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इन्द्रियों पर विजय कैसे प्राप्त करें? कर्म और अकर्म क्या? || श्रीमद्भगवद्गीता पर (2020)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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श्रद्धावान् लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय: | ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति || ४, ३९ ||

जितेन्द्रिय, साधनापरायण और श्रद्धावान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है तथा ज्ञान को प्राप्त होकर वह बिना विलम्ब के तत्काल ही भगवत्प्राप्तिरूप शान्ति को प्राप्त हो जाता है। —श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ४, श्लोक ३९

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। शत-शत नमन। इस श्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो मनुष्य जितेन्द्रिय, साधनापरायण और श्रद्धावान है, उसी को ज्ञान प्राप्त होता है और उसके बाद तत्काल ही भगवत्प्राप्तिरूप शान्ति को प्राप्त हो जाता है। लेकिन हम संसारी भौतिक सुख में इतने उलझ जाते हैं कि इन्द्रियों को जीतना मुश्किल सा हो रहा है। तो कृपया मार्गदर्शन करें ताकि अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर सकें।

आचार्य प्रशांत: श्लोक ही मार्गदर्शन है। श्लोक क्या कह रहा है? श्लोक कह रहा है - जितेन्द्रिय हो तो ज्ञान प्राप्त करोगे। साधनापरायण हो तो ज्ञान प्राप्त करोगे। तो श्लोक ने साध्य और साधन दोनों बता दिए न। क्या पाने योग्य है, ये भी बता दिया और किस साधन के द्वारा उसे पाया जा सकता है, ये भी बता दिया।

जो पाने योग्य है, उसका क्या नाम दिया यहाँ पर?

प्र१: सहजता से भगवत्प्राप्तिरूप शान्ति।

आचार्य: ठीक है। और साधन क्या है उस साध्य को पाने के, वो साधन क्या बता दिए?

प्र१: श्रद्धावान होना, साधनापरायण और जितेन्द्रिय।

आचार्य: तो बात सीधी है। जिसे ज्ञान पाना है, जिसे सहज ही भगवत्प्राप्ति करनी है, उसके लिए ये तीन साधन हैं। अब आप अगर पूछेंगे कि इन साधनों पर चलने के लिए क्या साधन है, तो कोई उत्तर नहीं हो सकता। ये साधन ही तो बताए गए हैं, ये उपाय ही तो बताया गया है। कहा गया है कि अगर इन्द्रियगत सुख से कृष्ण ज़्यादा प्यारे हों तो इन्द्रियों को छोड़ो, बँधन बुरे लगते हों तो साधनापरायण हो जाओ, साधना करो।

साधन तभी काम आता है जब सर्वप्रथम साध्य के लिए प्रेम हो आपके पास, नहीं तो कोई साधन काम नहीं आएगा।

इसीलिए जानने वालों ने यह तक कह दिया है कि साधनों की कोई विशेष उपयोगिता है नहीं, क्योंकि साध्य के लिए, जो चाहिए, जो लक्ष्य है, उसके लिए अगर प्रेम होगा तो प्रेम स्वयं साधन ढूँढ लेता है। प्रेम है तो साधन उभर ही आता है। कोई बड़ी बात नहीं है। और प्रेम नहीं है तो आप अपनी सारी ऊर्जा साधन खोजने में, साधनों के विकास में, अविष्कारों में लगाते जाएँगे, एक-से-एक साधन तैयार होते जाएँगे लेकिन जो चाहिए, वो मिलेगा नहीं; क्योंकि वो आपको वास्तव में चाहिए ही नहीं।

ये श्लोक उत्तम उदाहरण है। एक वो है, इन्द्रियातीत है, एक वो है, इन्द्रियगत है। तो श्रीकृष्ण कहते हैं कि तुम जितेन्द्रिय हो जाओ। अगर वो चाहिए जो हाथ से पकड़ में नहीं आना, आँखों से दिखाई नहीं देना, जिसका चिंतन-मनन नहीं किया जा सकता, जिसको पकड़ करके घर में नहीं रखा जा सकता—उसी का नाम इन्द्रियातीत है न, वो इन्द्रियों के आगे की बात है—अगर वो चाहिए, तो उन सब से अपनी ऊर्जा हटानी पड़ेगी जो विषय इन्द्रियों के ही दायरे में आते हैं।

इन्द्रियों के दायरे में क्या-क्या चीज़ें आती हैं? सब चीज़ें आती हैं। तो बहुत सीधा हिसाब, बड़ा स्पष्ट गणित रख रहे हैं। ये चाहिए तो इससे मुक्त हो जाओ, इसी को कहते हैं इन्द्रियों को जीतना, जितेन्द्रिय होना।

अब आप पूछेंगे कि "इन्द्रियों को जीतने का क्या तरीका है?" इन्द्रियों को जीतना ही तो तरीका है। अब आप पूछ रही हैं कि "तरीके के क्या तरीका है?" तरीके का तरीका नहीं होता, उपाय का कोई उपाय नहीं होता।

तो इसीलिए सर्वप्रथम और सर्वश्रेष्ठ उपाय तो प्रेम ही है। और यही प्रेम जब छटपटाहट के साथ मिल जाता है तो कमाल का विस्फोट होता है। कृष्ण के प्रति प्रेम। कृष्ण का ही दूसरा नाम है मुक्ति है।

मुक्ति के प्रति प्रेम और बँधनों से उठने वाली छटपटाहट, जब ये दोनों मिल जाते हैं तो फ़िर कहना ही क्या। यही तो उपाय है। अगर अभी अपने बँधनों से छटपटाहट ही नहीं और अगर अभी मुक्ति के प्रति प्रेम ही नहीं तो कितने उपाय, कितनी विधियाँ आविष्कृत करते रहिए, आज़माते रहिए, कोई लाभ नहीं होगा।

वर्तमान समय में विधियाँ-ही-विधियाँ हैं। ये समय बड़ा अनूठा है। जैसे भौतिक आयाम में हम एक-से-एक नई ईजाद, खोज, आविष्कार होता देख रहे हैं, वैसे ही लोग लगे हुए हैं अध्यात्म के क्षेत्र में भी एक-से-एक नई खोज करने में, और वो बड़ी आकर्षक खोजें हैं। ये विधि निकली है, ये मेडिटशन निकला है, ये साधना निकली है, ये तरीका निकला है, फलाना योग निकला है, एक-से-एक उपाय निकलते जा रहे हैं, उन उपायों से हासिल क्या हो रहा है? कुछ भी नहीं, क्योंकि वास्तव में हम उन उपायों का आविष्कार कर ही इसीलिए रहे हैं ताकि वो उपाय सफल न होने पाएँ।

(मेज़ पर रखे तौलिए को उठाते हुए) ये सामने पड़ा है तौलिया। एक तो है कि इसको उठा लो। कोई उपाय लगा क्या? उपाय कुछ नहीं लगा। और एक तरीका ये है कि ऐसा करते हैं, (ऊपर की ओर इशारा करते हुए) वहाँ पर एक पुली लगाते हैं और एक रस्सी बाँधते हैं, रस्सी में होगा एक हुक * । रस्सी का एक सिरा मेरे हाथ में होगा, * हुक जा करके तौलिए में फँसेगा और ऐसे-ऐसे खींचेंगे तो तौलिया उठ जाएगा।

एक तरीका हो सकता है कि वहाँ सामने से ज़बरदस्त तरीके से कंप्रेस्ड एयर फेंकते हैं इतनी ज़ोर की कि ये तौलिया सीधे मेरी गोद में आ करके गिरे। और तरीका हो सकता है कि इस कमरे में कहीं वाइब्रेटर लगाते हैं जो ख़ास किस्म के वाइब्रेशन फेंकेगा। और फ़िर ये तौलिया वाइब्रेट करते-करते-करते इतना एम्पलीच्यूड पा लेगा कि उछलेगा और सीधे मेरे पास आ जाएगा।

अब दस, बीस, चालीस साल आप लगा सकते हैं तरह-तरह के आविष्कार करने में, तरह-तरह के उपाय बनाने में। और करना क्या है? जो करना है, वो अति सहज है। करना यही है कि तौलिया उठाना है, लेकिन नीयत नहीं है न। नीयत नहीं है तो हम फ़िर ध्यान की नई-नई विधियाँ खोजते हैं, योग के नए-नए तरीके खोजते हैं। जो करना है वो बड़ा आसान है। करना ये है कि अहम् छोटी और कष्टदायक चीज़ है, उसे छोड़ देना है, पर छोड़ने का इरादा ही नहीं है।

हम कहते हैं कि अब कुछ नया करते हैं, फ़ूड योगा , मूड योगा * । कोई ऐसा शब्द नहीं है जो अब * योगा के साथ नहीं जोड़ दिया गया है। नई-नई क्रियाएँ निकल रही हैं, नई-नई प्रक्रियाएँ निकल रही हैं। ये मुद्रा, ये आसान, ये करते हैं, वो करते हैं, और करना कुल कितना है? (तौलिया उठाते हुए) करना ये है, लेकिन बेईमान हैं, ये करने का इरादा ही नहीं है। न अपनी वर्तमान स्थिति के प्रति पीड़ा है और न ही मुक्ति से प्रेम है। तो ये नहीं करना चाहते। आडम्बर करना है ताकि अपने-आप को ये दिलासा दिए रहें कि हम भी आध्यात्मिक हैं, हम भी देखो न मुक्ति के लिए कुछ कर ही रहे हैं।

तो एक बड़ा ज़बरदस्त निशानेबाज़ मँगाया गया है। वो वहाँ से गोली चलाएगा और कुछ इस तरह से गोली चलाएगा कि गोली तौलिए में लगेगी ऐसी गति से, ऐसे कोण से जैसे बिलियर्ड्स खेला जाता है। गोली इसमें लगी नहीं कि तौलिया उछलेगा और ऐसे आकर गिरेगा। अब वो अभ्यास कर रहा है, ज़बरदस्त साधना कर रहा है वहाँ से गोली चलाने की कि गोली इसमें कैसे मारूँ।

तुम क्या-क्या नहीं कर सकते? पचास तरह की यात्राएँ कर सकते हो, एक-के-बाद एक विधियाँ कर सकते हो। जो न्यूनतम विधि संभव हो सकती थी, वो कृष्ण ने बता दी। उसके आगे अब हम और विधि माँगेंगे तो आत्मप्रवंचना है। हमारा इरादा ही नहीं है कृष्ण को पाने का। हमारा इरादा है जीवन को बस तरह-तरह की विधियों में बिता देने का, और ये बड़ा अच्छा तरीका है।

और ये समय कुछ ऐसा चल रहा है, आज का युग कुछ ऐसा चल रहा है कि नए के प्रति हममें बड़ा आकर्षण है। तो जैसे ही बाज़ार में कोई नई विधि आती है, फ़लाने नए तरीके का मैडिटेशन आता है, तुरंत हम कूद कर पहुँच जाते हैं। डांसिंग मैडिटेशन, करसिंग एंड अब्यूज़िंग मैडिटेशन , ये सब चल रहे हैं। मैडिटेशन के नाम पर एक कमरे में बंद हो जाओ और गाली-ही-गाली दो, दीवार पर सर पटको। काम सीधा है, लेकिन सीधा काम करने के लिए दिल में प्यार चाहिए। जब वो प्यार ही नहीं तो फ़िर नौटंकी काहे कर रहे हैं हम इतनी?

बात बहुत सीधी है, उसको उलझाने की कोशिश मत करो। उसको उलझाने की कोशिश करके हम बस यह कहते हैं, “अभी बात समझ में नहीं आई न, इसलिए हम मुक्ति की तरफ़ कदम नहीं बढ़ा रहे।” बात को न समझना हमारी साज़िश है; क्योंकि अगर हमने ये कह दिया कि बात समझ में आ गई है, तो फ़िर हमें उत्तर देना पड़ेगा कि बात समझ में आ गई है तो आगे क्यों नहीं बढ़ रहे, रुके क्यों हुए हो?

तो हम कहते हैं, “अध्यात्म तो बड़ा गूढ़ है न, रहस्यमयी है।" और जो ग्रन्थ जितना तिलिस्मी लगे, जो गुरु जितनी बेसिर-पैर की, समझ-बूझ से बाहर की बात करे, वो हमें उतना आकर्षक लगता है। "बढ़िया है, सुरक्षा है, इनकी बात ऐसी है कि समझ में तो आ नहीं सकती। जब समझ में नहीं आ सकती तो फ़िर उसको प्रयोग में उतारने का खतरा भी नहीं है; क्योंकि अगर सीधी बात पता चल गई तो बड़ा खतरा उठाना पड़ेगा, उसको लागू करना पड़ेगा, भाई। लागू न करना पड़े इसके लिए अच्छा है कि वो वहाँ बैठकर ब्रह्मज्ञान देते रहें, हम यहाँ बैठकर कहें, 'ठीक, तुम अपनी दुनिया में ब्रह्मज्ञान दो, हमारी दुकान अलग चल रही है'।”

कोई विधि नहीं है वैसी जैसी अखबारों में, वेबसाइट पर और विज्ञापनों में आती है, 'ये नया जादुई फल आया है। बैठे-बैठे एक सप्ताह में दो-सौ किलो वज़न कम करें।' और हम बिलकुल बावले हो जाते हैं, “वाह, वाह, वाह, वाह!” वज़न घटाना है तो साधना करनी पड़ेगी, दौड़ लगानी पड़ेगी। पर जब हम कहते हैं, “गुरूजी, कोई विधि दे दीजिए”, तो हमारा इरादा वैसा ही होता है।

विज्ञापन आते हैं, ‘खा करके वज़न कम करें’। नहीं, अगर वज़न कम करना है तो खाना भी कम करना पड़ेगा, शारीरिक गतिविधि भी बढ़ानी पड़ेगी। ये जो हमारी माँग है, यही माँग फ़िर हमें दुनिया के बाज़ार में लुटवाती है। "और आसान विधि दो न, और आसान विधि दो न", तो लोग आ जाते हैं और आसान विधियाँ ले करके। ‘बैठे-बैठे खाइए और वज़न अपने-आप कम हो जाएगा!’ ऐसे विज्ञापन देखे हैं कि नहीं? और खूब चलते हैं।

वैसे ही गुरुओं का बाज़ार गरम हैं, जो आपके पास आते हैं और कहते हैं, “ना, ज़िन्दगी जैसी चल रही है, मस्त है। बस ऐसा किया करो कि तांबे के लोटे में पानी पिया करो और सुबह साढ़े चार बजे उठकर फ़लानी क्रिया कर लिया करो, सब ठीक हो जाएगा।” ना रिश्ते बदलने हैं, ना मन बदलना है, ना आमदनी का स्रोत बदलना है, ना घर बदलना है, ना दफ़्तर बदलना है; तुम्हें बस तांबे के लोटे में पानी पीना है। और हम कहते हैं कि "अब ठीक उपाय मिला, अब बढ़िया है।" कोई श्रम ही नहीं और भगवत्प्राप्ति भी हो जाएगी।

जहाँ श्रम नहीं, वहाँ प्राप्ति नहीं। मूल नियम समझ लीजिए, बताने वाले बता गए, बिना मरे बैकुंठ नहीं मिलता। जो लोग सस्ते उपायों और शॉर्टकट्स की तलाश में हों, अध्यात्म उनके लिए नहीं है।

पर आप सस्ता उपाय माँगोगे, शॉर्टकट माँगोगे तो बाज़ार में उसकी उपलब्धता हो जाएगी। कल हम कह रहे थे न, आप जो कुछ भी माँगते हो बाज़ार उसकी आपूर्ति कर देता है, वहाँ तो सप्लाई (आपूर्ति) और डिमांड (माँग) का खेल है।

आपने कहा कि "मुझे हाथ-पाँव नहीं हिलाना, कोई साधना नहीं करनी, कोई चोट नहीं खानी, कोई कष्ट नहीं सहना, कोई पीड़ा नहीं सहनी और उसके बाद भी मुझे मुक्ति चाहिए" तो कई दुकानें आपको खुली मिल जाएँगी जो आपसे कहेंगी, “आओ, आओ। कुछ बदलना नहीं पड़ेगा, कोई चोट नहीं खानी पड़ेगी। सब तुम्हारे सुख-सुविधाएँ पहले की तरह ही चलेंगे, पूर्ववत, और उसके बाद भी तुमको सत्य भी मिल जाएगा, मुक्ति भी मिल जाएगी, अध्यात्म का तमगा मिल जाएगा, सब मिल जाएगा। आओ, आओ।”

वैसी चीज़ हो नहीं सकती। बार-बार और नए-नए उपाय मत माँगिए। अभी कल ही एक वीडियो मेरा पब्लिश (प्रकाशित) हुआ है, उसका शीर्षक है, ‘अध्यात्म में नए आविष्कार नहीं होते, तुम पुरानी ही सीखों पर चलना’। अध्यात्म में कुछ भी नया नहीं होता। यहाँ नए आविष्कार थोड़े ही होंगे प्रयोगशाला में, कि गुरूजी अभी-अभी हिमालय से उतरे हैं और वो नए किस्म का योग ले करके आए हैं। और आजकल चल रहा है, बिलकुल नई कहानियाँ प्रचारित-प्रसारित की जा रही हैं। योग की ही नई-नई परिभाषाएँ आ रही हैं। शिव के बारे में ही नई-नई कहानियाँ फैला दी गईं, कि शिव वो नहीं हैं, मैं बताता हूँ शिव कौन हैं। हिमालय पर एक आदमी रहा करता था, उसका नाम शिव है।

पुराने ग्रंथों को पढ़ो, उपनिषदों के पास जाओ अगर ज्ञान चाहते हो। और संतों के पास पास जाओ, भक्त कवियों के पास, भक्त संतों के पास जाओ अगर प्रेम मार्ग चाहते हो। इतना मैं तुमको आश्वस्त किए दे रहा हूँ कि जो तुमको अष्टावक्र के पास नहीं मिल रहा और जो तुमको कबीर साहब के पास नहीं मिल रहा, वो झूठा ही होगा।

कोई बात अगर ऐसी है कि न अष्टावक्र ने कही है ज्ञान मार्ग में और न कबीर साहब ने कही है प्रेम मार्ग में तो उस बात को जान लेना कि फ़र्ज़ी है। ये किसी का नया नवेला आविष्कार है, बिलकुल झूठा, बिलकुल फ़र्ज़ी।

तो अध्यात्म के नाम पर आप कितनी भी बातें सुनते हों, उनको इन दो कसौटियों पर कास लीजिएगा, यही तराजू हैं, इन पर तौल लीजिएगा। वो बात अष्टावक्र ने कही क्या? वो बात कबीर ने कही क्या? और जब मैं कबीर कह रहा हूँ तो मेरा आशय वो पूरी धारा है जो कबीर के रूप में प्रकट होती है। जब मैं कबीर कह रहा हूँ तो इसका मतलब यह नहीं है कि मैं तुलसीदास से, या फरीद से, या नानक साहब से या रूमी से इन्कार कर रहा हूँ। मेरा कहना यह है कि वो जो पूरी धारा ही है जो गोरखनाथ से शुरू होती है, आज तक चल रही है, बीच में उसमें बुल्लेशाह भी आते हैं, उस पूरी धारा के सबसे सशक्त प्रतिनिधि कबीर हैं।

सैंकड़ों संतों ने जो कहा वो कबीर साहब की वाणी में समा जाता है। और सब ज्ञानियों ने जो कहा वो अष्टावक्र की वाणी में समा जाता है। और विधियाँ न कबीर साहब बताते हैं, न अष्टावक्र बताते हैं; वो ज्ञान बताते हैं, वो प्रेम बताते हैं। यही तो विधि है, ज्ञान विधि है, प्रेम विधि है। ज्ञान किसका? अपने बँधनों का ज्ञान। और किसका ज्ञान होगा? आत्मा का कोई ज्ञान नहीं होता। और प्रेम किसके प्रति? मुक्ति के प्रति।

बँधनों का ज्ञान होता है, मुक्ति से प्रेम होता है। इन दो के अलावा कोई और ज़रिया, कोई और रास्ता होता नहीं।

तुम लगा लो नए-नए रास्ते, उससे कुछ नहीं होगा, वॉमिटिंग योगा, शहनाई योगा। ये मैं मज़ाक भर नहीं कर रहा हूँ, ये वाकई है, अभी चल रहा है ये सब कुछ। और आपमें से कुछ लोग हो सकता है कभी-कभार फेरे लगा आते हों।

बात को सीधा रखिए, सरल रखिए, ईमानदार रखिए। जो सीधा है वो टेढ़े-मेढ़े रास्तों से चलकर नहीं मिलेगा।

प्र२: इसी संसार में रहते हुए बँधनों से मुक्त हुआ जा सकता है कि नहीं?

आचार्य: संसार माने क्या?

प्र२: घर-परिवार, कामकाज।

आचार्य: वही संसार है? वही है? कभी-कभी होटलों में जाइए तो वहाँ एक घड़ी लगी रहती है बड़ी लम्बी सी, वो कम-से-कम छः-सात जगह का समय एक साथ बता रही होती है। इस वक़्त अमेरिका में बहुत लोग नाश्ता कर रहे होंगे सुबह का, यूरोप में लोग दफ़्तर का काम ख़त्म करके घर आने के लिए निकल रहे होंगे, जापान में अब मज़े में सो चुके होंगे।

आप जिन जगहों पर गए हैं और वो जगहें आपको बड़ी प्यारी लगी हैं, वो जगहें आपके चले जाने से ख़त्म तो नहीं हो गईं। अभी आप यहाँ मौजूद हैं, इस वक़्त आपका घर भी है और वहाँ कुछ हो रहा है। जिन होटलों में आप रुके हैं पिछले दस सालों में, वो होटल भी हैं, वहाँ भी कुछ चल रहा है। जिस कमरे में आप थे, वो कमरा आज भी होगा। आप कमरा नंबर १०६ में रुके थे, वो कमरा आज भी होगा। आप कहीं गए थे घूमने, आप किसी बीच (समुद्रतट) पर बैठ कर आए थे, जिस जगह आप बैठे थे, वो जगह आज भी होगी, लहरें वहाँ अभी भी आ रही होंगी। संसार माने क्या?

आठ-सौ करोड़ लोग हैं संसार में और आठ-सौ करोड़ जगहें हैं संसार में। किसने आपसे कह दिया कि संसार का मतलब है आपका ‘दो बाय दो’? ये बोल किसने दिया आपसे कि, "आचार्य जी, संसार में रहते हुए भी क्या आध्यात्मिक साधना हो सकती है?"

अध्यात्म का मतलब ही है कि तुम्हें संसार का वास्तविक अर्थ समझाए। तुम संसार के नाम पर एक दो बाय दो की सेल में रह रहे हो, वो संसार नहीं है। उसमें रहना कहलाता है कुँए का मेंढक होना, वो बोलता है संसार, संसार। और उससे पूछो, "संसार माने क्या?" तो वो बोलता है, "ये ही कुँआ।" वही है संसार? और फ़िर बार-बार, “नहीं देखिए, यही संसार है, इसमें रह करके बताइए मैं विश्व विजेता कैसे हो सकता हूँ?”

आज शनिवार है न? अभी समय क्या हुआ? डिस्को थेक्स में म्यूज़िक (संगीत) शुरू हो गया होगा। शनिवार है आज, सवा दस पर धीरे-धीरे शुरू हो जाता है। कितने संसार हैं। तुमसे किसने कह दिया कि वही संसार है जहाँ तुम रहते हो? कि दस बजे सो गए, शनिवार हो कि शुक्रवार हो, डाली चादर और सो गए।

ठीक जब तुम सोने जा रहे हो, कदम थिरकने शुरू होते हैं, नाच शुरू होता है। तुमसे किसने कह दिया वो जो तुम्हारा दो बाय दो बैडरूम है, वही संसार है? हो सकता है कि जहाँ तुम सो रहे हो, उससे पाँच सौ मीटर दूरी पर ही डिस्को थीक हो, पर तुम कह रहे हो, “संसार तो यही है न मेरा दो बाय दो।” तुमसे किसने कहा उस दो बाय दो में अपने-आप को क़ैद रखो, बताओ न मुझको?

तुम कहीं भी हो सकते हो। अपनी सम्भावना को पहचानों तो सही। आज का अखबार ही खोल लो, न जाने क्या-क्या चल रहा है। तुम कहीं भी हो सकते थे न? तुम कश्मीर में भी हो सकते थे, तुम ईरान में भी हो सकते थे, तुम मालदीव में हो सकते थे, तुम अमेरिका में हो सकते थे, तुम किसी अंतरिक्ष यान में हो सकते। बताओ संसार माने क्या, किस संसार की बात कर रहे हो?

पर हम घुटने टेक चुके हैं, हमने हार मान ली है। हम कहते हैं संसार माने मेरा?

श्रोतागण: घर।

आचार्य: दो बाय दो। बिलकुल ठीक-ठीक बोलो ताकि चुभे। अपने दो बाय दो को संसार बोलते हो, फ़िर पूछते हो, “आचार्य जी, इसका क्या करें?” मैं क्या बताऊँ क्या करें? बारिश के मौसम में गोवा बड़ा सुन्दर हो जाता है। एक बार आँख बंद करो, वहाँ भी संसार है। तुम वहाँ क्यों नहीं हो सकते? बोलो।

आते हैं, “आचार्य जी, आपकी बातें तो ठीक हैं पर रहना तो हमें इसी संसार में है न।” किस संसार में, बेटा? दो बाय दो। ये बात ही बड़ी निराली है! “आचार्य जी, मुक्ति की बातें बड़ी अच्छी हैं पर रहना तो हमें इसी काल कोठरी में है न।” क्यों रहना है, बेटा? दरवाज़ा खुला हुआ है। ख़ुद भी निकलो, औरों को भी निकालो।

तुम अपनी स्वेच्छा से बँद हो और तुम्हारी स्वेच्छा तुम्हारे अज्ञान के पीछे-पीछे चल रही है। तुम क्यों एक ही जगह पर बार-बार पहुँच जाते हो? बाध्यता क्या है? कभी बैठकर सोचो तो। तुम एक ही तरह का जीवन क्यों जी रहे हो, बाध्यता क्या है? पूछो तो। बिगड़ क्या जाएगा?

कोठरी से बाहर आ जाओगे, नए संस्कारों में प्रवेश करोगे, एक जीवन में हज़ार जीवन जी लोगे। बिगड़ क्या जाएगा तुम्हारा? तुमने एक घिसापिटा जीवन पकड़ लिया है और उसी को दोहराते जा रहे हो रोज़-रोज़। एक घिसापिटा जीवन, उसको रोज़ दोहराते हो। वही नाश्ता करते हो रोज़, वो भी नहीं बदलते। और गृहिणियाँ इस बात पर बड़ा फ़क़्र करती हैं, कहती हैं, “पोहा मैं जैसा बीस साल पहले बनाती थी, आज भी बनाती हूँ।” तभी तो अपने पति की शक्ल देखो कैसी हो गई है!

(श्रोतागण हँसते हैं)

ये बात बड़े फ़क़्र की होती है, “देखो, बदली मैं बिलकुल नहीं हूँ। जैसा पोहा बीस साल पहले बनता था, वैसा ही आज भी बनता है।” मार डाला, बिलकुल मार डाला। “और तुम भी वैसे ही रहना जैसे तुम बीस साल पहले थे। न मैं पोहा बदलने दूँगी, न तुम बदलना।” उनको बोलो, “देवी जी, मैं भी बदलूँ, तुम भी बदलो। साड़ी प्यारी है, सलवार सूट भी प्यारा है, पर और भी परिधान आते हैं, आज़माने में हर्ज़ क्या है? ससुराल-मायका, ससुराल-मायका यही करती रहोगी? चलो थोड़ा कहीं और भी हो आएँ।” नहीं, साहब अनुशासन के बड़े पक्के हैं। ठीक दस बजे दुकान में गद्दी पर आकर बैठ जाते हैं पिछले चालीस साल से।

मैं दसवीं में था आइसीएसई में, वहाँ पर एक कहानी हमें पढ़ाई गई थी मदुरई के सुबैया, द राइस ट्रेडर (चावल का व्यापारी) की। उसके बारे में यही बात, वो साठ साल जिया, और साठ में से पचपन साल वो ठीक एक समय आ करके अपने गल्ले पर, अपनी गद्दी पर बैठ जाता था, वही गद्दी। और मौत भी जानते हो उसकी कैसे हुई? गोदाम अपना बड़ा करता गया, बड़ा करता गया, बड़ा करता गया। ये लम्बे-लम्बे चावल के बोरे। एक दिन गोदाम में घूम रहा था, बोरा आकर सर पर गिरा, भप्प। वहीं मर गया, मरा भी चावल से ही। ज़िन्दगीभर चावल बेचा, मरा भी चावल से ही। और फ़िर तुम कहते हो, यही तो संसार है, सुबैया *द राइस ट्रेडर*। कहानी का शीर्षक कुछ और था, अभी मुझे याद नहीं है, खोजोगे तो मिल जाएगा।

एक बार को ठीक सोचो कि इस वक़्त दुनिया में क्या-क्या नहीं हो रहा होगा। जो कुछ भी तुम सोच सकते हो, दुनिया में इस वक़्त वो कहीं-न-कहीं हो रहा है, और एक जगह नहीं हज़ारों जगह हो रहा है। जितनी देर में हमने बात करी है, इतनी देर में हज़ारों शिशुओं का जन्म हो गया। जितनी देर हमने बात करी, उतनी देर में हज़ारों मौतें हो गईं। क्या-क्या नहीं है जो हो गया? यही संसार है बस जितना तुम्हें दिखाई देता है?

और अभी मैं उस पारलौकिक संसार की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं कह रहा हूँ कि ये जो दृष्टव्य जगत है, ये जो लौकिक संसार है, ये जो फिज़िकल वर्ल्ड है, तुम्हें इसका भी कहाँ पूरा पता है? तुम तो इसमें भी छुप-छुपकर रहते हो अपने कबूतरखाने में। तुम इस भौतिक जगत को पार करके उस पार क्या जाओगे जब तुम इस भौतिक जगत में भी घूमने-फिरने से भी घबराते हो?

यह तो छोड़ दो कि तुम इस संसार को लाँघ जाओगे, ट्रांसेंड कर जाओगे और उस संसार में पहुँच जाओगे जिसका नाम है सत्य, जिसका नाम है अमरपुर, वो तो बहुत दूर की बात है। तुमने इस दुनिया को भी कहाँ देखा? इस दुनिया में भी बस दो बाय दो।

बहुत लोग होते हैं जो अपना घर ही पूरा नहीं देखते। घर में भी उनका एक कमरा होता है, कमरे में भी उनका एक कोना होता है, कोने में एक कुर्सी होती है, वहीं जाकर बैठ जाते हैं और ज़िन्दगी वहीं बैठे-बैठे गुज़ारते हैं।

अंदर की बात बता रहा हूँ, पता नहीं बतानी चाहिए कि नहीं। ये जो ऍमटीऍम ( मीट द मास्टर ) होते हैं, उसमें मैं शुरुआत करा करता हूँ कि पहले आप अपनी कहानी सुनाएँ। पूछता हूँ, “दिनचर्या बताओ अपनी, करते क्या हो?” वो जब अपनी दिनचर्या बताने लगते हैं तो मुझे नींद आने लगती है। मेरे लिए वो बड़े मुश्किल पल होते हैं। जिन्होंने मुझसे मुलाकात करी है अकेले में, उन्होंने देखा होगा, टेबल पर मेरे लिए हमेशा बहुत गरम चाय रखी जाती है। जब भी मैं आप लोगों के सवाल वगैरह लेता हूँ तो देखा है कुछ पीता रहता हूँ? बताओ क्यों पीता रहता हूँ?

(श्रोतागण हँसते हैं)

भाई, ये एडिट कर देना सब। कभी सोचा नहीं कि आचार्य जी को ज़रूरत क्या पड़ती है पीते रहने की, पीते रहने की? क्यों पीते रहते हैं? क्योंकि तुम अपना जो हाल भेजते हो, वो इतना उबाऊ, इतना नीरस, इतना बोरिंग होता है कि झेला नहीं जाता। ये बोल क्या रहे हैं? क्या सुना रहे हो तुम? ये ज़िन्दगी है तुम्हारी, ऐसे जी रहे हो? बर्दाश्त कैसे कर रहे हो ऐसे जी लेना? तुम्हारा हाल सुनने में मैं अधमरा हो गया, तुम दिन में कितनी बार मरते होओगे!

अब से कभी पाओ किसी वीडियो वगैरह में कि किसी प्रश्न का उत्तर दे रहा हूँ, मान लो तुम्हारे ही प्रश्न का, और उसमें बहुत बार चाय पीनी पड़ी है तो समझ लेना तुम्हारा सवाल कैसा था। मुझे कोई शौक़ नहीं है चाय इत्यादि का।

अब होता नहीं है। नहीं तो पहले शिविरों में होता था कि जो लोग आते थे, उनको पिटाई लगाई जाती थी। स्विमिंग पूल वगैरह होते थे, स्विमिंग पूल में डाल करके कहते थे कि आओ बॉल-बॉल खेलेंगे। खासतौर थुलथुल, मोटे और ऐसे लोग आते थे जिन्होंने जीवन ही बंद कमरों और दुकानों में बिताया है। उनसे कहते थे कि अब बॉल-बॉल खेलेंगे, और बॉल ली जाती बढ़िया भारी। तो उनको उधर खड़ा कर देते थे और फ़ेंककर देते थे, लो। पट्ट से पड़ती थी। (एक श्रोता की ओर इशारा करते हुए) इसको पड़ी हुई है।

कुछ उठो तो, कुछ जगे तो, तुम्हारे साथ कुछ अलग तो हो। उनमें से बहुत सारे तो ऐसे होते थे जो स्विमिंग पूल में ही उतरने को तैयार नहीं हैं। बोलते थे, “लोग देख रहे हैं।” हम कहते थे कि तुम्हारे पास ऐसा कुछ नहीं है जो कोई देखना चाहे। हालत देखो, किसको अपना मन खट्टा करना है कि तुम्हें देखेगा?

(श्रोतागण हँसते हैं)

तो उनको धक्का दिया जाता था, “उतरो नीचे।” फ़िर उनको कुछ करके गिराओ, पड़ाओ, कुछ करो। पहले थोड़ा नया-नया कार्यक्रम था। लोगों में ऊर्जा भी ज़्यादा थी। सब तरह के यत्न कराए जाते थे। दंगल कराया जाता था। जो लोग दो-एक साल पुराने शिविरों में आए होंगे, उन्होंने देखा होगा। हुआ है किसी का दंगल?

(दो श्रोता ‘हाँ’ बोलते हैं)

इनका, इनका। चलो लड़ो, दंगल करो। कुछ जगो तो, कुछ तुम्हारे साथ नया तो हो। एकाध के हाथ टूटे, बड़ा अच्छा हुआ। मुस्कुराते थे, बढ़िया।

ले जाते थे नदी के पास। कभी कहते थे कि बाहर सो जाओ अँधेरे में पहाड़ पर। हिमालय पर ले गए थे, वहाँ पता था कि रात में आज बर्फ़ गिरेगी। वहाँ सब बाहर सोए। बर्फ़ गिरने भी लगी तो पड़े रहो। वो शिविर भी दूसरे होते थे, उनकी बात दूसरी होती थी।

अभी ये मस्त बारिश हो रही है, तुम यहाँ क्या बैठ करके सुन रहे हो? नाचो बाहर जा करके, कुछ अलग तो करो। पर मेरी बात सुनते ही एकदम देखो कैसे सहम गए। “अध्यात्म में ये तो कहीं बताया नहीं गया कि बारिश में नाचो। अध्यात्म तो सम्मानीय, भद्र जनों का काम होता है न? हम तो साधना करने आए थे, इन्होंने तो नचा दिया बारिश में।”

मत पूछिए कि उसी संसार में वापस जाना है तो क्या करें, पूछिए "उस संसार को बदलें कैसे?" वो उचित प्रश्न है। घुटने मत टेकिए कि "मुझे तो उसी संसार में वापस जाना है।" वो संसार आपको आनंद दे रहा है? जब नहीं दे रहा तो उसी में बार-बार क्यों जाना है? प्रश्न ये होना चाहिए न कि "मैं उस संसार को बदलूँ कैसे?" ये पूछिए।

प्र३: कर्म और अकर्म को कैसे समझें?

आचार्य: अकर्म माने वो सब कुछ जो तुम्हें पता भी नहीं होता और तुम्हारे माध्यम से हो जाता है। कर्म और अकर्म का इन्होंने अंतर समझना चाहा है, गौर से समझ लीजिए।

(एक श्रोता की ओर इशारा करते हुए) जैसे तुम्हारा नाखून, तुम्हारा अँगूठा या जैसे अभी तुमने अपनी गर्दन हिलाई, ये सब क्या हैं? अकर्म। उसी में और गहरे जाओ तो भीतर भोजन का पचना, मुँह में लार का बनना, पलकों का झपकना, ये सब क्या है? अकर्म।

कर्म में तुम्हारी गतिविधियाँ आती हैं जिनके साथ तुम अपना कर्ताभाव जोड़ देते हो, जिनको तुम कहते हो, “मैंने किया।” तुम आमतौर पर नहीं कहोगे, "मैंने अपना खाना पचाया।" तुम कहोगे, "खाना पच गया।" तुम उसका श्रेय या कर्तृत्व अपने ऊपर नहीं लेना चाहोगे।

तो तुमसे सम्बंधित जितनी भी गतिविधियाँ हो रही हो होती हैं, वो दो तरह की हुईं; एक, जिनका तुम श्रेय लेते हो, दूसरी, जिनका तुम श्रेय नहीं लेते। पलक झपकने का श्रेय तुम आमतौर पर नहीं लेते। हाँ, आँख मारी हो तो अलग बात है। फ़िर कहते हो, “मैंने मारी।” पर किसी को तुमने घूसा मारा, इसका तुम श्रेय लेते हो, “मैंने घूसा मारा।” तुम्हारी पलक झपकी, इसको तुम कहते हो कि "मैंने नहीं किया।" तुमने घूसा मारा, इसको तुम कहते हो, “मैंने किया।” गतिविधियाँ दोनों शारीरिक हैं। तो एक भेद किया गया है। ये भेद अहम् के आधार पर है।

अहम् जिन कर्मों का श्रेय नहीं लेता, उनको कहा गया अकर्म। अहम् जिन कर्मों का श्रेय ले लेता है, उनको कहा गया कर्म।

आगे कर्म के और भी विभाजन हैं, पर अभी हम कर्म और अकर्म की बात कर रहे हैं बस। तो अकर्म माने वो जो तुमसे हो गया, जैसे खाँसी आ गई, जैसे छींक आ गई। अकर्म माने वो जो तुमसे हो गया; तुम्हारी चेतना ने वहाँ कोई चुनाव नहीं किया था, तुमने कोई निर्णय नहीं लिया था, बस हो गया। तुम यहाँ बैठे हुए हो, तुम्हारे पाँव तले कोई छोटी सी चींटी आकर दब गई, ये अकर्म है। तुमने किया नहीं, हो गया। तुम अपने-आप को इसके लिए दोषी मानोगे नहीं। "ये तो हो गया, मैं क्या करूँ?"

कर्म वो जिसको तुम कहते हो, “मैंने किया।” अब कृष्ण बड़े आगे की बात कर रहे हैं। वो कह रहे हैं, “कर्म में अकर्म को देखो, बेटा अर्जुन, और अकर्म में कर्म को देखो।” ये सूत्र क्या है? समझिए। वो कह रहे हैं कि दोनों ही स्थितियों में कर्ता तुम हो नहीं। दोनों ही स्थितियों में जो हो रहा है, वो पूरे तरीके से प्राकृतिक है। तुम बेवजह, झूठमूठ कर्ता बन जाते हो एक श्रेणी के और बोल देते हो, “मेरा कर्म, मेरा कर्म।”

जो तुमको लग रहा है तुमने नहीं किया, वो तो तुमने नहीं ही किया। जो तुम्हें लग रहा है कि तुमने किया, वो भी तुमने किया नहीं, वो हुआ है। तुम्हें झूठमूठ यह धोखा हो गया है कि तुम उसके कर्ता हो।

पलक झपकाई, तुम कह देते हो कि ये तो अकर्म है, और घूसा मारा तो तुम कह देते हो कि ये कर्म है। प्रश्न यह है कि क्या तुम्हारे पास घूसा ना मारने का विकल्प था? तुम इतने क्रोधित हो गए थे कि तुम्हारा घूसा चलना-ही-चलना था, तुम्हारे मुँह से गाली निकलनी-ही-निकलनी थी। तो वास्तव में तुम्हारे पास कोई विकल्प था नहीं, तुम मजबूर थे; घटना पूरे तरीके से प्राकृतिक थी। पर तुम उसका पूरे तरीके से श्रेय लेने लग जाते हो कि “मैंने किया।” तुमने किया नहीं है। वो भी अकर्म ही है।

तो कृष्ण कह रहे हैं, “दो को एक जानो। कर्म अकर्म है, अकर्म कर्म है।” दोनों ही अनजाने में हो रहे हैं, दोनों ही बेहोशी में हो रहे हैं। बस एक में तुमको यह भ्रम हो जाता है कि वो तुम्हारा स्वाधीन चुनाव है। वहाँ ना तुम्हारी स्वाधीनता है, ना चुनाव है। तुमने चुनाव किया ही नहीं है, वो हो गया।

जैसे तुम कह देते हो न, “मैंने इश्क़ किया।” वो किया थोड़े ही है, वो तो हो गया। अंग्रेजी इस मामले में थोड़ी ज़्यादा ईमानदार है, वो कहती है, *'फॉलिंग इन लव'*। तुम्हें पता थोड़े ही चला, तुम फिसल गए; वो हो गया। पर तुम कहते हो, “नहीं, मैंने किया।” और फ़िर उसके आगे की कहानी भी बनाते हो क्योंकि अब तुम कर्ता बन जाते हो न, कि “अब मैंने प्रेम किया तो मुझे विवाह भी करना होगा।”

अरे, नहीं, भाई, शारीरिक खेल है। कोई आदमी दिख गया, कोई औरत दिख गई, शरीर में कुछ चीज़ें हो गईं। जैसे पलक झपकती है, वैसे ही कुछ हो गया। रसायन थे कुछ, जाग गए। कुछ हॉर्मोन थे, उठ गए, दिल धड़कने लग गया। ये अकर्म है, ये पूरे तरीके से केमिकल (रसायनिक) बात है। अकर्म है, इसमें कहाँ तुम कर्ता बन रहे हो। ये कर्म है ही नहीं।

अब ये बात बड़ी अपमानजनक लगती है। “तो फ़िर हम किस लिए हैं जब सब अपने-आप ही हो रहा है?” तुम किसी भी लिए नहीं हो। तुम सरदर्द हो, तुम फ़िज़ूल हो, तुम्हें होना ही नहीं चाहिए। जो होना है, वो तो हो ही रहा है। कोई पशु नहीं कहता, “मैंने प्यार किया।” उसको जो करना है, वो प्रकृति करा रही है और वो चुपचाप कर डालता है।

आदमी लम्बा-चौड़ा खेल रचता है। पशु को भली-भाँति पता है कि नर का मादा और मादा का नर के प्रति आकर्षण हो रहा है, उद्देश्य एक ही है – प्रजनन। संतति पैदा करनी है तो दोनों का आकर्षण हो रहा है। दोनों मिलेंगे, बच्चे पैदा करेंगे, खेल ख़त्म। और एक बार प्रजनन हो गया, उसके बाद नर अपनी राह चला जाता है, मादा अपनी राह चली जाती है।

मनुष्यों को बड़ा नाज़ है। वो कहते हैं, “हम यूँ ही थोड़े ही मिले, हमने पहले प्रेम किया।” नहीं, तुमने किया नहीं। वो वही था जो केंचुओं के बीच होता है। बस पशुओं को ये मुग़ालता नहीं होता, ये ग़लतफ़हमी नहीं होती कि उन्होंने प्रेम किया। वो चुपचाप आते हैं, शारीरिक संपर्क बनाते हैं और उसके बाद अपने-अपने रास्ते चले जाते हैं। तुम लम्बा-चौड़ा आडम्बर खड़ा कर देते हो। जीवनभर के लिए तुम न जाने क्या व्यवस्था बना देते हो। और फ़िर तुम्हें ये ताज्जुब रहता है कि "मैंने तो प्रेम किया था, बदले में ये नर्क क्यों मिल रहा है?" क्योंकि वो प्रेम था ही नहीं। वो अकर्म ही था जिसको तुम कर्म समझ रहे थे। उस अज्ञान की सज़ा मिल रही है।

हमारे साथ जो कुछ भी हो रहा है, उसमें कहीं भी हमारी मुक्तेच्छा शामिल ही नहीं है। वो पूरा खेल प्रकृति का, वृत्ति का, रसायनों का और संयोगों का है—हम उसमें कहीं हैं ही नहीं।

कोई डाँट देता है, हमें क्रोध आ जाता है। कोई हमारे दिमाग में कोई बात बैठा देता है, वो बात बैठ जाती है। माता-पिता की दो कोशिकाएँ मिलीं, उन्होंने ये जिस्म तैयार कर दिया। इन कोशिकाओं को पहले से ही पता है कि अगर केला खाया तो केले तो खून कैसे बना देना है। अब तुम कहोगे कि तुमने खाया। ना, ये कोशिकाएँ ही माँग करती हैं न कि केला खाओ? और फ़िर देखा है भीतर जाते ही केला क्या बन जाता है? थोड़ा सा तो मल जाता है, थोड़ा हड्डी बन जाता है, फ़िर माँस बन जाता है, कुछ खून बन जाता है। ये सब तुम कर रहे हो क्या?

ये जो तुम्हारी नाक है, ये क्या है? ये केला है। नाक केला ही है न? गर्भ से इतनी बड़ी नाक लेकर तो नहीं पैदा हुए थे? या थे, कि पैदा हुए थे इतनी बड़ी नाक थी? ये नाक कहाँ से आई? केले से आई। तुमने केला खाया, तुमने साँस ली, तुमने पानी पिया, उन सब से क्या बन गई? नाक। अब ये नाक तुमने बनाई या बन गई?

श्रोतागण: बन गई।

आचार्य: तो फ़िर क्यों बोलते हो ‘मेरी नाक, मेरी नाक’? तुम्हारी नाक कहाँ से है? ये तो जो हो रहा है, स्वतः हो रहा है। तुम इसमें कहाँ से आ गए दावेदारी करने? पर हमारी खूब दावेदारी रहती है, 'मेरा जिस्म'।

जिसको समझ में आ गया कि उसके सब कर्म अकर्म हैं, सबसे पहले उसका देहभाव ख़त्म होगा। वो कहेगा, “क्या मेरा जिस्म? जो हो रहा है अपने-आप हो रहा है।”

सोचो, तुम कोई केला खाओ और वो केला हाथ बनने की जगह सींग बनने लगे तो क्या कर पाओगे? कुछ कर सकते हो? तुम्हें समझ में ही नहीं आएगा कि ये क्या हो गया। तुमने तो कहा नहीं था कि केला भीतर जाए तो हाथ ही बने, जबकि केला भीतर जा रहा है तो क्या बन रहा ह? हाथ बन रहा है। और ये हो कि केला अंदर गया और सींग बन गया, अब क्या होगा? अभी भी कहोगे, “मैंने किया”? अब तो कहोगे, “अरे, डॉक्टर साहब, कुछ हो गया।” अब क्यों कह रहे हो कुछ हो गया? अभी भी कहो, “मैंने किया।” अब क्यों नहीं कहते, “मैंने किया”? क्योंकि ना पहले तुम कुछ कर रहे थे, ना अब तुम कुछ कर रहे हो। जो हो रहा है, स्वतः हो रहा है।

तुम्हारे जो विचार हैं, तुम्हें लगता है 'मेरे विचार' हैं। तुम्हारे विचार थोड़े ही हैं। जैसे सींग होता है, वैसे ही मस्तिष्क होता है, शारीरिक। सींग क्या है? शरीर। मस्तिष्क क्या है? शरीर। और विचार क्या हैं? मस्तिष्क की गतिविधि। सींग में खुजली हो तो तुम कहोगे क्या कि 'मैंने खुजली की'? अपने-आप हुई है। वैसे ही मस्तिष्क में जो खुजली उठती है, उसका नाम होता है विचार। क्यों बोलते हो 'मेरे विचार'? 'यू नो माय थॉट्स ऑन दिस इशू आर' (इस मुद्दे पर मेरे विचार हैं कि)। हा, हा, हा, बात ही ख़त्म हो गई।

(श्रोतागण हँसते हैं)

अब आगे आपसे कोई बात ही नहीं हो सकती, महाराज इंटेलेक्चुअल (बुद्धिजीवी)। जो कह दे माय थॉट्स (मेरे विचार), वो समझ लो मूल रूप से ही अज्ञानी है, आगे इसकी बात क्या सुननी। जो अपनी खुजली पर दावेदारी करे, वो आदमी ही बुद्धू है न? आपको खाँसी आती है, आपने खाँसी आमंत्रित करी थी क्या?

अभी कौन-कौन खाँसा इस सत्र में, जल्दी बताओ? अगर तो तुमने खाँसी आमंत्रित करी थी तो बड़ा अपराध कर रहे हो, कि यहाँ बैठ करके खाँसी को बुला रहे हो ताकि सब परेशान हो जाएँ। खाँसी कैसे आई? बिना बुलाए, अपने-आप। विचार कैसे आते हैं? बिना बुलाए, अपने-आप। खाँसी पर कोई नियंत्रण है? थोड़ा-बहुत। जितना खाँसी पर नियंत्रण है, उतना ही नियंत्रण तुम्हारा विचार पर है। थोड़ा बहुत कुछ-कुछ करके उसको दबाया, रोका। जैसे खाँसी नहीं रोक पाते, वैसे ही विचार नहीं रोक पाते। वैसे ही सपने हैं तुम्हारे। कौन-कौन तय करता है कि आज क्या सपना लेना है?

खाँसी, सपना, विचार, ये सब एक हैं। तुम क्यों कर्म और अकर्म का भेद बनाते हो? ये सब अपने-आप हो रहा है पर तुम भेद बना देते हो। तुम कहते हो, “खाँसी आई पर विचार मैंने किया।” नहीं, किया नहीं, विचार भी आ गया, खाँसी ही जैसा है। उसके साथ भी वही बर्ताव करो जो खाँसी के साथ करते हो। विचार आया, चला गया। ये मत कह दो कि 'मेरा है'।

सारी दिक़्क़त तब शुरू होती है जब तुम विचार के साथ अहम् जोड़ देते हो, कर्तत्व जोड़ देते हो।

विचार आया, चला गया; खाँसी आई, चली गई; डकार आई, चली गई। अपने-आप को फाँसी पर थोड़े ही चढ़ा दोगे कि डकार मार दी। तुमने थोड़े ही मारी है। आई थी, चली गई।

वैसे ही वृत्तियाँ होती हैं। क्रोध तुम्हारा क्रोध है ही नहीं। एक बार तुम ये समझ गए तुम्हारा क्रोध नहीं है, उसके बाद तुम क्रोध का समर्थन नहीं करोगे, क्रोध के साथ जुड़ोगे नहीं। आया है, किसका क्रोध है? देह का क्रोध है। किसका क्रोध है? प्रकृति का क्रोध है; सिखाया हुआ क्रोध है। इन कोशिकाओं में क्रोध पहले से बैठा हुआ, और इन्हीं कोशिकाओं को ये भी पता है कि किन मौकों पर क्रोध को जाग्रत हो जाना चाहिए। आने दो उसको, आएगा, चला जाएगा।

जब कह देते हो, 'मेरा क्रोध', तब तुम उस क्रोध के ज़िम्मेदार बन जाते हो। और ज़िम्मेदारी लोगे तो फल भी भुगतना पड़ेगा। जो कर्ता बनेगा, वो भोक्ता भी बनेगा। ज़िम्मेदारी लो ही मत, कोई फल नहीं भुगतना पड़ेगा। जो हो रहा है, अपने-आप हो रहा है। हमने किया नहीं तो हम ज़िम्मेदारी नहीं लेंगे। हम नहीं लेंगे ज़िम्मेदारी। और ये बात सिर्फ़ कहने की नहीं है, बहाना मारने की नहीं है। वास्तव में ज़िम्मेदार मत बनो।

प्रकृति का काम प्रकृति का है। तुम प्रकृति नहीं हो, तुम प्रकृति से परे कुछ हो। तुम जो हो, तुम वही रहो; प्रकृति के साथ उलझो मत। उसके साथ उलझ करके तुम उसे हवा देते हो, तुम उसे आग देते हो, तुम उसे भड़का देते हो। उसका काम है अपना धीरे-धीरे चलते रहना, वो चलती रहती है। क्यों उसे परेशान कर रहे हो उससे उलझकर?

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