हम ईमानदार रह गए, बेईमान आगे निकल गए || आचार्य प्रशांत (2022)

Acharya Prashant

18 min
151 reads
हम ईमानदार रह गए, बेईमान आगे निकल गए || आचार्य प्रशांत (2022)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। आचार्य जी, मैं शुरू से ही शिक्षकों का बहुत आज्ञाकारी रहा हूँ। उन्हीं शिक्षकों ने हमें सत्यनिष्ठा या ईमानदारी की शिक्षा दी लेकिन मुझे सांसारिक जीवन में कभी उन बातों से लाभ नहीं हुआ।

मैं एक शिक्षक हूँ प्राइमरी (प्राथमिक) में। क्लास (कक्षा) में पीछे बैठने वाले, बैकबेंचर्स , आज मनी लेंडिंग (साहूकारी) या दूसरा छोटा-मोटा बिज़नेस (व्यापार) करके सब अमीर हो चुके हैं। और सांसारिक रूप से, सामाजिक रूप से मुझसे बहुत सफल कहलाते हैं। यहाँ तक कि मेरे माता-पिता भी मानते हैं कि वो सफल हैं और मैं असफल हूँ।

तो कैसे मान लिया जाए कि सत्यनिष्ठा या ईमानदारी या गुरु की शिक्षा मेरे जीवन में काम ही आ रही है? और कैसे उसका मोह छोड़ें? मैं जान रहा हूँ कि वो बहुत रिलेवेंट (प्रासंगिक) नहीं है, फिर भी मोह नहीं छूटता, साथ में ढल गया हूँ उसी में। लेकिन वो बहुत रिलेवेंट (प्रासंगिक) नहीं समझ में आती, सत्यनिष्ठा और ईमानदारी।

आचार्य प्रशांत: देखिए, जो सीख है गुरुओं की और ग्रंथों की, वो एक चीज़ तो यही बताती है मूल में कि तुलना किससे कर रहे हो अपनी। वो सीख अगर हम आत्मसात करें, अगर हमने उस सीख को गहा होता, तो सबसे पहले तो जो तुलना जनित कष्ट होता है कि दूसरा मुझसे आगे निकाल गया, बैकबेंचर्स थे या कम सीजीपीए वाले थे वो आगे निकल गये। फ़लाना काम कर रहे हैं वो, उनके पास ज़्यादा पैसा आ गया। अगर अभी मन में ये बातें चल ही रही हैं तो फिर हमने सत्यनिष्ठा अभी प्रदर्शित कहाँ करी है।

आप कह रहे हैं, सत्य पर चल कर आपको नुक़सान हुआ है। मैं मान रहा हूँ नुक़सान हुआ है पर नुक़सान इस कारण नहीं हुआ है कि आप सत्य पर चले हैं या आपमें सत्य के लिए प्रेम या निष्ठा रही है; वो नुक़सान इसलिए रहा है क्योंकि सत्य के लिए आपमें बहुत-बहुत कम निष्ठा रही है। जो आप नुक़सान बता रहे हैं, वो सत्यनिष्ठा के कारण नहीं, सत्यनिष्ठा की कमी के कारण हुआ है। सत्यनिष्ठा यदि होती है तो ये तुलना वगैरह करने की बात कहाँ से आ जाती है कि पीछे वाले आगे निकल गये! ये क्या है!

आज मैं आपके सामने यहाँ बैठा हुआ हूँ। मुझे एल्मनाई एसोसिएशन (भूतपूर्व छात्र संस्था) ने आमंत्रित करा है और बहुत अच्छा लग रहा है, आनंद है, गदगद हूँ। कम-से-कम पंद्रह साल का वक़्त ऐसा था मेरी ज़िन्दगी में, जब क्या आईआईटी , क्या आईआईएम ? न मैं किसी को पूछ रहा था, न कोई मुझे पूछने वाला था। आपको पता कैसे है कि वो बैकबेंचर्स आपसे आगे निकल गये!

मुझे तो पता भी नहीं था। और ये मुझे अब जाकर के पता लग रहा है कि मुझे पता नहीं था। क्योंकि अब बहुत लोग संपर्क में आने लग गये हैं पिछले एक-दो साल से। जब वो संपर्क में आने लगते हैं तो मुझे याद आता है कि अरे! इस आदमी से तो मैं बीस साल बाद बात कर रहा हूँ। अचानक उसका संदेश अब कैसे आ गया मेरे पास!

सत्यनिष्ठा का मतलब होता है — सत्य के अलावा बाक़ी सब भूल जाओ।

सौ से नहीं प्यार किया जाता। एक पर दिल आ गया है, तो आ गया है। बाक़ियों की अब तुमको इतनी फ़िक्र, इतनी याद बची कैसे है? ये देखने का वक़्त कहाँ से मिल गया कि पीछे वाला आगे निकल गया है?

बीस साल तक मुझे ये नहीं पता था कि मेरे बैच की एवरेज सैलरी (औसत आय) क्या चल रही है। आपको कैसे पता है कि वो पीछे वाले, जो भी आपने काम-धंधे बताये, वो काम-धंधे करके आपसे ज़्यादा पैसे कमा रहे हैं?

आपने जिस रूप में कहा कि आप टीचर हैं, उससे तो ऐसा लग रहा है जैसे टीचर होने पर आपको कुछ लज्जा सी आ रही है। और ये बात आप एक दूसरे टीचर से बोल रहे हैं। नहीं, ठीक है, एक साथ हैं। मेरे भी तो पेरेंट्स (माता-पिता) हैं! और मैंने तो उनको तीन तरह के घात दिये थे — आईआईटी करके इंजीनियरिंग (अभियांत्रिकी) छोड़ दी, आईआईएम करके मैनेजमेंट (प्रबंधन) छोड़ दिया, यूपीएससी करके ब्यूरोक्रेसी (नौकरशाही) छोड़ दी। तो पेरेंट्स तो सभी के होते हैं। आसमान से तो कोई भी... (नीचे आने का इशारा करते हुए)

ये सब याद कैसे रह गया आपको?

मैं बिलकुल दिल से बता रहा हूँ, मुझे अब धीरे-धीरे याद आना शुरू हो रहा है कि मेरा भी एक अतीत था। यहाँ पर आया जब, तो सही में, स्मृतियों का उफान सा आया। वहाँ सेमिनार हॉल (संगोष्ठी कक्ष) के सामने से निकला तो याद आया कि यहीं पर मैंने अपना पहला प्ले (नाटक) करा था। इस जगह के साथ न जाने कितनी मेरी यादें जुड़ी हुई हैं। आप जहाँ बैठे हो, कभी मैं भी वहीं बैठा हुआ था और कितनी ही बार।

और पंकज जी ने बताया, हम सब को यहीं पर (इसी हॉल में) डिग्री मिली है, कोन्वोकेशन (दीक्षांत समारोह)। और वो डिग्री तो आख़िरी होती है, उससे पहले — अब पता नहीं होता है कि नहीं — हर सेमेस्टर (छमाही) का रजिस्ट्रेशन (पंजीयन) यहीं होता था। अभी भी होता है? अब तो इतने स्टूडेंट्स हो गये, अब कहीं और होता होगा।

श्रोतागण: अब शुरू में ही हो जाता है।

आचार्य: अच्छा, अब शुरू में ही हो जाता है! पहले हर सेमेस्टर का होता था क्योंकि बैच की स्ट्रेंथ (संख्या) कम थी। हम लोग मुश्किल से सवा-तीन-सौ, साढ़े-तीन-सौ लोग थे, तो सब यहीं पर हो रहा होता था। काउंसलिंग तक यहाँ होती थी। सन दो हज़ार तीन में भी मैं यहाँ पर आया था, अपने छोटे भाई की काउंसलिंग कराने। तो अलग-अलग यहाँ पर काउंटर्स बने होते थे और काउंसलिग होती थी जेईई की।

तो क्या बोल रहा था?

हाँ, ठीक है, वो एक जन्म था, ये दूसरा जन्म है।

सत्यनिष्ठा तो महामृत्यु कहलाती है। महामृत्यु का मतलब होता है — उसके पहले जिससे भी निष्ठा थी, उसकी मौत हो गयी, वो बीत गया। अब उसकी क्या याद करनी है! क्या याद करनी है!

हमने कहा सत्यनिष्ठा का मतलब है प्रेम। इश्क़ क्या ये देख कर करते हो कि पैसा कितना मिलेगा? तो आशिक़ी कर ली, अब पैसे क्यों गिन रहे हो? कितने मुझे मिल रहे हैं, कितने बैच वालों को मिल रहे हैं, कितने इसको मिल रहे हैं, कितने उसको मिल रहे हैं।

मेरे साथ के, मेरे कैडर (संवर्ग) वाले सेक्रेटरी (सचिव), ज्वाइंट सेक्रेटरी (संयुक्त सचिव) हो रहे हैं। जो कैंपस (परिसर) के लोग थे, वो कितने ही हैं जो डायरेक्टर (निर्देशक) वगैरह हो गये, सीईओ होकर के बैठे हुए हैं। यूनिकॉर्न , मेरे ही बैच में यूनिकॉर्न हैं। वो सब अब दिख रहा है कि अच्छा, ये सब भी है।

वो सब जब हो रहा था, मैं लापता था। मैं था, मेरे साथ कुछ मेरे मुट्ठीभर छात्र थे और बहुत-बहुत-बहुत सारे ग्रंथ थे। दस सालों तक उन्हीं में मैं खोया रहा। दुनिया की नज़रों से देखें तो उसको कहेंगे ये आदमी खोया हुआ है। और मैं जहाँ पर था मेरी नज़रों से मैं आशिक़ी कर रहा था। उसका हक़ तो सबको होता है न।

तो अच्छा काम करो। और कोई भी अच्छा काम अच्छी क़ीमत माँगेगा। हाँ, वो क़ीमत दे देने के बाद पता चलेगा कि कुछ ऐसा मिल गया है जिसकी क़ीमत लगायी नहीं जा सकती; जो अमूल्य है। बहुत सारा मूल्य दे दो और कुछ अमूल्य मिल जाए — अमूल्य माने बियोंड वैलुएशन, जिसका मूल्यांकन ही नहीं हो सकता — तो ये सौदा घाटे का रहा क्या? बोलो। बोलो, ये सौदा घाटे का रहा है क्या? क़तई नहीं।

माँ-बाप भी आपको तभी अपनी अपेक्षाओं के नीचे दबाते हैं या परेशान करते हैं जब उनको पता होता है कि अभी आप बहके हुए हो। उनको भी जब दिख जाता है कि सामने वाले को अपना रास्ता पता है और ये जो भी कर रहा है, वो बहक कर नहीं कर रहा है; ये जान रहा है, इसको दिख रहा है और इससे अब उलझने वगैरह से कोई लाभ है नहीं, तो फिर वो भी रास्ते में नहीं आते, बल्कि साथ हो लेते हैं।

इंसान ही हैं, हर इंसान को ताक़त देखना, सौंदर्य देखना, सच्चाई देखना पसंद होता है। ठीक है? तो माँ-बाप को भी अगर बेटे में या बेटी में सच्चाई दिखेगी, बल दिखेगा, सौंदर्य दिखेगा तो देर-सवेर वो भी साथ आ जाते हैं। जैसे आप इंसान हो, वो भी इंसान हैं। ये जो माँ का, बाप का और बेटे का रिश्ता है, वो बाद में आता है। जब माँ भी नहीं थी, बाप भी नहीं था और आप पैदा भी नहीं हुए थे, इंसान तो वो तब भी थे न!

तो हर इंसान में एक इच्छा होती है, एक चाहत होती है कि कुछ बहुत सुन्दर अपने सामने होते हुए देखूँ! और अगर वही सौंदर्य उनको अपनी संतान के रूप में घटित होता दिखाई देगा, तो वो आपके साथ ही चलेंगे।

अगर अभी आपको ये समस्या है कि आपके घरवाले, माँ-बाप या पति-पत्नी आड़े आते हैं, अड़चन देते हैं, तो समझ लीजिए कि अभी आपकी यात्रा में ही कोई कमी है। आप थोड़ा और आगे बढ़िए, वो रास्ते नहीं आएँगे। लेकिन आगे बढ़ने के लिए वो जो विरोध दे रहे होंगे उस विरोध के तो पार जाना पड़ेगा। वो विरोध करते रहेंगे, आपको उस विरोध को जीतना पड़ेगा।

ठीक है?

प्र२: आचार्य जी, अभी जो पूरी चर्चा चल रही थी, बहुत हद तक सही काम से भी जुड़ी हुई है कि जीवन में सही काम क्या है जो चुनना चाहिए किसी को।

मैंने एक बात कहीं किताब में पढ़ी थी कि आप जब कोई कम चुनें और आपको यदि वो पसंद नहीं है पर अगर आपको वहाँ पैसे अच्छे मिलते हैं, तो आप इमोशनली (भावनात्मक रूप से) और मेंटली (मानसिक रूप से) उससे बाहर आ जाएँ और वो काम करते रहें। और उसके बाद एक समय ऐसा आएगा जब आपको और बेहतर ऑपर्च्युनिटी (अवसर) मिलेगी, तो फिर दूसरे काम की ओर जाएँ।

तो मैं जानना चाहता हूँ कि सही काम क्या है जो व्यक्ति अपने जीवन में चुने? साथ में, क्या ये संभव है कि आप किसी काम को करते भी रहें और उससे इमोशनली और मेंटली बाहर निकल जाएँ?

आचार्य: काम का मतलब होता है वो चीज़ जो आपकी ज़िन्दगी को निखार देगी। ठीक है? ख़ासतौर पर जो लोग अभी काम चुनने जा रहे हैं, यहाँ पर स्टूडेंट्स बैठे हैं, वो इस बात को ध्यान से समझें।

काम पैसा कमाने का ज़रियाभर नहीं होता। न वो प्रसिद्धि पाने का, पहचान बनाने का साधन मात्र होता है। काम ज़िन्दगी होता है। आप वही लगातार कर रहे होते हो।

जिसके साथ आपको लगातार रहे आना है, उसके साथ तो सही सम्बन्ध प्रेम का ही होगा न! अगर आप कह रहे हैं कि काम के साथ अपना कोई इमोशनल और मेंटल एसोसिएशन (मानसिक संगति) मत रखो, बस काम को पैसे के लिए किसी तरीक़े से झेलते चले जाओ, तो ये बात ऐसी ही हो गयी कि आपने अपने लिए एक साथी चुन लिया है जिससे आपका कोई आध्यात्मिक, मानसिक, भावनात्मक सम्बन्ध है ही नहीं और आप बस किसी स्वार्थ के लिए उसको रोज़-रोज़ दिन-रात झेलते चले जाते हैं।

अब थोड़ा कल्पना करके, विचार करके बोलिए, ये ज़िन्दगी कैसी लगेगी आपको जिसमें आप किसी के साथ चौबीस घंटे हैं, लेकिन उससे कोई आपका गहरा रिश्ता नहीं है। आप उसको बस झेल रहे हैं। और झेल इसलिए रहे हैं कि कोई आपको लाभ होता है। कई बार आप जिसके साथ हो, उससे आपको कुछ सुरक्षा मिल जाती है, सिक्योरिटी , कई बार रुपया-पैसा मिल जाता है, कई बार उस व्यक्ति की आदत लग गयी होती है, मोह बैठ गया होता है; ये लाभ हो जाता है।

पर कुछ लाभ हो रहा है, कुछ स्वार्थ बैठा हुआ है, इसीलिए किसी ऐसे के साथ लगे हुए हो जिसकी शक्ल देखकर ही मुँह फेरने का मन करता है, जिसके पास जाने का ख़याल आता है तो भीतर से वितृष्णा उठती है, 'अरे! उधर जाना पड़ेगा!'

ऐसे ही अगर आपको सुबह काम पर जाने का ख़याल आये और भीतर से विरोध उठे कि आज फिर काम पर जाना पड़ेगा, तो जियोगे कैसे?

ये किस तरह की सलाह है कि ऐसा काम चुन लो, जिसमें तुमको पैसा वगैरह मिलता हो, भले ही उससे तुम्हारा कोई और रिश्ता बैठ पाये चाहे नहीं बैठ पाये।

जानवर श्रम करते हैं, मनुष्य कर्म करता है; और कर्म का उद्देश्य होता है 'मुक्ति'। मुक्ति का ही दूसरा नाम 'आनंद' है। अगर आप वर्क (कर्म) कर रहे हैं, वर्क एक फ़िज़िकल टर्म (भौतिक शब्द) ही नहीं है जिसको आप जूल्स में नाप लेंगे। वर्क एक आध्यात्मिक शब्द है।

अगर आप वर्क कर रहे हैं, अगर आप कर्म कर रहे हैं और उससे आप मुक्ति की ओर नहीं बढ़ रहे, तो आप समय और ऊर्जा ख़राब कर रहे हैं अपनी बस, और कुछ भी नहीं।

मनुष्य के लिए वर्क अनिवार्य है। गीता कहती है — कर्म अपरिहार्य है, कर्म से कोई बच नहीं सकता। और ये बात सिर्फ़ मनुष्यों को बोली जाती है, जानवरों को नहीं।

जानवर भी दिन-रात कुछ-न-कुछ गतिविधि तो कर ही रहे होते हैं। जूल्स में नापोगे तो वो भी एनर्जी (ऊर्जा) ख़र्च कर रहे होते हैं। शेर हिरण के पीछे दौड़ रहा है, ठीक। इसमें एनर्जी निश्चित रूप से इन्वॉल्व्ड (शामिल) है। गाय घास चर रही है, एनर्जी और एंट्रॉपी का खेल यहाँ भी है लेकिन उसे आप वर्क नहीं बोलोगे। यहाँ तक कि गधा या खच्चर ईंट ढो रहा है, वो भी वर्क नहीं है। वो लेबर (मज़दूरी) ज़रूर है, वर्क वो भी नहीं है।

वर्क सिर्फ़ तब है, जब आपने कुछ ऐसा करा हो अपनी चेतना के उपयोग से, जो चेतना को मुक्ति देता हो। जो मन को खोल दे, जो आपको आपकी सीमाओं से आगे ले जाने में सहायक हो, सिर्फ़ उसको वर्क बोलते हैं।

यदि ये वर्क है तो फिर दिनभर करने के लिए कोई काम ऐसा क्यों चुन रहे हो जिससे मुक्ति नहीं मिलेगी, आनंद नहीं मिलेगा, स्पष्टता, बोध कुछ नहीं मिलेंगे? बस पेट चलाने के लिए और कई बार अय्याशियाँ करने के लिए पैसा मिलेगा।

जो जानते हैं, जिन्होंने पाया है, उन्होंने समझाया है कि आप बड़ी-से-बड़ी अय्याशी कर लो, उसमें जो सुख होता है, जो प्लेज़र होता है, वो मुक्ति के आनंद से बहुत नीचे की बात है। तो ये घाटे का सौदा हो गया न कि काम करके मिल सकता था बहुत ऊँचा आनंद, लेकिन काम करके हासिल करा बस एक निचले तल का सुख, प्लेज़र। ये घाटे का सौदा हुआ कि नहीं हुआ?

न जाने क्या पाया जा सकता था और न जाने क्या पाकर रह गये। और ज़िन्दगी बीत जाती है, बहुत जल्दी मर जाता है आदमी। आदमी का जीवन बीतने में देर नहीं लगती है। कहने को होता है अस्सी साल का, पलक झपकते ही बीतता है।

समझ में आ रही है बात?

देखो, बैठे-बैठे सोचोगे तो ऐसे ही लगेगा कि ये जो बातें हैं ये बिलकुल किताबी हैं, आदर्शवाद है, लफ़्फ़ाज़ी है। नहीं, ऐसा नहीं है। सही काम में उतर कर तो देखो!

और सही काम क्या होता है? जो भी आपको लगता हो कि ऊँचे-से-ऊँचा उद्देश्य आप जीवन में उठा सकते हैं, वही सही काम होता है।

सही काम में उतर कर देखो, बाक़ी बातें भूलने लग जाती हैं। और तब ये बिलकुल स्पष्ट हो जाता है, एकदम विश्वास आ जाएगा कि जो हो रहा है बिलकुल ठीक हो रहा है। क्यों? क्योंकि वो दूसरी तरफ़ जो कुछ चल रहा है, उस पर ध्यान देने का मन ही नहीं करता, उसकी याद ही नहीं आती। दुनियादारी पीछे छूटती जा रही है। हमें कुछ ऐसा मिल गया है, जिसमें दिन-रात डूबे रहें, बड़ी मौज रहती है।

समझ में आ रही है बात?

प्र३: इसी से सम्बन्धित एक प्रश्न है मेरा कि हम एक करियर (व्यवसाय) को शुरू करते हैं, लेकिन उस टाइम पर हमारी जो मानसिकता है या हमारी जो परिस्थिति है या जो समझ है, वो कुछ और रहती है। लेकिन उसमें आने के कुछ सालों के बाद हमें पता चलता है कि वो चीज़ हमारे लिए नहीं है; लेकिन उसमें हम इस तरह जुड़े हैं कि हम उसको छोड़ भी नहीं सकते। तो उसके साथ रहते हुए हम किस तरह उसमें समर्पित हों या उसके प्रति प्रेम हो, उसमें ग्रोथ (बढ़ोतरी) करें? या वहाँ से निकल जाना बेहतर रहेगा?

आचार्य: नहीं, क्यों जुड़े रहोगे? जीवन यूँही है? फ़ालतू है? जो चीज़ जान गये हो कि काम की नहीं है, उसको क्यों पकड़े खड़े रहोगे?

प्र३: लायबिलिटी (दायित्व) की वजह से या किसी और कारण से या कंडिशनिंग के कारण से।

आचार्य: देखो भाई, लायबिलिटी का मतलब होता है दायित्व। जो चीज़ किसी को तुम्हें देनी है, चुकानी है, तुम्हारे ऊपर जो कर्ज़ होता है लगभग, उसको कहते हैं लायबिलिटी। जो चुकाना तुम्हारा कर्तव्य है, उसको कहते हैं लायबिलिटी।

तुम्हारी सबसे बड़ी लायबिलिटी है अपना उद्धार। ये बाक़ी जो लायबिलिटीज़ (दायित्व) पकड़ लेते हो, वो हैं कर्तव्य। उनके प्रति भी कर्तव्य है लेकिन उनके प्रति जो कुछ भी है, वो बाद में आता है, सबसे पहले तो तुम्हारे लिए आता है। क्योंकि आप ही अगर ठीक नहीं हो तो आप दूसरों को क्या दोगे!

आप बात कर रहे हो दायित्व की, दायित्व मतलब देयता, देना। आप दूसरों को कैसे कुछ दे पाओगे जब आप ही ठीक नहीं हो! सबसे पहले ख़ुद को ठीक करना होगा न। ये पहली लायबिलिटी होती है।

लायबिलिटी , कर्तव्य, ज़िम्मेदारी, इनकी बात करके हम अपनेआप को रोके रह जाते हैं। मजबूरियाँ, देखो, सबके पास होती हैं और अगर मजबूरियों का रोना रोओगे, तो कोई जवाब नहीं है। तुम अपनेआप को साबित कर सकते हो कि तुम मजबूर हो इसीलिए घुटा हुआ जीवन जी रहे हो। और तुम साबित कर लो, कोई रोकने नहीं आएगा। हेंस प्रूव्ड (अतः सिद्ध); अपनेआप को ही जता लो, हो गया साबित। उसका फिर कोई इलाज नहीं है।

प्र३: लेकिन उसमें ये कर सकते हैं कि उसमें हम और डीपली (गहरे) जाकर उससे जुड़े रहें या उसके प्रति और प्रेम जाग्रत करें।

आचार्य: वो तुम्हें करना है। सब इस पर निर्भर करता है कि अपनी ज़िन्दगी से प्यार कितना है आपको। अपनी ज़िन्दगी से जितना प्यार होगा, आप उतना ज़्यादा तीव्र निर्णय लेने के लिए तैयार हो जाएँगे। और कितना प्यार करना है जीवन से, समय का कितना सदुपयोग करना है, ये कोई और आपके ऊपर तय नहीं कर सकता; ये तो आपको ही निर्धारित करना है। आप बोल दीजिए कि नहीं साहब, ज़िन्दगी से तो मुझे बस इतना सा ही चाहिए। तो ठीक है, आपका फ़ैसला है।

वेदान्त उनके लिए है जो कहते हैं हमें ज़िन्दगी से इतना सारा चाहिए, इतना सारा। आईआईटी आदि संस्थानों के साथ हम एक शब्द जोड़ते हैं — एंबिशन , महत्वाकांक्षा। कहते हैं यहाँ पर जो लोग आते हैं, उनमें महत्वाकांक्षा बहुत होती है। तो समझ लो, वेदान्त उनके लिए है जो अल्ट्रा एंबिशियस (अत्यंत महत्वाकांक्षी) हैं। जो कह रहे हैं, 'ज़िन्दगी से जो अधिकतम ही नहीं, जो अनंततम हो सकता है, हमको वो चाहिए।' अध्यात्म सिर्फ़ उनके लिए है।

और फिर वो जान जाते हैं कि जो आपको अधिकतम चाहिए, वो दुनिया के कहीं आगे से ही मिलेगा क्योंकि दुनिया में जो कुछ होता है वो तो सीमित होता है। उसकी लिमिटेशन, सीमाएँ, बाउंडरीज़ होती हैं कहीं-न-कहीं। आप दुनिया में कुछ भी ऐसा दिखा दीजिए जो अनंत है। नहीं है, हर चीज़ कहीं-न-कहीं शुरू होती है, कहीं-न-कहीं ख़त्म होती है।

तो आपको तय करना है कि आपकी चाहत कितनी है, आपकी आकांक्षा कितनी है, आपकी एम्बिशन कितनी दूर तक जा रही है। जिन्हें बस थोड़ा सा ही चाहिए ज़िन्दगी से — थोड़ा है, थोड़े की ज़रूरत है — उनके लिए एक साधारण जीवन काफ़ी होता है।

प्र३: जब शुरू में चुना था तब तो सही लगा था। लेकिन बाद में फिर जब समझ बढ़ी...

आचार्य: कुछ नहीं बोल पाऊँगा मैं। बात मेरे बोलने की नहीं, आपके चाहने की है। बोल-बोल कर किसी को मजबूर थोड़े ही कर सकते हो कि चाहो!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories