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हम ऐसे बदलेंगे नौकरशाही, राजनीति और देश को || आचार्य प्रशांत (2019)

Author Acharya Prashant

Acharya Prashant

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हम ऐसे बदलेंगे नौकरशाही, राजनीति और देश को || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, आप भी सिविल सेवा अधिकारी रहे हैं। मेरा सवाल ब्यूरोक्रेसी (अधिकारी-वर्ग) से है। मैं पुलीस में हूँ। आइएएस , आइपीएस हमारे ऊपर जो अधिकारी होते हैं, उनको देखा है, वो एकदम रोबोटिक ज़िंदगी जीते हैं।

उनको हमने कभी खुलकर हँसते हुए या खुलकर कभी अपनी भावनाओं को प्रकट करते नहीं देखा। उनको देखकर बहुत दुःख होता है कि ये कैसी ज़िंदगी जी रहे हैं, कितनी घुटन भरी ज़िंदगी है! इतनी बनावटी और सतही ज़िंदगी जी रहे हैं, तो दिखता है कि क्या फ़ाएदा ऐसे सोशल अचीवमेंट (सामाजिक उपलब्धि) का? इतने बड़े अधिकारी हैं, कलेक्टर बन गये, डीएम हैं, पूरा जिला चला रहे हैं, वाहवाही हो रही है, पर अंदर से सब सड़ा हुआ लगता है।

मेरा प्रश्न यह है कि क्या विभागों के प्रमुखों को जागरुक होना चाहिए, ताकी वो अपना विभाग बेहतर तरीक़े से संचालित रख सकें? हमें ये बहुत महसूस होता है कि यदि हमारे बॉस (अधिकारी) थोड़े और जागरुक होते तो वो और बेहतर निर्णय ले सकते थे, हमारा काम और बेहतर हो सकता था, मात्र कागज़ी ही नहीं बल्कि ग्राउंड लेवेल (ज़मीनी स्तर) पर भी।

आचार्य प्रशांत: ऐसा आप सोचती हैं अपने बॉस के बारे में, और आपका बॉस भी तो अपने बॉस के बारे में ऐसा ही सोचता होगा न? ब्यूरोक्रेसी में कलेक्टर कोई सीनियर (वरिष्ठ) आदमी नहीं होता है। कलेक्टर एक बहुत जूनियर , कनिष्ट अधिकारी होता है। पच्चीस-तीस साल के, पैंतीस साल के लड़के, यही सब कलेक्टर बन रहे हैं आजकल। उनके ऊपर भी तो उनका बॉस बैठा है। वो अगर चाहें भी कि उन्मुक्त होकर काम करें, तो उनके जो वरिष्ठ हैं, क्या उन्हें ये अनुमति देंगे? उनके जो वरिष्ठ हैं, उनके ऊपर भी कोई बैठा है और फिर उनके ऊपर भी कोई बैठा है। और जनतंत्र में जो सबसे ऊपर है, उसके ऊपर कौन बैठा है? उसके ऊपर आप बैठी हैं।

कलेक्टर के ऊपर कमिश्नर कमिश्नर के ऊपर सेक्रेटरी ; सेक्रेटरी के ऊपर प्रिंसिपल सेक्रेटरी और प्रिंसिपल सेक्रेटरी के ऊपर कौन बैठा है? मिनिस्टर। और मिनिस्टर के ऊपर कौन बैठा है? प्रधानमंत्री। और प्रधानमंत्री के ऊपर कौन बैठी है? जनता। माने आप। तो कलेक्टर बेचारे को वैसे ही चलना पड़ रहा है जैसी हमारी जनता है।

तभी तो नहीं गया न ब्यूरोक्रेसी में, क्योंकि वहाँ व्यक्तिगत स्तर पर कोई क्रांति की ही नहीं जा सकती। वहाँ पर आपको चलना ही वैसा पड़ेगा जैसा व्यवस्था चाहती है कि आप चलो। और व्यवस्था को निर्धारित करने वाले चंद लोग नहीं हैं। वास्तव में, उस व्यवस्था को निर्धारित करने वाला जन समूह है, जन सामान्य है, सड़क का आम आदमी है। और सड़क का आम आदमी कैसा है, ये मैं देख ही रहा था। तो मुझे समझ में आया कि ये सबकुछ अगर बदलना है, तो आम आदमी को बदलना पड़ेगा, क्योंकि आम आदमी ही तो प्रधानमंत्रियों को चुन रहा है। प्रधानमंत्री आम आदमी का प्रतिनिधि ही नहीं, प्रतिबिम्ब भी है। प्रतिनिधी ही नहीं है, आम आदमी का वो प्रतिबिम्ब है, रेफ्लेक्शन है। जैसा आम आदमी है, वैसा ही वो है।

अब मिनिस्टर साहब अच्छे-से-अच्छे ब्यूरोक्रेट पर भारी पड़ते हैं। पड़ते हैं कि नहीं पड़ते हैं? एक अनपढ़ मिनिस्टर कैबिनेट सेक्रेटरी पर भारी पड़ता है। पड़ता है कि नहीं पड़ता है? और कैबिनेट सेक्रेटरी ब्यूरोक्रेसी का सरताज है, उससे ऊपर कोई होता नहीं।

अभी दिल्ली में घटना घटी थी, सेक्रेटरी साहब पीट दिये गये। शायद छ: महीने पहले की बात होगी। दिल्ली सरकार के मंत्रियों ने मिलकर के मारा सेक्रेटरी को। अब ये वरिष्ठ आईएएस हैं, चीफ सेक्रेटरी को मारा।

तो मेरा दिमाग़ ख़राब था कि मैं वहाँ जाऊँ! खैर, मैं चला भी जाता तो कुछ बहुत होना नहीं था, एक-दो साल में मुझे निकाल ही देते वो। मैंने कहा, ‘तुम मुझे निकालो, इससे अच्छा मैं ही इस्तीफ़ा दे देता हूँ।’ तो धर दिया इस्तीफ़ा।

तो ये मत सोचिए कि बेचारे कलेक्टर की कोई गलती है। बहुत सारे ब्यूरोक्रेट्स को जानता हूँ, ऐसा नहीं है कि वे सब-के-सब मुर्दा लोग हैं; उनमें भी एक आग है। बहुत सारे तो आइआइटी इत्यादि से ही हैं — वहाँ से बहुत निकलते हैं। जो लोग फिर गये सिविल सर्विसेज़ में, उनको मैं जानता हूँ कि जब वो छात्र थे तब कैसे थे। बढ़िया लोग थे। उनमें भी जवानी थी, कुछ कर गुज़रने का जज़्बा था; शायद अभी भी होगा, पर जब तुम एक तंत्र में प्रवेश कर जाते हो — वो भी एक भारी-भरकम तंत्र में — तो पलड़ा हमेशा तंत्र की ओर झुका रहता है — तंत्र बहुत भारी है।

तुम तंत्र में बदलाव ला सकते हो। लोग कहते हैं, ‘ सिस्टम को बदलना है तो सिस्टम के भीतर जाना होगा इत्यादि।’ अरे बाबा! तुम अपनी औकात को देखो और सिस्टम को देखो। कौन किसको बदल देगा, बताओ? जब तुम्हारा और सिस्टम का आमना-सामना होगा, तो निश्चित रूप से दोनों एक दूसरे को प्रभावित करेंगे। तुम व्यवस्था को बदलोगे और व्यवस्था तुम्हें बदलेगी, पर ज़्यादा कौन बदलेगा?

सेब और धरती के बीच गुरुत्वाकर्षण होता है। जानते हो, जब सेब धरती की ओर आता है तो धरती भी थोड़ा सा सेब की ओर आती है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ सेब गति करता है, धरती भी गति करती है। पर सेब कितनी गति करता है? सेब ही सारी गति करता है, धरती इतनी कम गति करती है कि पता भी नहीं चलती। धरती का डिस्प्लेसमेंट (विस्थापन) इतना कम है कि पता ही नहीं चलेगा; सेब का ही पता चलेगा।

तो सेब और धरती में जो रिश्ता है, वही एक व्यक्ति और पूरे तंत्र में रिश्ता है। व्यक्ति भी तंत्र को बदलेगा और तंत्र भी व्यक्ति को बदलेगा, पर व्यक्ति तंत्र को आमूलचूल बदल दे; ऐसा बड़ा मुश्किल है। ऐसा भी तब होगा जब सड़क का आम आदमी बदले, क्योंकि तंत्र भी जो लोग स्थापित कर रहे हैं वो किसके प्रतिबिम्ब हैं? सड़क के आम आदमी के। तो जब तंत्र को बदलने के लिए सड़क के आम आदमी की ही सहमति चाहिए, तो फिर मैं तंत्र के भीतर कोशिश क्यों करूँ? मैं बाहर आकर के देश के आम नागरिक को बदलने की कोशिश करूँगा न — तो वो करा है।

आम नागरिक अगर बदल गया, तो सारी व्यवस्थाएँ बदल जाएँगी, बदल जाएँगी कि नहीं बदल जाएँगी? तो ज़रूरी है कि आम नागरिक की चेतना को जागृत किया जाए, फिर सारी व्यवस्थाएँ बदल जाएँगी। फिर कलेक्टर , कमिश्नर क्या, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति भी बदल जाएँगे; सब बदल जाएँगे! इसलिए छोड़ी थी मैंने सिविल सर्विसेस।

प्र: आपने कहा कि तंत्र भारी पड़ता है और अकेला व्यक्ति इतना शक्तिशाली नहीं होता है कि ज़्यादा बदलाव ला सके। और बदलाव की एक प्रक्रिया भी है जो जनता से शुरू होगी और तब जाकर वहाँ तक पहुँचेगी। पर जो लोग वहाँ तक पहुँचते हैं, जो बुद्धिजीवी लोग हैं, उनकी अपनी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है?

आचार्य: उनकी ज़िम्मेदारी ये है कि उनका बॉस उन्हें जो आज्ञा दे रहा है उसका पालन करें।

प्र: आचार्य जी, लेकिन मेरा ख़ुद का ये अनुभव है कि बॉस हमारे निर्णयों को दस प्रतिशत ही प्रभावित करते हैं, बाक़ी नब्बे प्रतिशत तो हम स्वयं करते हैं।

आचार्य: बिलकुल ग़लत बात है। मंत्री साहब जो आदेश दे रहे हैं, कौनसा सेक्रेटरी है जो उसमें रंच मात्र भी बदलाव ला सकता है? मंत्री साहब ने तो चुनावों के समय ही जनता को वादा कर दिया था कि मुफ़्त दाल-चावल, कलर टीवी, सब देंगे तुमको। ये बात मेनिफेस्टो (घोषणापत्र) में थी। मेनिफेस्टो क्या ब्यूरोक्रेट से पूछकर लिखा गया था? जवाब दो। चुनाव में ही मंत्री साहब जनता को वादा कर आये कि सबको इतने-इतने हज़ार रुपये मुफ़्त बाँटे जाएँगे।

और ये सब हुआ है, मैं काल्पनिक नहीं बिलकुल तथ्यात्मक उदाहरण दे रहा हूँ। और ये भी बोला गया है कि इतने किलो चावल मिलेगा, इतनी दाल मिलेगी, कलर टीवी मिलेगा; ये सब बोला गया है। अब ये सब बोल दिया गया है, मंत्री जी चुनाव में चुन लिये गये हैं, अब वो मंत्री बनकर बैठे हैं, तो वो बुलाते हैं, ‘आओ भई सेक्रेटरी साहब।’ सेक्रेटरी साहब कौन हैं? वो वरिष्ठ आईएएस हैं। उनसे बोलते हैं, ‘अब इतने हज़ार करोड़ रुपये जनता में मुफ़्त बाँट दो।’ क्या अब ये सेक्रेटरी मना कर सकता है? वो कहते हैं कि अब इतने लोगों को इस तरीक़े से मुफ़्त दाल-चावल देना है, सेक्रेटरी मना कर सकता है? तो आप क्या कह रहे हैं कि सेक्रेटरी नब्बे प्रतिशत तो अपने हिसाब से चलता है।

वो ये कर सकता है कि जो पॉलिसी (नीति) बना ही दी गयी है, उसके भीतर वो अपना कुछ विवेक, अपना कुछ डिस्क्रिशन लगा दे। लेकिन पॉलिसी बनाने वाला तो बॉस बैठा है न ऊपर; पॉलिसी को थोड़े ही प्रभावित कर देगा ब्यूरोक्रेट।

प्र: आचार्य जी, मैं वही कहना चाह रहा था कि जो उनका इंटरेक्शन (पारस्परिक विचार विमर्श) उसमें बदलाव संभव नहीं है। एक सेक्रेटरी और एक पॉलीटिशियन (राजनीतिज्ञ) के बीच का जो इंटरेक्शन है उसको तो बदलना मुश्किल है उसके लिए। पर सेक्रेटरी के हाथ में जो चीज़ें हैं, उनको तो वो बदल सकता है न?

आचार्य: ऊपर पॉलिसी बन गयी। ग़लत पॉलिसी को तुम सही-से-सही तरीक़े से भी अगर कार्यान्वित कर दोगे, इंप्लीमेंट कर दोगे, तो तुमने क्या कर लिया? कमिश्नर , कलेक्टर से क्या करवाएगा? पॉलिसी का एग्ज़ीक्यूशन ही तो करवाएगा न? और वो पॉलिसी कहाँ से आ रही है? वो ऊपर से आ रही है। जब मूलभूत पॉलिसी ही ग़लत है, तो उसका अच्छा एग्ज़ीक्यूशन करके भी तुम क्या पा लोगे? बोलो, क्या पा लोगे?

और ज़्यादा चूँ-चूँ करोगे, तो खैरनार याद है न? ज़्यादा अगर गड़बड़ करोगे तो किसी नियम ने कोई बाध्यता नहीं लगा रखी है कि कितने तबादले हो सकते हैं तुम्हारे और कितनी बार (सस्पेंड) निलंबित हो सकते हो — इस पर कोई अप्पर लिमिट (ऊपरी सीमा) नहीं होती है, हर छ: महीने में तुम्हारे तबादले होते रहेंगे।

प्र: एक ही दिन में दो बार हो जाते हैं।

आचार्य: अब कर लो जो करना है! ये सब कह कर के मैं नहीं चाहता हूँ कि अगर कोई एस्पायरिंग ब्यूरोक्रेट हों, तो वो हतोत्साहित अनुभव करें। न ही मैं ये चाहता हूँ कि सरकारी सेवाओं में जो लोग कार्यरत हैं — भले ही ब्यूरोक्रेट हों या कुछ भी हों — वो निराश या हतोत्साहित अनुभव करें, पर मैं तथ्य बता रहा हूँ। तथ्य ये है कि जब तक ज़मीनी बदलाव नहीं आता, तब तक ऊपर से बदलना बहुत मुश्किल है।

जनता अगर ग़लत हो, तो उसे अगर एक सही नेता मिल भी गया; तो उस सही नेता को चुनेगी नहीं, धोखे से अगर चुन भी लिया, तो उसकी सरकार को चलने नहीं देगी। तुम ये भूलो मत कि देश के जो सबसे पिछड़े हुए राज्य हैं वहाँ ही सबसे ग़लत नेता चुने जा रहे हैं। अगर लोग ही ग़लत हों और उन्हें किसी तरह से एक सही नेता मिल भी जाए, तो क्या वो उस सही नेता को जीने देंगे, काम करने देंगे? बोलो मुझे।

तो सबसे पहले लोगों को बदलना ज़रूरी है न। हम नेताओं को कहते रहते हैं, ‘ये नेता बुरा है।’ नेता को गाली देते हैं। एक सही उम्मीदवार चुनाव में खड़ा हो जाए, उसका जीतना देखा है कितना मुश्किल हो जाता है? हाँ, अब स्थितियाँ कुछ बदल रही हैं, क्योंकि लोगों में शिक्षा का स्तर बढ़ रहा है। सूचना बहुत तेज़ी से फैल रही है सोशल मीडिया के कारण, तो अब थोड़ा आसान हो गया है कुछ साफ़-सुथरे लोगों के लिए भी चुनाव लड़ना, राजनीति में प्रवेश करना। पर आज से दस-बीस साल पहले देखो तो बड़ी विकट स्थिति थी।

अभी चुनाव चल रहे हैं। जानते हो, लोकसभा का चुनाव अगर लड़ना है और गंभीरता से लड़ना है, तो कम-से-कम कितना खर्च करने के लिए तुमको तैयार रहना चाहिए? कम-से-कम? बोलो। पाँच करोड़ कम-से-कम! और विधानसभा लड़नी है तो एक-दो करोड़। कुछ अपवाद हो सकते हैं, पर मैं औसत की बात कर रहा हूँ। अब ये जो पाँच करोड़ लग रहा है, ये क्यों लग रहा है? क्योंकि हम लोग ऐसे हैं, जो ज़्यादा प्रचार कर देता है, वो हमें प्रभावित कर ले जाता है, हमारा वोट भी प्रभावित हो जाता है, हिल जाते हैं हम।

नहीं तो अगर हम जागृत लोग होते, तो कहते कि जो ज़्यादा प्रचार करेगा उसका प्रचार देख कर ही उसको वोट नहीं देंगे! जिसको इतना प्रचार और इतना विज्ञापन करना पड़ रहा है, वो आदमी ही ग़लत होगा। पर हम ऐसे लोग नहीं हैं न। हम तो चाहते हैं कि प्रचार हो, शराब की बोतलें बँटे, सौ-सौ रुपये में वोट कटें। नहीं तो ये सब क्या चीज़ें हैं — बूथ मैनेजमेंट ? क्या ज़रूरत है भाई बूथ मैनेजमेंट की? जनता आएगी, वोट डालेगी। ये बूथ मैनेजमेंट क्या होता है? पर इन सब की ज़रूरत पड़ती है, क्योंकि जनता जागृत नहीं है।

जनता जागृत होगी तो देश बदलेगा, तंत्र बदलेगा, नेता बदलेंगे, अफ़सर बदलेंगे, सब बदलेगा।

और जनता को जागृत किये बिना जो लोग चाहते हैं कि व्यवस्था बदल दें, तंत्र बदल दें, वो सपने ले रहे हैं; उन्हें सपने लेने दो। ऐसे बहुत लोग हैं जो ये बात ही नहीं करते कि जनमानस कैसा है। वो ये बात ही नहीं करते कि आम आदमी की चेतना कैसी है। वो कहते हैं, ‘नहीं, व्यवस्था बदलनी चाहिए। हम सिस्टम बदलेंगे।’ सिस्टम बदल कर क्या होगा? सिस्टम को चलाने वाले कौन? हम लोग! अच्छे-से-अच्छा सिस्टम दे दो, हम उसको तबाह कर देंगे! भारत का इतना सुंदर संविधान है, तो? जिन्हें बर्बादी करनी है वो तो कर ही रहे हैं न। और लोग अगर जागृत हों, तो संविधान की बहुत ज़रूरत ही नहीं है। करना ही क्या है फिर नियम-क़ायदे का? लोग ही जागृत हैं।

समझ रहे हैं बात को?

और लोगों के जागरण का क्या तरीक़ा है? (सत्संग की ओर इशारा करते हैं) वो ये है। तो मैं यहाँ बैठकर क्या कर रहा हूँ असल में? मैं यहाँ बैठकर असल में कलेक्टर , कमिश्नर , राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री इन सबको बदलने की एक छोटी सी कोशिश कर रहा हूँ।

आप बदलोगे, तो आपके माध्यम से सब बदल जाएँगे। यहाँ बैठकर हम सब सामूहिक रूप से कोशिश कर रहे हैं इस वक्त कि पूरी दुनिया बदल जाए। अध्यात्म कोई व्यक्तिगत मसला भर नहीं है कि मेरे व्यक्तिगत जीवन में शांति आ जाए।

हम अभी जो कर रहे हैं, वो देश सुधार, समाज सुधार, तंत्र सुधार, राजनीति सुधार, जगत सुधार का आंदोलन है। ये आमूलचूल क्रांति है जो इस वक्त यहाँ पर हो रही है।

ये न समझिएगा कि अध्यात्म तो बंद कमरे के भीतर भजन-कीर्तन और सत्संग का नाम है। यहाँ से लहरें निकल रही हैं जो हर दिशा में फैलेंगी और सबकुछ बदल डालेंगी, चुपके-चुपके। अभी आंदोलन छोटा है तो पता नहीं चल रहा, पर ये बढ़ेगा, विस्फोट की तरह फैलेगा और सब बदलेगा। सब कूड़ा-कचरा जल जाएगा; रोशनी होगी। हाँ, उसमें कितना वक्त लगेगा; पता नहीं। आप और हम जीते-जी वो सब देख पाएँगे या नहीं, पता नहीं। परन्तु ये क्रांति रुकने वाली नहीं है। ये जो हो रहा है, ये तो होकर रहेगा। हम-आप उसको देखें; न देखें, हमारे-आपके माध्यम से हो; न-हो, पर होगा ज़रूर।

प्र: इसमें होनी होनहार का भी कोई हाथ रहेगा या हमारे प्रयास से ही होगा?

आचार्य: आप उसके बिना प्रयास कर सकते हो क्या? आपने तो मान लिया जैसे आप और वो अलग-अलग हैं। आप कह रहे हो, ‘या तो वो करेगा या हम करेंगे।’ ऐसा भी तो हो सकता है कि आप उसके सेवक बनकर करो। तो सेवक जो करता है, वो वास्तव में कौन कर रहा है? मालिक कर रहा है। लग रहा है कि सेवक ने किया, पर कर तो मालिक ही रहा है। तो करेंगे आप ही, पर वास्तव में उसका कर्ता वो है। (उँगली से ऊपर की ओर इशारा करते हुए)

जब तक मन में भ्राँतियाँ हैं, धारणाएँ हैं, जब तक माया सिर पर चढ़ी हुई है, तब तक आप, बताओ मुझे, सही जनप्रतिनिधि भी कैसे चुनोगे? आप सीधा-सीधा सम्बन्ध देख पा रहे हो? कोई जगह पिछड़ी हुई क्यों है? कोई जगह अशिक्षित क्यों है? कोई जगह बिलकुल व्यर्थ किस्म के नेता क्यों चुनती है? कोई जगह अंधविश्वास में इतनी लिप्त क्यों है? ये सब बातें साथ-साथ चल रही हैं कि नहीं चल रही हैं? इसीलिए जन-जागरण आवश्यक है।

आदमी का मन प्रकाशित होगा, ज़मीन पर रौनक छा जाएगी। और मन ही अगर अँधेरे में है, तो फिर खंडहर भवन, टूटे हुए पुल, खस्ताहाल सड़कें, जर्जर स्कूल, लापता अस्पताल ये ही राज्य की हालत रहेगी। बाहर की उस खस्ताहाल, जर्जर हालत का कारण क्या है? आदमी का आंतरिक अँधेरा और अन्धविश्वास। जब तक तुम्हारे मन में अन्धविश्वास है, तब तक स्कूल, अस्पताल, सड़कें, बिजली, पानी इन सबकी हालत ख़राब ही रहेगी। और तुम बहुत ही भद्दे किस्म के नेता चुनते रहोगे। और अच्छे नेता आ भी जाएँगे तो तुम उन्हें काम नहीं करने दोगे।

इन सब बातों का पारस्परिक सम्बन्ध आप देख पा रहे हैं या नहीं देख पा रहे हैं? ये सब बातें आपस में जुड़ी हुई हैं। इसीलिए अध्यात्म हर तरह की तरक्की का केंद्र है। अध्यात्म का मतलब त्याग और सन्यास और विरक्ति ही नहीं होता; अध्यात्म का मतलब होता है — ज़बरदस्त प्रगति भी।

आदमी के मन के अँधेरे को हटाने का नाम है ’अध्यात्म’। और रोशन मन से आप क्या नहीं कर सकते; जो कुछ भी करोगे, बेहतर ही करोगे।

मैं इसीलिए कहता हूँ सबसे, ‘साथ दो।’ ये बात बस हमारी-तुम्हारी नहीं है। यहाँ लोग इतने ही बैठे हैं, पर ये बात पूरी दुनिया की है। सुनने में अजीब लगेगा, लेकिन इस कमरे में इस वक्त एक विश्वव्यापी आंदोलन चल रहा है।

‘अरे! कमरे में वैश्विक आंदोलन?’ हाँ, कमरे में इस वक्त वैश्विक आंदोलन चल रहा है, उसमें सहभागी बनो!

YouTube Link: https://www.youtube.com/watch?v=Nmkr2NXQxb0

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