आचार्य: तो वृत्ति किसकी है?

प्र: मिट्टी की।

आचार्य: आप ऐसा, मैं आपके यहाँ मारूँ (एक हाथ पर दूसरे हाथ से मारकर समझाते हुए) तो क्या आप बोलेंगी, ‘मुझे नहीं मारा’? अच्छा, मैं आपको ऐसे मार दूँ यहाँ पर (कलाई पर) तो आप बोलेंगी मुझे?

प्र: मारा।

आचार्य: तो मैं कहूँगा, 'अच्छा, अच्छा, ये (कलाई की ओर इशारा) है!’ आपका नाम क्या है? (प्रश्नकर्ता से नाम पूछते हैं)

प्र: पूजा।

आचार्य: ये है पूजा (कलाई को सम्बोधित करके कहा)। मैंने यहाँ मारा, पूजा जी क्या बोलीं? कलाई पर मारा; पूजा जी बोलीं, ‘मुझे मारा’। तो मैंने निष्कर्ष क्या किया? ये हैं पूजा जी (कलाई पर हाथ रखते हुए)। तो मैंने जाकर के यहाँ (कन्धे पर हाथ से मारते हुए) मार दिया। और जब फिर से आपत्ति करी, तो मैं क्या बोलूँगा? आप तो यहाँ (कलाई पर) थीं न, आप यहाँ (कन्धे पर) कैसे आ गयीं? यहाँ कैसे आ गयीं? तो आप तुरन्त क्या जबाव दोगी?

प्र: मैं यहाँ भी हूँ।

आचार्य: माने इस मिट्टी के कण-कण में?

प्र: मैं हूँ।

आचार्य: एक भी कण को अगर तूने कुछ किया, तो तूने मुझे ही किया। है न? तो वो जिसको आप 'मैं' बोलते हो, वो एक-एक कण में विराजा हुआ है, हर जगह। ये उसकी वृत्ति है—‘मैं’ बोलना है, ‘मैं’ बोलना है, ‘मैं’ बोलना है, ‘मैं’ बोलना है। जब वो मिट्टी रहता है तो ‘मैं’ नहीं बोल पाता। फिर उस मिट्टी को एक व्यवस्था मिल जाती है, उसमें ‘मैं’ बोलने लग जाता है। लगभग ऐसे ही जैसे कि नारियल के पेड़ में बताइए नारियल कहाँ हैं?

अभी छोटा है पेड़, नारियल कहाँ हैं?

प्र: उसके अन्दर।

आचार्य: अन्दर। वैसे ही मिट्टी के अन्दर छुपा रहता है 'मैं'। वो मिट्टी जब नारियल बन जाती है और फिर उसमें से जब नारियल का फल लग जाता है तो 'मैं' प्रकट हो जाता है।

पौधे में फूल कहाँ है?

प्र: पौधे के अन्दर।

आचार्य: पौधे के अन्दर। दिखाई तो नहीं देता न, लेकिन जब फूल लगता है तो क्या आप ये बोलते हो कि ये फूल कोई बाहरी चीज़ है? (प्रश्नकर्ता ने नहीं में सिर हिलाया)

उसी में से आया है न, पौधे के अन्दर से ही फूल आ गया, वैसे ही मिट्टी के अन्दर से ही अहम् आ जाता है। अहम्, मिट्टी के अणु में ही अहम् छुपा हुआ है। मिट्टी के अणु में ही अहम् छुपा हुआ है। एक समय आता है जैसे जब फूल खिलता है, वैसे ही एक समय आता है जब वो मिट्टी 'मैं' बोलती है।

एक समय आता है न, जब फूल लगते हैं? या हर समय फूल? नारियल हर समय थोड़ी ही लगा रहता है, एक समय आता है न? खेल-खेल में एक दिन ऐसा आता है कि फूल खिल गया, नारियल लग गया। वैसे ही मिट्टी के खिलवाड़-खिलवाड़ में, खिलवाड़-खिलवाड़ में एक दिन ऐसा होता है कि मिट्टी ‘पूजा जी’ बन जाती है। और ‘पूजा जी’ बनते ही क्या बोलती है? ‘मैं’। अब फिर ये जो व्यवस्था बनती है, वो एक दिन झड़ जाती है। सारे नारियल क्या करते हैं?

प्र: मिट्टी हो जाते हैं।

आचार्य: अरे! पहले गिरते हैं। जाकर वहाँ पार्किंग कर रहे थे गोवा में, वो बार-बार आकर रोकें—‘यहाँ मत करो’। ‘क्या?’ बोले, ‘ये नारियल का पेड़ हैं इनके नीचे नहीं पार्किंग करनी होती।’ वो हमसे ज़्यादा प्रकृति समझता था, बोलता था, ‘ये गिरेगा, आया है सो जाएगा। और बड़ा भारी है, मस्त नारियल है ये।’

समझ में आ रही है बात?

वो गिरता है न, वही मृत्यु है, और कुछ नहीं है मृत्यु। गिर जाना, गिर जाना, गिरे हैं, कुछ निकल नहीं गया बाहर से, बस गिर गयी, व्यवस्था थी वो गिर गयी, फूल झड़ गया, नारियल गिर गया। और फिर उठेगा वो, मिट्टी ऐसी है कि एक बार नारियल गिर भी जाये तो दोबारा उठता है; मिट्टी ही ऐसी है, बात मिट्टी की है। तो कोई चिरैया नहीं है जो भीतर से चाँय-चाँय बोलती है और फिर आप मरेंगी तो जाकर कुछ और बन जाएगी।

निराशा के लिए माफ़ी चाहता हूँ, एक ही जन्म है, इसको सार्थक कर सकती हैं तो कर लीजिए। और सार्थकता इसी में है कि इस भाव से, इस अज्ञान से मुक्त हो जाया जाए कि ‘मैं हूँ’; यही मुक्ति है, इसी में जन्म की सार्थकता है।

किसी तरीक़े से इस भ्रम से, इस इल्यूजन से आज़ादी मिल जाए कि 'मैं हूँ'। और 'मैं हूँ' से आजादी का मतलब होता है— तीन मालिकों से आज़ादी। क्योंकि इन्हीं तीन मालिकों ने हमें 'मैं' बना रखा होता है, इन्हीं तीन मालिकों ने नाम दे रखा होता है ताकि हम नौकर बने रहें। वरना पुकारेंगे कैसे?

सोचिए, आपके नौकर का कोई नाम नहीं है; आप कैसे बुलाओगे? क्या बोलोगे—ऐ, हू, कुछ भी? अजीब लगेगा न? ‘ऐ’ बोलकर भी यदि वो आ रहा है तो उसका नाम 'ऐ' हो गया। तो इन मालिकों ने हमें नाम दिया है ताकि ये हमें बुला-बुलाकर हमसे काम करा सकें।

मुक्ति का मतलब है— इन तीन से आज़ादी। किससे?

प्र: शरीर, समाज, संयोग।

आचार्य: शरीर, समाज, संयोग — ये तीन मालिक हैं। अब ये आज ऐसे ही मैंने भी संयोग से ही ये तीन बोल दिया। किसी और दिन चार बोल दूँगा, किसी दिन दो बोल दूँगा। तो ऐसा नहीं कि इन तीन का बहुत पवित्र आँकड़ा है, पर आज के लिए ठीक है ये। शरीर, समाज, संयोग; ये तीन मालिक हैं। ये तीन मालिक मिलकर के 'मैं' की रचना करते हैं। वो 'मैं' कुछ नहीं है, मिट्टी ही 'मैं' है, मिट्टी ही 'मैं' है।

ठीक है?

और अहम् वृत्ति बार-बार जन्म लेती है, इसका मतलब मिट्टी कहीं भी रहे, वो मौक़े की तलाश में है, घास उगेगी। मिट्टी कहीं भी है, वो मौक़े की तलाश में है, घास—ये वृत्ति कहलाती है, टेंडेंसी है। मिट्टी की टेंडेंसी है कि वो ‘मैं’ बनेगी। वो प्रतीक्षा कर रही है। कई बार वो प्रतीक्षा कल्पों तक कर सकती है। कि क्या किया? मिट्टी चार लाख साल से इंतज़ार कर रही थी। ऐसी मिट्टियाँ हैं।

अब उदाहरण के लिए अगर आप जाएँगे, आप आर्कटिक चले जाइये, वहाँ ग्लेशियर के नीचे है मिट्टी; उस पर कभी कुछ उगा? वो कितने सालों से ग्लेशियर के नीचे है? वो लाखों सालों से ग्लेशियर के नीचे है। आपको मालूम है क्या होगा अभी ये जो क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन) हो रहा है? सब ग्लेशियर पिघलेंगे, वहाँ घास उग आएगी। बहुत ख़तरनाक बात है, क्योंकि मिट्टी आएगी काले रंग की, और जो काला रंग होता है वो हीट (गर्मी) को एब्जॉर्ब (सोखना) करेगा। जब तक वहाँ पर बर्फ़ थी तब तक जो सूरज की किरण पड़ती थी वो परावर्तित होकर वापिस चली जाती थीं।

बर्फ़ हीट (ऊष्मा) नहीं एब्जॉर्ब (अवशोषित) करती है, पर अब जब बर्फ़ पिघल जाएगी तो नीचे मिट्टी निकलकर आएगी। मिट्टी काले रंग की है, और मिट्टी के जो थर्मल वैरिएबल्स (तापीय चर) हैं वो भी बर्फ़ से अलग हैं। पानी की हम जानते हैं न, स्पेशिफिक हीट (विशिष्ट ऊष्मा) काफ़ी हाई (उच्च) होती है, वो आसानी से नहीं गर्म होता। मिट्टी आसानी से गर्म हो जाती है, मिट्टी तो थर्मल इन्सूलेटर (ऊष्मा का कुचालक) है। तो वहाँ पर घास निकलेगी अब। करोड़ों साल बाद अब आर्कटिक पर घास निकलेगी। मिट्टी क्या कर रही थी इतने दिनों से?

प्र: इंतज़ार।

आचार्य: “हम इंतज़ार करेंगे तेरा क़यामत तक, ख़ुदा करे कि क़यामत हो और तू आये।" लीजिए हो गयी क़यामत। ये क्लाइमेट चेंज क़यामत नहीं है तो क्या है? और आ गयी तू, तू माने—घास। उसका नाम ही यही होना चाहिए घास का— तू घास। ये मिट्टी प्रतीक्षा में रहती है, 'मैं' बोलने की प्रतीक्षा में। 'मैं' सुनकर के भ्रम में मत पड़ जाइएगा कि कोई नयी वस्तु आ गयी है, वो मिट्टी ही है।

इसीलिए कृष्ण आपको बार-बार बोल रहे हैं कि जड़ और चेतन में अन्तर मत करो। जड़ और चेतन में अन्तर न करो। आज का जो श्लोक है, उसको दोहराइए और अच्छे से याद रखिएगा—

प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वशः। अहङ्कारविमूढ़ात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।।"

वास्तविकता ये है कि प्रकृति के तीन गुणों से उत्पन्न शरीर और इन्द्रियों के द्वारा ही संसार के सब काम होते हैं। लेकिन अहंकार से अन्धा मनुष्य सोचता है 'मैंने किया'।

(श्रीमद्भगवद्गीता– अध्याय ३, श्लोक २७)

सब काम प्रकृति के गुण कर रहे हैं, लेकिन ये जो भीतर अहंकार है, ये सोचता है 'मैं कर रहा हूँ'। ये अहंकार है ही नहीं, जो सोचे कि अहंकार है, वो विमूढ़ है, अहंकारविमूढ़ात्मा है वो।

मान्यता है बस तुम्हारी कि तुम हो, जीवात्मा ही अहंकार है, अहंकार ही जीवात्मा है और दोनों मिथ्या हैं, दोनों में से किसी का भी अस्तित्व नहीं है। मिट्टी ही 'मैं' है, इसीलिए श्रीकृष्ण दोनों को एक ही नाम दे देते हैं 'प्रकृति'। वो कहते हैं, जिसको तुम चेतन बोल रहे हो, जड़-चेतन का जो द्वैत है, श्रीकृष्ण उसको गिरा देते हैं।

श्रीकृष्ण का दर्शनशास्त्र को बहुत बड़ा योगदान है कि जो क्लासिकल डुअलिटी (शास्त्रीय द्वैत) चलती है जड़ और चेतन की—भारत में भी चली है, ग्रीस (यूनान) में भी चली है। जब भी कहा गया है कि दुनिया क्या है, तो वहाँ तत्व ऐसे बताए गये—एक जड़ तत्व है, एक चेतन तत्व है। ये यूनानी दर्शनों में भी है और ये भारतीय दर्शनों में भी आप पाते हो कि जब तत्वों की गणना की जाती है, तो उसमें जड़ तत्व ऐसे, चेतन तत्व ऐसे गिना जाता है।

श्रीकृष्ण ने आकर गिरा ही दिया, सांख्य योग भी अटक गया था न, कि पुरुष होता है, प्रकृति होती है। पुरुष माने ‘चेतन तत्व’, प्रकृति माने ‘जड़ तत्व’। श्रीकृष्ण सांख्य योग से भी आगे निकल गये। श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘एक ही तत्व है, प्रकृति के अलावा कोई तत्व नहीं, मात्र प्रकृति है, मात्र प्रकृति है। जिसको तुम चेतना कहते हो उसको अधिक-से-अधिक तुम कह दो 'परा प्रकृति' और जिसको तुम जड़ कहते हो उसको अधिक-से-अधिक तुम कह दो 'अपरा प्रकृति'। लेकिन हैं दोनों प्रकृति ही, प्रकृति के अलावा कुछ नहीं है। जिसको तुम चेतना कहते हो उसको प्रकृति जानो।’

मिट्टी ही 'मैं' है, प्रकृति ही चेतना है, मिट्टी ही 'मैं' है। तो 'मैं' कहीं चला नहीं जाता, 'मैं' का क्या होता है, मृत्यु में क्या होता है? वो 'मैं' तो मिट्टी में ही था, वो मिट्टी में ही चला गया। आप पूछेंगे कि वो जो इंसान था जो 'मैं' बोलता था वो कहाँ चला गया, कहाँ चला गया, कहाँ चला गया? वो गंगा में मिल गया, वो गंगा में मिल गया, वो गंगा में मिल गया।

और वो फिर उठेगा, वो फिर उठेगा, लेकिन वैसा ही नहीं उठेगा जैसा पहला उठा था। क्योंकि पहले जब वो उठा था, तो वो प्रकृति का एक संयोग था कि पाँच-दस तरीक़े के तत्व आये थे तो एक प्रकार का पुतला खड़ा हुआ था। अब उसके जो अणु-अणु, अणु-अणु, अणु-अणु, अणु हैं सब पूरे वातावरण में फैल गये हैं, पानी में फैल गये हैं, खेतों में फैल गये हैं। अब जब वो उठेगा तो कुछ अणु इधर के, कुछ अणु उधर के मिलकर अब एक नयी शक्ल में उठेगा, एक दूसरे तरीक़े से उठेगा, वो उठेगा लेकिन।

कोई कहीं चला नहीं गया है, मिट्टी से आया था, मिट्टी हो गया है, मिट्टी फैल गयी है। एक दिन आएगा मिट्टी प्रतीक्षा में रहेगी और एक दिन आएगा कि संयोग फिर साक्षात होंगे, और साकार होकर के एक नये पुतले के रूप में वो खड़ा हो जाएगा। आवश्यक नहीं है कि वो पुतला मनुष्य का हो, वो पुतला घास का हो सकता है। वो कुछ भी हो सकता है, पर मिट्टी का तो काम है उठना, क्योंकि मिट्टी में क्या है? अहम् वृत्ति। मिट्टी में अहम् वृत्ति है, 'मैं' बोलने की बड़ी वृत्ति है उसमें।

तो मृत्यु हो जाये तो कुछ कहीं चला नहीं गया है, वो सबकुछ जो है, अब वो जा रहा है न पानी में, अब वो जाएगा वो समुद्र में मछली बन जाएगा। अब वो जा रहा है न खेतों में, अब वो खेतों में जाएगा और फसल बन जाएगा, कहीं पर फूल बन जाएगा, कहीं पर पक्षी बन जाएगा, कहीं कुछ और बन जाएगा। लेकिन वैसा ही कुछ नहीं बनेगा जैसा वो था। न जो वो अब जो नये रूप लेगा, उन रूपों का पुराने रूप से कोई सम्बन्ध है। कोई सम्बन्ध है क्या?

हमारे खरगोश मर गये, हमनें उनको दफ़न कर दिया। उनके ऊपर हमनें फूल लगा दिये, बड़े सुन्दर गुलाब के फूल आ गये। उन गुलाब के फूलों का खरगोशों से क्या सम्बन्ध है? कुछ भी नहीं। लेकिन वो उठे खरगोश की मिट्टी से ही हैं।

समझ में आ रही है बात?

प्र: जी। धन्यवाद, आचार्य जी।

प्र२: नमस्कार, आचार्य जी। इस पर एक प्रश्न था कि नारियल के उदाहरण को लेते हुए, नारियल ज़मीन पर गिर गया है और मिट्टी बन गया है फिर से। अपने जीवनकाल में, नारियल ने कुछ प्रयास किया है कि वो अपनी वृत्तियों को कम करे। अब जब वो गिरता है तो वो मिट्टी का रूप ले लेता है। मिट्टी बनने के बाद अगली बार उसमें वापस पेड़ बन जाने की वृत्ति तो मौजूद रहती ही है। वो नया पेड़ या नया नारियल क्या उन्हीं वृत्तियों से आएगा या अनेक वृत्तियों के मिश्रण से?

आचार्य: नहीं, नहीं, जो प्रकृति का खेल है वो तो चलता ही रहेगा। और कोकोनट (नारियल) गिरा है, कोकोनट (नारियल) गिरा है, आइ (मैं) थोड़े ही गिर जाता है, आइ (मैं) थोड़े ही गिर जाता है। आइनेस (मैं पना) जो है ' आइनेस ', जो आइनेस (मैं पना) है वो तो एक मिथ्या चीज़ है न, वो उसके भीतर बस एक टेंडेंसी की तरह रहती है। उदाहरण के लिए— आपमें टेंडेंसी है कि आप सोचें स्वर्ग के किसी महल के बारे में।

आपके भीतर कोई टेंडेंसी है, इससे वो स्वर्ग में महल खड़ा थोड़े ही हो गया है। वैसे ही मिट्टी के हर कण में टेंडेंसी है आइ के बारे में सोचने से। होगी टेंडेंसी , उससे आइ कोई सार्थक चीज़ थोड़े ही हो गयी, आइ कोई सार्थक चीज़ थोड़े ही हो गयी। तो प्रकृति का ये खेल लगातार चलता रहेगा, और जो खेल चलता रहता है, उसमें कोई महाज्ञानी भी होगा, मुक्त भी होगा, उसका भी जब शरीर गिरेगा, तो शरीर तो दोबारा जन्म लेगा ही लेगा।

ऐसा कुछ नहीं है कि बुद्ध की अस्थियों से फिर कोई चीज़ पैदा नहीं होती कभी। न-न, न-न, न! बुद्ध ने यही तो जान लिया है कि मैं मेरा शरीर नहीं हूँ। तो वो जो शरीर गिरा है जो राख बन गया है, जो धुआँ चला गया है वातावरण में और जो मिट्टी में राख मिल गयी वो तो दोबारा पैदा होगी ही होगी। हमने, आपने जो रोटियाँ खायी हैं, उसमें बुद्ध की अस्थियाँ शामिल हैं। क्योंकि इतने सूक्ष्म अणु मिलते हैं न, वो हर जगह चले जाते हैं। हम जानते हैं—एक मोल में सिक्स इन्टू टेन टू द पावर ट्वेन्टी थ्री इकाईयाँ होती हैं।

तो इसका मतलब है, हमने भी जो रोटियाँ खायी हैं उसमें भी बुद्ध, महावीर सब शामिल हैं। सबके छोटे-छोटे अणु सब बैठे हुए हैं। ठीक है? बुद्ध कौन थे? बुद्ध वो थे जो ‘मैं’ बोलने से बाज़ आ गये। इसका मतलब ये नहीं है कि उनके शरीर की टेंडेंसी ख़त्म हो गयी, शरीर तो अपने हिसाब से चलेगा। इसका क्या है (शरीर की ओर इशारा करते हुए), बार-बार हमनें आज क्या बोला, इसका क्या है?

इसका गुणधर्म है भाई, ये अपने गुणधर्म का पालन करेगा। बुद्ध का शरीर हो, आपका हो, मेरा हो, हम सब का शरीर एक जैसा है। शरीर तो अपने गुणधर्म का पालन करेगा, शरीर नहीं बदल जाने का। लेकिन वो जो भीतर बैठा था जो 'मैं-मैं, मैं-मैं, मैं' करता था वो जान गया कुछ, उसने शरीर की दासता अस्वीकार कर दी। उसने कहा, ‘मैं नहीं चलूँगा, न शरीर पर, न समाज पर, न संयोग पर।’ वो मिट गया, बाक़ी शरीर तो अपने हिसाब से ही चलेगा।

आपको ज्ञान आ जाता है, आप कल तक अज्ञानी थे, आज आपको थोड़ा कुछ ज्ञान होने लग गया, तो क्या आप रोटी खाना बन्द कर देते हो? शरीर तो अपने हिसाब से ही चलता है न? शरीर की सारी क्रियाएँ वैसी ही चलती हैं, दिल अपने हिसाब से धड़कता है, आँखें अपने हिसाब से देखती हैं, कान सुनते हैं, जो भी यहाँ क्रियाएँ चल रही हैं शरीर में, वो तो अपने हिसाब से ही चलती हैं।

ऐसा तो नहीं कि वो बदल जाती हैं। निर्लिप्तता का मतलब है कि देखो कि ये सब अपने हिसाब से चल रहा है, मुझे, मेरा काम बस यही है कि मैं अगर उलझ गया हूँ तो सुलझा लूँ।

"मैं कहता सुलझावन हारि, तू रहता उलझाई रे।।" ~ कबीर साहब

मेरा काम ये नहीं है कि मैं कुछ करके दिखाऊँगा, मेरा काम ये है कि मैं जो कुछ कर रहा हूँ, मैं उससे बाज आ जाऊँ, मैं बाहर आ जाऊँ। मैं सुलझा दूँ, चीज़ें उलझी हुई हैं। मैं मंच पर पैदा हुआ हूँ, मुझे मंच से नीचे उतरना है। मंच प्रकृति का है, प्रकृति को अपना काम करने दो। मेरे लिए यही पर्याप्त था कि मैं मंच पर पैदा हो गया, यही पर्याप्त दुर्भाग्य है। अब मुझे ये नहीं करना है कि मैं मंच पर प्रकृति में और अड़ंगा अड़ाऊँ, किसी के साथ नाता बनाऊँ।

मेरा काम है नीचे उतर आना, द्रष्टा बन जाना। वहाँ अपना आराम से बैठकर के आनन्द लेना। आप समझ गये हों तो ही हटिएगा, नहीं तो पूछ सकते हैं आप आगे (प्रश्नकर्ता से कहते हैं)।

प्र: हाँ, आचार्य जी। अब मेरा यहाँ पर क्वेश्चन (प्रश्न) है कि अगर प्रोग्रेस (प्रगति) कम्पलीट विटनेस (पूर्ण साक्षित्व) तक न आ गया, बीच में ही रुक गया तो क्या होगा उसका?

आचार्य: तो कुछ नहीं, यही होगा कि जितना दुख मिलता जीवन में, उससे थोड़ा कम मिलेगा। पास हो जाओगे, फिर क्या। यहाँ तो काम तो आगे बढ़ता ही रहना है ऐसा थोड़े ही। जैसे बच्चों के आजकल होता है न, किसी को फेल (अनुत्तीर्ण) नहीं किया जाता, तो यहाँ भी यही है। जो होना है, वो तो होगा ही। कक्षा दो से कक्षा तीन में आ ही जाओगे, बस कम सीखकर आओगे। मरना है तो मरना है ही, बस ये है कि जीवन का जो आनन्द मिल सकता था, वो आनन्द कम मिलेगा।

समझ में आ गयी है बात आपको?

प्र: समझ गया, आचार्य जी।

आचार्य: हटिएगा नहीं, क्योंकि ये मुद्दा ऐसा है कि मैं नहीं चाहता हूँ कि क्योंकि ये सब करने के बाद आप फिर से भूत-प्रेत और इन चीज़ों में?

प्र: नहीं, नहीं, आचार्य जी, समझ गया, धन्यवाद।

आचार्य: मुक्त मैं उसको मानता हूँ जिसके आगे अगर भूत खड़ा हो जाये, तो वो उसको बोले, ‘तू नहीं है।’ वो भूत को एक एक्जिस्टेंशियल क्राइसिस (अस्तित्वगत संकट) दे दे। ये नहीं कि ख़ुद के एक्जिसटेंस (अस्तित्व) पर उसे डर लगने लग गया कि अब मैं बचूँगा कि नहीं। आदमी वो है जिसके सामने कोई चीज़ अगर भूत बनकर आये, तो वो उस चीज़ को बोले, 'तू नहीं है।'

ये न हो कि तू है तो कहीं मैं न होऊँ, यही इस बात का अर्थ है कि भूत-पिशाच निकट नहीं आवे। हनुमान जो हैं, अगर आप ग़ौर से पढ़ेंगे विशेषकर ‘अध्यात्म रामायण’, तो हनुमान उसमें एक ज्ञानी हैं, ज्ञानी हैं। और ‘अध्यात्म रामायण’ की रचना ‘श्रीरामचरितमानस’ से और ‘हनुमान चालीसा’ से पहले हुई थी। और तुलसीदास ‘अध्यात्म रामायण’ से बहुत प्रभावित थे। ‘अध्यात्म रामायण’ में हनुमान एक ज्ञानी सन्त हैं। तो ये जो है, 'भूत-पिसाच निकट नहीं आवे' इसका अर्थ ही यही है कि ज्ञान के सामने ये बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि भूत जैसी कोई चीज़ होती ही नहीं है।

चलिए, आगे बढ़िए।

प्र: जी, धन्यवाद।

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