इंसान होना वरदान या अभिशाप? || (2020)

Acharya Prashant

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इंसान होना वरदान या अभिशाप? || (2020)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कल के वीडियो "मौत के राज़" में आपने बताया कि अहम्-वृत्ति की मूल चाह मुक्ति है, पर अन्य जो आपके विडिओज़ हैं उनमें हमें ये सुनने को मिला है कि प्रकृति तो मुक्ति की राह में बाधा होती है, उसकी डिज़ायर (इच्छा) सस्टेनेन्स (बचे रहने) और प्रोक्रिएशन (वंश-वृद्धि) की होती है। तो प्रकृति मुक्ति चाह रही है या मुक्ति राह में बाधा है?

आचार्य प्रशांत: कौन है जो मुक्ति चाहेगा? अहम् चाहेगा न, अहम्। वो अहम् जब प्रकृति में जितने जड़-चेतन पदार्थ हैं उनसे ही लिपटने-चिपटने लगे, लिप्त-आसक्त हो जाए तो प्रकृति मुक्ति की राह में बाधा है। नहीं तो प्रकृति स्वयं ही तो मुक्ति चाह रही है।

असल में जब इस तरीके के सवाल आते हैं तो वो ऐसे पूछे जाते हैं कि जैसे ये सब प्रश्न किसी बाहरी वस्तु के बारे में हों, ऑब्जेक्टिव (वस्तुनिष्ठ) हों। ये सवाल ऑब्जेक्टिव नहीं होते; इन सवालों में हमेशा ये पूछा जाना चाहिए, "किसके लिए?"। तो प्रकृति मुक्ति की राह में बाधा है, किसकी राह में बाधा है? अहम् की। अब अहम् प्रकृति का ही एक तत्व है, ठीक है? लेकिन प्रकृति में और भी तत्व हैं, कौन-से तत्व हैं? सब जितने ये तुम्हें चारों ओर चीज़ें दिखाई दे रही हैं।

तो वो जो अहम् है, जिसे मुक्ति चाहिए, अगर वो इन्हीं सब तत्वों में देख ले कि कुछ रखा नहीं है, तो उसे मुक्ति मिल जाती है और उसके माध्यम से प्रकृति को मुक्ति मिल जाती है। और वो अहम्, जो अपने-आप में प्रकृति का हिस्सा ही है, वो प्रकृति के ही तत्वों से अगर लिप्त हो जाए, बिलकुल मेल कर ले, तो अहम् के लिए फिर प्रकृति मुक्ति की राह में बाधा हो जाती है।

भगवद्गीता के शब्दों में तुम इसे ऐसे भी समझ सकते हो कि कृष्ण कहते हैं कि वो जो मुक्ति चाह रहा है, वो प्रकृति का वो हिस्सा है जिसे कहते हैं 'परा प्रकृति'। प्रकृति के समझ लो दो हिस्से हो गए। एक है वो जिसे मुक्ति चाहिए, उसको बोलते हैं 'परा प्रकृति'; वो प्रकृति का ही हिस्सा है, उसको नाम दिया 'परा प्रकृति'। और प्रकृति के सब जो बाकी हिस्से हैं, जो जड़-पदार्थ हैं, जिनमें चेतना नहीं, जिन्हें मुक्ति जैसी कोई कामना नहीं, उनको कहते हैं 'अपरा प्रकृति'।

ये दोनों हैं क्या? दोनों प्रकृति के ही हिस्से हैं। प्रकृति में ही 'परा प्रकृति' भी है, 'अपरा प्रकृति' भी है। उसी 'परा प्रकृति' को हम अभी तक किस नाम से सम्बोधित करते आए हैं? अहम्। तो वो जो 'परा प्रकृति' है उसको मुक्ति चाहिए। किससे मुक्ति चाहिए? 'अपरा प्रकृति' से। तो ऐसे है।

प्र: तो 'परा प्रकृति' का 'अपरा प्रकृति' से संयोग हो जाता है।

आचार्य: उसी को फ़िर 'पुरुष' का 'प्रकृति' से लिप्त हो जाना कहते हैं। जब 'अपरा प्रकृति' से ही आसक्त हो जाती है 'परा प्रकृति' तो उसको फिर हम ऐसे भी कह देते हैं कि 'पुरुष' 'प्रकृति' के खेल में फँस गया। और उसी को हम अभी तक कहते आएँ हैं कि अहम् दुनियाभर के पदार्थों से, चीज़ों से बिलकुल लिप्त हो गया या उनके मोह में आ गया।

प्र: कुछ लोग इस विषय में भी सवाल कर रहे हैं कि एक तरफ़ आपने कहा है कि एनलाइटनमेंट जैसी चीज़ नहीं होती, और कल के बातचीत सत्र में आप ये भी कह रहे थे कि मुक्ति के उस उपकरण के माध्यम से प्रकृति धीरे-धीरे मुक्ति की ओर बढ़ती है, और अगर वो उस क़ाबिल नहीं रहता है तो उसका विनाश हो जाता है।

तो उसी बातचीत में ये भी आया था कि अगर कोई अठानवे-प्रतिशत अटेन्मेंट (सिद्धि) तक पहुँच गया है, बहुत करीब पहुँच गया है तो लोग यही पूछ रहे हैं कि अठानवे-प्रतिशत है तो सौ-प्रतिशत अटेन्मेंट (सिद्धि) जैसी भी चीज़ होगी। वहाँ उन्हें विरोधाभास दिख रहा है।

आचार्य: नहीं, ऐसा कुछ नहीं है कि अठानवे-प्रतिशत हो सकता है तो सौ-प्रतिशत भी होगा। आप उदाहरण ले लीजिए शून्य केल्विन के तापमान का। आप शून्य दशमलव शून्य एक केल्विन तक तो पहुँच सकते हैं, आप शून्य दशमलव शून्य शून्य शून्य शून्य एक केल्विन तक भी पहुँच सकते हैं पर परफेक्ट (सटीक) शून्य केल्विन तक आप नहीं पहुँच सकते। तो बहुत चीज़ें ऐसी होती हैं कि फिर जिनमें कुछ ऐसा तंत्र चलता है, ऐसी व्यवस्था चलती है जैसे गणित में कैलकुलस में चलती है, कि फिर उसमें लिमिट्स अप्लाई (सीमाएँ लागू होना) होती हैं।

मुक्ति को क्या बोला गया है? मुक्ति का ही दूसरा नाम सत्य है और सत्य क्या है? अनंत है। जो अनंत है उस तक कोई भी कैसे पहुँच सकता है? हाँ, अनंत तक पहुँचने की यात्रा की जा सकती है। तो निश्चित-रूप से पूर्ण-मुक्ति ध्येय होना चाहिए, लेकिन पूर्ण-मुक्ति कोई बिंदु नहीं है जहाँ आप पहुँच जाएँगे। पूर्ण-मुक्ति तो एक क्षितिज की तरह है जिसकी तरफ़ जितना बढ़ो वो उतना और आगे सरकता जाता है, और ये बात आपको कष्ट नहीं देती, ये बात आपको आनंद देती है।

आमतौर पर आप अपने लिए कोई लक्ष्य बनाओ और लक्ष्य की तरफ़ बढ़ो और लक्ष्य आपसे और दूर सरक जाए तो आपको थोड़ा कष्ट होगा। मुक्ति में ऐसा नहीं है, मुक्ति चूँकि अनंतता की बात है तो उसकी ओर आप बढ़ते हो, वो थोड़ा-सा पीछे सरक जाती है। ये बात लेकिन आपके लिए कष्ट की नहीं होती, आनंद की होती है क्योंकि उसको पाने के लिए आप जितना आगे बढ़े थे उतना आगे बढ़ने में ही आप थोड़े ज़्यादा और क्या हो गए? मुक्त हो गए न?

आप बंधन में हो, आपको लग रहा है उस दरवाज़े पर मुक्ति मिल जाएगी। आपको उस दरवाज़े पर ही मुक्ति लग रही है क्योंकि अभी आप ऐसे हो, "मुक्ति मेरे लिए है।" हमेशा याद रखना होगा कि ये जो सारी बातें जो हैं वो जो विषयेता होता है उसके सापेक्ष्य होती हैं, ये सब्जेक्टिव (व्यक्तिपरक) बातें हैं।

तो मैं यहाँ पर हूँ अभी तो मुझे लग रहा है मुक्ति वहाँ पर है क्योंकि मुक्ति की बात मैं ही तो करूँगा। यहाँ मैं बंधन में हूँ, मैं मुक्ति की ओर बढ़ूँगा। मैं जब उसकी ओर बढ़ूँगा तो मैं अलग हो गया न? क्योंकि पहले मैं बंधन में था, अब मैं बंधन में नहीं हूँ, मैं अब थोड़ा अलग हो गया। जब मैं उसकी ओर आगे बढ़ूँगा तो मैं पाऊँगा कि मुक्ति थोड़ा पीछे खिसक गई। मुक्ति भले ही पीछे खिसक गई, मुझे तो कुछ लाभ हो गया न। मुझे क्या लाभ हो गया? मैं जितने बंधनों में था मेरे कुछ बंधन कम हो गए।

तो मुक्ति समझ लो ऐसी चीज़ है जिसकी ओर तो बढ़ा जा सकता है, लेकिन कोई बिंदु ऐसा नहीं आता जिस पर आप कह दें कि ये बिंदु मुक्ति का है, ठीक वैसे जैसे गणित में इन्फिनिटी (अनंतता) जैसा कोई बिंदु नहीं होता। इन्फिनिटी अगर कोई बिंदु हो गया तो फिर इन्फिनिटी भी फाइनाइट (सीमित) हो गई न? तो मुक्ति भी अगर कोई बिंदु हो गया तो मुक्ति भी फिर अनंत नहीं बची, वो भी फिर सीमित हो गई। तो मुक्ति की ओर इसीलिए बढ़ते रहते हैं।

'ब्रह्म' जो शब्द है वही इस मामले में बड़ा अर्थपूर्ण है। ब्रह्म का संबंध है उससे जो लगातार बढ़ता रहे, वृहद से वृहदतर होता जाए वो ब्रह्म है। तो ब्रह्म कुछ ऐसा नहीं है कि बड़ा है, ब्रह्म वो है जो निरंतर और बड़ा होता रहता है, क्रियाशील है, गतिशील है, सक्रिय है ब्रह्म। वो ऐसा नहीं है कि 'इतना बड़ा ब्रह्म था और मैंने जाकर के उसको पा लिया'।

जितने बड़े तुम हो, तुमसे बहुत ज़्यादा बड़ा है। तुम और बड़े हो जाओ, तुम पाओगे वो भी और बड़ा हो गया। तुम और भी बड़े हो जाओ, तो वो भी और बड़ा हो जाएगा। लेकिन तुम्हारा काम यही है कि अभी तुम्हें वो जितना बड़ा लग रहा है, तुम उसकी ओर तेज़ी से बढ़ो। बढ़ते ही जाओ, बढ़ते ही जाओ, और बढ़ते-बढ़ते-बढ़ते ये बिलकुल सम्भव् है कि तुम ऐसी जगह पर पहुँच जाओ जहाँ पर तुम मुक्त ही हो, लगभग मुक्त ही हो। और वो बड़ी आनंद की स्थिति होती है।

लेकिन कोई तुमसे और ज़्यादा मुक्त होने का आनंद नहीं छीन सकता क्योंकि तुम जितने भी मुक्त हो, अभी तुम और मुक्त हो सकते हो। ये एक आनंद का जैसे अनंत घड़ा है; उसको तुम और पी सकते हो। वरना ये बताओ, अगर तुम मुक्ति के एक अंतिम बिंदु पर पहुँच ही गए तो अब तुमसे बड़ा कुछ नहीं, तो अब अनंतता का आनंद कहाँ?

तो जब तक तुम हो तब तक मुक्ति तुमसे आगे का ही कुछ रहेगी क्योंकि मुक्ति तुमसे बड़ी रहेगी। मुक्त तुम पूरे तरीके से सिर्फ़ तब हो जाते हो जब तुम बिलकुल हो ही नहीं, जब तुम बिलकुल ही नहीं हो, एकदम ही नहीं हो, एकदम शून्य हो गए। वो तुम शून्यता हासिल कर सकते हो, ये बात बहुत ध्यान से समझना, वो शून्यता तुम हासिल कर सकते हो।

अभी एक व्यक्ति की बात कर रहा हूँ जो मुक्ति की ओर प्रयासरत है। वो उस शून्यता को हासिल कर सकता है लेकिन अभी है तो शरीर ही न वो? एक व्यक्ति ही तो है जिसको तुम कह रहे हो कि वो मुक्त नहीं हुआ, उसको वो उपलब्ध हो सकता है, एक क्षण ऐसा आ सकता है। लेकिन जब तक शरीर है तब तक, हमने कहा, शरीर की हर कोशिका अपना एक व्यक्तिगत एजेंडा (कार्यसूची) भी रखे हुए है। तो वो जो तुम्हें मुक्ति मिलेगी उस क्षण में उससे वापस पलटकर आने की संभावना हमेशा रहती है। इसीलिए जो पूर्ण-मुक्त है उसको भी अपनी मुक्ति की निगरानी करनी पड़ती है, और जो उसकी निगरानी नहीं करते वो फिसल भी जाते हैं फिर, वो गिर भी जाते हैं।

तो इसीलिए मैं कहता हूँ बार-बार कि ये जो चीज़ है जिसको हम कहते हैं कि एक बिंदु आ गया फलानि तारीख को, फलानि जगह पर, फाइनल एनलाइटनमेंट का इसको मैं कहता हूँ कि ये बेकार की बात है। कोई जगह नहीं होती। मुक्ति एक सतत-प्रक्रिया है। आपको पल-दर-पल और, और, और ज़्यादा मुक्त होते ही जाना है। मुक्ति एक प्रक्रिया का नाम है। वो ऐसा नहीं है कि अचानक बिजली कौंधी और आप में प्रकाश हो गया। मुक्ति ऐसी कोई चीज़ नहीं है। उसमें तो आपको निरंतर, निरंतर, निरंतर आगे की ही यात्रा है, जिसमें हमेशा पीछे फिसल जाने का भी खतरा है जब तक आपके पास शरीर है।

इसीलिए बुद्ध को 'बुद्धत्व' मिला तो उसको कह देते हैं निर्वाण, लेकिन जब बुद्ध की शारीरिक मृत्यु हुई तो फिर उसको कह देते हैं 'महा-निर्वाण' या 'महा-परिनिर्वाण', क्योंकि जब तक शरीर है तब तक ये संभावना बिलकुल है कि महामुक्त व्यक्ति भी फिसल सकता है। माया कमज़ोर, छोटी चीज़ नहीं है, वो अभी भी दस्तक दे रही है। वो चली नहीं गई, वो कहाँ से दस्तक दे रही है? वो आपके शरीर की कोशिकाओं के भीतर से दस्तक दे रही है।

तो अंतिम एनलाइटनमेंट जैसा कुछ नहीं होता। एनलाइटनमेंट कोई इतनी छोटी चीज़ नहीं है कि एक दिन तुम गए, चौदह अक्टूबर को शाम को साढ़े-पाँच बजे और तुमको कहीं पर बैठकर एनलाइटनमेंट उपलब्ध हो गया। ऐसी चीज़ नहीं है। जब तक साँस चल रही है तब तक आपको आगे बढ़ते ही रहना है, बढ़ते ही रहना है, बढ़ते ही रहना है। टेन्डिंग टू इन्फिनिटी बट नेवर रीचिंग इन्फिनिटी (अनंतता की ओर लेकिन अनंतता पर कभी नहीं)।

वो ब्रह्म ही क्या जिस तक कोई पहुँच जाए? वो सत्य ही क्या जो तुम्हारे हाथ में आ जाए? हाँ, ये ज़रूर होता है कि सत्य तक पहुँचने की कोशिश करते-करते कोशिश करने वाला ख़ुद ही मिटता जाता है, मिटता जाता है। लेकिन जब तक तुम्हारा ये शरीर है तब तक तुम्हारा लेश-मात्र हिस्सा तो बचा ही रह जाता है, क्योंकि शरीर में बैठी हैं कोशिकाएँ और वो जैविक-रूप से ज़बरदस्त तरीके से संस्कारित हैं। माया तुम्हारे शरीर के भीतर से तुम पर काम करती है। तो फिसल जाने का ख़तरा हमेशा है।

तो इसीलिए मैं कहा करता हूँ कि ये बात कि अब किसी को एनलाइटनमेंट का ही प्रमाण-पत्र मिल गया है और अब वो महा-गुरू हो गया है, और ग़लतियाँ नहीं करेगा और इस तरह की बातें, ये कुछ नहीं है।

प्र: ऐसे भी प्रश्न आएँ हैं कि अध्यात्म में हम लोग कुछ गुरुजनों को 'मुक्त-पुरुष' कहते हैं और उनकी पूजा करते हैं, उनको सादर सम्मान देते हैं। तो अगर वो प्रकृति उनके माध्यम से फिर अगर मुक्ति को उपलब्ध हो गई तो फिर ये पूरा जो खेल है ये समाप्त क्यों नहीं हुआ?

आचार्य: ये बात तो कल भी करी थी न? जिनको मुक्ति मिली या जो मुक्ति की तरफ़ जितना बढ़ा उसके लिए वो खेल उतना समाप्त हो गया। असल में वही मौलिक भूल हो रही है सब सवाल पूछने वालों से। जब वो कहते हैं, "प्रकृति समाप्त नहीं हो गई", तो फिर वो नहीं पूछ रहे वही केंद्रीय सवाल, क्या? "किसके लिए?" भाई, तुम्हारे लिए चल रहा है खेल, उनके लिए नहीं चल रहा।

यहाँ पर एक करोड़ रुपया रख दिया जाए, उसका खेल हो सकता है यहाँ पर खड़े दो लोगों के लिए चलना शुरू हो जाए। हो सकता है तुम्हारे लिए वो खेल चले ही न, भले ही सामने रखा है वो दो करोड़। वो दो करोड़ जो रखा है वो प्रकृति है। वो रखा होगा दो करोड़, तुम्हारे लिए वो खेल चल ही नहीं रहा, कोई और लोग खड़े हैं उनके लिए वो खेल चल रहा है।

तो जो मुक्त हो गया उसके लिए खेल रुक गया, जो मुक्त नहीं हुआ उसके लिए खेल चल रहा है। वो खेल कौन चला रहा है? वो ख़ुद ही चला रहा है। ये अभी उसकी इच्छा है कि वो बंधनों में फँसा रहे तो वो खेल वो ख़ुद ही चला रहा है।

प्र: ये जो भी हम चर्चा कर रहे हैं ये मनुष्य के संदर्भ में है, तो लोगों ने ये भी जिज्ञासा करी है कि क्या मनुष्य-योनि में जन्म लेना एक वरदान है या फिर वो एक पाप है? एक पाप के कारण ऐसा हुआ है?

आचार्य: दोनों बातें हैं। संभावना के तौर पर वरदान है। आदमी बनकर पैदा हुए हो तो तुममें एक विशिष्ट-चेतना है जो ऊपर उठना चाहती है। वो विशिष्ट-चेतना जानवर वगैरह में नहीं है तो वरदान है इस तरीके से। लेकिन वही चेतना जो ऊपर उठना चाहती है, मुक्ति पाना चाहती है, कुछ उसे उपलब्धि चाहिए, वही अगर ऊपर उठने से भटक गई तो वो ऐसे-ऐसे गड्ढों में जाकर गिर सकती है जहाँ कोई जानवर भी ना गिरे। तो उस दृष्टि से तो मनुष्य पैदा होना बहुत बड़ा अभिशाप है।

आदमी के पास ऊँचा उठने की भी ज़बरदस्त संभावना है और नीचा गिरने की उससे भी ज़्यादा ज़बरदस्त संभावना है। तो कुल मिला-जुलाकर तो ये होता है कि जो लोग जानवर पैदा होते हैं उनका जीवन कम कष्टपूर्ण होता है बजाय मनुष्यों के। क्यों? क्योंकि संभावनाएँ मनुष्य के पास दोनों हैं, ऊपर भी उठ सकता है, नीचे भी गिर सकता है। आदमी की चेतना ऐसी है जिसको गति करनी है, पशुओं की चेतना नहीं गति करती।

तो दोनों संभावनाएँ हैं, ऊपर की भी, नीचे की भी; लेकिन हज़ार में से नौ-सौ-निन्यानवे लोग कौन-सी संभावना चुनते हैं? नीचे गिरने की। हज़ार में से कोई एक ही होता है जो ऊपर उठने की संभावना चुनता है। तो कुल मिला-जुलाकर तो यही पता चलता है कि आदमी पैदा होना कोई विशेष सौभाग्य की बात नहीं लग रही।

प्र: प्रकृति मुक्ति की कामना क्यों करती है? प्रकृति अगर परमात्मा से आई है, जो सभी बंधनों से मुक्त है, तो प्रकृति को फिर बंधन कैसे हो गए?

आचार्य: परमात्मा ने ही चुना है बंधन होना। भाई, जिसको तुम सत्य बोलते हो, ये उसकी पूर्ण मुक्ति का प्रमाण है या ये उसकी पूर्ण मुक्ति की अभिव्यक्ति है कि वो सीमित होना, बंधनों में पड़ जाना भी स्वीकार लेता है। वो स्वयं ही ऐसा खेल खेलता है।

जब आप कहते हो, "प्रकृति परमात्मा से आई", तो वास्तव में आप कह रहे हो कि "अहम् आत्मा से आया"। तो आत्मा तो पूर्ण-मुक्त है, स्वायत्त है। आत्मा के ऊपर किसकी ज़ोर-ज़बरदस्ती चलेगी? अनंत है और संप्रभु है। तो ये आत्मा का अपना खेल है कि वो अहम् बनना भी स्वीकार कर लेती है खेलते-खेलते।

अब अहम् वो बनी है, जो मूल में आत्मा है लेकिन अपने-आपको समझ क्या रहा है? अहम्। जैसे तुम जानते-बूझते नशा कर लो। नशा तुमने जानते-बूझते किया। जब नशा किया तो ये तुम्हारा अपना फ़ैसला था, 'मैं नशा करूँगा', लेकिन नशा करने के बाद अब फ़ैसला करने की तुम्हारी ताक़त कुंद पड़ गई। तो एक तरीके से तुमने ये फ़ैसला किया है कि आगे फ़ैसला करने की तुम्हारी ताक़त कुंद पड़ जाए।

इसी तरीके से अहम् आत्मा की पूर्ण-मुक्ति से आता है। आत्मा पूर्ण-मुक्ति में अहम् बनती है। ऐसे ही, खेल, क्रीड़ा, कोई वजह नहीं, कोई कारण नहीं, उसे कुछ पाना नहीं है, उसका कोई मुनाफ़ा नहीं है ये बनने में। ऐसे ही, खेल-खेल में। लीला बोलते हैं इसको। तो आत्मा अहम् खेल-खेल में बनती है। पूर्ण-मुक्ति में आत्मा का निर्णय है, 'अहम् बनना है', लेकिन अहम् बनकर वो अपनी पूर्ण-मुक्ति को भूल जाती है। जैसे कि तुम निर्णय करते हो नशा करने का और नशा करके तुम अपनी निर्णय करने की क्षमता को ही खो देते हो। आत्मा का भी वैसा ही है।

अब ये अहम् है। ये है तो आत्मा, पर ये भूल गया है कि ये आत्मा है। ये अपने-आपको कुछ और ही समझता रहता है हमेशा, और कुछ और समझकर इधर-ऊधर का दंद-फंद, उटपटांग करता रहता है, उसमें दुःख पाता है।

अध्यात्म में इसीलिए ये बहुत मौलिक प्रश्न होता है, 'मैं कौन हूँ?' उसमें जब अहम् देखता है कि वो कितना छोटा बन गया है तो उसको समझ में आता है कि, "ये जो छुटपन है ये कुछ रास नहीं आ रहा, इसमें कष्ट बहुत है तो ये मुझे होना नहीं है। ये मैं हो सकता नहीं।" जब आप अपनी सारी क्षुद्रताओं को इस तरह से हटा देते हो, गिराकर नकार देते हो तो फिर आपका जो मूल स्वभाव है वो शेष बचता है। उसी का नाम आत्मा है।

प्र: प्रकृति के विषय में ये भी लोग पूछ रहे हैं कि प्रकृति को शुभ माना जाए या अशुभ माना जाए? क्योंकि हम देखते हैं कि समाज में…

आचार्य: किसके लिए? वही बात है और हम उससे बिलकुल चूक जाते हैं। किसके लिए शुभ, किसके लिए अशुभ? तुम्हारी नियत अगर है स्वतंत्र जीने की तो प्रकृति तुम्हारे लिए सहारा हो सकती है। प्रकृति से बहुत कुछ सीख सकते हो। प्रकृति माने संसार। अगर तुम्हारा इरादा ठीक है तो संसार तुम्हारे लिए अपने ठीक इरादे को पूरा करने के रास्ते में सहायक हो जाएगा, उपकरण की तरह हो जाएगा। और तुम्हारा अगर इरादा ही गड़बड़ है तो संसार उस गड़बड़ इरादे को पूरा करने में भी सहायक हो जाएगा।

संसार ना अच्छा है ना बुरा है, प्रकृति ना अच्छी है ना बुरी है। वो तो इस पर निर्भर करता है कि तुम संसार या प्रकृति के साथ करना क्या चाहते हो।

अब ये ऐसी सी बात है कि तुम मुझसे पूछो कि, "ये जो पेन रखा है ये शुभ है कि अशुभ है?" अरे भाई, उसी पेन से तुम अपनी आज़ादी की घोषणा भी लिख सकते हो, और उसी कलम से तुम दुनिया की काली ताक़तों के आगे आत्म-समर्पण पर भी हस्ताक्षर कर सकते हो। तो पेन तो ना शुभ है ना अशुभ है, ये तो इस पर निर्भर करता है कि तुम्हारा इरादा क्या है। प्रकृति भी इसी तरह ना शुभ है, ना अशुभ है।

प्र: जो चर्चा हम कर रहे हैं दो दिनों से इस विषय पर, एक व्यक्ति ये भी जिज्ञासा कर रहे हैं कि जो लोग बिलकुल ही अनपढ़ हैं जिन्हें अध्यात्म का कुछ पता नहीं, जो अहम्-वृत्ति, अहंकार ये सब बातें नहीं समझ सकते, क्या उनके लिए मुक्ति नहीं है?

आचार्य: नहीं, उनके लिए भी है। उन तक यही बात किसी और तरीके से पहुँचानी होगी। इन शब्दों से नहीं तो किसी और शब्दों से पहुँचानी होगी। इन उदाहरणों से नहीं तो किसी और उदाहरणों से पहुँचानी होगी।

प्र: अनेक लोगों ने ये जिज्ञासा करी है कि ये सारी बातें आपको कैसे ज्ञात हुईं?

आचार्य: कोई उसमें विशेष रहस्य या चमत्कार नहीं है। ये जो दुनिया है आसपास की और अपनी ज़िंदगी, इनको देखो सब पता चल जाता है। नियत होनी चाहिए जानने की।

प्र: क्या अध्यात्म का उद्देश्य आवागमन के चक्र से छूटना है? ऐसा कहा जाता है, तो वो आवागमन क्या है पुनर्जन्म नहीं है तो?

आचार्य: आवागमन यही है कि कहीं को गए, और जहाँ गए वहाँ पर कुछ मिला नहीं तो लौटकर बुद्धू घर को आए। आवागमन, ठीक है? टू एन्ड फ्रो (जाना और आना), *पिलर टू पोस्ट*। आवागमन का यही मतलब है कि गए, गए, गए और जहाँ गए वहाँ कुछ पाया नहीं, काहे के लिए गए थे? कि जिधर को जा रहे हैं वहाँ जाकर कष्टों से मुक्ति मिल जाएगी, वो तो मिली नहीं। तो फिर कहीं और को चल दिए कि अब क्या पता वहाँ कष्टों से मुक्ति मिल जाएगी। जहाँ गए वहाँ फिर बुद्धू बन गए, तो फिर वहाँ से कहीं और को चल दिए। इसी को कहते हैं आना-जाना, आवागमन।

तो अगर तुम ग़लत दिशा को जा रहे हो तो तुम्हारा आवागमन का चक्र चलता रहेगा। आवागमन का चक्र तोड़ने का एक ही तरीका है कि ज़िन्दगी को सही दिशा में ले जाओ, वो चक्र टूट जाएगा।

आवागमन के चक्र का ये मतलब नहीं है कि अभी तुम अंशु शर्मा बनकर पैदा हुए हो और अगले जन्म में तुम रॉबर्ट फिलिप्स बनकर पैदा हो जाओगे, तो ये आवागमन का चक्र है। आवागमन का चक्र का मतलब ये है कि अंशु अभी दौड़ रहा है एक कामना के पीछे, उस कामना में उसको वो मिलेगा ही नहीं जो उसको वास्तव में चाहिए, तो फिर वो दौड़ेगा दूसरी कामना के पीछे। आवागमन।

प्र: भौतिकता बंधन है और जो मुक्ति है वो अभौतिक होती है तो ऐसा क्यों है कि अहम्-वृत्ति ने, जो कि पदार्थ नहीं है, भौतिक नहीं है, उसने एक भौतिक उपकरण को चुना मुक्ति पाने के लिए?

आचार्य: क्योंकि उसके अलावा वो कुछ जानती ही नहीं है न। देखो, जो अभौतिक है वो तो आत्मा है। अहम् अगर आत्मा को जानता ही होता तो आत्मा ही हो जाता, "ब्रह्मविद ब्रह्मैव भवति"। तो आत्मा को अगर अहम् जाने ही तो फिर तो वो अहम् ही नहीं रह जाएगा, वो तो आत्मा ही हो जाना है। आत्मा को नहीं जानता अहम् तो फ़िर किसको जानेगा? एक ही चीज़ बचती है, भौतिक पदार्थ। तो सब भौतिक पदार्थ उसको दिखते हैं तो उनसे वो अपना तालमेल करता रहता है।

वो सब भौतिक पदार्थों से तालमेल करता है। बस एक छोटा-सा उसमें अंतर आता है, मनुष्य के शरीर से वो पहला तालमेल करता है। जो पहला तादात्म्य बैठाता है वो, वो बैठाता है मनुष्य के शरीर से और या और जीवों के शरीर से। और मनुष्य के शरीर से तादाम्य करने के बाद मनुष्य के शरीर के माध्यम से वो और पदार्थों से तादात्म्य करता है।

तो तुम पहले बोलोगे, "मैं अंशु शर्मा हूँ", फिर तुम बोलोगे, "मैं अंशु शर्मा हूँ जिसको ये कलम बहुत पसंद है।" तो तुमने कलम के साथ भी अपना नाता जोड़ा, अहम् ने कलम के साथ भी अपना नाता जोड़ा पर कलम के साथ नाता जोड़ने के लिए पहले उसने तुम्हारी देह के साथ नाता जोड़ा।

तो जो पहला तादात्म्य है, जो प्राइमरी आइडेंटिफिकेशन है वो किससे है? शरीर से। जो सेकेंडरी आइडेंटिफिकेशन है वो किससे है? वो फिर पेन से, कलम से, और सब चीज़ों से है। वो जो सेकेंडरी आइडेंटिफिकेशन है, वो हो सके इसके लिए जो पहला वाला है वो बना रहता है। और पहला वाला जो आइडेंटिफिकेशन है, जो तुम्हारा पहला तादात्म्य है, जो तुम्हारा पहला गठबंधन है, वो यही सोचता रहता है कि, "अब मैं अंशु शर्मा बन गया हूँ, अब कलम में या मोबाईल में या लेपटॉप में या घर में या किसी आदमी-औरत में मुझे कोई तृप्ति मिल जाएगी।"

प्र: आपने कहा कि अहम्-वृत्ति जो अभौतिक है उसको जानती ही नहीं इसीलिए वो भौतिक…

आचार्य: हाँ, तो वो भौतिक में अभौतिक की तलाश करती है। चाहिए उसको वो जो - अभौतिक भी मत बोलो, 'परा भौतिक', 'मेटा-फिजिकल ' - चाहिए उसको वो जो परा भौतिक है लेकिन उससे उसका कोई सीधा परिचय है ही नहीं। तो खोज तो वो उसको रही है, हम सब खोज उसको रहे हैं, लेकिन उस तक हम सीधे पहुँच नहीं सकते। उसके बारे में हमें कुछ पता नहीं।

वास्तव में जो ये हमारा पूरा तंत्र है, ये समय और स्थान के अतीत कोई विचार कर ही नहीं सकता, कोई कल्पना आ ही नहीं सकती। तो हम शारीरिक-तौर पर इस तरीके से निर्मित हैं कि हम सिर्फ़ जो पदार्थ है, मैटेरियल है, उसका ही संज्ञान ले सकते हैं, उसी को कॉग्नाइज़ (जानना) कर सकते हैं, तो फिर हम उसी में वो खोजते हैं जो हमें वास्तव में चाहिए, और वो वहाँ हमको मिलता नहीं। तो फिर जो पूरी ज़िंदगी है वो निराशा में और परेशानी में बीतती है।

अच्छा, इसमें एक थोड़ा और स्पष्ट करूँगा। ऐसा नहीं कि तुम्हें जो चाहिए वो दुनिया में तुम्हें बिलकुल मिल नहीं सकता। जो तुम्हें चाहिए वो तुम्हें दुनिया के माध्यम से मिल सकता है अगर तुम विवेकपूर्ण तरीके से दुनिया में सत-असत का, सही-ग़लत का अंतर करना जानो।

एक तो विवेक ये होता है कि तुमने नित्य-अनित्य का अंतर कर लिया, अब दुनिया में तो कुछ नित्य होता ही नहीं। ज़्यादा व्यावहारिक तल पर विवेक का अर्थ ये होता है कि तुम दुनिया में उन दो चीज़ों के बीच अंतर करना सीखो जिनमें से एक तुम्हें मुक्ति तक ले जाएगी और दूसरी तुम्हें बंधन में फँसाएगी। विवेक का ज़्यादा व्यावहारिक मतलब ये है। विवेक का शास्त्रीय मतलब तो क्या है? नित्य और अनित्य में अंतर करना, ये विवेक है। लेकिन तुम्हें नित्य कहाँ कुछ मिल रहा है संसार में? तो अंतर क्या करोगे? संसार में तो सब अनित्य-ही-अनित्य है।

तो खेल पूरा ये है कि संसार जिन अनित्य वस्तुओं से या लोगों से भरा हुआ है, उन्हीं में उन चंद लोगों को या वस्तुओं को या जो भी है, जगहों को तलाशो, और वो हज़ार में एक होंगे, जो तुम्हें मुक्ति तक ले जा सकते हैं क्योंकि जीना तो संसार में ही है। तो संसार में बंधन बहुत हैं, संसार में तुम्हें फँसाने वाली चीज़ें बहुत हैं, तुम पर निर्भर करता है। लेकिन मुक्ति की तरफ़ जाने में जो तुम्हारी सहायता कर सके वो सब भी तो तुम्हें दुनिया में ही मिलेगा न। दुनिया से बाहर कहाँ मिलेगा?

अंतर समझना, मुक्ति इस दुनिया की चीज़ नहीं है लेकिन मुक्ति की तरफ़ जाने के लिए जो तुम्हें सहारा मिलना है वो सहारा तुम्हें इसी दुनिया से मिलना है, अगर तुम्हें वो सहारा ठीक से खोजना आता हो। इसी दुनिया से वो सहारा मिल सकता है, बशर्ते तुम दुनिया में ग़लत जगह ना फँस गए हो।

प्र: आख़िरी प्रश्न आचार्य जी, बातचीत सीरीज़ में ही कुछ समय पहले आपने बताया था कि मैटेरियल (पदार्थ) ही मैटेरियल में प्रवेश कर सकता है और जो मैटेरियल नहीं है वो मैटेरियल में प्रवेश नहीं कर सकता। लोग ये पूछ रहे हैं कि अगर अहम्-वृत्ति मटेरियल नहीं है तो वो मैटेरियल बॉडी (पदार्थ शरीर) में कैसे प्रवेश कर सकती है?

आचार्य: कुछ नहीं प्रवेश करता शरीर में, इतनी बार तो समझाया है। ना कुछ प्रवेश करता है, ना कुछ निकास करता है। ये जो अहम्-वृत्ति है वो तुम्हारे शरीर की कोशिकाओं में ही वास करती है। कल इतना तो समझाया था, कहीं से प्रवेश थोड़े-ही करती है। जो पहली दो कोशिकाएँ हैं जिनसे तुम्हारा शरीर बना है, पिता और माता की, उनमें ही मौजूद थी वो। फिर वही दोनों कोशिकाएँ मिलकर के और फैलती गई।

तुम्हारे शरीर की एक-एक कोशिका में मौजूद है वो, कहीं बाहर से नहीं आई। वो पीछे से आ ही रही है, वो जो पूरा समय का चक्र है, प्रकृति की पूरी धारा है, उसी में बह रही है वो। बाहर से कहाँ से आएगी? प्रकृति का ही वो एक तत्व है। बाहर से कहाँ से आएगी? हवा में थोड़े ही तैर रही है अहम्-वृत्ति। वो एक टेन्डेन्सी (वृत्ति) है न? टेन्डेन्सी का मतलब ही यही होता है, वृत्ति का मतलब ही यही होता है कि इस शरीर की वृत्ति है 'मैं' बोलने की, चाहे किसी का शरीर हो। चूँकि निरपवाद-रूप से हर शरीर की वृत्ति होती है क्या बोलने की? 'मैं'। इसीलिए तो उसको वृत्ति बोलते हैं न? टेन्डेन्सी है।

कोई भी शरीर हो, कैसा भी शरीर हो, ऊँचा हो, नीचा हो, काला हो, गोरा हो, आदमी हो, औरत हो, बच्चा हो, बूढ़ा हो, अमीर हो, गरीब हो, आज का हो, कल का हो, सब क्या बोलते हैं? 'मैं'। कोई ऐसा तुम्हें व्यक्ति नहीं मिलेगा जो 'मैं' ना बोलता हो। इसीलिए उसको वृत्ति बोलते हैं, ये टेन्डेन्सी है, सब में पाई जाएगी, सब 'मैं' बोलेंगे ही।

जो छोटा बच्चा है, एकदम एक दिन का बच्चा है, वो 'मैं' बोल नहीं सकता लेकिन फिर भी उसको पता है कि 'मम देह, ये मेरी देह है'। वो मान लो पालने में लेटा है, तुम पालने को चोट मारो, बच्चे को कोई अंतर नहीं पड़ेगा। लेकिन उस बच्चें के हाथ पर तुम थोड़ी-सी ऐसे ऊँगली लगा दो तो बच्चे को तुरंत अंतर पड़ जाएगा। तो वो भी मैं जानता है कि "ये मैं हूँ, ये मेरा शरीर है, मेरी देह है।"

तो ये टेन्डेन्सी है जो सब में पाई जाती है। ये शरीर के साथ ही चलती है लगातार। ना प्रवेश करती है ना बाहर निकलती है, और चूँकि सब में है इसीलिए बार-बार, तुम कह सकते हो, हर शरीर के साथ ये जन्म लेती है। हर शरीर में है न? तो हर नए शरीर के साथ उसका पुनर्जन्म हो जाता है और चूँकि सब में है इसीलिए बार-बार मरती भी है। तो वो बार-बार मर रही है, बार-बार जन्म ले रही है।

यही बात तो सारे उपनिषद, गीता, शास्त्र सब बता रहे हैं कि जो बार-बार मरने और जन्मने की बात है वो यही है कि, तुम मरे, तुम्हारे साथ 'मैं' मरा, कहीं कोई पैदा हुआ, उसके साथ 'मैं' फिर पैदा हो गया। लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि तुम्हारा 'मैं' फ़िर पैदा हो गया। वो जो टेन्डेन्सी थी वो फ़िर से पैदा हो गई।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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