इंसान,
लगता है बहुत आक्रामक होते जा रहे हो तुम,
गिद्ध सी तुम्हारी पैनी नज़र
तेंदुए सा तुम्हारा हमला,
सिंह सा प्रहार,
अपराजेय तुम,
शक्तिशाली, सामर्थ्यवान ।
सिद्धांत?
मात्र दो :
सफलता का कारक बहुधा अविश्लेषित रहता है।
प्रहार करे जो प्रथम, सफल भी बहुधा वही रहता है।
अतः हे प्रहारक,
सर्वसामर्थ्यशाली जीव,
प्रणाम ।
प्रहार?
पर क्यों ?
प्रहार?
पर किस पर ?
आक्रामक ?
पर आक्रमण की आवश्यकता क्यों ?
रचनाकार की सृष्टि का प्रत्येक अंश
शत्रु प्रतीत होता है तुम्हें ?
कौन सा भाव है ह्रदय में,
जो दृष्टि में सदा संदेह ही बसाता है ?
भय किस का है मन में ?
कहीं उस का तो नहीं
जो है साक्षी तुम्हारे प्रत्येक कर्म का ?
~ प्रशान्त (अक्टूबर, १९९५)