प्रश्नकर्ता: नमस्ते, मेरी उम्र सत्ताईस वर्ष है। भोपाल में अपने परिवार के साथ रहती हूँ। पढ़ाई ख़त्म हो गई है और मैं नौकरी करना चाहती हूँ। मैं घर में बैठकर जीवन को रसोई और बच्चों तक सीमित नहीं करना चाहती। पर जॉब और करियर अभी स्थाई नहीं हो पा रहे हैं। करियर बनाने में मुश्किल हो रही है।
एक तरफ़ जॉब नहीं मिल रही, दूसरी तरफ़ घर में मेरी तीन भाभियाँ हैं और उनको देखती हूँ तो मुझे सेल्फ़ डाउट (आत्म संदेह) होने लग जाता है। तीनों बड़े भाइयों ने शादी कर ली है। उनकी पत्नियाँ लगभग मेरी उम्र की हैं। वो बहू बनकर मस्त ऐश कर रही हैं।
मुझे पापा, भैया से पैसे माँगने में शर्म आती है। पर इन भाभियों को मैं देखती हूँ कि वो अपने पतियों के पैसों पर बिना किसी शर्म के फुल ऐश काट रहीं हैं। इतना ही नहीं, जब मौका मिलता है वो मुझे ताने सुनाती हैं। उनको पूरा विश्वास है कि वही सही ज़िन्दगी जी रहीं हैं और मैं बेवकूफ़ी कर रही हूँ। भाभियों की लाइफ़ स्टाइल देखकर सोचती हूँ कि, जॉब क्या ढूँढना? मैं भी बस शादी कर लेती हूँ, ऐश काटूँगी। मार्गदर्शन करें।
आचार्य प्रशांत: इस मुद्दे पर काफ़ी बोला है। लेकिन ठीक है, एक सवाल और। इस पर जितना बोला जाए उतना कम है।
ये भाभियों ने बड़ा ज़ुल्म ढा रखा है न? एक घर में ही नहीं, मुझे लगता है बहुत सारे घरों में। और ठीक कह रही हो, ये भाभियाँ बड़ा ग़लत उदाहरण, बड़ा विकृत आदर्श बन जाती हैं, कि शादी से पहले एक एकदम आम, साधारण लड़की, ज़्यादा उसने पढ़ाई-लिखाई नहीं करी। बहुत पढ़ाई-लिखाई करने में उसका कभी मन भी नहीं था। कभी उद्देश्य ही नहीं बनाया कि बहुत पढ़ें-लिखें। इस तरह की कोई बात कभी बहुत गंभीरता से ली नहीं कि अपनी रोटी ख़ुद कमानी चाहिए, घर से बाहर निकलना चाहिए, एक वयस्क की तरह जीना सीखना चाहिए, अनुभव लेने चाहिए, किसी पर आश्रित होकर नहीं जीना चाहिए। ये सब कुछ करा नहीं।
क्या किया? वही, घर का काम सीखा। डिग्री पूरी कर ली। जैसा यहाँ पर प्रश्नकर्ता ने लिखा है। और उसके बाद शरीर की थोड़ी ठीक-ठाक देखभाल करी थी। देख-समझकर खाना-पीना खाया था, मोटे नहीं हुए थे। मोटे हो भी नहीं सकते, क्योंकि घर में काम-वाम भी करते थे, तो मोटे होने की ज़्यादा संभावना नहीं है। जब तक शादी नहीं हुई तब तक काम-वाम भी किया था।
और उसके बाद शादी की बात हुई, अपनी सहमति दे दी। शादी हो गई। जिनसे शादी होनी होती है वो भी गुण-ज्ञान देखकर तो शादी करते नहीं। वो भी चेहरा-मोहरा, शरीर ही देख कर शादी करते हैं। तुमने अपना शरीर ठीक-ठाक रखा है तो अच्छा लड़का मिल जाएगा। अच्छा माने? अच्छा कमाने वाला। और अच्छा क्या होता है! तो लड़का मिल गया।
उसके बाद अपना पहुँच गए वहाँ पर। और वहाँ बढ़िया पतिदेव की तनख़्वाह है। वो है ही किसलिए? हमारे लिए ही तो है। खट से एक-दो साल के अंदर बच्चा-वच्चा पैदा कर लिया, तो उससे जो समाज में इज़्ज़त है वो भी बढ़ गई। माँ की तो गरिमा ही अलग होती है। माँ बन गए। और सामने कोई आपके (प्रश्नकर्ता) जैसी लड़की मिल गई, तो उस पर हँसे भी, उसको ताने भी मारे। उसको दबाने-झुकाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। बार-बार उसको जताया कि ‘तू कितनी बेवकूफ़ है कि सत्ताईस साल की हो गई है और अभी तक पढ़ रही है, करियर बनाने की कोशिश कर रही है। तुझसे बड़ा बेवकूफ़ कोई हो सकता है? हमें देख, बाईस-चौबीस में ही मस्त शादी करके आ गए। उसके बाद से हमारी तरक्की-ही-तरक्की हो रही है। समाज में हमारा स्तर बढ़ गया है। और दस किलो वज़न बढ़ गया है। हमारी बढ़ोतरी-ही-बढ़ोतरी हो रही है!‘
कितनी ही बार मैंने महिलाओं से सुना है कि ‘साहब! ये तो छोड़िए कि पुरुष वर्ग महिलाओं का शोषण करता है, महिला की शायद सबसे बड़ी दुश्मन महिला ही है।‘ इन्होंने फिर ये नहीं लिखा है न कि पिताजी ताने मारते हैं या भाई लोग हैं, तीन भाभियाँ हैं, तीन भाई भी होंगे। लगभग!
(हँस दिया करो)
और ये तो नहीं लिखा है कि भाइयों ने ताना मारा है। ये ताने कौन मार रही हैं? भाभियाँ ही मार रहीं हैं। तो स्त्री की दुश्मन भी यहाँ पर कौन बनी बैठी है? स्त्री ही बनी बैठी है। और वो भी कौनसी स्त्रियाँ हैं? पूरा विवरण नहीं दिया है। लेकिन मैं समझता हूँ कि प्रश्नकर्ता से कम पढ़ी-लिखी, कम कुशल, कम समझदार, कम विवेकी।
उनको लेकिन अधिकार मिल गया है कि एक ऐसी लड़की पर व्यंग्य बाण चलाएँ जो आज़ाद जीवन जीना चाहती है। जो अपनी मेहनत से नौकरी पाना चाहती है। ठीक है, अर्थव्यवस्था ही ऐसी है। मैं समझ रहा हूँ कि तुम्हारा अभी करियर पटरी पर नहीं आ पा रहा। पर वो तो लड़कों का भी नहीं आ पा रहा न? एक नौकरी से दूसरी नौकरी में जाते होंगे। अभी कुछ दिन, कुछ साल हो सकता है ऐसा चले। पर देर-सवेर तुम सीढ़ियाँ चढ़ जाओगी। तुम बिलकुल ठीक काम कर रही हो। बस कोई सीढ़ियों पर चढ़ते वक़्त पीछे से पकड़ कर तुम्हारा पाँव ना नीचे खींच ले। और ये तीन लगी हुई हैं।
हमें यहाँ पर भारत के नारी वर्ग के दो चेहरे दिखाई दे रहे हैं। दो चेहरे; एक चेहरा वो है जो शोषित है, और दूसरा चेहरा वो है, जैसा कि प्रश्नकर्ता ने लिखा है, जो पुरुषों के पैसे पर बहुत ऐश मार रहा है। जो किसी भी दृष्टि से शोषित तो नहीं है।
तो जब आप भारतीय स्त्रियों की बात करें तो सबको एक ही रंग में मत रंग दीजिएगा, सबको एक ही दृष्टि से मत देख लीजिएगा। ये बिलकुल बात सही है कि एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है जो ज़िन्दगी में आगे बढ़ना चाहता है, पर उसे अवसर नहीं मिल रहे। रुपया नहीं मिल रहा, पैसा नहीं मिल रहा, शिक्षा नहीं मिल रही, कई बार तो उसे ठीक से खाना भी नहीं मिल रहा। स्त्रियों का एक वर्ग तो निश्चित रूप से ऐसा है। और दूसरी ओर, ख़ासतौर पर पिछले दस सालों में या बीस सालों में स्त्रियों का एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा उभरकर सामने आया है जो सिर्फ़ वही करता है जो प्रश्नकर्ता की भाभियाँ कर रहीं हैं।
क़रीब साल भर पुराना एक वीडियो है जिसमें हमने बात करी है लेबर पार्टिसिपेशन रेट (श्रम भागीदारी दर) की। भारत में महिलाओं के लेबर पार्टिसिपेशन रेट की। अभी उसका मुझे शीर्षक याद नहीं है।
तो वो पूरी चर्चा हुई ही इसी बात पर थी कि पिछले बीस-पच्चीस साल में भारत की अर्थव्यवस्था तेज़ी से आगे बढ़ी है। अभी पिछले दो-तीन साल जो हो रहा है इसको छोड़ दो, कि इसकी बात करने लग जाओ कहाँ बढ़ रही है। कहाँ बढ़ रही है। आँकड़े उठाकर के देखो। नब्बे से दो-हज़ार-बीस तक, १९९० से तीस साल में भारत की अर्थव्यवस्था कई गुना बढ़ गई है। लेकिन जितनी महिलाएँ अनुपात के तौर पर, प्रपोर्शन में १९९० में बाहर काम किया करती थीं, उससे कम महिलाएँ आज काम कर रही हैं।
बल्कि हुआ यह कि जो महिलाएँ पहले काम भी करती थीं, वो काम करना छोड़कर के घरों में वापस आ गई हैं। क्यों? क्योंकि पतियों की तनख़्वाह बढ़ गई है। पतियों की तनख़्वाह बढ़ गई है, तो हमें अब काम क्यों करना है?
मैं नहीं कह रहा हूँ सब महिलाएँ ऐसी हैं। मैं बिलकुल जानता हूँ और मैं चाहता हूँ कि बहुत सारी महिलाएँ प्रश्नकर्ता जैसी हों। लेकिन तथ्यों को नकारा नहीं जा सकता न। सामने आँकड़े रखे हों तो आँकड़ों को झूठ कैसे बोल दूँ? प्रश्नकर्ता की भाभियों जैसी भी बहुत बड़ी महिलाएँ हैं, बहुत बड़ा वर्ग है, जिसको न जाने कहाँ से ये भ्रम हो गया है कि नारी पैदा होने का मतलब होता है घर पर बैठना और पति के पैसों पर ऐश करना।
और जो महिलाएँ मेरी ये बात सुन रही हों, वो अचानक उग्र ना हो जाएँ। आक्रामक ना हो जाएँ, प्रतिक्रिया ना करने लग जाएँ। मैं महिलाओं के ही समर्थन में बोल रहा हूँ। प्रश्नकर्ता लड़की ही है न? मैं उसके समर्थन में बोल रहा हूँ, भाई! और उसका दमन पुरुष वर्ग नहीं कर रहा है। उसका दमन यहाँ महिलाएँ ही कर रहीं हैं। और इस हद तक कर रहीं हैं कि उसकी हिम्मत टूट रही है। वो कह रही है, ‘मैं सोच रही हूँ, मैं भी इन्हीं जैसी क्यों न हो जाऊँ।‘
तो महिलाओं के ये जो दो वर्ग हैं, इनमें भेद करना बहुत ज़रूरी है। जो वर्ग अभी भी दमित है, उपेक्षित है, उसे सहारा दिया जाना चाहिए। लेकिन ये जो नया वर्ग उभर कर आ रहा है, जो करता कुछ नहीं है लेकिन ठसक उसमें पूरी होती है। देखो न यहाँ पर प्रश्नकर्ता कह रही हैं कि ‘ये मेरे ऊपर ताने दे-देकर के चढ़ी रहतीं हैं।‘ उनका आत्मविश्वास देखो।
इन भाभियों का आत्मविश्वास देखो। ना कुछ करना, ना धरना, पति की कमाई पर फैलना और फूलना। और उसके बाद इतना बड़ा मुँह करके धौंस बताना, नारे लगाना, दूसरों को दबाना। ये जो वर्ग उभर कर आ रहा है, इस वर्ग के प्रति सावधान रहने की ज़रूरत है।
आदमी हो कि औरत हो, जो श्रम का महत्व नहीं समझता, जो आज़ादी का महत्त्व नहीं समझता, जो जीवन को स्वतंत्रता के साथ, स्वायत्तता के साथ नहीं जीना चाहता, वो व्यक्ति ठीक नहीं है। जो भी इंसान ऐसी सोच रख रहा है, चाहे आदमी हो चाहे औरत हो, वो इंसान ख़तरनाक है। दुनिया की बुरी-से-बुरी आदत है काम ना करने की आदत। लग गई एक बार तो छूटेगी नहीं।
ये वर्ग अभी छोटा है, ये जो प्रश्नकर्ता की भाभियों जैसा वर्ग है, ये अभी छोटा है। पर बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है, क्योंकि अर्थव्यवस्था में बहुत तेज़ी से पैसा आ रहा है। घरों में पैसा आ रहा है। तीन भाभियाँ हैं, तीन नौकर लगे हुए हैं, घर में क्या करना है? टी.वी. देखना है, और गॉसिप करनी है, और इधर-उधर ज़हर बिखेरना है, यही करना है।
इस तरह की जो महिलाएँ हैं, ये घर के लिए, परिवार के लिए, समाज के लिए, बच्चों के लिए, पूरी दुनिया के लिए बहुत बड़ा अभिशाप हैं। और अगर इस तरह के पुरुष हों, तो पुरुष भी उतना ही बड़ा अभिशाप हैं। इस तरह का जो भी इंसान हो वो इंसान ही ग़लत है। वो इंसान सबके लिए घातक है।