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इच्छा अपूर्ण, मौज पूर्ण || आचार्य प्रशांत, उपनिषद् पर (2014)

Acharya Prashant

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इच्छा अपूर्ण, मौज पूर्ण || आचार्य प्रशांत, उपनिषद् पर (2014)

प्रश्न: उपनिषद् भी कहते हैं *“*एकोहम् बहुष्यामि”

तो क्या ये जो कल्पना होती है, वो इश्वर के मन में होती है कि, ‘’मैं एक हूँ, और बहुत हो जाऊं?’’

वक्ता: ये उसके मन में होती है जिसे बहुत दिख रहे हैं। इश्वर न बहुत है न एक है; जब हम कहते हैं कि इश्वर कह रहा है कि, “हूँ एक और बहुत हो जाऊं”, तो हमने पहले ही गिनतियों की दुनिया में प्रवेश कर लिया है – एक और बहुत; ये संख्याएँ हैं, ये गिनतियाँ हैं। ये गिनतियाँ कहाँ हैं? कहने वाले के मन में और ये वही बोल सकता है, जो पहले ही गिनतियों की दुनिया में आ चुका है।

गिनतियों की दुनिया में आया हुआ मन उसके विषय में कल्पना करने की कोशिश कर रहा है, जो संख्यातीत है। ये जो अभी आपने वक्तव्य बोला, ये कुछ भी नहीं है मात्र कल्पना है मन की, मनातीत के बारे में। चाहें ‘कुन-फ़ाया-कुन’ हो, चाहें तैत्रिय उपनिषद् का 2.6, चाहें बाइबिल का वक्तव्य *प्रकाश हो*” ये क्या सत्य हैं? ये क्या सत्य हैं? ये जो वक्तव्य हैं कि “उसने कहा कि मैं कई हो जाऊं और वो हो गया है” ये वक्तव्य का सत्य हैं? क्या सत्य आकर इसकी उद्घोषणा कर रहा है कि, ‘मैंने कहा कि मैं कई हो जाऊं’? ये कौन कह रहा है?

ये हमारे-आपके जैसे लोग कह रहे हैं। हम अपने सीमित मन का प्रयोग करके किसी प्रकार असीम को जानने की चेष्टा कर रहे हैं; सत्य नहीं कहने आता कि, ”एक हूँ, कई हो जाऊं,” न उसके पास भाषा है या यूँ कहिये कि उसे भाषा की आवश्यकता नहीं है और न उसके पास गिनती है या यूँ कहिये कि उसको गिनती की आवश्यकता ही नहीं है। ये तो हमारी भाषा है, हमारी कल्पना है।

श्रोता २: परन्तु ये कह तो वही पायेगा न जो पर्दासे बाहर आ चुका है?

वक्ता: देखिये जितना कुछ भी कहा जा रहा है वो सत्य नहीं है, कोई पर्दा कहीं नहीं है। जब आप कहते हैं कि एक पर्दा है और पर्दा से बाहर कोई है और पर्दे के अंदर कोई है और पर्दे के बाहर कोई है, तो ये दोनों भी कहीं हैं क्या?

कहीं कोई पर्दा है? और कहीं कोई पर्दे से बाहर है क्या? पर्दा कब तक है? जब आप कहते हैं कि एक फिल्म का पर्दा है और उस पर इतने सारे चरित्र हैं, पात्र हैं, अभिनय चल रहा है; ये आप कब कहते हैं?

कुछ श्रोता : जब तक आप मौन में हैं?

वक्ता: कब तक दिखाई देता है कि ये सब चल रहा है? तभी तक दिखाई दिखाई देता है न, जब तक इसकी पड़ताल नहीं की, ध्यान नहीं है। ध्यान के अभाव में ही तो भ्रम रहता है न? ध्यान है फिर कहाँ कोई पर्दा है? इसीलिए पूछना बहुत ज़रूरी होता है कि ये बात कह कौन रहा है? पर्दा नहीं है, पर्दे के भीतर जो संसार है वही सत्य है, ये कौन कह रहा है? ये दृष्टा कह रहा है। ‘’पर्दा है, और मैं पर्दे से बाहर हूँ, देख मात्र रहा हूँ,’’ ये कौन कह रहा है? ये साक्षी कह रहा है। न दृष्टा सत्य है, न साक्षी सत्य है। कहने में ऐसा लगता है कि जैसे साक्षी मन को देख रहा हो पर भूलियेगा नहीं कि साक्षी भी मन की कल्पना ही है।

श्रोता: यही प्रश्न पूछा था किसी ने कि साक्षी मन के बाहर थोड़ी न है।

वक्ता: मन है कहाँ? तुम बात को समझो। उदाहरण को ही जब सत्य बनाते हो, तब अटक जाते हो, ये सारी बातें इसलिए नहीं कही जा रही हैं कि इन बातों में कोई सत्य है; ये सारी बातें इसलिए कही जा रही हैं कि जिसको तुम सत्य समझते हो ‘उसको’ सत्य न समझो!

न पर्दा सत्य है, न साक्षी सत्य है, कुछ नहीं होता साक्षित्व। कोई अगर तुमसे ये कहने आ रहा है कि साक्षी बहुत बड़ी बात है और साक्षी होना चाहिये तो वो कुछ जानता ही नहीं, साक्षी जैसा कुछ होता ही नहीं। किसका साक्षी? उसका, जो है ही नहीं! तुम कहते हो ‘मन अनित्य है, मन भ्रम है और साक्षित्व में तुम मन को, दृश्य को, दृष्टा को दोनों को एक साथ देखते हो।

जो है ही नहीं, उसको देखने वाला तो कोई नशेड़ी ही होगा। कोई नशेड़ी ही होता है, जो उसको देखले जो है ही नहीं। ये पूरी प्रक्रिया बस नेति-नेति की है, दिक्कत तब होती है जब नेति-नेति के दौरान जो उदाहरण लिए जाते हैं, उनको तुम सत्य मानना शुरू कर दो कि पर्दे में जो चल रहा है सब झूठा है, ये समझाने के लिए उदाहरण के तौर पर एक साक्षी को खड़ा करना पड़ा, सिर्फ ये समझाने के लिए कि पर्दे के भीतर जो है उसकी नेति-नेति करो। अब पर्दे के भीतर वाले की नेति-नेति हुई कि नहीं हुई ये मुझे नहीं पता, हाँ इतना ज़रूर हो गया कि एक साक्षी ज़रूर जुड़ गया मन में, ये गड़बड़ हो गयी न?

संसार का अपना कोई आधार नहीं है, वो किसी स्रोत की तरंग मौज मात्र है, ये कहने के लिए कहा गया कि उस एक ने कहा कि मैं एक हूँ, मैं अनेक हो जाऊं, उपनिषदों का वक्तव्य है ‘मैं एक हूँ, मैं अनेक हो जाऊं, मुझे फैलने दो, मुझे विस्तार लेने दो’; ये समझाने के लिए ये बात कही गयी है कि ये संसार नित्य नहीं है- दृश्य, दृष्टा पर आश्रित है; दृष्टा, दृश्य पर आश्रित है, दोनों में से कोई भी अपनी बुनियाद पर नहीं खड़ा है, दोनों ही आश्रित हैं, दोनों में से अनाश्रित कोई नहीं। ये बात सिर्फ ये समझाने के लिए कही जा रही है कि किसी और ने कहा कि संसार पैदा हो जाए तो संसार आया, संसार को काटो।

संसार को काटने की बात की जा रही है, ये नहीं कहा जा रहा है कि उस ‘एक’ में कि विश्वास करना शुरू कर दो; बड़ी गड़बड़ हो जाती है। संसार में जो हमारा झूठा यकीन है, वो यकीन हटाने के लिए इश्वर नामक एक तत्व की कल्पना करनी पड़ती है- अब ये तो पता नहीं कि होता हैं कि नहीं होता है, कि संसार से आपके विश्वास हटे। हाँ, आप इतना ज़रूर करते हो कि अपने संसार में एक इश्वर को और शामिल कर लेते हो, इतनी ‘चतुराई’ होती है हमारे मन की; खुद तो हटा नहीं, एक चरित्र और जोड़ लिया इश्वर, और इश्वर के भी आगे जा सकते हो, उसको ब्रह्म बना लो, स्रोत बना लो।

जो अचिंत्य है, उसे अचिंत्य रहने दो। उसको अपनी कहानियों का हिस्सा मत बनाओ।

हज़ार कहानियां हमारे पास पहले से हैं और कहानियां हम उसमें जोड़ लेते हैं कि: हिरण्यगर्भ, कि 6 दिन में सृष्टि का निर्माण फिर आराम; ये कहानियां हैं! कि प्रलय और बाढ़, कि नोहा और उसकी नाव – ये कहानियां हैं, कि ब्रह्मा और उनके मुख से वेद-कहानियां हैं।

कहने वालों ने ये कहानियां इसलिए कहीं ताकि ये कहानियां तुम्हारे मन में पहले से बैठी ऊल-जुलूल कहानियों को साफ़ कर सकें, मन तो कहानियों में ही जीता है, उसमें तो प्रवेश ही कहानियों का होना है, तो तुम्हें एक नयी तरह की कहानी दी गयी ताकि तुम्हारी पुरानी कहानियां साफ़ हो सकें। पुरानी तो तुमने साफ़ करी नहीं, नयी वाली को पुरानी का हिस्सा बना दिया, जोड़ दिया दोनों को, तो तुमने क्या कहा? पहले तुम कहते थे कि ‘ये संसार है और ये सत्य है’ और अब तुम्हारी कहानी क्या हो गयी? ‘ये संसार है, जिसको एक इश्वर ने बनाया है, और ये बात सत्य है’

गज़ब हो गया!

पहले तो इतना ही भर कहते थे कि संसार है, अब तुम्हारे पास संसार के अलावा बनाने वाले का भी पूरा खर्चा-चिट्ठा मौजूद है। बड़े होशियार हो! कहानी मिटने की जगह और प्रगाढ़ हो गयी, मिटी तो नहीं, उसमें लेख़क का नामऔर जुड़ गया। पहले कहानी भर थी, अब वो एक प्रमाणिक कहानी है – वैधता। देखो किसने लिखी है हमें वो भी पता है, लिखने वाले का भी पता चल गया तो कहानी असली ही होगी। और ये भी पता चल गया कि उसने क्यूँ लिखी थी, ये देखो ये रहा “वो अकेला बैठा था, वो बोर हो रहा था, तो उसने कहा कि मैं एक हूँ, मैं अनेक हो जाऊं’- तो देखो हमें उसकी मंशा भी पता चल गयी।

अब तो पक्का है कि ये कहानी सच्ची है: कहीं कोई बैठा है, वो एक है उसके अलावा कोई दूसरा होता नहीं है ‘एकोऽहं द्वितियो नास्ति’; फिर उसके तरंग उठती है, फिर वो कहता है मुझे विस्तार लेना है और फिर उससे पूरा संसार आ जाता है। अब बिल्कुल ऊपर से लेकर नीचे तक कहीं संदेह की कोई गुंजाईश नहीं बची, अब आप सब कुछ जानते है, अब आप पंडित हो गये हैं, अब आपको पूरा पता है; उसने बनाया, प्रभव हुआ, फिर आगे बढ़े, फिर समय चलते जाएगा और आगे प्रलय हो जाएगी और सब कुछ वापस उसी में लीन हो जायेगा।

बस! सब समझ में आगया, हम सब जानते हैं!

ये सारा खेल क्यूँ हो रहा है? सिर्फ़ अपनेआप को ये बताने के लिए कि, ‘’मैं सब जानता हूँ,’’ मुझे आदि से लेकर अंत तक सब कुछ पता है।

आदमी का क्षुद्र अहंकार अपने खालीपन का सामना न करने के लिए कितनी भी बड़ी-बड़ी कहानियां गढ़ सकता है।

और क्यों गढ़ रहा है? सिर्फ इसीलिए क्योंकि जीवन में प्रेम नहीं है, शान्ति नहीं है। तुम तरीके देखो अहंकार के, वो सीधे ये नहीं कहेगा कि मेरे आस-पास के लोग हैं, इनसे मेरी कोई दोस्ती नहीं है, ये मेरे आस-पास बच्चे घूमते रहते हैं, मैं इनके सर पर हाथ नहीं फेर पाता, जानवर दिखाई देते हैं तो मेरे मन में बस हिंसा उठती है- वो ये सब बातें नहीं करेगा, बस अपने खालीपन को भरने के लिए वो दुनिया भर कि कल्पनाएँगढ़ेगा। वो सीधे ये नहीं कहेगा कि मेरे जीवन में एक स्त्री है और मुझे पता है कि मुझे उससे कोई प्रेम नहीं, वो बड़ी लम्बी-चौड़ी सी बात करेगा।

विपत्ति का सिद्धांत, कर्मफल का सिद्धांत, पुनर्जन्म की बातें; और क्यों कर रहे हो पुनर्जन्म की बातें? सिर्फ इसलिए क्योंकि आज सुबह सो कर के उठे थे और बीवी से झगड़ा हो गया था। ये जन्म सुहा नहीं रहा है तो अगले जन्म की सोच रहे हो। इस जन्म ने तुम्हें कुछ दिया नहीं है तो अगले जन्म की सोच रहे हो; पर ये बात स्वीकार नहीं कर सकते! तो लम्बी-चौड़ी कहानियां गढ़ रहे हो। क्या करना है?

पुस्तकालयों में हज़ारों उपन्यास भरे हुए हैं, कोई भी उठा लो, कहनियाँ ही कहानियां है, तुम्हें और क्यों जोड़नी हैं?

श्रोता: आपने कहा कि जैसे जो भी पदार्थ है, उसी की इच्छा है, तो ये उसकी इच्छा कैसे हो सकती है?

वक्ता : उसको इच्छा नहीं कहा जाता, उसको मौज कहा जाता है, कहने वाले भी जब उसे कहते हैं, तो उसे मौज कहते हैं; मौज एक दूसरे तल पर होती है, मौज इच्छा नहीं होती। इच्छा में अपूर्णता है, मौज में पूर्णता है।

श्रोता: एक बात स्पष्ट कीजिये, जो बात समझ में आ रही है वो ये है: जो मन संसार में घूम रहा हैवो संसार से हट सके इसके लिएस्रोत की बात करना ठीक है परन्तु नेति-नेति की जो प्रक्रिया है, वो स्रोत को भी काटेगी, तो हम स्रोत की भी बात नहीं कर सकते?

वक्ता: हाँ, बिलकुल। किसी भी प्रकार के स्रोत की बात ध्यान से अगर आप समझें तो नेति-नेति की प्रक्रिया का अंग ही है। अगर आपने स्रोत को भी वास्तविक मान लिया तो भूलियेगा नहीं कि ‘वास्तविक’ शब्द में ही वस्तु छिपी हुई है। {जोर देते हुए} वास्तविक, वस्तु। मन के लिये वास्तविक क्या होता है? सिर्फ वस्तु; तुमने स्रोत को भी वस्तु बना लिया। संसार को काटने निकले थे, वस्तुओं को काटने निकले थे और तुम कर क्या बैठे?एक नयी वस्तु बना बैठे, जिसका नाम है? स्रोत। हो गयी न गड़बड़?

तो इसीलिए स्रोत की बात, जिन्होंने हमारा भला चाहा है, उन्होंने कहा है कि बात करो ही मत। क्यों इतना बकते हो? बुद्ध कहते थे ये सवाल तो कभी मत पूछना मुझसे कि कोई परम है कि नहीं है? और है तो कैसा है? बाकि सारी बातें पूछो, वो कहते थे वो बातें पूछो जो तुम्हारे काम की हैं, वो कहते थे कि पूछो कि, ‘’मैं दुखी क्यों हूँ?’’ – इस एक प्रश्न में बुद्ध को गहरी रुचि थी-दुःख। कहते थे “सही सही बात बताओ, पंडित बनकर न बैठ जाओ, दिल का हाल, दिल का राज़ खोलो, तुम दुखी हो न? तो दुःख की चर्चा करो, ये क्या तुम परम की और ब्रह्माण्ड की चर्चा कर रहे हो? अपनी छोटी सी दुनिया की बात करो”। दुःख- दुःख की बात करो, कहानियां सारी दुःख से निकलती है।

श्रोता: सर, उस दिन जब बाइबिल डिस्कस हो रही थी तो आपने ग्रैंड प्लान का डिस्कशन किया था कि जो हो रहा है तुम क्यों चेंज करते हो? उसने बनाया है, वही करेगा चेंज। सर, वो सब सुनने के बाद थोड़ा सा लक्ष्यहीन सा अनुभव हो रहा था, ऊपर से आज ये सब देखा, जो मैं देख रहा हूँ, वो भी मैंने ही बनाया है, जो मैं सोच रहा हूँ वो भी मेरे अन्दर से ही आ रहा है, तो सब कुछ सफल होकर एक लक्ष्यहीन सी फीलिंग आ रही है।

*मैं क्यों हूँ*?

वक्ता: तुममें से किसी ने उस व्हाट्सैप ग्रुप पर एक बात मैंने कभी कही होगी वो डाली थी कि

*“**हम बीमारी के इतने आदि हो चुके हैं कि स्वास्थ्य के कुछ क्षण हमें बेचैन कर देते हैं*।’’

पर्पस-फुल होना एक बिमारी है, जो तुमने सारी ज़िन्दगी-भर ढोयी है, पर तुम्हें उसे ढोने की आदत लग गयी है, अब पर्पसलेस हो रहे हो तो ये मुक्ति है तुम्हारी, पर जब मुक्ति मिल रही है तो तुम परेशान हो रहे हो

श्रोता: तो यानि ये मेरा वही दुर्लभ क्षण है स्वास्थ का?

वक्ता: बेशक़

{सभी हँसते हैं}

कैसा अविश्वसनीय !

{मौन}

श्रोता: सर, जैसे ये सारी बातें हो रहीं हैं, तो हम कहीं न कहीं हम हैं ये मान कर बात कर रहे हैं कि हमारा अस्तित्व है, तो अगर उसको नकार दें बिना बात किए बिना कुछ समझे, बिना कुछ पूछें, तो आपकी बात हम तक पहुंचेगी ही नहीं अगर बात न करें, इसको बतायें या बात कैसे करें मतलब आप जो बोल रहे हैं ठीक है, उस दिन जो आपने कहा उसकी आपने आज नेति-नेति कर दी, उसको भी मत पकड़ो, तो मतलब वही है कि मन पकड़ने की कोशिश कर रहा है किसी चीज़ को पर बात कैसे करें, बात करने के लिए तो उसी का सहारे लेंगे न जो मन से निकला है?

वक्ता: करो। सारी बात इसलिए की जाती है कि वो पुल बन सके, बात-चीत पुल है। हम कह रहे थे न वहां पर, कि पर्दे में और पर्दे से बाहर आने के लिए सीढियां लगी हैं, बीच-बीच में छिपी हैं, पहेली में बीच-बीच में हिंट्स हैं, कहानी में बीच-बीच में एक छोटी सी सीढ़ी होती है अगर देखलो तो बाहर आ सकते हो, और चूक गये तो चूक गये, बीत जाएगी। ये सारी बातचीत इसलिए नहीं है कि तुम किसी स्रोत को पकड़ के बैठ जाओ या तुम कुछ बातें कागज़ पर उतार लो, या तुम बहुत बिलकुल याद करलो, स्मृति में डाल लिए कुछ शब्द।

यहाँ हम जो कर रहे हैं वो थ्योरी नहीं प्रैक्टिकल है, समझो बात को, हम यहाँ कुछ ग्रहण करने के लिए नहीं बैठे हैं, हम यहाँ से कोई ज्ञान लेकर जाने के लिए नहीं बैठे हैं, हम ‘ठीक अभी’ कुछ हो सके इसलिए यहाँ बैठे हैं। प्रैक्टिकल में, जब तुम जाते हो प्रयोगशाला में, तुम दो रसायनों को मिलते हो फिर क्या होता है?

जो घटना घटनी होती है, वो तत्क्षण होती है या पांच-सात दिन बाद होती है?

श्रोता : तत्क्षण

वक्ता: अभी जो है ये जगह, ये कमरा, ये क्षण, ये प्रयोगशाला है और तुम इसको थ्योरी क्लास की तरह इस्तमाल करते हो इसीलिए चूक रहे हो लगातार। तुम यहाँ आ जाते हो कुछ ज्ञान इकट्ठा कर लेंगे और मैं चाह रहा हूँ कि जो हो, वो अभी हो, तुम यहाँ से बस्ता भर के न ले जाओ बाहर, अभी हो, ये प्रयोगशाला है, अभी तुम ध्यान में उतरो, अभी जो होना है वो हो जायेगा, अभी के अलावा कभी कुछ होता नहीं, पर ये बात समझाई नहीं जा सकती, ये तभी होगी जब ‘हो’

और वहां मज़बूरी है, धक्का नहीं दिया जा सकता क्यूंकि तुम उतने ही मुक्त हो, ‘न’ होने देने के लिए जितना मैं मुक्त हूँ प्रयास करने के लिये। हम दोनों की मुक्ति बिलकुल एक जैसी है, एक बराबर की है, एक ही है क्योंकि हम दोनों एक हैं; तो मेरी मुक्ति और तुम्हारी मुक्ति जब टकराएगी तो कोई नतीजा नहीं निकलेगा। वो ऐसा ही होगा जैसे एक विशाल अनादि पुरुष का एक हाथ दूसरे हाथ से टकरा रहा हो; उसमें खेल हो जायेगा, मौज हो जाएगी, मनोरंजन हो जायेगा, पर कोई गति नहीं होगी।

एक हाथ से दूसरे हाथ को तुम हरा नहीं सकते, तुम्हारे ही दोनों हाथ हैं। ठीक उसी तरीके से मेरे कोशिश करने से कुछ नहीं होगा तुम मेरे ही बाएँ हाथ हो। ये प्रयोगशाला है पर प्रयोग तब होगा, जब दोनों मिलें। तुम इसे थ्योरी क्लास बना देते हो। तुमने देखा नहीं है कि तुमने जितनी भी बार बोला है कि “बाहर ये गड़बड़ हो जाती है, बाहर ये हो जाता है, बाहर क्या करें, कल क्या करें?” मैंने तुमसे बार-बार कहा है कि बाहर की छोड़ो, यहाँ वापस आओ, जो होना है अभी होगा, यहीं होगा, अभी होगा।

यहाँ तुम होने नहीं देते; बाहर की फ़िक्र करते रहते हो। और यहाँ तब होगा जब तुम थोड़ा ध्यान में उतरो; ध्यान में डूबी आँखें बिल्कुल दूसरी होती हैं। अभी मैं कह रहा था न वहां पर, कि आँखें बता देती हैं कि क्या चल रहा है, जो आंखें अंतर्गमन कर चुकी होती हैं, वो किसी वस्तु या व्यक्ति पर केंद्रित नहीं होती हैं। तुम अगर इतनी सघन तरीके से, इतनी ‘तीखी’ नज़रों से अगर मुझे देख रहे हो, तो बहुत नुकसान कर रहे हो, या तो आँखें बंद करो या आँखों को भीतर उतरने दो। इन दो के अलावा तीसरा विकल्प नहीं है।

या तो बंद करो कि वो कुछ देखें ही न क्योंकि आँखें तो व्यक्ति को ही देखेंगी, मेरे चेहरे को क्या देख रहे हो, व्यक्ति का चेहरा है, उसमें क्या मिल जायेगा तुम्हें? बंद करो आँखें। या एक आँख ऐसी भी होती है, जो खुली होती है पर भीतर को मुड़ गयी होती है, अंतर्गमन कर गयी होती है, जिसको कबीर कहते हैं: आँख जो पलटे कबीरा, साईं तो सम्मुख खड़ा; आँख को पलटा दिया, पीछे गयी। समझ में आ रही है बात? ये दशा ठीक नहीं है आँखों की।

ये सारी बात सच नहीं है! हाँ, तुम्हारा ध्यान सच होगा। जितनी बातें हमने करी हैं, सारी बातें काटी जा सकती हैं, अपनी ही कही एक-एक बात को मैं काट दूँ क्योंकि उसमें से कुछ भी सच नहीं है। तुम्हारा ध्यान सच होगा; मैं बोलता इसलिए नहीं हूँ कि तुम बातों को सच मानलो, बोलता इसलिए हूँ कि तुम ध्यान में उतर सको। मैं इसलिए नहीं बोलता हूँ कि {तंज कंस्ते हुए} मेरा खूबसूरत चेहरा तुम्हारी आँखों में घुस जाए; अहा-हा; क्या गंजा हो रहा है! क्या दाढ़ी सफ़ेद हो रही है! तुम मुझे क्या देख रहे हो, आँखें बंद करो अपनेआप को देखो।

बातों को नहीं पकड़ना है, व्यक्ति को नहीं पकड़ना है, ध्यान में जाना है। और तुम्हारी आँखें बता देती हैं कौन ध्यान में जा रहा है और कौन इधर-उधर भटक ही रहा है। जो भटक रहा है, हो सकता है कि उसकी याद्दाश्त अच्छी हो, ये तो प्रकृति का गुण है, याद्दाश्त वगैरह, हो सकता है कि उसे बहुत बातें याद रह जायें, स्मृति क्या होती है? चित्र का बोझ! और भर लो स्मृति को क्या मिल जायेगा तुम्हें? गधे हो; और बोझ लेकर घूमोगे। ध्यान होती है असली चीज़, बोलता इसलिए हूँ कि ये शब्द तुम्हें शांत कर सकें, इसलिए नहीं बोलता हूँ कि इन शब्दों में कोई सत्य है। मेरे क्या किसी के शब्दों में कोई सत्य नहीं होता। कभी मत सोचना कि उपनिषदों में सच लिखा हुआ है, कभी मत सोचना कि अभी हम जीसस के साथ थे तीन दिन तक, तो जीसस हमें सच बता गये हैं।

जीसस को भी पता है, मुझे भी पता है, तुम भी जान लो कोई सच-वच नहीं है इसमें। आई ऍम द सन ऑफ़ गॉड चुटकुला है। तुमसे खूब बात करी दो घंटे तक कि सन ऑफ़ गॉड का क्या मतलब है, उसके बाद पिछवाड़े जाकर के, संडास के बगल में जीसस खूब हंस रहे थे कि ‘हा-हा-हा, अच्छा बेवकूफ बनाया।’ कुछ नहीं होता सन ऑफ़ गॉड। शांत हो जाओ, उतना काफ़ी है उसके अलावा कुछ होता नहीं। मुझे कोई ख़ुशी नहीं होती है कि बड़े बेहतरीन किस्म के सवाल पूछ रहे हो; बड़ी उत्तम दर्जे की चर्चा चल रही है। उद्देश्य ये है कि सवाल पूछो ही नहीं; सवाल क्या है? मन की खुजली है।

उद्देश्य ये है कि वहां आ जाओ जहां मन सवाल करना ही बंद करदे, मस्त हो, बैठे हो, क्या सवाल-बवाल? मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि आलसी हो गये हो और झक्की हो कि सवाल क्या पूछें! मैं कह रहा हूँ कि इतने साफ़ हो गये हो कि सवाल बचा ही नहीं। यहाँ पर आना, सत्र में बैठना सार्थक तब मत मानो कि आज सवालों के जवाब मिले; अगर जब उठते हो यहाँ से साढ़े नौ बजे और जांचना चाहते हो कि सत्र सार्थक रहा कि नहीं तो ये पूछो कि सवाल घुले कि नहीं घुले? ये न पूछो कि उत्तर मिले कि नहीं, पूछो सवाल घुले कि नहीं? उत्तरों का मिलना दो कौड़ी की बात है, कोई भी उत्तर दे देगा तुमको, सबसे ज़्यादा उत्तर तो ‘गूगल’ देता है, उससे कुछ भी पूछो बता देगा; महापंडित है।

पर गूगल तुम्हारे सवालों को विगलित नहीं कर सकता; कि गये, भाँप बन गये, उड़ गये। जब वो हो, तब समझो की बात बनी आज, सवाल लेकर के आये थे, खाली हाथ वापस जा रहे हैं। हाथ भरके नहीं वापस जाना है, सवालों से भरे आये थे कहाँ गये सवाल? नहीं पूछे तो नहीं, नहीं ऐसा तो नहीं कि उत्तर मिल गया, बस सवाल कहीं चला गया- तब समझो की बात बनी। थ्योरीज़ नहीं पकडनी है:

*ये विश्व किसने बनाया*?

*कितने दिन होते हैं*?

*क्या प्रकृति और पुरुष की रचना साथ साथ हुई*?

*कौन पहले आया था*?

ये मॉडलिंग है। ये तुम मॉडल-फार्मेशन में उतर रहे हो। मॉडल सत्य होता है क्या? शांत हो जाना है, बस। वही समाधि है।

न कोई स्रोत है, न समय है, न रचना है, न रचयिता है, न प्रक्रिया है।

गूँज है एक मौन की; मौन हो जाओ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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