जानना ही मुक्ति

Acharya Prashant

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जानना ही मुक्ति

वक्ता: ‘मैं कंडीशंड हूँ, मैं ग़ुलाम हूँ’। ये अहसास पूरी तरह से अपना होना चाहिए। तीर की तरह घुस जाए अन्दर। ये कोई सुनी-सुनाई बात नहीं है कि कोई बोल दे कि तुम कंडीशंड हो तो बोल दो कि हाँ, आज कल मैं कंडीशंड चल रहा हूँ, और मैं ये सोचूँ कि पता नहीं हूँ या नहीं हूँ। ‘कह रहे हैं तो शायद होऊँगा’। ये ऐसा नहीं है। कंडीशंड का अर्थ जानते हो क्या होता है? कि मशीन हूँ। ‘मैं प्रोग्राम्ड मशीन हूँ। मैं मुर्दा हूँ। जैसे कि मशीन बटन दबाने से चल गयी हो, मैं वैसा हूँ’। जब खुद जाना जाता है तो ये बात दवा की तरह सब गंदगी साफ़ कर देती है और फिर बस एक सुनी-सुनाई बात होती है जिसका कोई असर नहीं रह जाता। वो सब ने पढ़ लिया है।

हमें कुछ चीज़ें दी गई हैं, हमने पढ़ लीं पर उनका गहराई से अनुभव बहुत कम लोगों ने किया होगा। जिन्होंने जितना गहराई से अनुभव किया होगा उन्हें उतना ही लाभ होगा, जिन्होंने नहीं किया होगा वो ऐसे ही ऊपर-नीचे सतह पर चलते रहेंगे और कहेंगे, ‘पता नहीं’! ये कोई यूनिवर्सिटी का पाठ्यक्रम थोड़े ही है जो तुमने रट लिया और किताब में लिख दिया। जब तक तुमने अपनी आँख खोल कर खुद ना देखा तो क्या देखा। फिर वही होगा कि जैसे एक जानकारी दी गयी वो ले ली, उसी प्रकार जिस प्रकार से दूसरी जानकारियाँ लेते रहे हो। कुछ बात बोली गयी, उसे रख दिया। ना जान रहे हो ना समझ रहे हो। याद रखना तीर की तरह घुस जाए ये बात। उसमें दर्द होगा। दर्द इसी बात का होगा कि जीवन अभी तक बेकार साबित हुआ। ‘ये सब जो मैं लेकर घूम रहा था ये सब कितना नकली था’। ठीक है, शुरू में थोडा दर्द होगा।होने दो उस दर्द को। वो दर्द शुभ है। जब गहराई से अपना निष्कर्ष होगा कि ‘मैं कंडीशंड हूँ’ तब तुम ये नहीं कहोगे कि अब मैं मुक्त कैसे होऊँ क्योंकि जानना अपने आप में मुक्ति ही है। तुम मुक्त हो गए। जिस क्षण तुमने ठीक-ठीक अपनी आँखों से ये जान लिया कि मैं कंडीशंड हूँ, मुक्ति हो गयी। अब बचा क्या ? यही तो मुक्ति है। यही मुक्ति है।

पर तुमने जाना नहीं इसलिए ये सवाल पूछ रहे हो, ‘कैसे मुक्त हो जाऊँ?’ तुमने खुद जाना होता तो मुक्त हो गए होते। वो क्षण मुक्ति का ही था।तुम एक नकली माल हाथ में लेकर घूम रहे हो। मान लो कि कोई पत्थर है जो तुम्हें किसी ने पकड़ा दिया था यह कहकर कि हीरा है। अब अगर तुम ठीक-ठीक जान ही गए कि ये पत्थर है, कोई कीमत नहीं है, तो क्या पूछोगे कि इस का क्या करूँ? ‘कैसे मुक्त हो जाऊँ इससे?’ तो क्या करोगे? उछाल कर फेंक दोगे उसे क्योंकि तुम जान गए कि ये पत्थर है। अब ये सवाल ही नहीं बचा कि मुक्त कैसे हो जाऊँ। कैसे मुक्त होना है? जब जान गए कि बेकार है तो फेंक दो। जानते ही फेंक दोगे। जानना ही मुक्ति है।

पर तुमने जाना नहीं है। बहुत कम लोग होंगे जिन्होंने कुछ भी जाना है। जानने के लिए बहुत ज़रूरी है कि अपनी सारी धारणाओं को पीछे रख कर, बस मौजूद हो जाया जाए और वो मौजूदगी तुमको आती नहीं, इसलिए तुम कुछ जान पाते नहीं। तुम कुछ पढ़ते भी हो, तो तुम उसकी तुलना करते हो, तुम उसके साथ विवाद करते हो, तर्कों में उलझते हो। समझने के लिए उसमें डूबते नहीं। समझने का अर्थ स्वीकारना नहीं है। समझने का अर्थ है पूरे सम्पर्क में आना ताकि जान सको कि कहा क्या जा रहा है। तुम सम्पर्क में आ नहीं पाते।बस ऐसे ही उलझे-उलझे, बिखरे-बिखरे से रहते हो। अभी भी कई लोग ऐसे ही हैं। उनका मन घूम रहा है, कभी इधर कभी उधर। अब तुम्हें कुछ समझ में ना आये, तुम्हारा अपना बोध ना उठे तो इसमें क्या ताज्जुब है, तुम्हारा मन वो माहौल नहीं तैयार कर पा रहा जहाँ जाना जाता है। जाना जाता है ध्यान की स्थिति में। और मन जब तक ध्यान नहीं करेगा, तुम कुछ नहीं जान पाओगे। जानना ही मुक्ति है। जान जाओ फिर अपने आप मुक्त हो जाओगे। फिर कुछ नहीं करना।

-‘संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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