प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। मैं आज तक सुनता आया हूँ इस तरह की बातें कि किसी को ईश्वर की प्राप्ति हो गई, किसी ने सत्य को पा लिया। तो मेरे मन में ये प्रश्न आ रहा है कि – ईश्वर से जब किसी मनुष्य का साक्षात्कार हो जाता है, तो अनुभूति कैसी होती है? आचार्य जी, आपका इस बारे में क्या अनुभव रहा है? हमारे जीवन में जो कुछ भी घटित होता है, वो क़िस्मत है, या हमारे कर्म, या हमारी सोच?
आचार्य प्रशांत: ईश्वर ‘चना जोर गरम’ थोड़े ही है कि किसी को खिलाकर पूछो कि – “कैसा लगा?” क्या पूछ रहे कि – “तमाम लोगों ने ईश्वर को पाया और कहा, ‘हमने ईश्वर को पा लिया’, तो आचार्य जी, आपको कैसा स्वाद आया?”
ईश्वर प्राप्ति का कोई अनुभव नहीं होता। अनुभव तो सारे किसी अनुभव करने वाले को होंगे न, अनुभोक्ता को होंगे न? वो अनुभोक्ता अपना काम करता रहता है, वो प्राकृतिक अनुभोक्ता है।
ये ऐसी-सी बात है कि तुम कहो कि – “आचार्य जी, आपने फ्रेंच सीख ली है, तो आपका मोबाइल तो अब बदल ही गया होगा न?” अरे, ये फ़ोन , मोबाइल के सिग्नल का अनुभोक्ता है। सिग्नल आते हैं, ये सिग्नल का अनुभव करता है, ‘मैं’ इससे अलग हूँ। मेरे साथ जो कुछ होगा, वो अनुभव की परिधि में थोड़े ही आएगा। इस फ़ोन को थोड़े ही पता चलेगा।
जिसको तुम ‘मुक्ति’ या ‘मोक्ष’ कहते हो, उसके पूर्व भी, जो अनुभोक्ता है वो अनुभव करता रहता है। और उसके पश्चात भी, जो अनुभोक्ता है वो अनुभव करता रहता है। तो अंतर क्या पड़ता है? अंतर ये पड़ता है कि – अहम् वृत्ति, बेचैन चेतना पहले उन अनुभवों में शांति खोजती थी, पहले उन अनुभवों के सामने प्यासी घूमती थी, अब वो उन अनुभवों से बहुत नाता नहीं रखती। देख लेती है कि अनुभव चल रहे हैं, वो तृप्त बैठी रहती है।
तो अनुभव अगर होते भी थे, बहुत तीव्र, तो वो मुक्ति से पूर्व होंगे, क्योंकि मुक्ति से पूर्व तुम्हें अनुभवों से बड़ी आशा रहती है। तुम कहते हो, “कोई नया अनुभव मिल जाए, मज़ा आ जाए।" तुमने देखा है न आम संसारी को, वो अनुभवों को लेकर कितना आतुर रहता है? कि – “चल भाई, आज कुछ नया खाते हैं, कुछ नया अनुभव होगा। चल किसी नई जगह पर घूम आते हैं, कुछ नया अनुभव होगा।”
बोरियत बहुत है, ऊब मिटाने के लिए कुछ नया करते हैं।
तो अनुभवों को लेकर ज़्यादा आग्रह किसका रहता है? जो बेचैन है, जो बंधन में है। जो मुक्त हो गया, वो किससे मुक्त हो गया? वो अनुभवों से ही तो मुक्त हो गया। अब वो अनुभवों का खेल चलने देता है।
वो कहता है, “अनुभव है, अनुभोक्ता है, इनका खेल चलता रहे। हमें पता है कि हमें इस खेल से कुछ मिल नहीं जाना है। वो खेल चलता रहे। ये पानी पीया गया, प्यास कंठ को लगी थी, कंठ को ही राहत का अनुभव हुआ। किसको राहत का अनुभव हुआ? कंठ को। हमें नहीं राहत का अनुभव हुआ।”
“हाँ, पहले ऐसा ज़रूर होता था कि हम पानी देखें, या शरबत देखें, या शराब देखें, तो हमारे भीतर ये उम्मीद उठती थी कि इस नए अनुभव से, इस अगले अनुभव से हमें भी शांति मिल जाएगी। ये पहले होता था, अब ऐसा नहीं होता। अब हम पानी से उम्मीद नहीं करते हैं कि वो हमें मुक्ति दिला दे।”
हम कहते हैं, “पानी का अनुभव कंठ को होना है। पानी से राहत मिलेगी भी तो कंठ को मिलेगी। हमें नहीं मिलनी है। तो अब हम पानी की तरफ़ तभी जाते हैं, जब कंठ भेजता है। क्योंकि पानी की ज़रूरत है किसको? कंठ को।”
“पहले हम पानी तरफ़ तब भी चले जाते थे जब हमारी अपूर्णता भेजती थी, क्योंकि हमें लगता था कि पानी का इस्तेमाल करके हम अपनी आंतरिक अपूर्णता को भर लेंगे। अब पानी उतना ही पीते हैं जितना हलक को चाहिए। पहले पानी पीते थे, ताकि भीतर का खोखलापन भर जाए।”
पानी समझ रहे हो न? पानी समझ रहे हो न किसका प्रतीक है? हर वो चीज़ जो तुम्हें चाहिए।
‘मुक्ति’ के बाद भी चीज़ें चाहिए होती हैं। किसको? उसको जिसको चीज़ों की ‘ज़रूरत ‘होती है।
कंठ को पानी चाहिए, माँग ले। हाथ पानी की ओर जाएगा, पानी उठाएगा, पानी आएगा। किसकी प्यास बुझी? कंठ की प्यास बुझी। ठीक। हम अलग बैठे हैं। हम प्यासे थे क्या? हम प्यासे ही नहीं थे। हमारी प्यास थोड़े ही बुझी है। जिसको प्यास लगी थी उसको पानी मिल गया। जिसको प्यास लगी थी, उसने मस्तिष्क को बोला, “प्यास लगी है।”
मस्तिष्क के पास बुद्धि है, इंटेलेक्ट है, उसने इस्तेमाल किया। उसने ढूँढा कहाँ है पानी अगल-बगल। फिर इसी मस्तिष्क ने हाथों को सन्देश भेजा कि – “पानी मिल गया है। चलो रे, उठाओ।” तो उँगलियों ने जाकर के अंगूठे की मदद से गिलास उठाया, और पानी हलक की प्यास बुझा गया। इस पूरी प्रक्रिया में हम तो कहीं हैं ही नहीं। इस पूरी प्रक्रिया में कौन शामिल है? मस्तिष्क शामिल है, स्मृति शामिल है, होंठ शामिल हैं, उँगलियाँ शामिल हैं, अंगूठा शामिल है।
ये अनुभव-अनुभोक्ता का खेल चल रहा है, इसमें हम कहीं नहीं हैं – ये ‘मुक्ति’ कहलाती है। अब तुम अनुभवों से मुक्त हो गए। यही ईश्वर प्राप्ति है, यही ‘मोक्ष’ है। खेल चल रहा है बाहर, तुम उससे कोई उम्मीद रखकर नहीं बैठे हो। तुम्हारी उम्मीदें सब पूरी हुईं, तुम पूर्ण हो।
“चलता रहे खेल बाहर, हमें खेल बुरा भी नहीं लग रहा। पर हम उस खेल के सामने भिखारी की तरह नहीं खड़े हैं।”
खेल सुंदर है, चले। भली बात। बच्चे खेल रहे हैं, खेलें। हम उन्हें रोकने थोड़े ही जाएँगे। पर हम ये भी नहीं करेंगे कि बच्चे कंचे खेल रहे हैं, तो इस फ़िराक में, इस उम्मीद में हम भी पहुँच जाएँ खेल में कि एक-आध कंचा उठाकर भाग लूँ – “क्या पता कंचे से ही मैं करोड़पति बन जाऊँ?”
“मुझे कोई उम्मीद नहीं है बच्चों के खेल से। बाकि बच्चों का खेल है, ठीक है, सुन्दर है, चलता रहे।”
बात समझ रहे हो?
तो ईश्वर प्राप्ति का कोई अनुभव नहीं होता। ईश्वर प्राप्ति के बाद आप सारे अनुभवों के प्रति समरस हो जाते हो। ‘ईश्वर प्राप्ति’ का अर्थ ही है – सारे अनुभवों के प्रति निरपेक्ष हो जाना।
सब अनुभव हो रहे हैं। ऐसा भी नहीं है कि अनुभव होने बंद हो गए। जब तक अनुभोक्ता बैठा हुआ है, वो अनुभव तो करता ही रहेगा। हाँ, क्योंकि तुम अब एक विशेष प्रकार के अनुभवों का समर्थन नहीं कर रहे, साथ नहीं दे रहे, तो अनुभवों में भी एक सात्विकता आ जाती है।
पर अनुभव चलते तो रहते ही हैं।
तुम्हें क्या लगता है, मुक्त हो जाओगे, और सूरज चमकेगा, तो तुम्हें गर्मी नहीं लगेगी? तुम्हें क्या लगता है, मुक्त हो जाओगे, और जाड़े की रात होगी, तो ठिठुर कर रज़ाई की ओर नहीं भागोगे? भागोगे। देह को बुरा लग रहा है। देह रज़ाई खोजेगी मस्तिष्क की सहायता से। तो अभी-भी अच्छा-बुरा तो लगा न? रज़ाई कैसी लगी? अच्छी लगी। धूप कैसी लगी? बुरी लगी।
पर जिसको अच्छे लगने थे, उसे लगे। जिसको बुरे लगने थे, उसे बुरे लगे। अनुभव का खेल जिनके लिए चलना था, उनके लिए चल रहा है। हमारे लिए नहीं चल रहा।
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