प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मैं आपको पिछले छः महीने से सुन रही हूँ और मेरा प्रश्न पहले सत्र से जुड़ा हुआ है। तब आपने कहा था और मैं मानती भी हूँ कि जो ब्रह्म है वही सत्य है। और जो निराकार है, जिसे हम ईश्वर भी कहते हैं, सामान्य भाषा में हम ईश्वर को कहते हैं कि वो निराकार है। यहाँ तक बात समझ में आती है।
फिर हमारी जो मान्यताएँ हैं, हमारे जो शास्त्र हैं या पुराण हैं या पौराणिक कहानियों में हम जब पढ़ते हैं, तो हम उस एक शक्ति को ही तीन रूपों में देखते हैं - ब्रह्मा-विष्णु-महेश। ब्रह्मा जी, जो सृष्टि के रचयिता हैं। विष्णु, जो पालनकर्ता हैं। और महेश, जिन्हें हम शिव भी कहते हैं, जो विनाशक हैं। फिर थोड़ा और आगे आ जाते हैं सामान्य लोगों में, जिन्हें हम पूजते हैं मंदिरों में, जिनकी हमने मूर्तियाँ बना रखीं है, जिन्हें हम अवतार कहते हैं विष्णु के - श्रीकृष्ण हैं और श्रीराम हैं। और शिव को भी हम कई अलग-अलग तरीके से पूजते हैं, उनके भी मंदिर हैं, उनके शिवलिंग हैं। और फिर हमारी शक्तियाँ हैं, देवी, उन्हें भी हम पूजते हैं।
मैं ये समझना चाहती हूँ कि जो हमारे ईश्वर हैं वो फॉर्मलेस हैं, निराकार हैं, वही एक है, सत्य है, ब्रह्म है। पर फिर जब पूजने की बारी आती है तो जिन्हें हमने मंदिरों में स्थापित कर दिया है, बंद कर दिया है, उनको तो हमने एक फॉर्म बना दिया है। फिर जो ब्रह्म-विष्णु-महेश, श्रीकृष्ण, श्रीराम - जिन्हें हम पूजते हैं, इन्हें हम एक करके कैसे देखें?
आचार्य प्रशांत: नहीं, ये एक हैं ही नहीं तो कैसे करेंगे? ये तो जीवन के अलग-अलग रूपों के प्रतिनिधि हैं।
अच्छा प्रश्न है और बड़ा विस्तृत प्रश्न है, इसमें आपने सबकुछ ही पूछ लिया।
देखिए, ईश्वर निराकार है लेकिन ईश्वर निर्गुण नहीं है। क्यों? क्योंकि मान्यता के अनुसार ईश्वर इस जगत का कार्यवाहक है, संपादक है, मूलकर्ता है। यही कहते हैं न हम, कि सबकुछ ईश्वर कर रहा है? तो ईश्वर और ब्रह्म में ये अंतर होता है। ब्रह्म निर्गुण है, निराकार है, निरवयव है और अकर्ता भी है। ब्रह्म कुछ नहीं करता। ब्रह्म एकमात्र सत्य है, जगत है ही नहीं; तो कौनसा जगत है जिसे ब्रह्म चलाए!
ठीक?
ब्रह्म सिर्फ़ उनके लिए है जो प्रबल तत्वज्ञानी हों। जो जगत की निस्सारता स्पष्ट देख रहे हों, ब्रह्म उनके लिए है। और इसीलिए ब्रह्म की कोई पूजा नहीं होती, क्योंकि पूजा करने के लिए दो चाहिए। ब्रह्म माने विशुद्ध अद्वैत। अगर ब्रह्ममात्र है, तो तुम पूजा कैसे कर लोगे, कौन किसकी पूजा कर रहा है? पूजा करते ही दो बना दिए न! तो ब्रह्म की उपासना जैसा कुछ हो नहीं सकता! कोई कहे, ‘मैं ब्रह्म का उपासक हूँ,’ ये बात कोई बहुत जँचेगी नहीं। हालाँकि भाव समझ में आता है। आप कहें, ‘हम ब्रह्म की उपासना करते हैं,' तो भाव समझ में आ रहा है कि आप ब्रह्म के निकट जाना चाहते हैं, आप सत्य के निकट जाना चाहते हैं। लेकिन फिर भी तात्विक दृष्टि से ये बात ठीक नहीं हुई कि ब्रह्म की उपासना।
ब्रह्म का मतलब जब कुछ शेष नहीं है। ये सब जो आपको दिखाई देता है, ये आपके लिए बिलकुल महत्वहीन हो जाए, आपका अपना अस्तित्व ही आपके लिए महत्वहीन हो जाए, अहंकार आपका एकदम शून्य हो जाए, तब ब्रह्म है। ब्रह्म और ईश्वर में बहुत अंतर है। ईश्वर वो जो सिद्धांत के अनुसार जगत को रचता है। ब्रह्म वो जिसके सामने जगत है ही नहीं, जगत माया है। तो इसीलिए जो विशुद्ध अद्वैती होगा वो ईश्वर को भी माया ही मानता है; कहता है, ‘ब्रह्म पर जब माया का विक्षेप हो जाता है तो ईश्वर आता है।‘
लेकिन उसको छोड़िए अभी! चूँकि हम तो वो लोग हैं जो जगत को मान्यता देते हैं, हमारे लिए तो जगत है और असली है, सच्चा है, तो फिर एक ईश्वर का सिद्धांत खड़ा होता है कि अगर ये जगत है तो इसको चलाने वाला भी कोई होगा। तो उसके लिए फिर ईश्वर को सामने लाया जाता है, कि एक ईश्वर है जो दिखता तो नहीं है, अदृश्य है, निराकार है, वगैरह-वगैरह, पर है, अस्तित्वमान है। और यदि अस्तित्वमान है, तो फिर वो जगत के तल का ही हो गया न? क्योंकि जगत भी क्या है? अस्तित्वमान है।
ईश्वर को भी आप मानते हो कि ईश्वर है। (सामने रखे मेज, माइक और मग को बारी-बारी से इंगित करते हुए) आप कहते हो, ‘ये मेज़ है, ये माइक है, ये मग है', ऐसे ही आप बोल देते हो, 'ईश्वर है।' अगर है, तो वो भी इन्हीं (वस्तुओं) के तल का हो गया। ख़ैर, वो इन्हीं (वस्तुओं) के तल का है लेकिन सिद्धांत कहता है कि वो इनसे (वस्तुओं) ज़्यादा सामर्थ्यशाली है और ये सब छोटे हैं, वो बहुत बड़ा है; कि इनकी (वस्तुओं) शक्ति सीमित है, उसकी शक्ति असीमित है, वो इस पूरी दुनिया का पालन करता है। तो वो आपने ईश्वर मान लिया।
ईश्वर तक कम-से-कम इतना था कि वो अदृश्य है और निराकार है और अरूप है। फिर आप आते हैं देवी-देवताओं पर। तो ईश्वर ने ये प्रकृति रची है, प्रकृति माने पूरा ब्रह्मांड। सबसे पहले हमने बात करी ब्रह्म की, फिर ब्रह्म से नीचे हमने कहा ईश्वर। अब और नीचे आ जाएँ। ब्रह्म का प्रकृति से कोई लेनादेना ही नहीं, ब्रह्म के सामने प्रकृति क्या है? मिथ्या। ईश्वर कौन है? जिसने प्रकृति की रचना की है और उसका कार्य संपादन करता है। अब और नीचे आ जाओ, प्रकृति के अंदर ही आ जाओ। अब, प्रकृति के अंदर हमें तमाम शक्तियाँ अनुभूत होतीं हैं; करुणा एक शक्ति है, जल एक शक्ति है, भौतिक शक्तियाँ हैं, अभौतिक शक्तियाँ हैं।
भौतिक शक्ति क्या हो गई? जैसे सूर्य की शक्ति। अभौतिक शक्ति कैसी हो गई? कि जैसे मोह की शक्ति या क्रोध की शक्ति। भौतिक-अभौतिक दोनों ही शक्तियों का अनुभव हमें इस जगत में होता है न? तो ये सब देवी-देवता बन जाते हैं। तो सूर्य एक भौतिक शक्ति है, वो देवता बन गए। क्रोध एक अभौतिक शक्ति है, मानसिक शक्ति है, वो काली माता बन गईं। तो इस तरह से फिर तमाम देवी-देवताओं की बात होती है। फिर उन्हीं देवी-देवताओं में जो बिलकुल शीर्षस्थ हैं, वो हो जाते हैं ब्रह्मा-विष्णु-महेश।
अब इसमें महेश का स्थान थोड़ासा विशिष्ट है। क्यों? क्योंकि विष्णु तो चलाने वाले हैं, वो तो चला रहे हैं। प्रकृति की धारा है, चल रही है, उनका (विष्णु) सबकुछ प्रकृति की धारा के अंदर ही है। और वही जब कुछ मनुष्यों में बहुत अद्भुत और विशिष्ट गुण देखने को मिलते हैं, ऐसे गुण देखने को मिलते हैं जिनके कारण दुनिया सहजता से चल पाए, धार्मिकता से चल पाए, न्याय से चल पाए, तो फिर उनको हम विष्णु का अवतार बोल देते हैं। क्यों बोल देते हैं? क्योंकि विष्णु का काम क्या है? दुनिया को चलाना। तो जब आप कोई इंसान ऐसा पाते हो जिसके होने के कारण दुनिया करुणा से चल पायी, सहजता से चल पायी, प्रेम से चल पायी, न्याय से चल पायी, तो फिर आप उसको कहते हो कि ये विष्णु के अवतार हैं। ये सम्मान की बात है, आपने सम्मान में कहा कि ये व्यक्ति ऐसा है कि इसे विष्णु का अवतार कहो।
शिव वो हैं जो इस पूरी प्रकृति की व्यवस्था को समाप्त भी कर सकते हैं। ठीक है? इसी विशिष्टता के कारण शिव ब्रह्म के बहुत निकट आ जाते हैं। कोई आपको नहीं मिलेगा जो कहे कि ब्रह्मा ब्रह्म हैं। क्योंकि ब्रह्मा का काम है शुरुआत करना। शुरुआतें तो हम सभी करते ही रहते हैं, प्रकृति में प्रतिदिन नई शुरूआतें हो रहीं हैं। इसी तरीके से विष्णु को भी ब्रह्म नहीं माना जाता, लेकिन शिव को मानते हैं क्योंकि शिव विशिष्ट हैं। क्यों? क्योंकि वो इस सबको लीन भी कर सकते हैं, सब ख़त्म कर सकते हैं। और जब सब ख़त्म हो जाता है तो क्या बचता है? जो बचता है उसको ब्रह्म बोलते हैं, तो इसलिए फिर शिव को ब्रह्म भी बोल देते हैं।
तो जो ये त्रिपुटी है - ब्रह्मा-विष्णु-महेश - इसमें शिव का स्थान फिर विशिष्ट हो जाता है।
तो इसीलिए फिर शिव के दो रूप हमारे सामने आते हैं। एक वो जिसमें आप ‘शंकर’ कहकर के उनकी पूजा करते हैं, जिसमें वो देवी पार्वती के साथ बैठे हैं और दो बालक हैं और उनसे जुड़ी हुई तमाम पौराणिक कथाएँ हैं। वो शंकर का रूप है, वो शिव का साधारण रूप है। और फिर शिव का एक रूप है जिसमें शिव अकेले हैं, जिसमें शिव के साथ कोई नहीं; वो शिव का ब्रह्मरूप है, उसमें आप उनके साथ कोई कहानी नहीं जोड़ सकते। तो जब आचार्य शंकर कहते हैं, ‘शिवोऽहम्’, तो वो किस शिव की बात कर रहे हैं? जो ब्रह्म शिव हैं, उनकी बात कर रहे हैं; वो फिर कैलाश पर्वत वाले शिव की बात नहीं कर रहे। कैलाश पर्वत वाले शिव तो एक कथा के अंग हैं, जो वास्तविक शिव हैं वो साक्षात् ब्रह्म हैं।
ठीक है?
तो सनातन धर्म में इस तरह का क्रम (क्रमशः ऊपर से नीचे की ओर) है, ऐसी वरीयता है। ये समझना बहुत ज़रूरी है।
समझ में आ रही है बात?
जो जान सकते हैं, जो समझ सकते हैं, उनके लिए ब्रह्म है। जो उतनी दूर तक जा ही नहीं पाते, जिनका अहंकार, जिनकी आंतरिक मोह-माया उन्हें अनुमति नहीं देती है जगत को मिथ्या देख पाने की, उनके लिए भगवान या ईश्वर हैं। और जो निराकार ईश्वर तक में मन नहीं लगा सकते, क्योंकि निराकार है भाई, तो फिर उनके लिए साकार देवी-देवता हैं। जो इतनी ऊँची श्रेणी का तत्वज्ञानी हो कि निर्गुण-निराकार की ओर बढ़ सके, उसके लिए ब्रह्म है। वो फिर कहेगा, ‘मैं ब्रह्मसाधना कर रहा हूँ।‘ जो जान जाता है ब्रह्म को, ब्रह्मज्ञानी कहलाता है। मन की वो स्थिति जिसमें वो ब्रह्म के बहुत पास आ जाता है, वो ब्राह्मी स्थिति कहलाती है।
पर वो विरले लोगों के लिए है। क्यों? क्योंकि ब्रह्म — दोहरा रहा हूँ इस बात को — क्योंकि ब्रह्म का मतलब होता है कि अब ब्रह्म ही है, कुछ और नहीं है; तो ये दुनिया क्या हो गयी? ये गयी। तो ब्रह्म सिर्फ़ उनके लिए है जिनके लिए दुनिया अब सारा आकर्षण छोड़ चुकी है, जिन्हें बहुत लेना-देना नहीं है दुनिया से। लेना-देना नहीं है का मतलब ये नहीं है कि वो वैरागी हो गए हैं, सड़क पर घूम रहे हैं। नहीं! जो जान गए हैं, जो ज्ञान के तल पर समझ गए हैं - ‘यहाँ से मैं कुछ लेकर जाने वाला नहीं, ये व्यर्थ है मामला। हाँ, अब व्यर्थ है, उसके बाद हम निष्काम कर्म कर लेंगे, और मौज में कर लेंगे, पर दुनिया से हमें किसी तरह की कोई अपेक्षा नहीं है।‘ जो ऐसे हो गए हैं, उनके लिए; सिर्फ़ उनके लिए, सिर्फ़ उनके लिए ब्रह्म है।
जिनका अभी जगत में विश्वास तो है, पर जो ये समझते हैं कि जगत को चलाने वाला कोई हमारे जैसा मनुष्य नहीं हो सकता क्योंकि अगर वो मनुष्य है तो हमारे ही जैसा हो गया भाई, उनके लिए फिर निराकार ईश्वर है। तो इन्होंने इतनी गनीमत रखी कि माना कि जो सर्वोत्तम है वो निराकार ही होगा, उसका कोई आकार नहीं हो सकता, उसका कोई रूप, उसकी कोई मूर्ति नहीं हो सकती। इन्होंने इतना तो मान लिया कि निराकार ही सर्वोत्तम होगा, लेकिन ये इतना साहस नहीं दिखा पाए कि ये भी मानें कि जगत व्यर्थ है।
तो इन्होंने कहा, ‘नहीं, जो सर्वोत्तम है वो एक निराकार ईश्वर है, लेकिन वो इस जगत को चलाता है। जगत तो है, और ईश्वर और जगत का संबंध है। वो ईश्वर बैठकर क्या कर रहा है? वो जगत को चला रहा है, वो अच्छे-बुरे का निर्धारण कर रहा है; वो न्याय भी कर रहा है, पैदा भी कर रहा है, मार भी रहा है, इत्यादि-इत्यादि।‘ इस तरह की बातें कह दीं। तो ये ब्रह्म से नीचे वाले लोग हो गए।
और फिर और जनसाधारण का जो तल होता है वहाँ पर ये कल्पना करना भी मुश्किल हो जाता है कि निराकार माने क्या। कहते हैं, ‘निराकार कुछ कैसे हो सकता है? निराकार कैसे हो सकता है? निराकार नहीं, निराकार नहीं!’ तो फिर उनके लिए आकारों की व्यवस्था की गई, मूर्तियों की व्यवस्था की गई। उनको कहा गया कि जो अच्छी-अच्छी बातें हो सकतीं हैं प्रकृति में, उन सबको हम मूर्तियों के रूप में बना देते हैं, अब तुम इनको पूजो ताकि वो अच्छाइयाँ तुममें भी आ पाएँ।
तो ये जितने सब देवी-देवता हैं, ये सब अलग-अलग तरह की शक्तियों के, गुणों के, वर्च्यूज़ (सद्गुणों) के प्रतीक हैं।
तो इसीलिए सब देवी-देवता आप पाएँगे — और बहुत सारे हैं, ग्राम स्तर पर भी, कस्बा स्तर पर भी आप पाएँगे कि कुलदेवता होते हैं, ग्रामदेवता होते हैं — सबके अपनेअपने गुण और लक्षण होते हैं, और उनका जो चरित्र होता है वो साफ़-साफ़ बताया गया होता है कि ये ऐसे हैं। उदाहरण के लिए, कहा जाएगा कि फलाने देवता हैं, वो मीठा खाकर प्रसन्न होते हैं, या फलानी देवी हैं, जब तक घंटा नहीं बजाओगे तो वो प्रसन्न नहीं होतीं। ये सब प्रकृति की अलग-अलग शक्तियों की प्रतीक हैं। या ‘फलाने देवता हैं, उनके पास सावनमास में ही जाना होता है। बाकी दिनों में जाओगे तो कोई फल नहीं पाओगे, इन्हीं दिनों में जाओगे तभी पाओगे।‘
ये सब व्यवस्था की गई थी और इस व्यवस्था के पीछे एक सोच थी। सोच ये थी कि साधारण आदमी के लिए निराकार बड़ी दूर की बात है, उसके मन में, उसके भेजे में घुसेगी ही नहीं तुम बोल दोगे ‘निराकार’ तो। तो ब्रह्म तो बहुत दूर की बात है, वो ईश्वर तक में मन नहीं लगा सकता, तो फिर उसको प्राकृतिक शक्तियों की पूजा करने का प्रावधान रखा गया। जैसे नवरात्रि होती है, वहाँ आपको देवी के नौ रूप मिलते हैं। वो नौ रूप क्या हैं? वो प्रकृति के नौ अलग-अलग रूप हैं, उनकी पूजा करो।
ये बात समझ में आ रही है?
पूजा करने का क्या अर्थ होता है, अब ये भी समझो। पूजन का वास्तविक अर्थ होता है ज्ञान, समझना। हम जीवनभर किससे परेशान रहते हैं? हम प्रकृति से ही तो परेशान हैं न? प्रकृति माने क्या? पेड़-पौधा नहीं; ये देह, दूसरे मनुष्य, ये पूरा संसार ही प्रकृति है। हम जीवनभर प्रकृति से ही परेशान रहते हैं क्योंकि हम प्रकृति को समझते नहीं हैं। तो प्रकृति के अलगअलग रूपों को देवी-देवता इत्यादि बनाकर पूजने का मतलब होता है प्रकृति के हर रूप को समझना; तुम अगर समझ गए तो प्रकृति से मुक्त हो जाओगे।
प्रकृति पूजन के पीछे सिद्धांत यही है कि जिसने प्रकृति की उपासना कर ली ठीक से, प्रकृति माँ उसको मुक्ति भी दे देगी। और ये विधि कारगर भी रही है, क्योंकि मन की, मेधा की ऐसी तीक्ष्णता सबके पास नहीं होती कि सीधे-सीधे अष्टावक्र गीता ही समझ ले। और भारत खेतिहर देश रहा है, अधिकांश जनता को पढ़ने-लिखने की न सुविधाएँ उपलब्ध थीं, न बहुत रुचि दिखाती थी, क्योंकि उनको तो खेती करनी है तो वो बहुत पढ़ाई करके करेंगे क्या? लेकिन धर्म की ज़रूरत तो सबको है, क्योंकि मनुष्य सब हैं, चेतना सब हैं। तो फिर उनके कल्याण के लिए ये व्यवस्था की गई कि तुम मूर्ति पूजा करो, देवी की आराधना करो।
और इस व्यवस्था से लोगों को लाभ भी हुआ है। कोई तो जगह मिली न जहाँ सिर झुक गया? सिर का झुकना ही पर्याप्त हो जाता है। क्योंकि मूल दुख तो अहंकार है भाई, वो झुकता नहीं कहीं। कुछ आ जाए उसके सामने, वो झुकता नहीं। तो आप एक तेजस्विनी मूर्ति खड़ी कर दो सामने, और वो मूर्ति एक प्रतीक है; और किस चीज़ का प्रतीक है, ये सबको स्पष्ट कर दो बिलकुल, कि ये मूर्ति इन गुणों का प्रतीक है। और प्रत्येक मूर्ति कुछ गुणों का ही प्रतीक होती है, (उदाहरण के लिए) राम त्याग के प्रतीक हैं। प्रत्येक मूर्ति कुछ गुणों का प्रतिनिधित्व करती है। ये स्पष्ट कर दो कि उस मूर्ति से कौनसे गुण हैं जो विस्तीर्ण हो रहे हैं।
ये स्पष्ट होना चाहिए कि आप जब राम की मूर्ति के सामने झुक रहे हो तो आप निस्वार्थ त्याग की भावना के सामने झुक रहे हो। तो जब आप राम की मूर्ति के सामने झुकते हो तो आपने अपने अहंकार को बताया कि देखो निस्वार्थ त्याग बड़ी बात होती है; आपके जीवन में भी कुछ निस्वार्थता आ जाएगी।
तो इस तरीके से ये पूरी व्यवस्था करी गई है, और ये व्यवस्था अपने समय पर लाभदायक रही है, काम देती रही है। लेकिन कोई भी व्यवस्था चेतना को उठाने के लिए होती है न? तो चेतना का डब्बा बंद करके तुम पाओगे कि कोई भी व्यवस्था असफल ही हो जाती है तुम्हारे लिए। तुम उस व्यवस्था के पास जाओ, और तुमने अपनी चेतना का डब्बा तुमने बंद कर रखा हो, तो वो व्यवस्था तुम्हारे काम नहीं आएगी।
आप मूर्ति के सामने सिर झुका रहे हैं, और आपको पता ही नहीं है वो मूर्ति किसका प्रतीक है, तो आपका काम नहीं बनेगा। आप बस ‘हरि-हरि’ कर रहे हैं या ‘राम-राम’ या ‘कृष्ण-कृष्ण’ कर रहे हैं, बिना ये जाने कि कृष्ण किस गुण के प्रतिनिधि हैं; बात बनेगी नहीं। आप ‘हरे रामा-हरे कृष्णा' या कुछ भी बोलें, और आपने गीता पढ़ी नहीं कभी ठीक से, गीता आप जानते नहीं, तो आपको कोई लाभ नहीं होगा। क्योंकि अंतिम बात है चेतना का उठना। आप मूर्ति के सामने हो और आप मूर्ति को लेकर ही चैतन्य नहीं हो तो आपको लाभ नहीं हो सकता।
बात स्पष्ट हो रही है?
इससे संबंधित कोई और प्रश्न है तो पूछ लें, क्योंकि ये बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न है।
प्र२: नमस्कार आचार्य जी। मेरा प्रश्न है कि जितने भी महान लोग हुए हैं — जैसे कृष्ण हो गए, राम हो गए, गौतम बुद्ध हो गए, अष्टावक्र हो गए — इनके साथ एक कहानी भी जोड़ देते हैं लोग, जिसको अतिशयोक्ति बोल देते हैं अलंकार के रूप में।
तो श्रीकृष्ण से कहानी जुड़ी हुई है कि मैया को एक दिन कृष्ण के मुख में पूरा ब्रह्माण्ड दिखता है। तो मेरा तर्क ये है कि शायद ऐसा हो कि जब मिट्टी खा रहे थे तो मैया ने बोल दिया होगा कि अरे, दुनियाभर की मिट्टी खाकर बैठा हुआ है। सुनने वाले ने सुन लिया कि दुनिया खाकर बैठा हुआ है, लिखने वाले ने लिख दिया कि ब्रह्माण्ड खाकर बैठा हुआ है। तो होता ये है कि जो कहानी लिख देते हैं हम उसको महान बनाने के चक्कर में, जो वैज्ञानिक तर्क हैं उसको पीछे छोड़ देते हैं, और फिर उससे कुछ लोग दूर भाग जाते हैं। साथ-ही-साथ हम दरवाज़ा भी बंद कर देते हैं, कि वो तो महान लोग हैं, तुमसे नहीं हो पाएगा, तुम रहने दो।
दूसरी तरफ़ ये है कि हम जो पूजा करते हैं, जो ब्राह्मण होते हैं, वो महाभारत और रामायण और गीता की पूजा करते हैं। और तथाकथित जाति व्यवस्था में जो शुद्र हैं, वो डर के मारे इनकी पूजा करते हैं, श्रीकृष्ण की और राम की, साथ-ही-साथ वो वाल्मीकि और वेदव्यास — जो रचयिता हैं रामायण और महाभारत के — इनकी पूजा करते हैं। तो इसमें कोई संबंध समझ में नहीं आ रहा मुझे।
आचार्य: दो-तीन अलगअलग बातें हैं। पहली बात तो ये कि पौराणिक कहानियाँ, पुराणों में जो कहानियाँ हैं, उनमें जो सबसे सारगर्भित हैं, जिनमें सार छुपा हुआ है, वो बड़ी मूल्यवान हैं। उनको आप बस समझ लीजिए तो वो बड़ा सशक्त और सुंदर इशारा बन जातीं हैं सही जीवन जीने की तरफ़। और ऐसी कहानियाँ पुराणों में बहुत हैं; कमी अगर रह जाती है तो इसमें कि उनमें कौनसा प्रतीक छुपा हुआ है इस बात को हम समझते नहीं।
साथ-ही-साथ पुराणों में ऐसी भी कहानियाँ हैं जिनका कोई प्रतीकात्मक अर्थ भी नहीं निकला जा सकता, जो बस यूँ ही हैं; जिनको अधिक-से-अधिक बस कपोलकल्पना ही कहना चाहिए, यही ईमानदारी की बात है, कि उनमें देखो कुछ रखा नहीं है। पुराणों में वो संकलित कर दी गईं, उसके बाद वो परंपरा के तौर पर बस चली आ रहीं हैं। उनमें कोई ऐसा मूल्य नहीं है जिसको बहुत अन्वेषण करके भी निकाला जा सके।
तो दोनों तरह की कहानियाँ पुराणों में हैं। अब पुराणों से भारत की धार्मिक व्यवस्था को एक ढाँचागत मज़बूती भी मिली है और भारत का नुकसान भी बहुत हुआ है; मुझे डर है, मुझे ये कहना पड़ेगा कि शायद नुकसान ही ज़्यादा हुआ है। जिन कहानियों में कोई मर्म छुपा हुआ है ही नहीं, उनसे तो नुकसान होगा ही। क्योंकि आपने वो कहानी पकड़ ली और आप सोच रहे हो कि वो कहानी नहीं, यथार्थ है, तथ्य है। तो उनसे तो होगा ही नुकसान।
उदाहरण के लिए, ‘आत्मा निकली और आत्म जाकर के फलाने विमान पर बैठ गई, उसके बाद फलानी नदी पार कर रही है, उसके बाद आत्मा जाकर फलाने लोक में विचरण कर रही है, फिर छः दिन तक लोक में विचरण करके एक दूत आता है, वो आत्मा को ऐसे ले जाता है, ये, वो।‘ अब इनमें तो कोई छुपा हुआ भी अर्थ नहीं है! आप बहुत कोशिश करके सोचो भी कि इसमें प्रतीकात्मक अर्थ क्या हो सकता है, कि उसको आप उधेड़ो और सोचो कि इसमें नीचे क्या पता कोई गहरी, सूक्ष्म बात छुपी हो। उसमें कोई सूक्ष्म बात भी नहीं छुपी हुई है, वो बस यूँ ही कल्पनामात्र है, उससे कभी कोई लाभ नहीं होने वाला। इस तरह की कहानियों को त्याग ही देना चाहिए!
अब उसके बाद आतीं हैं वो कहानियाँ जो अपनेआप में सूक्ष्म, गहरे, सुंदर, मूल्यवान, प्रतीकात्मक अर्थ रखतीं हैं। उनके साथ भी दुर्घटना हो जाती है। दुर्घटना क्या हो जाती है? भाई, कहानी में अर्थ छुपा हुआ होगा, पर वो अर्थ पढ़ने वाले को समझ में भी तो आना चाहिए न? और पढ़ने वाला अगर वेदांतज्ञाता नहीं है, तो पौराणिक कहानी में क्या अर्थ छुपा है वो उसको समझ में आने से रहा! नहीं आएगा समझ में । वो फिर सोचेगा कि ऐसा ही हुआ है निश्चित रूप से कि हनुमान जी गए थे तो सही में सूरज खा गए, और बालकृष्ण के मुँह में सही में पूरा ब्रह्माण्ड था। अब मुँह कितना बड़ा हो सकता है किसी बालक का? तुम क्या बोल रहे हो कि सूरज खा गए, ब्रह्माण्ड आ गया? क्या बात है ये?
तो अब यहाँ पुराणों की ग़लती नहीं है, यहाँ ग़लती पुराणों को पढ़ने वालों की है। इस तरह की कहानियों में, जहाँ अर्थ है तो, पर आप समझ ही नहीं पा रहे हैं, उनमें अर्थ समझने के लिए जानना होगा कि सनातन धर्म का मूल दर्शन वेदांत है। आगे का जितना काम है, वो उस वेदांतिक आधार को अभिव्यक्ति देने के लिए होता है, बस! चाहे आपके भजन-कीर्तन हों, पूजा-अर्चना हो, भक्ति मार्ग हो, पौराणिक मार्ग हो, तंत्र का मार्ग हो, कोई मार्ग हो, वो उठता तो मूल वेदांत दर्शन से ही है!
भारत में आस्तिकता की कसौटी ही यही रखी गई - ये नहीं कि आप ईश्वर को मानते हैं कि नहीं, आस्तिकता की कसौटी रखी गई कि आप वेद को मानते हो या नहीं।
समझ रहे हैं बात को?
आस्तिक वो नहीं है जो ईश्वर को माने, आस्तिक वो है जो वेद को माने। और वेद में दो हिस्से हैं: एक किस्सा-कहानी वाला, कर्मकांड वाला, और दूसरा जहाँ वेद का मूल दर्शन है। तो वेद को मानने का मतलब हुआ वेद का मूल दर्शन मानना। तो माने आस्तिक वो है जो वेदांत को जानता हो, वेदांत को मानता हो।
आपमें से भी जो लोग अपनेआप को आस्तिक कहना चाहते हैं, वो ज़रा वेदांत के ज्ञाता बने; नहीं तो आप सनातनी होते हुए भी नास्तिक ही रहोगे अगर आप वेदांत को नहीं जानते। ये सबलोग जो घूम रहे हैं, अपनेआप को आस्तिक बोलते हैं, और जिन्होंने कभी उपनिषद् का 'उ' और गीता का 'ग' नहीं पढ़ा, ये नास्तिक हैं! जिस व्यक्ति को वेदांत का ज्ञान नहीं, वो ही नास्तिक है - यही परिभाषा है।
तो कुछ ही लोग रहे जिनको पुराणों से वास्तव में फ़ायदा हो पाया। जो ये देख पाए कि कौनसी कहानियाँ हैं जिनमें मर्म है, कौनसी हैं जिनमें मर्म नहीं है; और जिनमें मर्म है, उसका मर्म वो अपने लिए उद्घाटित भी कर पाए। ऐसे लोग कुछ ही रहे। क्यों कुछ ही रहे? क्योंकि वेदांत भारत में कभी बहुत प्रचलित हो ही नहीं पाया। क्यों नहीं हो पाया? बड़ा श्रम चाहिए और बड़ा प्रेम चाहिए एक सूक्ष्म बात लोगों को समझाने के लिए। उल्टीपुल्टी, भोथरी, स्थूल बात तो बहुत आसानी से समझा दी जाती है और फैल भी जाती है न, ये आप देखते ही हो। क्या चीज़ है जो बहुत आसानी से फैल जाती है? सतही बात, हल्की बात बहुत आसानी से फैल जाती है।
वेदांत हल्की चीज़ नहीं है। उसको भी समझाया जा सकता है; समझाने वालों ने समझाया भी है, समझने वालों ने समझा भी है। वेदांत समझाया ही नहीं जा सकता, वेदांत गाया भी जा सकता है। श्रेष्ठतम संतों के जो गीत हैं, जो भजन हैं, दोहे हैं, साखियाँ हैं, वो वास्तव में वेदांत की ही तो अभिव्यक्ति हैं। तो वेदांत को तो गाया जा सकता है, वेदांत पर नाचा जा सकता है, नाचने वाले नाचे हैं। पर ऐसे लोग कम रहे जिनमें इतना प्रेम हो कि वेदांत को सबके पास ला सकें, सबको समझा सकें। तो बाकी लोग फिर जो धर्म का निचला स्तर है, वो उसी तक सीमित रहकर चलते रहे।
तो मैंने कहा: पुराणों में जो भी कहानियाँ हैं और जो भी उल्लेख मिलते हैं — कहानियों के अलावा भी बातें हैं पुराणों में — उनके फिर तीन हिस्से हो गए। एक तो वो हिस्से जो अर्थहीन हैं ही, जिनमें आप चाहकर भी कोई अर्थ निकाल नहीं पाओगे, या जिनमें आप चाहकर भी कोई सत्य ढूँढ नहीं पाओगे। दूसरा हिस्सा वो जिसमें सत्य मौजूद है लेकिन आपको नहीं दिख रहा क्योंकि आपने वेदांत पढ़ा नहीं है। और तीसरा हिस्सा वो जहाँ सत्य मौजूद भी है और जहाँ आप सत्य देख भी पा रहे हो। ये जो अंतिम दोनों हिस्से हैं, इनमें मूल्य है, सौंदर्य है, पर हम उस सौंदर्य से वंचित रह गए हैं।
अब आते हैं इस बात पर कि बाल कृष्ण के मुँह में पूरा ब्रह्माण्ड दिखता है। वो बात अर्थपूर्ण है, लेकिन उसको समझा जाना चाहिए। वो बात बताती है कि प्रकृति किस प्रकार अपना कार्यक्रम चलाती है। माँ को, मोहमयी माँ को — जहाँ तक हमारे सामने माँ यशोदा का चरित्र आता है, ऐसा प्रतीत नहीं होता कि वो ज्ञानमार्ग पर बहुत आगे तक गई थीं, इस प्रकार का उल्लेख आपको नहीं मिलेगा — माता हैं, ममतामयी माँ हैं, कोमल हैं, ज्ञानी नहीं हैं। माँ को अपने बच्चे के मुँह में पूरी दुनिया दिख रही है - बस इतनीसी बात है। लेकिन इसको भी अगर आप समझ लें, तो प्रकृति कैसे चलती है इसको लेकर आपको गहरी सीख मिल जाएगी।
सीख क्या है? सीख ये है कि विश्व एक नहीं होता, ब्रह्माण्ड एक नहीं होता; इसीलिए तो ब्रह्माण्ड मिथ्या है न! सबके अपने-अपने ब्रह्माण्ड होते हैं। माँ को बच्चे के मुख में ब्रह्माण्ड दिख रहा है, धनी को अपनी तिजोरी में ब्रह्माण्ड दिख रहा है, राजा को अपनी गद्दी में ब्रह्माण्ड दिख रहा है। और चूँकि इतने अलग-अलग विश्व हैं सबके, इसीलिए ये विश्व आपस में टकराते रहते हैं हमेशा। क्योंकि ऊपर से देखो तो ऐसा लगता है कि यहाँ दो लोग अगल-बगल बैठे हैं, एक ही दुनिया में तो हैं; ऐसा है नहीं!
स्थूल घटना ये है कि दो व्यक्ति कुर्सी पर अगल-बगल बैठे हुए हैं, वो एक ही विश्व का हिस्सा हैं। सूक्ष्म घटना, आंतरिक बात ये है कि ये (पहला व्यक्ति) अपने विश्व में बैठे हैं, वो (दूसरा व्यक्ति) अपने विश्व में बैठे हैं। और ये (पहला व्यक्ति) अपने विश्व के केंद्र में स्वयं हैं, इनका अहंकार क्या है? इनके व्यक्तिगत विश्व का केंद्र। वो (दूसरा व्यक्ति) जो इनके बगल में बैठे हैं, उनका अहंकार क्या है? उनके व्यक्तिगत विश्व का केंद्र। दोनों की दुनिया ही अलग-अलग है; ऊपर से एक हैं, अंदर से बहुत दूर-दूर हैं।
इसीलिए दो मनुष्यों में कभी प्रेम नहीं होने पाता। इसीलिए जो लोग आपसी प्रेम का भी दावा करते हैं, उनमें कभी निकटता नहीं होने पाती, क्योंकि दुनिया अलगअलग है दोनों की। यहाँ तक कि एक परिवार के सदस्य हों, बाप-बेटा हों, पति-पत्नी हों, उनके भी विश्व अलगअलग हैं। इसीलिए कभी एकता नहीं आ पाएगी, अनेकता ही रहती है। एकता फिर सिर्फ़ कब आ सकती है? जब आपका व्यक्तिगत विश्व विलीन हो जाए। इनका (पहला व्यक्ति) भी विलीन हो जाए, इनका (दूसरा व्यक्ति) भी विलीन हो जाए, दोनों का व्यक्तिगत विश्व शून्य हो जाए, सिर्फ़ तब एकता आ सकती है।
तो हम बात करते हैं न कि एकता चाहिए? हम सोचते हैं कि कानूनी तरीकों से या संवैधानिक तरीकों से हम एकता वगैरह ला देंगे। नहीं! एकता लाने का एक ही तरीका होता है - अध्यात्म। हम एकता नहीं ला सकते क्योंकि हम जानते ही नहीं हैं कि अनेकता कहाँ से आती है। अनेकता आती है अहंकार से। सब अपनी-अपनी दुनिया में खोए हैं, यही अनेकता है। तो एकता कैसे आएगी? जब सबकी अपनी व्यक्तिगत दुनिया मिट जाएगी, माने सबका व्यक्तिगत अहंकार विगलित हो जाएगा, फिर एकता आ जाएगी।
ये सीख है माँ यशोदा और बाल कृष्ण की कहानी से, और ये बड़ी गहरी सीख है; इसे लेकिन समझने वाला मन चाहिए। देखिए, पौराणिक कथाओं का आप सही अर्थ कर लेंगे, तो मैं कह रहा हूँ, उनमें सौंदर्य पाएँगे, सत्य पाएँगे; पर सही अर्थ नहीं करेंगे तो और ज़्यादा भ्रमित हो जाएँगे और अंधविश्वास ख़ूब फैलेगा। भारत के साथ ये दुर्घटना रही है, बड़ी त्रासदी, कि पौराणिक कथाओं का सही अर्थ किया नहीं गया।
समझ में आ रही है बात?
और नहीं, वो बात नहीं थी जो आप कह रहे हो कि माँ ने बच्चे से कह दिया कि दुनियाभर की मिट्टी खा ली है तो लिखने वाले ने लिख दिया कि पूरा ब्रह्माण्ड आ गया; इतनी भी उथली बात नहीं थी, इस तल पर मत गिराओ पौराणिक कहानियों को। वैसा नहीं है। पहली बात तो वहाँ बैठकर कोई सुन नहीं रहा था। आज की तरह कैमरे नहीं लगे थे चारों ओर, कि उन्होंने ठीक-ठीक क्या शब्द बोला, उसको किसी ने सुन लिया हो, फिर रिकॉर्ड कर लिया हो। और फिर बाद में कहा जाए कि माँ ने कह दिया कि दुनियाभर की मिट्टी, तो दुनिया का पर्याय बनाकर लिख दिया गया ब्रह्माण्ड और माँ को बालक के मुख में ब्रह्माण्ड दिख गया। नहीं, वैसी बात नहीं है।
कहानी लिखी गई है कुछ समझाने के उद्देश्य से। लेकिन हर कहानी के साथ विवशता ये होती है कि वो कुछ समझा पाए, इसके लिए समझने वाला पहले से समझदार होना चाहिए। जो समझने जा रहा है उसमें पहले से ही कुछ समझ होनी चाहिए, तभी उसे और ज़्यादा कुछ समझाया जा सकता है; अगर ज़रा भी समझ नहीं है पहले की, तो कहानी भी फिर विफल हो जाती है। कहानी और कथा में यही अंतर होता है। कहानी माने कपोलकल्पना। पौराणिक कहानियाँ नहीं होतीं हैं वास्तव में, पौराणिक कथाएँ होतीं हैं। कथा वो जिसमें कुछ सार निहित होता है, जिसमें कुछ छुपा होता है। तो सार है तो कथा है, सार नहीं है तो कहानी है; फिर उसे किस्सा, कहानी, गप्प, कल्पना - कुछ भी बोल सकते हो।
प्र१: आचार्य जी, अब इस प्रश्न पर स्पष्टता आ गई है तो दूसरा प्रश्न खड़ा हो गया है। काफ़ी सारे, जितने भी धर्म आधारित हैं, उसमें चाहे अब्राहमिक रिलीजन ले लीजिए, या क्रिश्चियनिटी में जीसस को ‘द सन ऑफ़ गॉड ' बोलते हैं, इस्लाम में प्रोफ़ेट मोहम्मद को 'मैसेंजर ऑफ़ गॉड ' बोलते हैं। सिर्फ़ हमारे सनातन धर्म में, जब गीता पढ़ते हैं तो — मैंने बहुत पहले पढ़ी है, तो मुझे अध्याय याद नहीं है — लेकिन इतना याद है कि जब अर्जुन बहुत विचलित होते हैं और बहुत सारी उनकी समस्याएँ होतीं हैं, तो उस बीच श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं ही हूँ, मुझसे ही निकल रहा है, मुझमें ही आ रहा है, ये संसार पूरा मुझमें ही विलीन हो जाता है। ‘हे पार्थ! सिर्फ़ मुझे देखो और किसी को नहीं देखो।‘ और शायद वो ख़ुद को— मुझे याद नहीं आ रहा है — क्या वो ख़ुद को ईश्वर कहते हैं?
आचार्य: ईश्वर नहीं, ब्रह्म।
प्र१: 'मैं ही हूँ, मुझे ही देखो, और कहीं न देखो।' इतना तो मुझे याद आ रहा है।
आचार्य: यही है, यही अद्वैत वेदांत है।
प्र१: तो ये अभी आपने बहुत अच्छे से समझाया मेरा पहला प्रश्न, और वापस मैं घूम-फिरकर वहीं आ गई, कि फिर श्रीकृष्ण कहते हैं कि मुझे ही देखो। तो क्या हमें सिर्फ़ श्रीकृष्ण को ही देखना चाहिए?
आचार्य: भारत बहुत दूर तक गया है न, बहुत दूर तक गया है। भारत बड़ा प्रेमी रहा है। ‘जो आख़िरी है, जो असली है, अगर सिर्फ़ वही असली है, तो मैं उससे इतनी दूरी भी क्यों रखूँ कि मैं कहूँ कि मैं हूँ और तू है?’
यहाँ तो है कि 'तू-तू करता तू हुआ।' शुरुआत करते हैं उसको (परम को) लक्ष्य करने से, और अंत तो ये होना चाहिए न, कि वही (परम) बन जाएँ? कल क्या बोल रहे थे, 'ब्रह्मौव भवति।' वही बन जाओ, सिर्फ़ बात करने से क्या होगा? और ये दोगलापन हो जाएगा, पाखंड हो जाएगा न, अगर कहोगे कि असली वही है लेकिन हम उससे दूर हैं? अगर वो असली है तो दूर-दूर क्या कर रहे हो? चलो वही बन जाओ!
जब कृष्ण कह रहे हैं, 'मैं ही वो हूँ', तो वो उस अंतिम स्थिति की बात है जहाँ आप सारी दूरी मिटा देते हो, अद्वैत आ जाता है। ‘कुछ नहीं दूरी बची, मैं ही वो हो गया। और अब कोई शर्म नहीं, क्या झिझक! खुलकर बोलूँगा कि हाँ, मैं ही वो हूँ।'
ये बात ईसाइयत में भी है और ऐसी चीज़ें इस्लाम में भी हुईं हैं; ईसाइयत में स्वीकार कर ली गई, इस्लाम में स्वीकार नहीं की गई। ईसाइयत में, बाइबल में कम-से-कम दो जगहें मुझे ध्यान आ रहीं हैं, जीसस कहते हैं कि मी एंड माई फादर आर वन , कि मैं उनका बेटा नहीं हूँ, मैं वही हूँ, - '*मी एंड माई लॉर्ड आर वन*।' ऐसे ही एक जगह पर कहते हैं, 'आई एम द वे, द लाइट ऐंड द ट्रुथ '- 'मैं ही वो हूँ। मैं रास्ता भर नहीं हूँ, मैं अंतिम सत्य भी हूँ।‘ ये बाइबल से है। इसी तरह से इस्लाम में, सूफियों में ये घटना घटी है, आपने अल हिल्लाज मंसूर का नाम तो सुना ही है। 'अन अल हक’- ‘मैं ही सत्य हूँ।' फिर ये नहीं कहा जा रहा कि मैं सत्य का उपासक हूँ।
ये आध्यात्मिक यात्रा का अंतिम बिंदु होता है, जहाँ आप कह देते हो, 'मैं हो सत्य हूँ।' वो चीज़ जो भारत से इतर धार्मिक धाराएँ रहीं, उनके लिए बड़ी विशेष और विरल बात रही, उनको ऐसा लगा कि ये कोई ख़ास घटना घट गई है। भारत में तो यहाँ चप्पे-चप्पे पर हर व्यक्ति ‘अह्म ब्रह्मास्मि‘ है - 'मैं ही वो हूँ।' भारत में ये बात बहुत ख़ास रही, तो भारत में इस बात को कभी बहुत चौंकाने वाला या विशिष्ट माना ही नहीं गया अगर किसी ने अपने ब्रह्मत्व की घोषणा कर दी। और उस बात के फिर दुष्परिणाम भी हुए, जिसको देखो वही भगवान बन गया, सब भगवान हैं। खट से भगवान बन जाते हैं - 'मैं भी हूँ। वो सकता है तो मैं नहीं हो सकता? मैं भी हूँ!'
तो देखिए, कोई चीज़ वास्तव में क्या होती है, और फिर वो बिगड़कर के, विकृत होकर के क्या हो जाती है - ये दो अलग-अलग बातें हैं न! कोई चीज़ बिगडकर के क्या हो गई, इस आधार पर इस बात का निर्णय नहीं किया जाना चाहिए कि वो चीज़ वास्तव में क्या थी।
तो 'अह्म ब्रह्मास्मि‘ - 'मैं ही सत्य हूँ' — अगर आप यहाँ तक नहीं पहुँच रहे, तो फिर आप ब्रह्म की बात ही क्यों कर रहे हो? एक दिन तो वहाँ तक पहुँचना होगा न, या रास्ते में ही खोकर मर जाना है? साथ-ही-साथ अहंकार को ये अनुमति भी नहीं देनी चाहिए कि अभी रास्ते में ही हो और बोल रहे हो कि पहुँच गया। तो एक बहुत विशेष, ईमानदारी भरा, सत्यनिष्ठा का संतुलन रखना होता है; जहाँ आप रास्ते में ही ये भी न घोषित कर दो कि मैं पहुँच गया, और अपनेआप को ये भी न बोले रहो कि दूरी बनाए रखनी है, दूरी बनाए रखनी है, कुछ तो दूरी हमेशा रखनी चाहिए।
ऐसे प्रेमी हुए जिन्होंने कहा, 'अगर दूरी बनाए ही रखनी है तो जी किसलिए रहे हैं, जी क्या फिर सिर्फ़ कष्ट के लिए रहे हैं? जीवन यंत्रणा है, दुख है, ये तो हम जानते ही हैं। अगर योग का, अंतिम मिलन का, आनंद मिलना ही नहीं है, तो फिर हम ज़िंदा ही क्यों हैं?' तो उनमें फिर इतनी ललक रही, इतनी प्यास रही कि उन्होंने कहा कि पूरा मिलन होना आवश्यक है, नहीं तो फिर वियोग है, और वियोग माने दुख।
तो वही बात आप कृष्ण की उद्घोषणा में देखतीं हैं, जब वो अर्जुन को कहते हैं, ‘मैं ही हूँ। सबको छोड़ो, बस मुझे सुनो।‘ वो बहुत ऊँची बात है, लेकिन उस बात को लेकर बहुत सावधान रहने की भी ज़रूरत है, क्योंकि अहंकार को वो बात बहुत रुचती है। आज भी कोई उठकर के घोषणा कर सकता है, 'मैं भी विष्णु का अवतार हूँ, मैं कलियुग का कृष्ण हूँ। और जैसे कृष्ण ने कहा था कि अर्जुन, सबको छोड़कर तू मेरी शरण में आजा, वैसे ही आज मैं कह रहा हूँ कि तू मेरी शरण में आ जा।' आज भी कोई ऐसा आ सकता है, सावधान रहने की ज़रूरत है।
तो वो बात झूठी नहीं है; वो बात झूठी छोड़िए, वही बात सच्ची है सिर्फ़! लेकिन उस बात को कहने से पहले सौ बार सोचना चाहिए। इसीलिए फिर इस्लाम में उस बात को कहने की पाबंदी लगा दी गई। क्योंकि अगर तुमने सबको छूट दे दी ये कहने की कि मैं भी वही हूँ — 'तत् त्वम् असि’ — ‘बेटा, तुम भी वही हो, मैं भी वही हूँ,' तो डर ये था कि हर ओंगा-पोंगा उठकर बोलने लग जाएगा कि मैं भी वही हूँ।
समझ आ रही है बात?
देखो, चीज़ जितनी मूल्यवान होती है, उतनी ही फिर वो सूक्ष्म भी हो जाती है न, बारीक हो जाती है। उसका दुरुपयोग होने की भी संभावना बहुत बढ़ जाती है, उसमें मिलावट करने की संभावना बढ़ जाती है, उसको विकृत करने की संभावना बढ़ जाती है। तो एक ओर तो हमें उसके मूल्य का आदर करना है, और दूसरी ओर सावधान भी रहना है कि कहीं हम अहंकार में आकर के उस बात का अवमूल्यन न कर दें- ये दोनों बातें एक साथ रखनी चाहिए।
क्योंकि प्रेम कई बार इतनी आतुरता दिखाता है, इतनी आतुरता दिखाता है कि अंधा हो जाता है। जिससे आप मिलना चाहते हो न, वो जो आख़िरी है, जहाँ पहुँचने के लिए आप पैदा हुए हो, वहाँ तक बहुत साफ़ होकर पहुँचा जाता है। और प्रेम कई बार ऐसी अंधी आतुरता दिखा देता है कि अभी नहाए नहीं, धोए नहीं, सफ़ाई नहीं करी, शुद्ध नहीं हुए, और कूद पड़े गले मिलने के लिए। ये नहीं होना चाहिए। पहुँचना भी है, और पूरी शुद्धता के साथ ही पहुँचना है; कोई छोटे रास्ते, कोई सस्ते तरीके नहीं अपनाने।
समझ में आ रही है बात?
भारत ने ऐसी ललक दिखाई है न, कि यहाँ पर ये संस्कृति का हिस्सा बन गया कि हम दैवीयता के निकट हैं। तो छोटी बच्चियों को पूज रहे हैं। ‘क्या हैं ये? अभी देवी हैं।‘ तो छोटी बच्चियाँ देवी हो गईं। जैसे आप प्रेम में इतने आकुल हो कि झट से अपने देवी-देवताओं को अपने घर ही ले आ देना चाहते हो - 'आओ हमारे घर आओ, हमारे यहाँ बैठो।' उनको प्यार से खाना खिला रहे हो, उनको कपड़े पहना रहे हो; उनको अपने घर का सदस्य ही बना लिया भारत ने।
ये भारत का हृदय प्रेम का रहा है, भारत में उस अंतिम चीज़ के लिए बड़ा प्यार रहा है। बोला, ‘आओ घर आओ, बैठो। हम ऊपर नहीं आ सकते, तुम नीचे आओ, तुम्हारे लिए आसन बना दिया।‘ मंदिरों में कह देते हैं, 'अभी सोने गए हैं, उनके कपाट बंद कर देते हैं।' ये क्या है? इसकी शुरुआत प्रेम से हुई है, ये प्रेम की बात है। भगवान का बालरूप ले लिया, ठंड में कपड़े पहना रहे हैं -इसके मूल में प्रेम है।
लेकिन अगर समझोगे नहीं तो फिर ये बात किसी काम की नहीं रहेगी, बल्कि जो पूरी आध्यात्मिक साधना है उसको भ्रष्ट भी कर देगी। क्योंकि प्रेम यदि ज्ञान के साथ नहीं है, तो फिर वो मोह-माया, ममता बन जाता है और वो आपको दुर्गति में डाल देता है; प्रेम और ज्ञान एक होने चाहिए।
यहाँ पर गाँव-गाँव में देवी हैं, देवता हैं। उसी से और आगे एक चीज़ चली, कि लोगों पर देवी उतरनी शुरू हो गईं। वो भी कहीं-न-कहीं इस बात का प्रयास था, ये कहने का, ये अनुभव करने का प्रयास था, कि देखो, दैवीयता हमसे दूर नहीं है, हमारे भीतर भी उतर सकती है। अब उस बात को अगर समझ लो तो बहुत ऊँची बात है, नहीं समझो तो वो एक अंधविश्वास बन जाएगी, एक मज़ाक की चीज़ बनकर रह जाएगी।
प्र३: नमस्ते आचार्य जी। जो पहले प्रश्न का उत्तर अभी आपने दिया, तो ब्रह्मा-विष्णु-महेश में महेश और विष्णु का काफ़ी प्रचलन है। लेकिन जो ब्रह्मा हैं, उनकी बहुत कथाएँ प्रचलित नहीं हैं, न ही उनकी पूजा होती है। तो क्या ब्रह्मा और ब्रह्म..?
आचार्य: नहीं, ब्रह्मा का ब्रह्म से कोई संबंध नहीं है। ऐसे ही जैसे ब्राह्मणों का ब्रह्म से कोई संबंध नहीं है, वैसे ही ब्रह्मा का भी ब्रह्म से कोई संबंध नहीं है।
प्र३: तो ब्रह्मा को एक्सक्लूडेड (बाहरी) क्यों रखा गया है?
आचार्य: वो कहानी है एक, उसकी वजह से उनकी पूजा वगैरह नहीं होती। कहानी ये है कि उनकी मानसपुत्री थीं देवी सरस्वती, वो उन्हीं से विवाह करने को आतुर हो गए थे। तो फिर तब से ब्रह्मा की पूजा नहीं होती; नहीं तो उनकी भी होती, जैसे महेश की होती है, विष्णु की होती है।
देखो, इन सब बातों में सीख तो छुपी रहती ही है, समझने वाला इंसान चाहिए और सीखने की नीयत चाहिए। अब जिसको तुम क्रिएटर (रचनाकार) बोल रहे हो — जैसे बाकी सब धर्मों में एक गॉड - द क्रिएटर होता है, वैसे ही तुम अगर देखो तो सनातन धारा में जो क्रिएटर का स्थान है वो ब्रह्मा का ही है। और बाकी सब जगहों पर अगर क्रिएटर का सबसे ऊँचा स्थान है, क्रिएटर से ऊपर तो कोई होता ही नहीं, तो फिर जो सबसे ऊँचा स्थान है इस तरीके से, वो तो ब्रह्मा का है।
लेकिन सनातन धारा ने जो सबसे ऊँचा है उसके साथ भी न्याय करा है। कहा है, 'देखो, अगर गड़बड़ करोगे तुम, तो तुम्हारी भी नहीं पूजा करेंगे। होगे तुम सृजनकर्ता! हमने माना है कि तुम रचयिता हो। लेकिन गड़बड़ करोगे तो तुम्हारी नहीं होगी पूजा।‘ पूजा तो छोड़ दो, उनका तो एक सिर ही काट दिया गया था, क्योंकि गड़बड़ कर रहे थे। तो वो रचयिता हैं, ये स्थान उनका कायम रखा गया, कि जो यथार्थ है वो हमने मान लिया — यथार्थ माने जो मानस यथार्थ है — वो मान लिया कि है। लेकिन साथ-ही-साथ तुम्हारे बारे में ये बात भी है कि तुम अपनी ही मानसपुत्री के प्रति आसक्त हो रहे थे, तो जाओ, अब तुम्हारी पूजा नहीं करेंगे। क्रिएटर को कह दिया कि जाओ, नहीं करेंगे तुम्हारी पूजा।
भारत का चरित्र बड़ा विशेष रहा है। यहाँ हम अपने देवी-देवताओं, अवतारों, भगवानों के साथ खेलते-कूदते हैं, खाते-पीते हैं, हम उन्हें दूर नहीं बैठाते। हम ये नहीं कहते हैं कि वो आसमान पर बैठा है, बस सिर झुकाकर रखो। कहते हैं, ‘घर में बैठा है, आओ बातें करेंगे।‘ कभी नाराज़ भी हो जाएँगे, ताने मारते हैं, गुस्सा हो जाते हैं - ये सब भी होता है घरों में। देवी या देवता से कुछ माँगा था और नहीं दिया, तो बोले, ‘जाओ, चार दिन तुम्हें खाने को नहीं देंगे।‘
(श्रोतागण हँसते हैं)
तो भक्त को ये भी अधिकार रहता है कि वो अपने भगवान से रूठ जाए।
भारत ने अपने जीवन के केंद्र में ही धार्मिकता को, माने मुक्ति को रखा है। तो जब जीवन के केंद्र में ही धार्मिकता है, तो भगवान को दूर कैसे बैठा दें? कहा कि उनको घर लेकर आओ, पूरे जीवन में शामिल कर लो, हर चीज़ में भगवान को रखो। खा रहे हैं तो भगवान का नाम लेना है, कहीं यात्रा पर निकल रहे हैं तो भगवान का नाम लेकर निकलना है, यात्रा के बीच में भगवान का नाम लेना है। अभी एक देवी का मंदिर पड़ेगा, और दो कोस आगे जाओ तो वहाँ दूसरी देवी का मंदिर पड़ेगा, जैसे कि जगह-जगह पर वही हैं। तुमने अपनी कथाओं में भौगोलिक स्थलों को ख़ूब जगह दे दी है।
तो तुम जाओगे - ‘यहाँ चित्रकूट में क्या हुआ था? यहाँ ऐसा-ऐसा हुआ था।‘
फिर कहीं और जाओगे - ‘यहाँ ऐसा हुआ था, वहाँ ऐसा हुआ था।‘
कई बार तुम सिर भी खुजाओगे, तुम कहोगे, ‘अगर मैं इसको नक्शे पर देखूँ तो ऐसा हो नहीं सकता।' लेकिन फिर भी गाँव-गाँव में, कस्बे-कस्बे में, चप्पे-चप्पे पर कोई मंदिर मिल जाएगा।
‘यहाँ पर क्या हुआ था? यहाँ पर विष्णु जी जा रहे थे, उनको नींद आ गई तो थोड़ी देर के लिए सोए थे, तो ये मंदिर है।‘
अब, हमको पता है कि तथ्यगत रूप से ऐसा नहीं हुआ, लेकिन फिर भी वो बात बहुत महत्वपूर्ण है। तुम क्या कर रहे हो? तुम कह रहे हो, ‘मेरे गाँव में विष्णु आए थे, तो अब मेरे ऊपर कुछ ज़िम्मेदारी आ गई है। जो ऊँचे-से-ऊँचा है वो यहाँ उतरा हुआ है, ये मिट्टी अब साधारण नहीं है, यहाँ कभी विष्णु ने पद रखे थे। तो मुझे अब उसी हिसाब से जीवन जीना पड़ेगा।‘
समझ में आ रही है बात?
तो आजकल ये भी रुझान हो गया है कि हर बात का मज़ाक बना दो। वो बात मज़ाक नहीं है, उसमें एक सीख छुपी हुई थी। और हम नहीं सीख पाए, हम नहीं जान पाए, ये ग़लती हमारी है, उस बात का मज़ाक उड़ाना ठीक नहीं होता।
‘पांडवगुफ़ा है, यहाँ पांडव आकर रुके थे।‘ तुम सोचोगे, ‘यहाँ कैसे आ सकते हैं, कोई तर्क नहीं बनता कि इस जगह पर आए होंगे।‘ पर नहीं, नाम है! और वैसी पांडवगुफ़ा तुमको देश में आठ अलगअलग जगहों पर मिलेंगी, जिनमें बीच में हज़ारों किलोमीटर की दूरी है। नहीं हो सकता। वो पैदल चल रहे थे, कैसे हो सकता है? पर है। क्योंकि सबको मानना है कि हमारे घर भी आए थे, हमें दूरी नहीं रखनी। ‘जो हमारे महानायक हैं, जो हमारे हीरोज़ हैं, हमें उनसे दूरी नहीं रखनी, हम तो मानेंगे कि आए थे।‘
नदियों का नाम रख दोगे, पक्षियों का नाम रख दोगे। गिलहरी है; गिलहरी पर धारी कैसे पड़ी? रामजी ने हाथ फेरा था। अब रामजी के हाथ फेरने से धारी नहीं पड़ती, हम जानते हैं, इतनी अक्ल सबको है। लेकिन फिर भी वो जो मिथक है वो महत्वपूर्ण है, तुम चाहते हो कि तुम गिलहरी को भी देखो तो तुम्हें राम की याद आए। और गिलहरी हर जगह पायी जाती है, गाँव-गाँव में पायी जाती है, दिख जाती है। तुम चाहते हो गिलहरी दिखी नहीं कि राम का नाम याद आ जाए, इसलिए ये कहानी रची गई है।
गणेश जी के हाथी का सिर है, अब हाथी को देखते ही तुमको शिव याद आएँगे। ठीक है, अच्छा किया। कोयल को लेकर कुछ बना दिया, मैना को लेकर कुछ बना दिया, कौवे तक को लेकर कुछ बना दिया; कौवे तक को लेकर पौराणिक कहानियाँ हैं। क्यों हैं? क्योंकि और कुछ कहीं हो न हो, कौआ तो होता है। अब उसने काँव-काँव करी नहीं कि तुम्हें गुस्से की जगह कुछ और याद आ जाएगा; नहीं तो गुस्सा ही आता है उसकी काँव सुनकर।
अब आप बोलो कि ये देखो, जो पूरी भारतीय परंपरा है वो तो बस कल्पना से भरी हुई है, सिर्फ़ गप्पबाजी है। ये सब भी कहने का आजकल ख़ूब प्रचलन हो गया है, कि बस गप्पबाजी है। हम भी मानते हैं कि वो कहानियाँ इंसान ने ही रचीं हैं, हम मानते हैं, ये बहुत सीधी-सी बात है। ये साधारण बुद्धि को भी दिख जाएगा कि वो कहानियाँ इंसान ने ही रचीं हैं, पर ये भी तो समझो कि वो कहानियाँ क्यों रची गईं हैं। वो कहानियाँ नहीं हैं, वो सूक्ष्म विधियाँ हैं। वो कहानियाँ किसी वैज्ञानिक उपकरण की तरह हैं जो एक नतीजा देता है तुमको। और कुछ कहानियाँ ऐसी भी हैं जो बिलकुल व्यर्थ हैं, मिथ्या हैं; मैं कह रहा हूँ: उनको त्याग देना चाहिए।
प्र४: नमस्कार आचार्य जी। मेरा प्रश्न ब्रह्मा-विष्णु-महेश पर ही है, कि जो मेरी समझ कह रही है कि विचार या वासना का उत्पन्न होना, वो ब्रह्मा शक्ति से है, उस विचार का पालन विष्णु, और उस विचार का ख़त्म होना, वो महेश, और तभी हम ब्रह्म के नज़दीक आते हैं।
आचार्य: कह सकते हो ऐसे, ठीक है।
प्र४: एक और प्रश्न है मेरा। जो अहंकार है उसको त्रिगुणी बोला गया, और जो तमोगुणी है उससे पंचभूत आया, और जो सतोगुणी है उससे मन आया। ये, कैसे देखें इसको?
आचार्य: स्थूल है न; स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा है, और कुछ नहीं!
प्र४: मन को सतोगुणी क्यों बोला गया?
आचार्य: सूक्ष्मतम है।
तामसिक आदमी क्या करता है? वो स्थूल से जुड़ा रहता है, तो इसीलिए उसको पंचभूत से जोड़ दिया। और जो दूसरे छोर पर सात्विक आदमी बैठा है, वो जो सूक्षतम है उसकी तरफ़ जाता है, तो उसको मन से जोड़ दिया। पर मन में भी कुछ स्थूलता होती है, तो फिर जो गुणातीत है उसको आत्मा से जोड़ दिया गया, कि जो सूक्ष्मतम ही है बिलकुल, आत्मा, वो गुणातीत है।