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आइ.आइ.टी, आइ.आइ.एम के बाद अध्यात्म क्यों? || आचार्य प्रशांत (2013)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्न : आपकी प्रोफाइल देखी है, आपने आई. आई. टी. दिल्ली से इंजीनियरिंग की है और उसके बाद आई. आई. एम्. अहमदाबाद । तो उसके हिसाब से आप अब्रॉड में इस समय बहुत मजे से ऐश कर सकते थे ।

(अट्टहास)

आपको किसी ने क्या प्रेरित किया, जो आज आप एच. आई. डी. पी. के संचालक बने हुए हैं ।

आचार्य प्रशांत : तुम भी मान रहे हो ना कि बड़ी हालत खराब है मेरी? (छात्र हँसते हैं, वक्ता भी)

श्रोता : आचार्य जी, जो आपकी प्रोफाइल है, उस हिसाब से आप बहुत कुछ कर सकते थे, आपको यहाँ बैठे होने की कोई ज़रुरत नहीं थी ! पर आपने कुछ ऐसा ध्यान किया होगा ना, जो आपने ये ‘नैतिक विकास’ शुरू किया !

आचार्य जी : क्या नाम है?

श्रोता : रचित ।

आचार्य जी: इतना हँसने की ज़रुरत नहीं है, वो वही कह रहा है जो बात बिलकुल स्पष्ट है । वो कह रहा है, कि अच्छी खासी ज़िन्दगी जीते, भले लोगो के बीच में रहते, ये हमारे बीच में क्यों?

पहले तो दिल से शुक्रिया, कि तुम्हें ये समझ में आया कि ‘ये’ कोई विशेष बातें नहीं होती हैं । हर आदमी की अपनी एक यात्रा होती है और उस यात्रा में दस कारण होते हैं जो उसके पीछे लगे होते हैं । तुम्हारी अपनी एक यात्रा है जो तुम्हें तुम्हारे कॉलेज से ले कर के जा रही है, मेरी अपनी एक यात्रा रही है, जो मुझे अलग-अलग पड़ावों से होकर ले गयी है, उसमें कुछ ख़ास नहीं हो गया । यात्रा, यात्रा है । उसको आम या ख़ास उपनाम देने का काम तुम करते हो ।

तुमने तय कर लिया है कि इस-इस जगह से हो कर के अगर वो आदमी गुज़रा तो वो बहुत ख़ास है । और इन जगहों से अगर होके नहीं गुज़रा, तो उसमें कोई विशेष बात नहीं । तुमको बाहर बैठ कर के जो बातें बड़ी आकर्षक लगती हैं, वो बातें हो सकता है उसको बिलकुल सामान्य लगती हों, जो उनके करीब रहा है, जो उनसे हो कर के ही पूरी तरह गुज़र चुका है । उसमें कुछ विशेष नहीं है ।

कई बार तो मुझ पर ये बात आरोप की तरह डाली जाती है । अच्छा, खुद तो कर आये ये सब, आई. आई. टी., आई. आई. एम्., सिविल सेवा, ये वो…. । दुनिया में जो भोगना था वो सब भोग लिए हो, हमसे कहते हो कि सफलता के पीछे मत भागो ।

वाक़ई, कई बार ये बात मुझ पर आरोप की तरह कही जाती है कि तुमने तो सब कर लिया, हमें भी तो करने दो । अरे! मैंने कर नहीं लिया, हो गया । अब माफ़ी माँगता हूँ कि हो गया । धोखे से हो गया, गलती थी । न धोखा है, न गलती है, गति है, यात्रा है, लय है । समझ रहे हो बात को ?

ना उसके पाने में कुछ विशेष था, ना रचित उसके छोड़ने में कुछ विशेष है ।

रचित, तुम जैसे ये कह रहे हो, क्यों वो सब छोड़ दिया, क्यों ऐश नहीं कर रहे हो, क्यों यहाँ बैठे हो? तुम्हें लग रहा है मैं ऐश नहीं कर रहा । मुझसे तो पूछ लो मैं कर रहा हूँ की नहीं?

श्रोता: आचार्य जी, मेरा वो सवाल ही नहीं था । आचार्य जी, मैं ए. सी. रूम में बैठा हूँ, और अचानक से मैं जाऊँ, झोपड़-पट्टी में रहने लगूँ, मतलब कोई ऐसा उपयुक्त कारण होगा ना, कि मैं वहाँ जा कर बैठा हूँ ।

आचार्य जी : क्या कारण हो सकता है?

श्रोता : जिसमें आपको संतुष्टि मिले ।

आचार्य जी: एक गाना है, अब कैसे सुनाऊँ, मेरे पास वो रिकॉर्डिंग है नहीं ।

“ज़िन्दगी प्यार की दो-चार घड़ी होती है, ज़िन्दगी प्यार की दो-चार घड़ी होती है,

ताज हो तख़्त हो, या दौलत हो ज़माने भर की, ताज हो तख़्त हो, या दौलत हो ज़माने भर की

कौन सी चीज़ मुहब्बत से बड़ी होती है?”

तो इतना मुश्किल भी नहीं है समझ पाना, कि क्या है और क्यों है । ये जो आम ‘मोहब्बत’ होती है, जिसमें तुम किसी एक आदमी के पीछे या औरत के पीछे भाग लेते हो, उसमें भी गाने वाले को ये समझ में आ गया कि ताज हो, की तख़्त हो, की दौलत हो, ‘मोहब्बत’ इनसे बड़ी है । और ये बड़ी साधारण मोहब्बत है, जिसमें गाया जा रहा है । बहुत साधारण ‘मोहब्बत’ है । गाने वाले को कोई व्यक्ति मिल गया है, जो उसे बहुत ख़ास लग रहा है, और वो उसके लिए ये गीत गा रहा है ।

एक दूसरी मोहब्बत भी होती है, और जब वो मिल जाती है तो बस मिल गयी । फिर, महाअय्याशी है वो, उससे बड़ी ऐश दूसरी नहीं है । जानते हो गीता में एक पूरा चैप्टर है, जिसका नाम है ऐश्वर्य योग, ‘ऐश्वर्य योग’ । ये जो शब्द भी है, ऐश से मैं ऐश्वर्य पे आया, और तुमसे कह रहा हूँ ‘ऐश्वर्य’ । ऐश्वर्य मतलब, सब भरा हुआ । वो जो शब्द है ‘ऐश्वर्य,’ वो निकला ईश्वर से । और वो कोई मैं यहाँ पर किसी देवी-देवता की बात नहीं कर रहा हूँ । मैं अपनी बात कर रहा हूँ ।

जब ये समझ में आने लग जाता है कि मैं क्या हूँ और मुझे कैसी ज़िंदगी जीनी है; और जहाँ तक इस शरीर की बात है, एक ही शरीर है और एक ही जीवन है । तो फिर तुम उन राहों को कोई ख़ास महत्व देते ही नहीं जिस पर सब चल रहे हैं । तुम कहते हो, ये छोटी सी ज़िन्दगी, ये बहुत ही छोटी है । आधी बीत गयी, आधी और बची है, अधिक से अधिक । इसको वही सब कर के गुज़ार दिया, जो करने का आदेश, इशारे, दूसरे दे रहे हैं, तो पागल हूँ मैं । ज़िंदगी ही खराब कर ली अपनी । तुम कहते हो ज़रा देखना पड़ेगा, ‘मैं कौन हूँ’ और उस ‘मैं कौन हूँ’ से ये निकल आता है कि मुझे करना क्या है ? फिर निर्णय कोई विशेष बचता नहीं है ।

एक बार ये समझ में आया कि क्या पसंद है, क्या नहीं पसंद है । एक बार ये समझ में आया की क्या अपना है, क्या अपना नहीं है, फिर रास्ते अपने आप खुल जाते हैं ।

फिर तुम कहते हो कि जो मुझे मिला है उसमें इतनी ऐश है, कि वो दूसरों में भी बटें । काश किसी तरह दूसरे भी इस ऐश का अनुभव कर सकें ।

समझ रहे हो बात को?

फिर तुम कहते हो, मुझ तक ही क्यों सीमित रहे? जो मुझे मिला है, ज़रा उसको दूसरों को भी चख लेने दो । वही ‘अद्वैत’ है । मैं भटक रहा था, मुझे कुछ मिल गया । रही होंगी कुछ परिस्थितियाँ जिन की वजह से मिल गया, होगा कोई मूल कारण ! पर जो खुद जाना है, वो इतना मज़ेदार है कि उसको जितना बाँटो, मज़ा और बढ़ता है । अब फिर उसमें ये परवाह नहीं रह जाती कि उसमें दौलत कितनी है, और गाज़ियाबाद में बैठे हो या जर्मनी में बैठे हो । वो सब बातें बहुत छोटी हो जाती हैं, कुछ और है जो बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है । कुछ-कुछ समझ में आ रही है बात?

श्रोता: जी, आचार्य जी ।

आचार्य जी: देखो ना कितनी मज़ेदार बात है, तुम जिन चीज़ों के पीछे भागते हो, जो तुम्हें सपने की तरह लगती हैं; तुम्हारे सामने एक आदमी बैठा है जो हर उस पड़ाव से गुज़र चुका है जिसके पीछे कोई भी भागता है । तुम्हारे लिए आई. आई. टी. बड़ी चीज़, गुज़र चुके । तुम्हारे लिए आई. आई. एम. बहुत बड़ी चीज़, चलो वहाँ से भी गुज़र चुके । तुम्हारे लिए सरकारी नौकरी बहुत बड़ी चीज़, यहाँ सिविल सेवा ही क्लियर कर चुके । नौकरियों में भी जो सब से, एम. बी. ए. के बाद भी जो सबसे ऊँची नौकरी मानी जाती है, बादशाहों की नौकरी, कंसलटेंट की नौकरी, वहाँ से भी हो के आ चुके । और तुम्हारे पास बैठा हूँ, चक्कर पूरा कर के ।

तुम कहते हो तुम्हें कुछ नहीं मिला, और बहुत कुछ पाना है । और जो कुछ तुम्हें पाना है वो सब पा के तुम्हारे सामने बैठा हूँ; तो यही बात ठीक-ठीक नहीं आ रही क्या, कि मुझ में और तुम में कोई अंतर है ही नहीं? और

मैं उसी की बात करने बैठा हूँ तुम्हारे सामने, जहाँ पर मुझ में और तुम में कोई अंतर नहीं है । अगर वो बातें वास्तविक होतीं, जो मुझ में और तुम में अंतर पैदा करती हैं, तो मैं तुम्हारे सामने कैसे होता?

फिर तो, मुझ में और तुम में इतना अंतर होता कि तुम मुझ से नियुक्ति ले के भी नहीं मिल पाते । अगर वो बातें वास्तविक होतीं, तो फिर मैं तुम्हारे साथ कैसे हो सकता था? सोचो तो एक बार को? अगर डिग्री से बहुत बड़ा फर्क पड़ना था, तो मैं कैसे बैठा होता तुम्हारे सामने?

अगर शैक्षिक योग्यता से बहुत बड़ा फर्क पड़ना था तो मैं कैसे बैठा होता? कैसे बैठा होता? अगर अनुभव से फर्क पड़ना था, तो भी कैसे बैठा होता? अगर ज्ञान से फर्क पड़ना था तो भी कैसे बैठा होता?

हम तुम साथ तो तभी बैठ सकते हैं ना जब हमारे बीच कुछ ऐसा हो जो साझा है । जो मुझमें भी वही है जो तुम में है । वही क़ीमती है, बिलकुल वही क़ीमती है । उसके अलावा कुछ भी नहीं है जो क़ीमती है ।

और ये इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि अंगूर खट्टे हैं । बहुत लोग आते हैं और वो ये बातें तब करते हैं जब वो दौड़े खूब ज़ोर से होते हैं और दौड़ में पिछड़ गए होते हैं ।

यहाँ तो जितनी दौड़ें हो सकती थीं, सारी दौड़ लीं । दौड़ भी लीं, जीत भी लीं, और उससे आगे बढ़ गए और आगे बढ़ कर के कहीं दूर नहीं पहुँचा हूँ, तुम्हारे पास पहुँचा हूँ ।

आमतौर पर तुम ये समझते हो कि जब तुम बहुत कुछ पा जाओगे, तो अभी जैसे हो वैसे नहीं रहोगे । या तुम ये कल्पना करते हो कि जब कुछ पा जाओगे तब भी इसी हाई-टेक (कॉलेज का नाम) में बैठे होंगे? ये तो कल्पना नहीं है तुम्हारी? तुम्हारी कल्पना तो यही है कि जब मैं बहुत कुछ पा जाऊँगा तो यहाँ से कहीं बहुत दूर होऊँगा। देख लो मुझे । जो कुछ तुम पाना चाहते हो, वो पा कर के मैं हाई-टेक में बैठा हूँ ।

जो कुछ भी तुम्हारा बड़े से बड़ा सपना हो सकता है, उसको हासिल कर के तुम्हारे सामने बैठा हुआ हूँ । पर तुम ऐसा नहीं करना चाहते,

तुम्हें लगता है ‘सफलता’ का अर्थ ही है कुछ और हो जाना । तुम्हें लगता है सफलता का अर्थ है ‘मैं कुछ बन जाऊँ ।’ सम काइंड ऑफ़ बिकमिंग (कुछ प्रकार का बनना) । कैसी बिकमिंग (कैसा बनना)? ये तो रहा सामने ! तुम्हें लगता है कि जब तुम सफल हो जाओगे तो तुम ख़ास किस्म के कपड़े पहनोगे । अजीब नए लोगों से मिलोगे जो तुम्हें समझ सकें, तुम्हें इज़्ज़त दे सकें और मैं तुम्हारे सामने बैठा हूँ, जो मेरी बात कभी समझ ही नहीं पाते । तुम्हें लगता है तुम्हारे पास बहुत पैसा आ जाएगा । कुछ नया कर लोगे । तुम्हारी शर्ट जितने रूपये की है उससे सस्ता है मेरा कुरता । और सस्ता इसलिए नहीं है कि मैं खरीद नहीं सकता । सस्ता इसलिए है क्योंकि इसमें बहुत मौज है ।

मेरा, तुम्हारे सामने होना ही अपने आप में एक सन्देश है तुम्हारे लिए कि भागने वगैरा की कोई ज़रुरत नहीं है । जो कुछ है वो यहाँ पर भी है और जो कुछ है वो साझा है । जो भी क़ीमती है वो उतना ही तुम्हारे पास है जितना मेरे पास है । नहीं तो ये कम्युनिकेशन (संचार) नहीं हो सकता था । मैं बेवक़ूफ़ थोड़े ही हूँ कि ऐसे लोगों से बात करने आऊँ जहाँ मुझे पता है कुछ समझ में ही नहीं आएगा उनको । मुझे अपनी ज़िन्दगी खराब करनी है क्या?

मैं बहुत अय्याश आदमी हूँ । तुमने ऐश कहा ना? परम अय्याशी जो हो सकती है, मैं उतना अय्याश हूँ । मुझे अपने एक-एक मिनट का हिसाब चाहिए । मुझे अपना समय खराब करना ज़रा भी गँवारा नहीं है । मुझे दूसरों के इशारों पर चलना ज़रा भी गँवारा नहीं है । इसलिए तुम्हारे सामने बैठा हूँ । मैं यहाँ इसलिए नहीं आया हूँ कि मेरी कोई बाध्यता है । मैं यहाँ इसलिए आया हूँ क्योंकि कुछ ख़ास है जो तुम्हारे पास भी है, तुम्हें उसका पता होना चाहिए । सच पूछो तो मैं तुम्हें कुछ देने भी नहीं आया हूँ । वो तुम्हारे पास पहले से है । मैं सिर्फ उसकी बात करने आया हूँ ताकि थोड़ा जग सके, तुम्हें उसकी याद आ सके ।

समझ रहे हो?

पर नहीं, तुम मानोगे नहीं । अभी भी आँखों में शक़ है ।

ऐसा हो नहीं सकता, इसकी डिग्री चेक करो ये सही में कभी गया भी है आई. आई. टी.? तुम में से कईयों के लिए तो मेरी क़ीमत इसलिए कम हो जाती है क्योंकि मैं “तुमसे” बात कर रहा हूँ । तुम मेरी बड़ी क़ीमत रखो अगर मैं यहाँ आऊँ और कहूँ, “ओह, माय गॉड, दिस स्टिंकिंग लॉट! आई मीन हाउ कैन आई टॉक टू दीस? गेट मी सम क्वालिफाइड प्रोफेशनल्स !” (हे! ईश्वर, कितनी बदबू है, मतलब कैसे मैं इनसे बात कर सकता हूँ? कुछ योग्य पेशेवर दो मुझे) मैं ये बी-टेक के लड़कों से बात करूँगा? वो भी हाई-टेक कॉलेज के? ओह माय गॉड! (हे! मेरे ईश्वर) तब तुम कहोगे कि ये !!! अभी तुम में से कईयों के लिए तो यही होगा कि नहीं-नहीं ये ना कोई नकली आदमी होगा, वरना हमसे बात क्यों करता? जो हमसे बात करे वही नकली । हमारी शक़्लें देखो, कोई भी ढंग का आदमी हमसे बात करने आएगा?

एक-दो इतने खुश हो गए मेरी बात सुन कर कि उन्होने आपस में बोलना शुरू कर दिया! सखी छोड़ी ही नहीं जाती ।

तुमसे कहा था ना, समूह बिलकुल नहीं मानेगा उस आदमी की बात । उस आदमी के पास अंततः एक ही प्रमाण है देने के लिए, क्या? कि अगर मैं हो सकता हूँ थ्री-डायमेंशन (३-आयामों) में तो तू भी हो सकता है! मैं तुझसे कोई इमप्रॅक्टिकल (अव्यावहारिक), असम्भव बात करने नहीं आया हूँ ।

जो मेरे लिए हो पाया वो तेरे लिए भी है, तू क्यों डर रहा है? तू क्यों सीमित बैठा हुआ है? मैं उड़ सकता हूँ, तू भी उड़ सकता है । मूलतः हम एक हैं । कोई अंतर नहीं है । जो बात मैं समझ सकता हूँ, वो तुम भी समझ सकते हो ।

और बिलकुल एक बार को भी ये बात अपने मन में मत लाना कि ये बात ये इसलिए बोल पा रहे हैं क्योंकि इनका बैकग्राउंड (वतावरण) ख़ास है । ये सब मैं अपने वातावरण की वजह से नहीं कह पा रहा हूँ । ये बातें मुझे किसी आई. आई. टी. ने नहीं सिखाई हैं । किसी आई. आई. एम. ने नहीं सिखाई हैं । मैंने कोई कोर्स नहीं करा है जहाँ पर ये मैं जान गया हूँ । ये मैं तुम से कुछ ऐसा कह रहा हूँ जो पूरी तरह मेरा है ।

हाँ, यात्रा रही है, जैसे मैंने कहा और सब की अपनी यात्रा है भाई ! सबकी अपनी-अपनी अलग-अलग यात्राएँ हैं । तो ये मत समझ लेना कि ये बातें भी करने के लिए भी तो पहले कुछ हासिल करना पड़ता है । एक तुम ही जैसा था, उनके माँ बाप आ गए, वो कहते हैं, “देखिये, विसर्जन से पहले अर्जन ज़रूरी होता है । विसर्जन माने छोड़ना, अर्जन मतलब पाना । कहते हैं देखिये पहले आपने अर्जन करा, फिर विसर्जन करा ।” मैंने कहा, “मैंने ना अर्जन करा, ना विसर्जन करा । कैसा विसर्जन? मैंने अपनी डिग्रियाँ त्याग दी हैं क्या? और जो मैंने चार साल वहाँ बिताये वो त्याग दिए? कुछ नहीं विसर्जित किया है मैंने ! सब है, और ना मैंने कुछ अर्जित करा था । अरे! चल रहे थे, चलते-चलते कुछ हो गया ।”

वो ये कहने आये थे कि पहले हमारे बच्चे को भी खूब अर्जित कर लेने दो, उसके बाद ही विसर्जन की बात करना । मैंने कहा, “वो अर्जित कर ही रहा है । दिन-रात मैंने भी एक यात्रा करी और अनुभव इक्कट्ठे किए, आपका बच्चा भी यात्रा कर रहा है और अनुभव इक्कट्ठे कर ही रहा है । तो क्या अर्जन और क्या विसर्जन? यहाँ वो बात हो ही नहीं रही जो आप समझ रहे हो । आप सोच रहे हो कि पहले पाओ, इक्कट्ठा करो । उसको खूब भोग लो, और जब मन भर जाए तो जैसे आदमी खाली प्लेट छोड़ देता है झूठी, उसे छोड़ दो ।” मैंने कहा, “ये बात यहाँ हो ही नहीं रही है, पहले पेट भर लो और फिर झूठी प्लेट छोड़ दो ।”

यहाँ बात कुछ और हो रही है । यहाँ बात हो रही है कि अपनी ज़िन्दगी है, और एक ही ज़िन्दगी है, और कितनी बार इस बात को दोहराऊँ, पता नहीं तुम समझ पा रहे हो कि नहीं । तुम्हारी भी जितनी ज़िन्दगी है, अगर चार दिन की है, तो उसमें से एक दिन जी चुके हो । कम से कम एक दिन । मैं अभी ये उम्मीद कर रहे हो कि तुम अस्सी साल जियोगे । सब नहीं जियोगे अस्सी साल । तो चार दिन अगर मिले थे तो एक तो गया, बचे तीन । अधिक से अधिक तीन । हो सकता है कि किसी के पास सिर्फ एक ही बचा हो ।

तुम किन सपनों में ज़िंदगी बिता रहे हो कि कल हम कुछ पा लेंगे, कल कुछ खास हो जायेगा । अभी तक क्या खास हो गया जो कल ख़ास हो जायेगा? फिर वही बात, पार्ट्स ऑफ़ लाइफ (जीवन का एक हिस्सा) । अभी तक कुछ नहीं हुआ है, कल कुछ हो जायेगा । जब अभी तक नहीं हुआ तो कल कैसे हो जायेगा । अगर तुम वैसे ही जीते रहोगे जैसे आज तक जीते रहे हो । वही काम दस बार करो तो क्या परिणाम अलग आ सकता है? एक ही काम दस बार करने से क्या नया परिणाम आ जाएगा?

तुम सबको नयी ज़िंदगी तो चाहिए, पर ये देखने को तैयार नहीं हो कि हम कैसे हैं? बदलने को तैयार नहीं हो, जानने को तैयार नहीं हो । बदलने की बात छोड़ो, पहले जान तो लो कैसे हो? मन में क्या चलता रहता है? फिर बदलाव अपने आप आ जायेगा ।

अब वो देखो, वो पीछे दो !

डार्विन बिलकुल ठीक था, आदमी बंदरों से ही आया है । और डार्विन ने ये बात सिद्ध कर दी है, तुम क्यों सिद्ध कर रहे हो?

रचित, रचित तो हो लिए; रचित मतलब जिसको कोई और रचे । अब रचयता भी बनो ।

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