इस गिरते हुए समाज में मेरे लिए सही कर्म क्या है? || आचार्य प्रशांत, कृष्णमूर्ति पर (2017)

Acharya Prashant

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इस गिरते हुए समाज में मेरे लिए सही कर्म क्या है? || आचार्य प्रशांत, कृष्णमूर्ति पर (2017)

प्रश्नकर्ता: गिरते हुए समाज में मेरा सही कर्म क्या है?

आचार्य प्रशांत: समाज या दुनिया क्या है? हम हैं, आप हैं; जैसे हम हैं, आप हैं, वैसा ही संसार है। अगर आप समाज को और संसार को गिरता हुआ पाते हैं, तो उसका कारण यही है कि इंसान गिर रहा है, हम और आप गिर रहे हैं। ऐसा तो नहीं हो सकता कि इंसान उठा हुआ रहे, और समाज पतित रहे। उर्ध्गामी है अगर मनुष्य, तो अधोगामी तो नहीं हो सकता न मनुष्य का समाज?

और जब समाज गिर रहा होता है, तो उसका अपना एक वेग होता है। गिरता हुआ समाज औरों को और गिराता है, अपने साथ गिराता है। गिरते हुए समाज के मध्य में अगर आप बैठे हैं तो आपका धर्म है कि अपने आस पास गिरती हुई चीज़ों, इंसानो और व्यवस्थाओं के साथ आप स्वयं भी न गिर जाएँ। यही धर्म है आपका।

कृष्णमूर्ति पूछ रहे हैं, “क्या करें इस गिरते हुए संसार में?” स्वयं न गिर जाएँ। जैसे गिरते हुए का वेग होता है, एक कर्षण होता है कि वो औरों को भी अपने साथ नीचे खींच लेना चाहता है, गिरा लेना चाहता है। ठीक उसी तरह से न गिरने का भी अपना एक कर्षण होता है, उसका भी अपना एक महत्व होता है।

जैसे समझ लीजिए कि गिरना संक्रामक होता है, न गिरना भी संक्रामक होता है। दस लोग मूर्खताएँ कर रहे हैं, तो ग्यारहवें पर भी प्रभाव पड़ता है मूर्खता करने का। पर अगर ग्यारहवाँ अडिग रहे और अपने आप को प्रभावित न होने दे, तो इस ग्यारहवें का बाकी दस पर भी प्रभाव पड़ता है।

यही धर्म है आपका, कि जब दस लोग मूर्खता कर रहे हों, तो आप मूर्खता न करें। आप मूर्खता न करें तो उन दस के सुधरने की संभावना बढ़ जाती है।

एक फिल्म है जो मैं कई बार देख चुका हूँ, मेरे ख्याल से “ट्वेल्व एंग्री मेन” नाम है उसका। उसमें एक मुक़दमा चल रहा है एक लड़के के ख़िलाफ़। जो लोग जज बन कर बैठे हैं वो पूर्वाग्रह ग्रस्त हैं। एक अकेला है जो कहता है “मैं जानता नहीं, मैं जानना चाहता हूँ, मैं पहले से ही धारणा नहीं बनाऊँगा, ज़रा मुझे बताओ।”

तो जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, और वो एक व्यक्ति तय करता है कि, "मुझे पूर्वाग्रहों के आकर्षण में गिरना नहीं है। मुझे बने रहना है, मुझे बचे रहना है। मुझे अपनी निष्पक्षता बरक़रार रखनी है।" वैसे-वैसे उस एक के सामीप्य के कारण, उस एक की उपस्थिति के कारण, बाक़ी सब लोग भी धीरे-धीरे सुधरने लग जाते हैं। यही समाज में धर्म है आपका। आप सुधरे रहिए, आपको देखे-देखे और लोग भी सुधर जाएँगे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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