आचार्य प्रशांत: बीच-बीच में मैं टि्वटर पर सब जीवों पर, पशुओं पर करुणा के पक्ष में ट्वीट करता रहता हूँ। तो प्रश्नकर्ता ने उसपर एक चर्चा आरंभ करी है। बहुत अच्छा लगा कि आपने इस संवाद की पहल करी। तो जो जो बातें आप सामने अपनी रखते रहे हैं उन पर चर्चा करते हैं।
तो प्रश्नकर्ता कह रहे हैं कि *नोन वेज कंज़म्प्शन, मीन्स फ़्लेश कंज़म्प्शन इज एज़ ओल्ड एज़ दि एग्जिस्टेंस ऑफ ह्यूमन्स*। (पशुओं को मारना, उनका माँस खाना तबसे चल रहा है जबसे इंसान अस्तित्व में आया है।)
बिलकुल ठीक बात कही है आपने। लेकिन आज क्या आप वो सब कुछ कर रहे हैं या करना चाहते हैं जो इंसान अपनी हस्ती में आने के वक़्त किया करता था?
भई इंसान अचानक से तो पृथ्वी पर प्रकट हो नहीं गया। इंसान आया उसके बाद उसने सभ्यता-संस्कृति सीखी फिर गाँव आए, खेत आए फिर शहर आए, विज्ञान आगे बढ़ा, भाषा आगे बढ़ी, कलाएँ आगे बढ़ीं। ऐसा तो हुआ नहीं था कि जिस दिन इंसान पृथ्वी पर प्रकट हुआ था उसी दिन उसके साथ में गाँव, खेत, शहर, गाड़ियाँ, भाषा, संस्कृति ये सब भी आ गए थे। ऐसा तो आप भी नहीं मानते होंगे या स्वीकार करेंगे कि आदमी ज़मीन पर प्रकट हुआ और आदमी के साथ-साथ गाड़ियाँ खड़ी हुई हैं, खेत हैं और खेतों में कैसे बीज डालना है इसका ज्ञान भी है आदमी को और कपड़े भी हैं आदमी के पास।
ज़ाहिर सी बात है आदमी पहले आया, उसके बाद आदमी ने धीरे-धीरे कपड़े बनाना सीखा। आग जानी, पहिया जाना, इतिहास की बातें हैं ये सब। मामूली स्कूल के बच्चे भी जानते हैं। तो इंसान जब नया-नया ज़मीन पर आया, उसको आया कहना चाहते हैं तो आया कह दीजिए या उसको इवोल्वड (विकसित) कहना चाहते हों तो इवोल्वड (विकसित) कह दीजिए।
मुझे मालूम है कि बहुत सारे लोग इवोल्यूशन (विकास) के सिद्धांत में विश्वास नहीं रखते हैं तो मैं नहीं ज़ोर देकर के कहूँगा कि आप मानिए कि आदमी के विकास की जो पूरी श्रृंखला है वो अरबों साल पुरानी है और आदमी एक छोटी सी अकेली कोशिका से धीरे-धीरे विकसित होकर के उस रूप में पहुँचा है जैसा आज है। मैं नहीं कह रहा आप इस बात पर विश्वास करें। पर इतना तो आप भी मानेंगे, वरना बात बड़ी बेतुकी, बड़ी अतार्किक हो जाएगी, कि आदमी जब आया तो अपने साथ गाड़ियाँ और भाषा और विज्ञान और आग और घर और तमाम तरह की टेक्नोलॉजी (प्रौद्योगिकी) ये सब लेकर तो नहीं उतरा होगा ज़मीन पर, अगर इवोल्यूशन से नहीं भी आया है तो।
आदमी ने आने के बाद वो सब चीज़ें धीरे-धीरे विकसित करीं और आज भी विकसित कर रहा है, आप देख ही रहे हैं। जैसे आज विकसित कर रहा है वैसे ही वो तब से विकसित करता चला आ रहा है। इतिहास के आप किसी भी बिंदु को ले लीजिए, आदमी नई-नई चीज़ों का विकास, आविष्कार, खोज करता ही रहा है। तो माने आज आप-अपने इर्द-गिर्द जो कुछ देखते हैं वो आदमी ने अपने आने के बाद धीरे-धीरे खोजा है या आविष्कृत करा है या विकसित करा है, ठीक?
आज आप अपने आसपास जो भी कुछ देख रहे हैं, क्या देखते हैं आज आप अपने आसपास? वो सब कुछ जिसको आज आप सभ्यता का पर्याय मानते हैं, वो सब कुछ जिसको आज आप आदमी के नागरिक होने से, सुसंस्कृत होने से जोड़ कर देखते हैं वह सब किसने निर्मित किया, किसने रचा?
खुद आदमी ने रचा और वो उसको रचता ही चला जा रहा है। विकास की उसकी यात्रा आगे बढ़ती ही चली जा रही है। इसका सीधा अर्थ ये निकलता है न कि आदमी जब नया-नया आया था तो ये सब कुछ भी बिलकुल ही नहीं था, एकदम नहीं था। ना आदमी के पास ज्ञान था, ना भाषा थी, ना विज्ञान था ना तकनीक थी। कुछ भी नहीं था उसके पास।
अब आप कह रहे हैं कि, "उस समय का वैसा आदमी जानवरों को मारकर खा जाया करता था तो हम भी आज खाएँगे।" ये बात कैसी है?
आज आप उस आदमी से बहुत दूर आ गए हैं, बहुत आगे निकल आए हैं। वो जो आदमी था जो जंगल में रहता था वो तो दाँत भी नहीं माँजता था। आप दाँत क्यों माँजते हो? वो जो आदमी था जो जंगल में रहता था, वो तो पशु समान था। वो तो नित्य क्रिया कर-कर के शौच भी नहीं करता था। पशुओं को कभी मलत्याग करके शौच करते देखा है?
वैसा ही वो आदमी था जो पहले-पहल जंगल में पाया जाता था और आप उसका हवाला देकर के कह रहे हो कि, "वो जो काम करता था वही हमें आज भी करने हैं।" हालाँकि अगर आप ये भी देखो कि वो क्या काम करता था, तो भी आपका तर्क कुछ ठीक नहीं है। क्योंकि जंगल में भी देखिए फल तोड़कर खाना कहीं ही ज़्यादा आसान है हिरण को दौड़ा कर के पकड़ कर मारकर खाने की बनिस्बत। तो ये सोचना कि आदमी, हमारे वो बहुत लाखों-अरबों साल पुराने पूर्वज माँसाहारी थे ये बात अतार्किक हुई न?
आपको आज जंगल में छोड़ दिया जाए, आप अपना निर्वाह कैसे करोगे, बताओ ज़रा। आप हिरण को दौड़ाओगे या आप फल-फूल, पत्तियाँ, सब्जियाँ ये सब खोजोगे, कहो?
आप अपने हाथों को देखो, आपके हाथ आपको लगता है शिकारी के हाथ हैं? आपके पूर्वजों के हाथ भी ऐसे ही थे। इन हाथों से आप कैसे हिरण का या सुअर का, गाय का, नीलगाय का, भेड़ का शिकार कैसे कर लोगे इन हाथों से बताओ मुझे? और ये दाँत देखे हैं आपने? इन दाँतों से आप उसकी खाल को कैसे चीर लोगे? आपके पूर्वजों के दाँत भी ऐसे ही थे। तो आपको वाकई लगता है कि आपके पूर्वज मुख्यतः माँसाहारी थे? नहीं नहीं नहीं। वो भी शाकाहारी थे, हाँ कोई छोटा पशु कहीं मिल गया आसानी से तो खा लिया।
आप आज भी एक छोटा बच्चा लो, उसको आप एक सेब या केला रख दो और एक छोटा सा जानवर आप कुछ रख दो उसके सामने। छोटा जानवर बताओ, मेंढ़क रख दो, गिलहरी रख दो, खरगोश रख दो। एक तरफ़ आपने रख दिया छोटे बच्चे के सामने सेब और केला और आम और दूसरी तरफ़ रख दिया मेंढ़क खरगोश, गिलहरी, कुत्ते का एक छोटा सा बच्चा, पिल्ला। आपको क्या लगता है कि वो जो छोटा बच्चा है वो तुरंत क्या खाएगा? आपको लगता है वो मेंढ़क उठा कर खा लेगा?
तो ये है हमारी प्रकृति। आप छोटे बच्चे को कितना भी मजबूर कर लीजिए वो स्वेच्छा से कभी माँस नहीं खाएगा। आपको उसको ज़बरदस्ती सिखाना पड़ता है, ठूसना पड़ता है तब वो खाता है। ये जो छोटा बच्चा है, इसी के वो पूर्वज हैं जो जंगल में रहा करते थे। तो वो भी ऐसा नहीं है कि माँस ही खाया करते थे। वो भी प्रमुखतः शाकाहारी ही थे। पर अगर वो माँस खाते भी थे, तो मैं आपसे पूछ रहा हूँ — क्या आप वो सब कुछ करेंगे जो वो किया करते थे?
वो तो शादियाँ भी नहीं करते थे। आपको क्या लगता है, इंसान ज़मीन पर आया और आते ही उसको विवाह की संस्था का पता था क्या? ये बात आपके गले उतरेगी कि इंसान ज़मीन पर आया और इंसान को विवाह की संस्था पता थी और उसको ये भी पता था कि शेरवानी में बटन कितने टाँकने हैं? और उसको ये भी पता था कि कैसे पंडित को या मौलवी को बुला करके धार्मिक तरीक़े से किसी स्त्री को, किसी पुरुष को एक संस्था में बाँध लेना है, सम्मिलित करा देना है? ये सब उसको पता था पहले ही दिन से?
तो वो जो पहला आदमी था जिसकी आप बात कर रहे हैं वो तो ना दाँत माँजता था, ना शौच करता था, ना विवाह करता था, ना विद्यालय जाता था, ना ट्वीट करता था। आप बहुत कुछ ऐसा कर रहे हैं जो वो नहीं किया करता था। और ज़्यादातर काम जो वो करता था, वो आपने करने कब के छोड़ दिए। और अगर आप यही कहेंगे कि वो जो पहला आदमी था मैं वो सब कुछ करूँगा जो वो किया करता था तो देखिए आज भी बहुत सारे कबिले हैं जहाँ कार्निज्म (माँसाहार) चलता है, जो नर भक्षी हैं। तो वो जो हमारे बहुत पुराने पुरखे थे अधिकांशतः मैने कहा वो शाकाहारी थे, कभी-कभार वो जानवर का माँस खा लेते थे अगर पा गए और जब लड़ाइयाँ होती थीं उनके दलों में, गुटों में तो कभी-कभार ऐसा भी हो जाता था कि दुश्मन को मारा और देखा कि अब मर ही गया है वो तो उसको घसीट लाए और उसका माँस खा लिया।
तो वो जो पुराना आदमी है जिसकी आप दुहाई दे रहे हैं, वो तो बीच-बीच में आदमी का माँस भी खा लेता था। आप क्यों नहीं खा लेते? वो पुराना आदमी है, वो तो पेड़ पर चड़कर के सोता था। आप क्यों नहीं पेड़ पर चड़कर सोते? जो पुराना आदमी है वो तो विशुद्ध नंगा घूमता था, आप क्यों नहीं नंगे घूमते? या आपको क्या लगता है कि आदमी जब ज़मीन पर प्रकट हुआ था तो चड्डी-बनियान लेकर आया था?
जिस पुराने आदमी की आप बात कर रहे हैं, गौर तो करिए कि वो था कैसा और क्या आप वैसे ही रहना चाहते हैं? और अगर आप वैसे ही रहना चाहते हैं तो फिर विकास का क्या मतलब? फिर विवेक का क्या मतलब? फिर बुद्धि का क्या मतलब? फिर जो आपका रचयिता है जिसने आपको बनाया है, उसने क्यों आपके भीतर प्रतिभा, मेधा, प्रज्ञा भरी हुई है? फिर तो आपको पशु जैसा ही होना चाहिए था न? पशुओं में कुछ नहीं बदला अरबों सालों में। अरबों साल पहले कोई कुत्ता जैसा रहता था वो आज भी वैसे ही रहता है। पर आप इंसान हो न?
अरबों साल पहले के भेड़िये में और आज के भेड़िये में आप बहुत कम अंतर पाएँगे। अरबों साल पहले की चींटी आज की चींटी जैसी ही है करीब-करीब। पक्षी अरबों साल पहले जैसे उड़ते थे, आज भी वैसे ही उड़ रहे हैं। कुछ उनमें थोड़ा इवोल्यूशनरी (विकासवादी) अंतर आ गया हो तो आ गया हो, वरना वैसे ही हैं। तो ये तो जानवर का काम है, ये जानवर की दलील है कि, "मैं अरब साल पहले जैसा था, मैं आज भी वैसे ही रहूँगा।" ये आप क्यों दलील दे रहे हो?
आदमी का तो काम है निरंतर चेतना के मार्ग पर आगे बढ़ते रहना, निरंतर बेहतर-से-बेहतर होते रहना। आदमी का तो काम है ये कहना कि, "मैं कल जैसा था, आज मैं उससे बेहतर होकर के दिखाऊँगा।" आदमी का काम ये दलील देना थोड़ी ही है कि, "वो जो मेरे पुरखे जंगल में रहा करते थे, वो जैसा करते थे मैं वैसा ही करूँगा।" ये दलील तो जानवर की हुई न?
चलिए अब देखते हैं अब दूसरी बात क्या कह रहे हैं। दूसरी बात कह रहे हैं कि मनुस्मृति के पाँचवे अध्याय में - और उन्होंने जो श्लोक हैं उनका भी उद्धरण दिया है - तीसवाँ श्लोक, इकत्तीसवाँ श्लोक, उनतालीसवाँ, चालीसवाँ श्लोक और फिर महाभारत के अनुशासन पर्व का उदाहरण दिया है, अध्याय अट्ठासी। कह रहे हैं कि इनमें साफ़-साफ़ माँसाहार का समर्थन किया गया है।
बिलकुल ठीक कह रहे हैं और मैं बहुत प्रभावित हुआ आपकी विद्वत्ता से कि आपने धर्मग्रंथों का अध्ययन करा। बहुत अच्छी बात है ये और लोगों को करना चाहिए, सबको करना चाहिए। और वहाँ पर आपको कुछ ऐसे उद्धरण मिले, कुछ ऐसे प्रमाण मिले जो माँसाहार के पक्ष में हैं तो आपने उनको सामने लाकर के रखा।
मैं आपसे कह रहा हूँ आप दो ही उदाहरण लेकर के आए, और अगर आप सनातन धर्मियों हिन्दुओं के धार्मिक ग्रंथों की बात कर रहे हैं तो दो ही उदाहरण नहीं हैं। दर्जनों उदाहरण हैं जिनको लाकर के सिद्ध किया जा सकता है कि ये देखो, हिन्दुओं के धार्मिक ग्रंथों में तो माँसाहार निषिद्ध तो नहीं ही है, बल्कि कहीं कहीं तो माँसाहार की खुली वकालत की गई है। उदाहरण के लिए ये तक कहा गया है कि अगर तुम बलि के लिए जानवर को नहीं मारते तो अगले जन्म में तुम वही बलि का जानवर बनोगे। ऐसी बातें तक हैं।
तो कुछ बातें समझनी होंगी। देखिए, धर्म की धारा बहुत पुरानी होती है। खास तौर पर सनातन धर्म की धारा तो समय में शुरू कहाँ होती है इसका भी कुछ ठीक-ठीक पता नहीं है। अगर बहुत अनुमान ही लगाया जाए तो भी कम-से-कम तीन से चार हज़ार साल पुरानी धारा है सनातन धर्म की। कुछ लोग कहेंगे इससे भी ज़्यादा पुरानी है, वो उनका अपना मत है। जब इतनी लंबी धारा होती है न, तो उसमें क्या-क्या आकर के मिल जाता है इसकी कोई गिनती नहीं है।
कोई बहुत लंबी नदी चल रहा है, अपने उद्गम स्थल पर तो साफ़ होती है, उसके आगे उसमें क्या-क्या मिल जाएगा हम नहीं जानते। तो हमें फिर पूछना ये पड़ता है कि, "ये जो नदी है, अब इसमें पचासों तरह की चीज़ें मिश्रित हो गई हैं पर इसका मूल तत्व क्या है?"
मैं सनातन धारा की बात कर रहा हूँ। उसका मूल तत्व क्या है?
पहले भी कई बार कह चुका हूँ, दोहराए देता हूँ — हम जिसको सनातन धर्म कहते हैं उसका केंद्रीय स्तंभ वेद हैं। और वेदों का सार है उपनिषद। वेदों की माहिमा किन में समाई हुई है? उपनिषदों में। और उपनिषदों को थोड़ा अगर आप पढ़ेंगे तो पाएँगे कि वहाँ तो विषय-वस्तु ही दूसरी है, वहाँ तो बात ही किसी और तल पर हो रही है, वहाँ मुद्दा ही कुछ और है। वहाँ ये सब छोटी-मोटी बातें हो ही नहीं रही हैं कि क्या खाना है, क्या पीना है, क्या पहनना है, शादी कैसे करनी है, मुँह कैसे धोना है, पानी कैसे पीना है, सोकर के कैसे उठना है। उपनिषद इन मुद्दों से कोई संबंध, कोई ताल्लुक़ ही नहीं रखते।
वो केंद्रीय तत्व हैं हिन्दू धर्म का जहाँ पर बात सिर्फ़-और-सिर्फ़ अह्म की, मन की होती है। पूछा जाता है बार-बार कि, "कहाँ से आता है मन? कहाँ को जाता है मन?" केन उपनिषद का हवाला दे रहा हूँ। "कौन है जिसकी प्रेरणा से आवाज़ निकलती है, वाणी आती है? किसको पुकार रही है ये वाणी बार-बार? इन आँखों के पीछे कौन है? ये कान किसको सुनना चाहते हैं?"
ये मूल तत्व है वैदिक धर्म का। सत्य की खोज। "मन किसको पुकार रहा है बार-बार?" ये पूछते हैं उपनिषद। मन जिसको बार-बार पुकार रहा है, आँखें जिसको बार-बार बाहर खोजती हैं, अगर बाहर की दिशा में उसका नाम लें तो उपनिषद कह देते हैं — ब्रह्म और जिसको तुम खोजने निकले हो उसको अगर अंदर ही खोजने लग जाओ तो पाकर के तुम उसको नाम दोगे — आत्मा।
और अंततः उपनिषद कहते हैं कि सत्य चाहे बाहर देखो, चाहे भीतर उसको पा लो, एक ही है। तो ये आत्मा ही ब्रह्म है। आत्मा ब्रह्म है ये भी बाद की बात है, मूल बात है कि उपनिषद मन की बात करते हैं। उनकी विषयवस्तु मन है, मन की बेचैनी, चेतना का दीवानापन। हम क्या माँग रहे हैं, क्या है जो हमारे सपनों में आ रहा है, सब कामनाएँ किधर को भाग रही हैं, ये जो आती-जाती साँस है ये नाम किसका ले रही है — ये पूछते हैं उपनिषद।
तो ये है हिन्दू धर्म का केन्द्रीय बिंदु। अब उसमें तुम अगर कहो कि महाभारत में लिखा हुए था अश्वमेध के बारे में कुछ या गोमेध के बारे में कुछ तो बात कुछ बनेगी नहीं न। हालाँकि आपने जो बात बोली वो बिलकुल सही बोली, जो उद्धरण आपने दिए मैं प्रभावित हूँ। बिलकुल सही उद्धरण दिए हैं आपने। सही हैं लेकिन अप्रासंगिक हैं क्योंकि आप समझ ही नहीं रहे कि धर्म के बाहरी वस्त्रों और उसके हृदय में, उसकी आत्मा में भेद होता है भई। जैसे तुम्हारे कपड़े तुम्हारी आत्मा नहीं होते वैसे ही धर्म का जो बाहरी स्वरूप बन गया होता है वो धर्म का केन्द्रीय बिंदु नहीं होता। और हिन्दू धर्म बहुत पुराना धर्म है। इसके तो कपड़े न सिर्फ़ बाहरी हैं बल्कि बाहर धूल से बहुत-बहुत मैले हो गए हैं। मैले ही भर नहीं हो गए हैं, उस पर मैल की परत-दर-परत चढ़ गई है। इतनी परतें चढ़ गई हैं कि उसका जो केंद्रीय बिंदु है वो ज़्यादातर लोगों को दिखाई भी नहीं देता। ये बड़े अफ़सोस की बात है। तो लोग उन परतों की ही बात करने लग जाते हैं।
आपने भी यही किया, आपने उन परतों की बात शुरू कर दी। अरे महाभारत मैं समझता हूँ भारतीय संस्कृति में बड़ा महत्वपूर्ण स्थान रखता है, पर वो परंपरा में भी (मात्र) इतिहास कहा जाता है। वो कोई धर्म का केंद्र बिंदु थोड़े ही है। और आपको महाभारत की ही अगर बात करनी है तो महाभारत में जो पाँच-सात गीताएँ हैं उनकी क्यों नहीं बात करी, श्रीमद्भागवत की क्यों नहीं बात करी?
तो इतना विराट विस्तार है हिन्दू धर्म का और उसके साहित्य का कि देखिए आप जो चीज़ चाहोगे वो आपको मिल जाएगी। कितना पुराना धर्म है हमने कहा? चार हज़ार साल पुराना है। अब चार हज़ार साल में इतने लोग हुए जिन्होंने इतनी किताबें लिख डाली हैं। तो आपको जो सामग्री चाहिए अपने चित्त, अपने तर्क के अनुसार आपको जो माल-मसाला चाहिए सब कहीं-न-कहीं मिल ही जाएगा। यहाँ तक कि आपको एक चीज़ मिल जाएगी और फिर उसके ठीक विपरीत दूसरी चीज़ भी मिल जाएगी।
हिन्दू साहित्य का जो भंडार है, जो पूरा कोश है उसमें आपको कुछ नहीं है जो मिल नहीं जाएगा। तो सवाल ये है कि फिर हम ढूँढ़ क्या रहे हैं, जो ढूँढ़ रहे हैं वो ही मिल जाएगा। अगर आप ढूँढ़ ही ये रहे हो कि किस तरीक़े से माँसाहार को जायज़ साबित करना है तो उसके पक्ष में आपको बहुत सारा तर्क मिल जाएगा। मत ढूँढ़िए न। वो ढूँढ़िए जो धर्म का केन्द्र बिंदु है, उसी में तो हम सब की भलाई है भाई। बाहरी चीज़ों में उलझ कर के क्या मिलना है?
बात समझ में आ रही है?
अब कोई पूछे कि इस्लाम का केंद्र कहाँ पर है, तो आप इधर-उधर की पचास चीज़ों की बात करोगे या सीधे बोलोगे तौहीद? बस बात ख़त्म हो गई न? कि एक प्राथमिक, केंद्रीय, हार्दिक सिद्धांत क्या है इस्लाम का? तौहीद।
तो फिर इसीलिए क्या है इस्लाम में जो बिलकुल वर्जित है? अब तुरन्त बोल दोगे शिर्क।
और आपसे कोई पूछे कि इस्लाम की आत्मा किस चीज़ में है और आप इधर-उधर की पचास बातें करने लग जाओ, आप कहो कि अरब में जो चोगा पहना जाता है वो इस्लाम के केंद्र में है, तो ये बात फिर कुछ जमी नहीं न। या जमी? या आप कह दो कि कोई फलानी भाषा है, वो इस्लाम के केंद्र में है तो ये बात जमी नहीं न?
इस्लाम के विद्वान भी आपकी बात से सहमत नहीं होंगे आप ऐसी बातें करोगे तो। जब भी किसी धर्म की ओर जाइए, सर्वप्रथम पूछिए कि इस धर्म का मर्म क्या है, उसका केंद्र कहाँ पर है? केंद्र नहीं पूछेंगे तो आप बहक जाएँगे, भटक जाएँगे और आपको बहकने-भटकने का ही अगर शौक हो तो बहुत रास्ते हैं। पुराने समय का आपने बता ही दिया मनुस्मृति का, महाभारत का दे दिया, नए समय में आप रामकृष्ण परमहंस की बात कर सकते हैं कि वो मछली खाते थे, आप निसर्गदत्त महाराज की बात कर सकते हैं कि वो माँस खाते थे, कुछ लोग विवेकानंद कि भी बात करते हैं कि वो भी माँसाहार करते थे।
और आपको बहुत उदाहरण मिल जाएँगे अगर आपको ये साबित ही करना है कि, "नहीं साहब, मुझे माँस खाना है!" लेकिन जब आप उपनिषदों के पास जाते हैं और वहाँ एक शब्द गूँजता है जैसे इस्लाम में गूँजता है तौहीद, वैस ही उपनिषदों में गूँजता है अद्वैत। और बहुत आसपास के हैं ये दोनों शब्द, तौहीद और अद्वैत। तो वहाँ आपको फिर पता चलता है जब आप अद्वैत में प्रवेश करते हैं कि अद्वैत और अहिंसा एक ही ची़ज हैं। अद्वैत और अहिंसा एक ही ची़ज हैं। आप अद्वैत समझे ही नहीं अगर आप अभी भी हिंसक हैं। अगर आपको अभी भी दूसरा दूसरे जैसा नज़र आता है, दूसरा इस हद तक आपको दूसरा, पराया नज़र आता है कि आप उसकी हत्या करके उसका खून, उसका माँस भी पी सकते हैं तो फिर अभी आप हिन्दू धर्म के केंद्रीय तत्व को समझे ही नहीं।
तो अधिकांश हिन्दू शाकाहारी रहे हैं। आज भी दुनिया के शाकाहारियों में ज़्यादातर हिन्दू ही हैं। हालाँकि अब हिन्दुओं में भी माँसाहार बहुत बढ़ गया है लेकिन फिर भी दुनिया में आज भी जितने लोग शाकाहारी हैं उनमें से ज़्यादातर हिन्दू हैं, तो वो इसीलिए है। इसलिए नहीं कि बात परम्परा भर की ही है। बात मर्म की है, बात सिद्धांत की है, बात दर्शन की है। कोई बात है जो हमें वेदांत ने समझाई है और जो वेदांत ने हमें बात समझाई है उसका सीधा निष्कर्ष निकलता है अहिंसा; सर्व सामान्य के प्रति, सब जीवों के प्रति, जगत की समस्त चेतना के प्रति अनन्यता का भाव। अब कैसे किसी को दुःख दें? जो उसकी चेतना है वही मेरी चेतना है, जो वो चाहता है वही मैं चाहता हूँ, जो मेरी आँखों की प्यास है वही उसकी आँखों की प्यास है। मैं गर्दन कैसे काट दूँ उसकी?
यही वजह है कि भारत कभी बहुत आक्रामक नहीं हो पाया क्योंकि भारत को कुछ बात समझ में आ गई थी। वो बात जिसको समझ में आ जाएगी, उसके भीतर की हिंसा हट जाएगी। और जिसको वो बात समझ में नही आई, वो निश्चित रूप से हिंसक रहेगा, वो गला काटने में ही यकीन रखेगा।
बात समझ में आ रही है?
तो धर्म के जो बाहरी अंग हैं, जो धर्म की बाहरी परतें हैं उन पर बहुत ग़ौर नहीं करना चाहिए। वो सब परतें समय के साथ आती हैं और यकीन जानिए वो समय के साथ मिट भी जाती हैं। आज का हिन्दू धर्म वही थोड़े ही है जो आज से सौ साल पहले या पाँच-सौ साल पहले हुआ करता था। बहुत कुछ है जो समय के साथ आ गया और फिर समय के साथ उसकी सफ़ाई भी हो गई और अभी भी कुछ गंदगियाँ हैं जो प्रवेश कर रही हैं। समय का चक्र घूमेगा तो उनकी भी सफ़ाई हो जाएगी। एक समय था जब आज से, ज़्यादा नहीं सौ-दो सौ साल पहले ही, जब बहुत लोग ये मानते थे कि सती प्रथा ठीक ही है। देखिए, उस कुरीति की सफ़ाई कर दी गई न?
ये सनातन धर्म की खूबी है। समय उसे गंदा खूब करता है और वो अपनी सफ़ाई करना जानता है। पशु बलि बहुत प्रचलित हो गई थी एक समय पर हिन्दू धर्म में। हिन्दुओं ने खुद समझा कि ये कुरीति है, ये ग़लत रिवाज़ है। इसका धर्म की आत्मा से कोई लेना-देना नहीं तो धर्म के नाम पर पशुओं की बलि या कुर्बानी हिन्दुओं ने बंद कर दी। खुद ही समझ गए कि इसका धर्म की आत्मा से तो कोई संबंध ही नहीं है। ये तो हमने ज़बरदस्ती अपने स्वाद के लिए, अपने स्वार्थ के लिए, अपने अज्ञानवश एक परंपरा चला रखी है। तो उन्होंने उसको हटा दिया।
यही काम यूरोप में भी हुआ था। रिफॉरमेशन क्या था, रेनेसा (पुनर्जागरण) क्या था? कि जब ईसाईयों को समझ में आया कि उनके धर्म में बहुत सारी व्यर्थ की चीज़ें प्रवेश कर गई हैं। और धर्म में जिन तत्वों को बाहर की ओर होना चाहिए वो बिलकुल केंद्र पर चढ़ कर बैठ गए हैं, जैसे कि पादरी और चर्च, तो उन्होंने तुरंत उनको बाहर करा, परिधि पर पहुँचा दिया। बोले, "ईश्वर से मेरा कुछ व्यक्तिगत रिश्ता भी तो हो सकता है न, ज़रूरी थोड़े ही है कि बीच में चर्च की सत्ता खड़ी रहे। ज़रूरी थोड़े ही है कि बीच में पोप खड़ा रहे।"
ये काम हर धर्मावलंबी का होता है, ये काम हर धर्म, हर मज़हब के लोगों का होता है कि वो समय समय पर देखते रहें कि उनके धर्म में, रिलीजन में, मज़हब में कौनसी ऐसी चीज़ें घुस आई हैं जिनका धर्म की आत्मा से कोई लेना-देना नहीं। और फिर वो अपने धर्म की सफ़ाई कर दें।
तो उन बातों का ही उद्धरण मत दीजिए जो धर्म में बहुत पारिधिक महत्व रखती हैं। पारिधिक समझते हैं? *नॉट सेंट्रल, पेरीफेरल*। उनका बार-बार नाम लेने से कुछ सिद्ध नहीं होता। इसी तरीक़े से मैं पूछूँगा — आपने थोड़ी सी मज़े की बात की है। आपने मनुस्मृति का उद्धरण दिया है। और आप मनुस्मृति का हवाला देकर कह रहे हैं कि "देखो, मनुस्मृति कहती तो है कि माँस खाया करो।"
इसी मनुस्मृति को गरियाने में आज पूरा हिंदुस्तान लगा हुआ है। ठीक?
अगर कोई कह दे कि वो मनुस्मृति को मानता है या उसे सम्मान देता है तो तुरंत उसपर एक गाली जड़ दी जाएगी कि, "तू मनुवादी है।" तो हर प्रयोजन के लिए तो मनुस्मृति को हमने एक त्याज्य ग्रंथ बना दिया है, एक ऐसा ग्रंथ बना दिया है जिसकी चर्चा करनी भी ख़तरनाक हो गई है। ठीक?
लेकिन जब आप को ये साबित करना था कि, "मुझे तो जानवर मारकर चबाने हैं!" तो आप तुरंत मनुस्मृति का उद्धरण देने चले आए। ये क्या चल रहा है भाई?
मनुस्मृति का उदाहरण देकर के आप कह रहे हैं कि माँस खाना ठीक है तो फिर तो मनुस्मृति में जो बाकी बातें लिखी हैं उनको भी ठीक मानिए। उनको आप नहीं ठीक मानेंगे। ये तो देखिए साहब दोगलापन हो गया न?
ऐसे नहीं। अगर आप मान ही रहे हो कि मनुस्मृति आज के समय में महत्व नहीं रखती तो फिर नहीं रखती। और मेरे ख्याल से ज़्यादातर लोग सहमत हैं कि सनातन धर्म में केंद्रीय स्थान वेदांत का है। मनुस्मृति या अन्य बहुत सारी स्मृतियाँ हैं वो सब बहुत बाहर की बातें हैं और वो बहुत पीछे की बातें हो गईं। उनका आज के समय के धर्म में बहुत महत्व नहीं हो सकता। जब उनका महत्व नहीं है तो फिर उनका उपयोग करके ये साबित करने की कोशिश मत करिए कि माँस खाना उचित है।
अगला तर्क दे रहे हैं प्रश्नकर्ता। कह रहे हैं कि "हैड गॉड फेवर्ड वेजीटेरियनिज्म, ही वूड हैव मेड आल मेन हर्बिवोर बेकॉज़ गॉड डज नॉट डिस्क्रिमिनेट। (अगर भगवान शाकाहार के पक्ष में होते तो उन्होंने सारे मनुष्यों को शाकाहारी बनाया होता, क्योंकि भगवान भेद-भाव नहीं करते)।" तर्क समझिएगा, कह रहे हैं कि अगर ईश्वर को शाकाहार ही पसंद होता, तो भई ईश्वर ने सभी को शाकाहारी बनाया होता न, सब मनुष्यों को। क्योंकि ईश्वर तो ऐसा करेगा नहीं कि कुछ मनुष्यों को शाकाहारी बनाएगा, कुछ को शाकाहारी नहीं बनाएगा। "बट देअर आर सम प्लेसेस ऑन दिस एर्थ लाइक साइबेरिया व्हेअर नथिंग ग्रोज़ सो यू हैव टू बी कार्निवोर " (लेकिन ईश्वर की ही बनाई हुई इस पृथ्वी पर कुछ जगहें ऐसी हैं जहाँ पौधे वगैरह उगते ही नहीं, जैसे साइबेरिया। तो वहाँ तो जो लोग रहेंगे उसको माँस खानी ही पड़ेगी)। तो कह रहे हैं, "माय गॉड हैज मेड मी ओमनिवोर, आई एम् जस्ट फॉलोइंग हिस कमांड। (मेरे भगवान ने मुझे सर्वाहारी बनाया है और मैं उसी का पालन कर रहा हूँ)।
ये आपने बड़ी भारी बात कह दी। थोड़ा समझिएगा। ईश्वर ने — मैं आपकी ही भाषा में बात कर रहा हूँ — ईश्वर ने बिलकुल रचे हैं सब पेड़-पौधे, जानवर, इंसान, नदी-पहाड़, पूरा ब्रम्हांड ही। ठीक है ईश्वर का रचा हुआ है। लेकिन ईश्वर की सब रचनाओं में और मनुष्य में कुछ अंतर है कि नहीं है?
मैं बताता हूँ क्या अंतर है।
आपने कोई पत्थर देखा है जो ईश्वर की उपासना कर रहा हो? पूजा, अर्चना, अरदास, प्रेयर या नमाज़ कर रहा हो? देखा है?
आदमी की चेतना अकेली ऐसी है जो ऊपर उठना चाहती है, इसलिए वो सजदे में झुकती है। कोई जानवर आपने देखा है सजदे में आज तक? कोई जानवर आपने देखा है कि मंदिर में हाथ जोड़कर के प्रार्थना में खड़ा हो? देखा है क्या?
आदमी में और ईश्वर की बाकी सब रचनाओं में मूलभूत अंतर है भई। और वो मूलभूत अंतर क्या है, समझिए। अंतर ये है कि आदमी को बख़्शी गई है बुद्धि और विवेक। दो चीज़ें हैं आदमी के पास जो बाकी सब जीवों से अलग हैं। पहला — एक तड़पती हुई चेतना, दूसरा — उस तड़पती हुई चेतना के साथ हमें दी गई ये बुद्धि।
ये दो चीजें हैं जो अन्य जीवों में नहीं पाई जाती। बिलकुल ग़ौर से समझ लीजिएगा। आदमी के भीतर जितनी तड़प है वो आपको किसी जानवर में नहीं मिलेगी। ये पहला अंतर है आदमी में और बाकी सब जीवों में। और आदमी के पास इंटेलेक्ट है, बुद्धि है। वो आपको दूसरे जीवों में नहीं मिलेगी। ये दूसरा अंतर है। और ये दोनों चीज़ें साथ-साथ चलती हैं। आप ये भी समझ गए होगे कि आदमी को फिर बुद्धि दी क्यों गई है। क्यों दी गई है बुद्धि?
ताकि वो चेतना की तड़प को शांत कर सके। ताकि ये चेतना है जो बार-बार कह रही है "मुझे मंज़िल तक पहुँचाओ, पहुँचाओ", उसको वो मंज़िल तक पहुँचा सके। जानवरों की चेतना तड़पती ही नहीं इसलिए जानवरों को बुद्धि की बहुत ज़रूरत भी नहीं। तो उनको बहुत सीमित बुद्धि दे दी गई है। बस उतनी सीमित बुद्धि जितनी उनके जीवनयापन के लिए, खाने-पीने के लिए और प्रजनन के लिए ज़रूरी है। इससे ज़्यादा जानवरों को बुद्धि दी ही नहीं जाती।
समझना, बुद्धि नहीं दी जाएगी उसको जिसके भीतर तड़प नहीं है। और इससे ये भी समझ लेना कि जिसके भीतर जितनी तड़प है उसको उतनी ही बुद्धि बख़्शी जाएगी। जो आदमी भीतर से ऊपर उठने के लिए, आज़ादी के लिए, मुक्ति के लिए तड़प नहीं रहा, उसकी बुद्धि भी कुंद हो जाएगी। क्योंकि बुद्धि का फ़ायदा क्या? बुद्धि तो एक औज़ार है, उपकरण है, एक माध्यम है, निमित्त है तुमको मुक्ति तक ले जाने का, तुमको आसमान तक उठा देने का। अगर तुममें आसमान तक उठने की ख़्वाहिश ही नहीं तो तुम्हें बुद्धि चाहिए क्यों? फिर तो तुम जानवर सरीखे हो।
तो जो लोग आध्यात्मिक नहीं होते, जिनके भीतर परमतत्व से एक हो जाने की चाह नहीं होती, वो मूर्ख भी हो जाते हैं, डंब , निर्बुद्घि। आदमी अलग है क्योंकि आदमी के पास बुद्धि है। इसका मतलब आदमी प्रकृति भर नहीं है। ईश्वर की बनाई बाकी सब रचनाएँ बिलकुल वैसे ही चलेंगी जैसी उनको बना दिया गया है, ठीक?
समझिएगा, साथ रहिएगा। और बाद में कोई बात हो तो उसको भी लेकर के आइएगा। मुझे बहुत खुशी हो रही है चर्चा करने में।
बाकी जितनी चीज़ें रची हैं ईश्वर ने वो वैसी ही चलेंगी जैसी वो रच दी गई हैं। वो वैसी हैं जैसे आदमी एक घड़ी बना दे। घड़ी का काँटा कैसे चलेगा? जैसा तुमने उसको चलने के लिए प्रोग्राम कर दिया। ठीक है?
कुत्ता कैसे चलेगा? मैंने अभी थोड़ी देर पहले भी कहा था, कुत्ते आज से एक लाख साल पहले जैसे होते थे, आज भी वैसे ही हैं। बस इतना अंतर पड़ सकता है कि पहले जंगल वाले थे तो वो थोड़ा भेड़िये की तरह के थे, अभी आदमी ने उनको पालतू बना लिया तो वो हमारी गलियों के घूमते रहते हैं और कुकुवाते रहते हैं। लेकिन उनकी मूल वृत्ति में कोई अंतर नहीं आ गया।
उन जानवरों की बात कर लो जो बहुत-बहुत पुराने हैं। जैसे मगरमच्छ हो गया या कछुआ हो गया, ये जानवर बहुत पुराने हैं। ये तब के हैं जब आदमी भी नहीं हुआ करता था। और यकीन जानिए, कछुआ जैसा तब था वैसा ही आज भी है। वो तब भी प्रकृति के इशारे पर चलता था, वो आज भी प्रकृति के इशारे पर चलता है। आदमी की बात अलग है भाई। आदमी के पास बुद्धि है जिसको मैं विवेक कह रहा हूँ अभी। उसे प्रज्ञा भी कह सकते हैं, अभी काम के लिए मैं विवेक कह रहा हूँ। आदमी को विवेक दिया गया है। देने वाले ने ही दिया है, उसी ने (परमात्मा ने) दिया है। तो उसने एक ओर बनाया कछुआ और दूसरी ओर उसने बनाया आदमी।
कछुए को उसने क्या कहा?
कि, "भाई तू कुदरत के नियमों पर चलेगा।" कुदरत माने प्रकृति। "तू तो भाई, तू प्रकृति के नियमों पर चलेगा।" कछुए ने कहा, "हाँ।" और वो अपना कुदरत के नियमों पर चला जा रहा है, चला जा रहा है उसे बदलना ही नहीं क्योंकि कुदरत का नियम बिलकुल तय है, जमा हुआ है। और कछुआ उसी नियम पर चल रहा है पिछले दस करोड़ साल से।
आदमी को क्या कहा बनाने वाले ने? आदमी को बनाने वाले ने कहा कि, "देख भाई, कुछ बातों में तो तुझे कुदरती तौर पर चलना ही पड़ेगा, जैसे कि भई साँस तो तू नाक से ही लेगा। ऐसा नहीं हो सकता कि तू अपने तलवे से साँस ले। इसी तरीक़े से मर्द मर्द रहेगा, औरत औरत रहेगी। इसी तरीक़े से खाना तू मुँह से ही खाएगा। इसी तरीक़े से हाथ तो तेरे पास दो ही रहेंगे, दाँत तेरे पास बत्तीस ही रहेंगे। जन्म हुआ करेगा तेरा, जैसे कुदरत में हर जीव का जन्म होता है। और जैसे कुदरत में हर जीव की मृत्यु होती है वैसे ही मृत्यु भी हुआ करेगी तेरी।"
तो बनाने वाले ने कहा कि, "देख भाई इंसान, कुछ बातें तो तेरी कुदरती ही रहेंगी, प्रकृति-बद्ध रहेंगी। जैसे प्रकृति में सब जीव चलते हैं, तुझे भी चलना पड़ेगा। तुझमें और बाकी जीवों में एक कुदरती, प्राकृतिक समानता रहेगी। जैसे कि कुत्ते को पत्थर मारो तो उसे चोट लगती है। तुम्हें भी पत्थर मारा जाए, तुम्हें भी चोट लगेगी। तो कुछ बातों में तो तू बिलकुल प्राकृतिक रहेगा। बाकी जानवरों में भी कामवासना उठती है, तुझ में भी उठेगी। बाकियों को भी डर लगता है, भूख लगती है, तुझे भी लगेगी। लेकिन दूसरी ओर मैं तुझे एक खास चीज़ दे रहा हूँ जो मैने पूरी कायनात में किसी और को नहीं बख़्शी।"
क्या है वो?
तड़प और विवेक। "और तुझे इसका इस्तेमाल करना है और तूने इसका इस्तेमाल नहीं किया तो तू मेरी आज्ञा की उपेक्षा, अवहेलना कर रहा है। नाफ़रमानी कर रहा है फिर तू, फ़रमान दे दिया मैंने तुझे कि तुझे मैं एक ख़ास चीज़ दे रहा हूँ जो मैं किसी जानवर को नहीं दे रहा। और वो क्या है? विवेक, प्रज्ञा। ये मैं किसी और को नहीं दे रहा, तुझे दे रहा हूँ और तुझे इसका इस्तेमाल करना है। और क्यों दी है मैंने तुझे ये चीज़?"
"हाँ, तुझे उसका इस्तेमाल इस तरह करना है कि तेरी चेतना की तड़प शांत हो, बढ़े नहीं।"
इंसान ने बदतमीज़ी ये करी है अपने बनाने वाले के साथ कि उसको बुद्धि दी गई थी चेतना की तड़प मिटाने के लिए पर उसने बुद्धि का ऐसा उल्टा उपयोग किया कि उसकी चेतना की तड़प शांत होने की जगह और बढ़ती ही जा रही है। आज आदमी को देखो न, कैसा बदहवास घूम रहा है। आप सहमत होंगे।
आदमी को देखिए कैसा विक्षिप्त हो गया है। देखिए कैसे मनोरोग, मेंटल डिसऑर्डर सब बढ़ रहे हैं। क्यों बढ़ रहे हैं? क्योंकि इंसान ने अपनी बुद्धि का इस्तेमाल अपनी तड़प को, अपनी जो आंतरिक प्यास है उसको मिटाने की जगह बेवकूफियों में करा है जिसकी वजह से वो प्यास, वो तड़प और बढ़ गई है।
लेकिन फिर भी उस विवेक का इस्तेमाल तो तुम्हें करना ही है न? और ऐसे करना है कि तुम शांति की ओर बढ़ो।
अब मुझे बताइए कि आपको जानवर काट कर खाना है या नहीं? और ये तर्क तो दीजिए ही नहीं कि, "बनाने वाले ने मुझे हुक्म दिया है कि तुझे जानवर काटकर खाने हैं।" मुझे दिखा दीजिए कौनसे धर्मग्रन्थ में लिखा है कि अगर तुम जानवर मारकर नहीं खाते तो तुम एक सच्चे हिन्दू नहीं हो या ईसाई नहीं हो या बौद्ध नहीं हो या मुसलमान नहीं हो? बताइए कहाँ लिखा हुआ है। अधिक-से-अधिक आपको ये लिखा मिल जाएगा कि तुमको फलानी चीज़ करने की अनुमति है। 'तुम ये कर सकते हो।' ये तो नहीं कहा गया कि आज्ञा है। किसी को अनुमति देने में और आज्ञा देने में अंतर होता है कि नहीं होता है?
आप किसी को किसी चीज़ का विकल्प दे रहे हैं वो एक बात है और आप किसी को किसी चीज़ की आज्ञा दे रहे हो, वो बिलकुल दूसरी बात है न?
कहाँ कहा गया है कि हिन्दू अगर माँस नहीं खाएगा तो अच्छा हिन्दू नहीं हो सकता? कहाँ कहा गया है कि मुसलमान अगर माँस नहीं खाएगा तो अच्छा मुसलमान नहीं हो सकता?
अधिक-से-अधिक आपको विकल्प ही तो दिया गया है कि खा सकते हो। जहाँ विकल्प दिया गया है वहाँ पर दो रास्ते हैं अब। विकल्प का मतलब ही यही होता है, ऑप्शन * । दो रास्ते, माने खा भी सकते हो और नहीं भी खा सकते हो। अब आपको चुनाव करना है न, और चुनाव आपको कैसे करना है? उसी ऊपरवाले के द्वारा बख़्शी गई * इंटेलैक्ट (बुद्धि) से, विवेक से, चेतना से आपको चुनाव करना है। ये तो अजीब आपने कुतर्क दे दिया कि "साहब, हमारा ग्रन्थ कहता है कि तुमको माँस खाने का विकल्प है, तो मैं तो खाऊँगा।"
क्यों साहब ग्रन्थ जब कह रहा है कि खा भी सकते हो तो ये भी तो कह रहा है कि नहीं भी खा सकते हो। वो दूसरा विकल्प आप क्यों नहीं चुन रहे? अपनी बात तो करिए न। तो फिर इसका मतलब ये ग्रन्थ का फ़रमान नहीं है, ये आपकी ज़बान का फ़रमान है। आपकी स्वाद लोलुपता का फ़रमान है। और आप बहुत ही निकृष्ट काम कर रहे हो, अपने स्वाद की पूर्ति के लिए धार्मिक ग्रंथ का हवाला देकर के। इतनी ईमानदारी तो रखिए कि सीधे बोलिए कि, "बात इसमें गॉड (भगवान) की या मेरे धार्मिक ग्रंथ की नहीं है, बात सीधी है मुझे जानवर काट कर खाने में मज़ा आता है तो मैं खाता हूँ।" इतनी ईमानदारी भी नहीं है। इसमें फिर बीच में तुम धर्मग्रंथ को क्यों ला रहे हो? महाभारत को, मनुस्मृति को, क़ुरआन को क्यों लेकर के आ रहे हो? फिर तो बात सीधे-सीधे तुम्हारी स्वाद लोलुपता की है न, उसकी बात करो।
बात समझ में आ रही है?
जिस परवरदिगार ने हम सब को बनाया है — मैं ये दूसरी-चौथी बार दोहरा कर बोल रहा हूँ क्योंकि ये बात हम समझ ही नहीं पाते हैं — उसने हमको जानवरों जैसा या मशीनों जैसा नहीं बनाया है। उसने हममें कुछ चीज़ें जानवरों जैसी रखी हैं लेकिन साथ-ही-साथ कुछ ऐसा रखा है जो जानवरों से बिलकुल अलग है, क्या? चेतना, सोचने-समझने की शक्ति, विवेक, प्रज्ञा। और उसी ने हमें आज्ञा दी है कि तुम्हें ये सब चीज़ें दी जा रही हैं, इनका इस्तेमाल करना। और ऐसे करना कि तुम शांत हो सको, ऐसे मत करना कि दुनिया में और आग लगे।
अब दुनिया में जो आग लग रही है उसकी चर्चा कर लेते हैं। सबसे बड़ी आग जो दुनिया में लगी हुई है वो है क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन) की। वाकई आग ही लगी हुई है। तापमान बढ़ता ही जा रहा है, बढ़ता ही जा रहा है। (प्रश्नकर्ता को सम्बोधित करते हुए) और आप भलीभाँति जानते हैं, आप तो साक्षर आदमी होंगे। यूनिवर्सिटी (विश्वविद्यालय) वगैरह की डिग्री होगी आपके पास, ट्विटर पर आप धाराप्रवाह अंग्रेज़ी में मुझसे बात कर रहे हैं।
क्लाइमेट चेंज के बड़े-से-बड़े कारणों में है माँसाहार। आप उसके बाद भी माँसाहार की वकालत कर रहे हो, ये क्या तरीक़ा है?
और अगर मैं कुछ ग़लत बोल रहा हूँ तो आप बेशक अपना तर्क दें। मैं अगर ग़लत हूँ तो मुझे बहुत अच्छा लगेगा कि मैं ग़लत साबित हो जाऊँ। क्योंकि ग़लत आदमी अगर ग़लत साबित हो रहा है तो उसे सच्चाई पता चल रही है न? मैं तो सच्चाई का कायल हूँ। आप मुझे साबित कर दीजिए मैं ग़लत हूँ, मैं आपका शुक्रगुजार रहूँगा।
तो कह रहे हैं कि, "भई, कुछ जगहें हैं पृथ्वी पर साइबेरिया जैसी जहाँ कुछ पैदा नहीं होता।" उनकी बात बाद में करेंगे। हर आदमी को हमने कहा क्या बख़्शी गई है चीज़? विवेक।
आप पहले अपनी बात करिए न, आपको अपने लिए सोचना है। ये आप साइबेरिया वाले की दलील देकर के खुद जाओगे और बकरे की गर्दन में दाँत गड़ा दोगे। ये क्या बात हुई?
और समझिएगा, यहाँ मैं किसी एक धर्म के लोगों से ना बात कर रहा हूँ, ना मैं किसी धर्म का बनकर बात कर रहा हूँ। कृपा करके इसको हिन्दू या ग़ैर हिन्दू या मुस्लिम या ग़ैर मुस्लिम के बीच की चर्चा मत बना दीजिएगा। ये तो एक खुला संवाद है जहाँ खुले दिल से बात-चीत हो रही है। मैं अपनी बात रख रहा हूँ, आपने अपनी बात रखी बहुत सारी उसके जवाब में। कुछ मैं आपसे सुनूँगा-सीखूँगा, कुछ आप मुझसे सुनिए-सीखिए। उद्देश्य हम दोनों का एक है। हमें सच्चाई तक पहुँचना है। है न?
तो आप कह रहे हैं कि, "मेरे ईश्वर ने ही मुझे ओमनिवोर (सर्वभक्षी) बनाया है।" ईश्वर ने ओमनिवोर बनाया है माने ईश्वर ने आपको विकल्प दे दिया है।
मैं माने लेता हूँ कि आदमी वो है जो दोनों चीज़ें खा सकता है, शाक, फूल, फल, पत्ते वगैरह भी और माँस भी। एक बार को मैंने मान लिया कि आदमी ओमिनिवर है। हालाँकि इसपर भी बहुत तर्क हैं जो कहते हैं कि ओमनिवोर होना आपकी प्रकृति नहीं है। लेकिन फ़िर भी चलिए मैंने मान लिया कि आदमी ओमनिवोर है। तो अब आप फ़ैसला करोगे न कि आपको खाना क्या है? वो फ़ैसला आप क्यों नहीं खुले दिमाग़ से और प्रेमपूर्ण हृदय से कर सकते हो? बताओ न।
मैं मान भी लूँ कि मुझे विकल्प मौजूद हैं, यहाँ मुर्गा रखा है और यहाँ पर सेब रखा है और गोभी रखी है, तो मैं क्यों चुनूँ मुर्गे की गर्दन मरोड़ना? क्या इतना ही काफ़ी नहीं है कि जब मैं गोभी भी खाता हूँ या आलू भी खाता हूँ तो ज़रा सी हिंसा तो वहाँ भी हो जाती है?
अपने-आपमें तो गुनाह ये भी हो गया कि तुम कुछ भी खाते हो तो थोड़ी सी हिंसा तो वहाँ भी कर देते हो। जो पहले ही गुनहगार है, आलू खाने में भी जो गुनहगार है, वो और हज़ार गुना बड़ा गुनाह करे क्या मुर्गा खाकर के? ये कहाँ की दलील हो गई भाई?
और इतना ही नहीं है, लोग यही नहीं करते कि मुर्गा चबा रहे हैं। मुर्गा चबाने के पक्ष में वो ये तर्क दे देते हैं कि "साहब, आप आलू खा रहे हो, आलू में भी तो प्राण थे।" और मैं बिलकुल मानता हूँ आपने सही बात कही, आलू में भी प्राण थे। क्या करें अब इंसान का जिस्म मिला है तो थोड़ा बहुत कुछ तो खाना ही पड़ेगा। और यही तो चेतना की फड़फड़ाहट है, यही तो तड़प है चेतना की कि हमारे होने में ही हिंसा है। यही तो हमें दुःख है कि दूसरों को दुःख दे रहे हैं और खुद दुःख पा रहे हैं। इसीलिए तो जीवन में अध्यात्म सर्वोपरि है।
मैं बिलकुल मानता हूँ कि आप अगर एक पत्ती भी तोड़ते हो तो बुरा लगता है। अभी गुरु-पूर्णिमा थी तो लोगों ने यहाँ पर लाकर के फूल बिछा दिए, और फूल मैंने जैसे ही देखे, जी धक से हो गया। क्योंकि मैं जानता हूँ उन फूलों को। वो यहीं पर जो बेल लगी हुई हैं, उनके फूल हैं। चम्पा है और मधुमालती है, इन सब के फूल थे। तो हिंसा तो तब भी हो गई सूक्ष्म जब आपने चम्पा को झकझोर कर उसके फूल गिरा दिए और लाकर के यहाँ बिछा दिए। क्या इतना ही गुनाह काफ़ी नहीं था जो तुम अब इतना बड़ा गुनाह करने जा रहे हो कि बकरे की गर्दन काटोगे?
और ये गुनाह करके फिर कहाँ चैन मिलेगा? वैसे ही हम इतने परेशान हैं, क्यों और अपनी परेशानी बढ़ाना चाहते हो?
फिर कह रहे हैं कि "ईटिंग नॉन वेज इज ए पर्सनल चॉइस, इवन माय ब्राह्मण एंड जैन फ्रेंड्स ईट नॉन वेज विथ मी। " (माँस खाना एक निजी पसंद की बात है, मेरे ब्राह्मण और जैन दोस्त भी मेरे साथ माँस खाते हैं।)
ये तो बिलकुल सही बात बोली आपने। मैं पूर्णतया सहमत हूँ कि ये एक व्यक्तिगत मसला ही है कि कौन क्या खाएगा, कौन नहीं खाएगा। पर चूँकि व्यक्तिगत है इसलिए महत्वपूर्ण है न? जो कुछ आपका पर्सनल होता है वो आपके लिए महत्वपूर्ण हो जाता है न? कोई चीज़ अगर सार्वजनिक हो तो एक बार फिर भी आप उसकी उपेक्षा कर देते हैं, पर कोई बात अगर आपकी बिलकुल व्यक्तिगत है तो उस मुद्दे पर आप बहुत गौर करते हैं, बहुत ध्यान देते हैं न? देते हैं न?
तो ये व्यक्तिगत मसला ही है क्योंकि इसका ताल्लुक़ आपके व्यक्तिगत चैन से है, आपकी व्यक्तिगत मुक्ति से है। इसीलिए इस मुद्दे पर मेरा निवेदन है आपसे कि खूब ध्यान दीजिए। और ये कह देने से कि, "मेरे ब्राह्मण दोस्त हैं, मेरे जैन दोस्त हैं वो भी मटन-मुर्गा खा रहे हैं", तो उससे कुछ साबित नहीं हो गया। ब्राह्मण तो माफिया-डॉन भी बनकर घूम रहे हैं, जैन बड़े-बड़े घपले करके, घोटाले करके बैठे हुए हैं। तो उससे क्या साबित हो गया? ये कोई महावीर वाले जैन हैं? ये कोई अगस्त्य मुनि वाले ब्राह्मण हैं?
तो ये तो सब नाम के जैन हैं, नाम के ब्राह्मण हैं। ये अगर इस तरह की क्रूरताएँ कर रहे हैं तो उनका ज़िक्र करके आप कुछ साबित नहीं कर रहे। इससे बस इतना पता चलता है कि ब्राह्मण ब्राह्मण नहीं रहा, जैन जैन नहीं रहा, मुसलमान मुसलमान नहीं रहा, इंसान इंसान नहीं रहा। हम सब ही सिर्फ़-और-सिर्फ़ अपने स्वार्थ के, अपने स्वाद के, अपनी ज़बान के, अपने लालच के, इसी के हम दीवाने हैं बस। कि बस किसी तरीक़े से हमको मज़ा मिलता रहे चाहे उसमें पूरी दुनिया में आग लग जाए। चाहे कोई धर्म का मानने वाला हो, किसी देश का रहने वाले हो, हम सब एक से हो चुके हैं।
कौन कहता है कि इस दुनिया में अब बहुत कोई हिन्दू हैं कि जैन हैं, ईसाई हैं, मुसलमान हैं? ज़्यादातर लोगों का अभी परमेश्वर एक है। उस परमेश्वर का नाम है उनका अपना स्वार्थ, उनका अपना अहंकार। ज़्यादातर लोग बस उसी के इशारे पर चलते हैं। बाकी सब धर्म मिट रहे हैं, एक ही धर्म बच रहा है — अहंकार धर्म।
तो ये स्थिति कुछ अच्छी नहीं है, उसी तरह की स्थिति के कारण आज तमाम तरह की आपदाएँ हमको देखने को मिल रही हैं। उनका हमें मिल-जुलकर सामना करना है।
मुझे बड़ा अच्छा लगा आपने ये सवाल उठाया, ये बातचीत हो पाई। इसको बहुत स्वस्थ तरीक़े से ही सुनिएगा। इसको किसी भी तरह का सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश मत करिएगा क्योंकि बड़े मुद्दों के साथ हमारा काम है, वेदांत के साथ उठना-बैठना है, छोटी बातों में उलझने से हमें कोई सरोकार नहीं है। तो किसी धर्म को आगे बढ़ाना और ये सब करना और सम्प्रदायवाद को हवा देना, इन चीज़ों से हमारा कोई ताल्लुक़ नहीं है। तो कृपा करके इस वीडियो को और मेरी बात को उस नज़रिए से मत देखिएगा। एक स्वस्थ संवाद मैने आपके साथ करना चाहा है। उसको समझिएगा और अगर मन करे तो जवाब भी दीजिएगा, अच्छा लगेगा।