इतना धोखा खुद को क्यों देते हैं हम? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

Acharya Prashant

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इतना धोखा खुद को क्यों देते हैं हम? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2021)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। आचार्य जी, मैं दान के विषय में चर्चा करना चाह रहा था। दान अगर स्वार्थ के संकल्प से किया जा रहा है तो उसको बंधन बताया है। तो अगर कोई व्यापारी अपने व्यापार को बढ़ाने के लिए, मार्केटिंग (प्रचार) के उद्देश्य से कहीं दान देता है और वो ख़ुद भी उसको दान नहीं मानता; ख़ुद भी उसे पता है कि इससे कोई मुझे मुक्ति नहीं मिलेगी, तो क्या ये भी उसके लिए एक बंधन का कारण बन सकता है?

आचार्य प्रशांत: ये छोटा बंधन है। कम-से-कम ईमानदारी से मान तो लिया कि ये सबकुछ मैं व्यापार बढ़ाने के लिए कर रहा हूँ। आप कोई साधारण या निम्न कोटि का कर्म करो लेकिन आप सत्यनिष्ठा से स्वीकार कर लो कि ये जो कर्म है, ये है तो मेरे स्वार्थ के लिए ही, तो नुक़सान कम होगा। होगा अभी भी। क्यों कर रहे हो ऐसा काम? अगर स्वार्थ के लिए है तो किया ही क्यों? तो नुक़सान अभी भी होगा लेकिन सीमित होगा।

प्रगाढ़ नुक़सान तब होता है जब काम किया जाता है स्वार्थ के लिए, पर स्वयं को प्रदर्शित किया जाता है परमार्थ। दूसरों को नहीं कहा। दूसरों को तो हम बाद में जताते हैं। दूसरों को भी अगर तुम बुद्धू बनाओ पर स्वयं जानते हो कि ये काम स्वार्थ के लिए था तो भी कम नुक़सान होगा।

सबसे अधिक नुक़सान तब होता है जब दूसरों को तो बनाया ही, स्वयं को भी बना लिया। उसके लिए उपयुक्त शब्द अंग्रेज़ी में है, उसे ईविल (शैतान) कहते हैं फिर, जहाँ पर आप स्वयं को ही झाँसा दिये रहते हो।

आज से दो-तीन साल पहले तक हम एक अवसर दिया करते थे, एमटीएम नाम से (मीट द मास्टर )। तो उसमें लोग आते थे और व्यक्तिगत रूप से मुझसे बातचीत करते थे। फिर इतने ज़्यादा उसमें आने लगे कि वो रोक दिया गया। इधर व्यस्तता बढ़ भी गयी थी।

तो उसमें बहुत बार ऐसा होता था कि लोग आते तो थे अपनी समस्याएँ लेकर ही, जिसके पास समस्या नहीं होगी वो इतनी तकलीफ़ क्यों उठाएगा कि कहीं से उठकर आये, कुछ करे, बैठे? आते तो थे लोग समस्याएँ लेकर ही और बहुत दुखी होते थे, रो ही पड़ते थे।

सचमुच रो रहे हैं, वो सचमुच दुखी हैं और मैं काँप सा जाता था ये देख करके कि वो रोते हुए भी जो बोल रहे हैं वो झूठ है। बिलकुल टूट गये हैं, हालत ख़राब है, रो रहे हैं, लेकिन रोते हुए भी झूठ बोल रहे हैं। उदाहरण के लिए, ‘मैंने ज़िन्दगी में कभी किसी का बुरा नहीं चाहा। फिर भी मेरे साथ ये सब क्यों हो रहा है, आचार्य जी?’ और मैं अवाक् देख रहा हूँ — क्या कर रहे हैं?

थोड़ा सा निष्ठुर होना पड़ता है ऐसे समय में उसको झँझोड़ कर कहने के लिए कि देखो बेटा, तुम अभी भी झूठ बोल रहे हो। मैं अक्सर कह भी न पाऊँ। और ये बहुत बार सुनने को मिला, लगभग हर बार, ‘मैंने तो कभी किसी का बुरा नहीं चाहा।’ अब टप-टप टप-टप (आँसुओं के गिरने को इंगित करते हुए)। ‘फिर भी मेरे साथ इतना बुरा क्यों हो रहा है?’

और मैं उसकी कहानी जानता हूँ, उसी के मुँह से जानता हूँ। उसकी कहानी में स्वार्थ ऊपर से लेकर नीचे तक भरा हुआ है। लेकिन रोते हुए कह रहा है कि... और इतना रोने के कारण उसके अहंकार को एक चीज़ और मिल गयी है — नैतिक बल।

‘मैं अच्छा आदमी हूँ और मेरे साथ बुरा हुआ, देखो, मैं रो रहा हूँ न।’ सुन रहा है तू, रो रहा हूँ मैं। (श्रोतागण हँसते हैं)

‘आदमी अच्छा हूँ, मेरे साथ दुनिया ने बुरा करा है।’ तो मोरल अप्परहैंड (नैतिक ऊपरी हाथ) भी मिल गया मुझे। रोते हुए लोग बहुत ख़तरनाक होते हैं।

‘आचार्य जी, मैंने उससे इतना प्यार किया, इतना प्यार किया, इतना प्यार किया, फिर भी उसने मुझे धोखा क्यों दिया?’ देवी जी, मैं आपका झूठ तो बंद नहीं कर सकता, मैं एमटीएम ही बंद कर देता हूँ। मैंने बंद ही कर दिया। (श्रोतागण हँसते हैं)

मैंने कहा मेरी तबियत ख़राब होने लग जाती है। क्योंकि मेरी आदत नहीं है मेरे सामने कोई बैठकर धड़ल्ले से झूठ बोले और मैं झेलता जाऊँ। लेकिन अब वो रो रही हैं, रो रही हैं, रोये ही जा रही हैं। और रो-रो कर झूठ बोल रही हैं। वो मुझे धोखा नहीं दे रही थीं, उन्हें सचमुच लगता था कि उन्होंने निस्वार्थ प्रेम किया है। ये ईविल (बुराई) है।

वो मुझे धोखा बिलकुल भी नहीं दे रही थीं। उन्हें वाक़ई ये लगता था कि उन्होंने जीवनभर अपने परिवार से, दुनिया से, बच्चों से, पति से, निस्वार्थ प्रेम ही किया है।

अब या तो मैं बड़ी मेहनत करके उनको ये समझाऊँ कि देखो, तुमने किसी से कभी भी निस्वार्थ छोड़ दो, प्रेम भी नहीं किया है। ये समझाना बहुत श्रम लेता है। इतना श्रम मैं हर बार नहीं कर पाता। और ये समझाने में ख़तरे भी उठाने पड़ते हैं।

तो मुझे फिर ये चुनाव करना था कि मैं एक व्यक्ति के साथ ख़तरा उठाऊँ या पूरा मिशन चलाऊँ। क्योंकि जब आप अहंकार को बताते हैं कि वो स्वयं को ही धोखा देता रहा है, जब आप ईविल के चेहरे से नक़ाब उतारते हैं, तो वो ख़ून का प्यासा हो जाता है। और सबसे पहले वो कहाँ पंजे मरना चाहता है? जिसने नक़ाब उतारा हो।

तो जब दो-चार दर्जन बार मैंने पंजे खा लिए, मैंने कहा मुझे करना ही नहीं है। एक के लिए मैं पूरा मिशन दाँव पर नहीं लगा सकता।

वो वापस लौट कर जाएँ, कहें वापस जाकर चार दिन बाद ख़बर आयी कि उनकी तबीयत बहुत ख़राब हो गयी है। वो आईसीयू में हैं। उन्होंने चूँकि अपने पति से हमेशा बहुत प्यार किया है इसलिए पति अब बंदूक लेकर आपको ढूँढ रहे हैं कि किसने मेरी प्राण-प्यारी को आईसीयू में भेज दिया। मैंने कहा तुम जानो, तुम्हारे पतिदेव जानें। मैं पड़ ही नहीं रहा इसमें। जियो अपने झूठ के साथ।

तो इस तरह के कुछ छोटे-छोटे सबक मैं सीखता चला गया।

सच सबके लिए नहीं होता। जो गिड़गिड़ा कर माँगे, उसी के लिए होता है। जो बिलकुल नाक रगड़ कर माँगे, उसके लिए होता है।

जिसकी आदत ख़ुद को धोखा देने की हो, उसे सच दे दोगे, वो तुम्हारी गर्दन पकड़ लेगा। अपनी गर्दन पकड़वाने को तैयार हो तो अलग बात है। मैं तैयार हूँ, पर हमेशा नहीं।

मैं बहुत दूर निकल आया क्या? ये बात शुरू कहाँ से हुई थी? कहाँ से शुरू हुई थी?

प्र: दान।

आचार्य: तो जो लोग खुलेआम बुरे हैं, वो कम बुरे हैं। जहाँ बुराई बिलकुल अच्छाई का नाम ही ले चुकी है, वहाँ बचना। किसी से मत बोलिए आप कैसे हैं, पर स्वयं से ज़रूर बोलिए। कोई आवश्यकता नहीं है कहीं जाकर कनफेशन (स्वीकारोक्त्ति) वग़ैरा करने की, कुछ नहीं। आपको अंततः जीना तो अपने साथ है, देखिए। और तो कोई साथी नहीं होता। कम-से-कम स्वयं से झूठ बोलना बिलकुल छोड़ दीजिए।

प्र२: आचार्य जी, जब हम अच्छे-बुरे कर्मों को देखें, तब उस समय हमारी सोच कैसी होनी चाहिए? क्योंकि बुराइयाँ तो हममें सबसे ज़्यादा हैं, तो हम बाक़ियों के कर्मों को कैसे देखें?

आचार्य: अपना तो देखिए न! क्या कहा, शुरुआत अपने से करिए। शुरुआत स्वयं से करिए। किसी और के बारे में धोखा खा सकते हैं, अपने बारे में कम संभावना होती है। तो पता रहता है क्या चल रहा है।

प्र२: जैसे वज़न तोलने वाली मशीन वज़न नहीं नाप सकती अपना ही। और आँख अपनेआप को नहीं देख सकती, तो हम अपनेआप को कैसे देखें और अपने झूठों को कैसे पकड़ें?

आचार्य: आपको स्वयं को नहीं देखना है। देखने वाला, दृश्य से अलग है। इसी को कहते हैं— दृग दृश्य विवेक। अहंकार को जो देखता है वो अहंकार नहीं है। इसीलिए उसको दूसरा नाम दिया गया है — साक्षी।

वज़न तोलने वाली मशीन स्वयं को नहीं देख सकती, आँख स्वयं को नहीं देख सकती पर आप जब स्वयं को देखते हैं तो आप, आप नहीं रह जाते। आप स्वयं को देख ही तब सकते हैं जब आपमें और आपमें एक दूरी आ गयी हो। आप जिसको देख रहे होते हैं, उसका नाम होता है ‘अहंकार’ और जो देखने वाला होता है, उसका नाम होता है 'साक्षी'। तो ये दो अलग-अलग होते हैं। इसलिए स्वयं को देखना संभव है।

प्र३: प्रणाम, आचार्य जी। मेरा प्रश्न है कि सत्र सुनते समय बीच में नींद आने लगती है। तो ये शरीर का विरोध है या मन का विरोध है या दोनों का विरोध है जो सुनने नहीं दे रहा है?

आचार्य: हैं बहुत सारे करते रहते हैं विरोध। क्या करना है? अपना काम करना है न? विरोध तो मन का ही होता है। मन ताक़तवर हो तो शरीर भी अधिक कुछ नहीं कर पाता। मन ताक़तवर हो तो शरीर को समझता है। तो बात तो मन की ही है।

हमें कहना ये है कि हम सुनते हैं क्योंकि ये समझ गये कि सुनना अच्छा है। तो ये तो कह ही नहीं सकते कि हम नहीं सुनते हैं। तो सुनने तो बैठेंगे। लेकिन वृत्तियाँ हैं भीतर जो सुनने देंगी नहीं। ये खेल चलता है, लंबे समय तक चलता है। इसको चलने दो। सोते रहो, जगते रहो। सोते रहो, जगते रहो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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