प्रश्नकर्ता: सर, हृदय का अर्थ क्या है?
आचार्य प्रशांत: अर्थ, मन गढ़ता है। उसका कोई भी यदि आपको अर्थ दिया जाएगा तो आप उसके बारे में सोचना शुरु कर देंगे, उसके बारे में फिर से एक मानसिक धारणा बना लेंगे। अर्थ मत पूछिए, बस इतना समझ लीजिए कि मन सीमित है। और यह समझने के लिए आपको ईमानदारी से मन की सीमाओं को देखना पड़ेगा।
मन सीमित है और मन के आगे जो है, वो उस अर्थ में है नहीं जिस अर्थ में मन है। ‘है’ शब्द ही वहाँ पर लागू नहीं होता। लेकिन इतना तो पता है कि मन की सीमा है, मन रुक जाता है। सीमा है तो मन के आगे भी कुछ होगा, किसी और आयाम में होगा, अचिंत्य होगा, पर वो जो कुछ भी है जिसमें मन प्रवेश नहीं कर सकता, जो मेरी साधारण क्षमता के बाहर का है, उसे हृदय कहते हैं। उसके बारे में विचार आपको बहुत कुछ नहीं बता पाएगा।
बस ऐसे समझ लीजिए कि जीवन में वो जो भी कुछ है जिससे आपको सुकून है, शांति है पर जिसका कोई अर्थ, कोई कारण, न है, न खोजा जा सकता है, वो हृदय से संबंधित है।
क्यों आपको खुला आसमान भाता है? पक्षी की उड़ान क्यों आपको निस्तब्ध कर जाती है? इनके कोई कारण नहीं हैं। चलते-चलते अचानक ठिठककर खड़े क्यों हो जाते हैं? अनायास प्रेम क्यों पकड़ लेता है आपको? मन सोच-सोचकर भी कुछ पता नहीं लगा पाएगा। दुनिया की सारी सहूलियतें मिली रहें आपको, लेकिन फिर भी आज़ादी क्यों प्यारी होती है? मन इसका तो कोई कारण नहीं दे पाएगा। यह हृदय है।
वहाँ जाने की कोशिश मत करिए, वहाँ जाने के लिए तत्पर मत होइए। आपकी सतर्कता आपको वहाँ नहीं ले जा पाएगी। सतर्क होकर किसी को प्रेम में उतरते देखा है? हृदय को जिसे जानना हो, उसे तो हृदय से जीना पड़ेगा। जो दिल से जीते हैं वो दिल को जानते हैं। जो आत्मा से जीते हैं, मात्र वही आत्मा को जान पाते हैं।
पर आम जिज्ञासु की, साधक की अक्सर इच्छा यही रहती है कि बौद्धिक मार्ग से जान लूँ, परिभाषित कर लूँ, ख़्याल बनाकर ज़ेहन में बंद कर लूँ। तुम्हारे ज़ेहन में समा सकता, तो तुम ही ख़ुदा थे।