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हिंसा क्या है?
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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आचार्य प्रशांत: हिंसा क्या है? हिंसा की क्या परिभाषा है? हिंसा की हर परिभाषा से सबसे पहले ‘दूसरों’ को निकाल दें। हिंसा दूसरों से जुड़ी हुई चीज़ बहुत बाद में है, हिंसा का सर्वप्रथम आपसे ताल्लुक है। क्या है हिंसा?

श्रोतागण: दूसरे को कष्ट पहुँचना।

आचार्य प्रशांत: मैं जानता हूँ कि हिंसा की यही परिभाषा हमने सुनी है, यही हमें दी गई हैं कि ‘दूसरे को कष्ट पहुँचाना, दूसरे के प्रति वैमनस्य रखना’ — यही हिंसा है। मैं आपसे निवेदन कर रहा हूँ, हिंसा का ‘दूसरों’ से ताल्लुक बहुत बाद में है, सबसे पहले हिंसा का संबंध किससे है?

श्रोतागण: खुद ही टुकड़ों में जीना — इच्छा, डिजायर।

आचार्य प्रशांत:

थोड़ा और गहरे जाइये। अपने को किसी भी तरह से हीन मानना, छोटा मानना, सीमित मानना, परिभाषेय मानना — यही हिंसा है।

इस परिभाषा में यह तो शामिल है ही कि आप अपनेआप को ‘छोटा’ मान रहे हैं क्योंकि यदि आपने अपनेआप को छोटा माना तो आपने अपने इर्द-गिर्द एक सीमा खींच दी, इस परिभाषा में यह भी शामिल है कि आप अपनेआप को बहुत ‘बड़ा’ मान रहे हैं क्योंकि आप अपनेआप को जितना भी बड़ा मान लें, उस बड़प्पन की भी सीमा ज़रूर होगी। आप जब भी अपनेआप को कुछ भी मानेंगे तो एक सीमा ज़रूर खीचेंगे। जहाँ सीमा खिंचती है, उस सीमा के पार ‘दूसरे’ शुरू हो जाते हैं। दूसरे बाद में आते हैं, सीमा आप पहले खींचते हैं, और जहाँ सीमा खिंची, और

सीमा के पार दूसरे आए, सीमा के पार वाला तो सदा दूसरा और पराया कहलाएगा ही न? — यह हिंसा है।

और दूसरों को दूसरा कहने से पहले आप अपनेआप को सीमित कहते हैं। आपकी सीमा ना हो तो दूसरे आएंगे कहाँ से? और फर्क नहीं पड़ता, फिर से कह रहा हूँ, कि वह सीमा छुटपन की है या बड़प्पन की, सीमा चाहे कहीं भी हो। इसलिए मैंने कहा अपनेआप को छोटा मानना हिंसा है क्योंकि आप अपनेआप को जो भी मानेंगे, वह छोटा ही होगा।

कुछ लोग हैं जो अपनेआप को ‘छोटा’ मानकर अपनेआप को छोटा कर लेते हैं और कुछ होते हैं जो अपनेआप को ‘बड़ा’ मानकर अपनेआप को छोटा कर लेते हैं। जो अपनेआप को ‘छोटा’ मानते हैं उनको यह विचार रहता है कि उन्होंने अपनेआप को छोटा माना इस कारण वो छोटे हैं; जो अपनेआप को ‘बड़ा’ मानते हैं उनको यह विचार रहता है कि वो तो बड़े हो गए मानने के कारण। जो अपनेआप को बड़ा भी मानते हैं उन्होंने भी अपनेआप को बहुत छोटा कर लिया है क्योंकि उन्होंने सीमा तो खींच ही दी न।

यही हिंसा है — अपने विषय में लघुता की मान्यता रखना।

अपने विषय में कोई भी मान्यता लघुता की ही होती है। तो अपने विषय में कोई भी मान्यता रखना हिंसा है। जहाँ आप अपनेआप को घिरा हुआ और छोटा मानने लग गए, उसी क्षण आपको आवश्यकता महसूस होगी दुनिया से प्रतिरक्षा की। आप कहोगे — मैं इतना- सा हूँ, संसार इतना बड़ा और संसार चूंकि मैं नहीं हूँ, इसलिए संसार मुझसे पराया हुआ। और जो मुझसे पराया है, वह मेरी इच्छा पर तो चलेगा नहीं और उसपर कोई बाध्यता भी नहीं है कि वह मेरा हित सोचे, क्योंकि मुझसे तो वह अलग हुआ न? तो वह मुझपर आक्रमण कर सकता है, वह मेरे हितों को क्षति पहुँचा सकता है। अब मेरे लिए आवश्यक हो जाता है कि मैं उससे दूरी रखूँ, दुराव रखूँ, वैमनस्य रखूँ, मुझे अब उसे दुश्मन की तरह देखना है — यही हिंसा है।

हिंसा प्रतीत ऐसा होता है जैसे किसी ख़ास व्यक्ति या वस्तु के प्रति हो, पर वह सिर्फ प्रकट होती है ख़ास मौकों पर या ख़ास लोगों पर, हिंसा के बीज मन में होते हैं। जो इंसान किसी एक स्थिति में या किसी व्यक्ति के प्रति हिंसक है, वह सदा हिंसक है। हाँ, दूसरे मौकों पर हो सकता है उसकी हिंसा व्यक्त ना होती हो, पर मौजूद रहेगी, सूक्ष्म तरीकों से अपनेआप को अभिव्यक्त करती रहेगी। तो हिंसा को इसीलिए, सबसे पहले, कोई ‘दूसरों’ से संबंधित बात ना मानें, दूसरी बात, उसे

किन्हीं खास मौकों, स्थितियों या व्यवहार से संबंधित बात ना मानें। आप किसी पर चिल्ला दिए — मात्र यह हिंसा नहीं है; आपको कोई पसंद नहीं है — मात्र यह हिंसा नहीं है।

हिंसा जीने का एक अव्यवस्थित, अंधकारपूर्ण तरीका है।

प्रश्नकर्ता: अलग होने का भाव?

आचार्य प्रशांत: हाँ, लेकिन उससे भी पहले हिंसा भावना है कि मैं इतना-सा हूँ — मैं यह हूँ।

प्रश्नकर्ता: यह विकृति की भावना से या फिर अलगाव की भावना से शुरू होता है?

आचार्य प्रशांत: यह ‘अहम’ भाव से शुरू होता है।

प्रश्नकर्ता: मतलब विकृति की भावना से?

आचार्य प्रशांत: पर उसे आप विकृति की भावना भी कैसे कह सकते हैं? क्योंकि विकृति कहने में तो तुलना है, आप कहते हैं कि कुछ है जो विकृत नहीं है, और उसकी तुलना में ये विकृत है। यदि ये पता ही होता कि क्या है जो विकृत नहीं है तो विकृति आती कहाँ से? तो उसे अभी विकृत भी ना कहें। वो तो उसपर एक नाम चिपकाने की बात हो गयी। अभी तो उसे बस देखें कि ऐसा है। मेरी जो आत्म-धारणा है वह ऐसी है। अब आते हैं ‘हँसी’ और ‘हिंसा’ पर, इनका क्या संबंध हुआ? आप यदि छोटे हैं, आप यदि भयाक्रांत हैं, तो आपको राहत ही किस बात से मिलनी है?

प्रश्नकर्ता: जब कोई मुझसे भी छोटा हो।

आचार्य प्रशांत: जब कोई आपसे भी छोटा हो, तब वह आपके हितों पर आघात नहीं कर सकता। आप हँस दोगे — हमारी सब प्रसन्नताएँ और कुछ नहीं हैं, बस राहत की अभिव्यक्ति हैं। कोई डरा हुआ है, तनावग्रस्त आदमी राहत अनुभव कर रहा है, वह हँस देता है। या कोई है जो आप पर आक्रमण करने आ रहा है और आपने वह आक्रमण विफ़ल कर दिया, जैसे भी किया अपनी नजरों में किया। हम सपने में भी बहुत आक्रमण झेलते हैं और उन आक्रमणों को विफ़ल करते चलते हैं, आप हँस दोगे। आप पाओगे कि आपका नाश होने जा रहा था और आपकी जगह कोई और नष्ट हो गया, आप हँस दोगे। आप पाओगे कि आप की विनष्टी टल गई, आप हँस दोगे। आप पाओगे कुछ ऐसा हो गया जिसने आपके सीमित होने के अहसास को ज़रा-सा शिथिल कर दिया, आप हँस दोगे। यह हमारी हँसी है, हिंसा के अतिरिक्त यह और है क्या? क्योंकि दोनों में भाव एक ही है — मैं छोटा हूँ।

लेकिन आप ज़रा रोज़मर्रा के जीवन को देखें। आप किसी के सामने बैठे हों और आप हँस रहे हों तो आपसे कोई नहीं कहेगा कि आप हिंसक हो रहे हैं। बल्कि कहा जाएगा आप तो सौहार्द से भरे हुए हैं। दो व्यक्ति बैठे हों और हँस रहे हों, कोई कहेगा कि हिंसा है? हमने तो हँसी और हिंसा को एक दूसरे का विपरीत समझ रखा है। हम कहते हैं क्रोध में हिंसा है, हम कहते हैं ना हँसने में हिंसा है, लेकिन जिन्होंने जाना है, जिन्होंने गौर किया है, उन्होंने साफ़ देखा है कि हमारी हँसी ही तो हिंसा है।

ज़रा देखिएगा उन सब मौकों की ओर जब आप हँसे, और ना पाएँ आप वहाँ पर अपने सीमित होने का एहसास, और ना पाएँ आप वहाँ पर किसी और का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष दुःख, तो बात कीजिएगा! मरे हुए जानवर का स्वादिष्ट पकवान जब परोसा जाता है तो मज़ा खूब आता है न? हँस भी उठते हैं! हँसी और हिंसा का संबंध दिख रहा है? दौड़ में दूसरों से जीतने पर क्या प्रसन्नता उठती है! और फ़िर आपके जो प्रियजन होंगे, मित्रगण, परिवारजन, वह सब आकर के हँसते हुए गले लगा लेंगे। जब वह आपको गले लगा रहे होंगे तो पीछे वह सब रो रहे होंगे जिनको आपने अभी-अभी दौड़ में पराजित किया है। हँसी और हिंसा का संबंध दिख रहा है? आप किसी को थप्पड़ मार दें और वह रोने लग जाए तो आप कहेंगे कि यह हिंसा है, और दौड़ में जीतने पर आप अपने प्रियजन को गले लगा रहे हैं और दौड़ में हारने वाला रो रहा है, आपको एहसास ही नहीं होगा कि यह हिंसा हुई। और यह सब तो बड़े खुले मामले हैं, जहाँ पर आँखों से दिख रहा है कि हिंसा हुई।

थोड़ा यह बात हमें झंझोड़े, लेकिन मैं यह कह रहा हूँ कि और अन्य अवसर भी हैं जहाँ हमें सुख की प्रतीति होती है, वहाँ कोई न कोई और होता है जो रो रहा होता है। और मैं आपको कह रहा हूँ कि जहाँ कोई और रो रहा हो वहाँ समझ लीजिए कि आपके भी आने वाले रुदन की तैयारी चल रही है। किसी दूसरे के रोते आप कभी अछूते नहीं रह सकते। कहीं भी कोई भी और रोएगा तो वह रोना आपका ही होगा, और हमारी हँसी आती ही इसी शर्त पर है कि कोई और रोए। हम जीते, तो हँसी; हम बचे, तो हँसी; हम आगे बढ़े, तो हँसी; तुलना देख रहे हैं न? सब कुछ द्वैतात्मक। हँस हम सकते ही नहीं जब तक किसी दूसरे का नुकसान ना हुआ हो। हो सकता है कि वह नुकसान आपने जानबूझकर ना किया हो, हो सकता है वह नुकसान अप्रत्यक्ष हो, छुपा हुआ हो, पर कहीं न कहीं दूसरे का नुकसान है ज़रूर। आपको किसी को कुछ पैसे देने हैं और अगर वह कम पैसों में मान जाए तो आपकी हँसी छूट जाती है। हँसी तभी हुई न जब किसी और का नुकसान हुआ हो?

बुद्ध की मुस्कान वह मुस्कान है जिसमें बुद्ध के मुस्कुराने के साथ पूरा अस्तित्व मुस्कुराता है। वहाँ कोई विभेद नहीं है। वहाँ यह बात नहीं है कि हँसूंगा मैं तब, जब कहीं न कहीं कोई रो रहा हो। बुद्धत्व की परिभाषा ही यही है कि अब आपकी मुस्कुराहट समूचे अस्तित्व की मुस्कुराहट हो गयी है। अब बात नफ़े-नुकसान की नहीं रही। अब बात जोड़-घटाव की नहीं रही। अब आपको हँसने के लिए किसी दूसरे को रुलाना नहीं पड़ता।

प्रश्नकर्ता: मैडिटेशन में बड़ी हँसी आती है, अनियंत्रित हँसी, पत्ता भी हिले तो हँसी आने लगती है।

आचार्य प्रशांत: वो कैथेक्सिस है। वो हँसी आ नहीं रही है, वो संग्रहित हँसी बाहर फूट रही है जैसे भीतर का मलवा बह जाने को तैयार हो। वो सब बह जाने दीजिए। जब वो सब बह जाएगी तब आप ‘अहास्य’ की स्थिति में पहुँचेंगे। वहाँ पर वह झीनी मुस्कुराहट है, मैं जिसकी बात कर रहा हूँ बार-बार।

प्रश्नकर्ता: तीन-दिन तक हँसी।

आचार्य प्रशांत: अरे! तीन दशकों की, तीन कल्पों की संचित वृत्तियाँ हैं, तीन दिन क्या होता है? इसीलिए ‘ध्यान’ में जितना अनुभव आपको हँसने का हो सकता है, ठीक उतना ही अनुभव किसी दूसरे को ‘उदासी’ का भी हो सकता है।

कितने ही लोग हैं जो ध्यान में जाते ही रोना शुरू कर देते हैं या जिनको भीतर से गहरी ऊक-बीक, हलचल, अशांति का एहसास होता है। वह कहते हैं कि वैसे आम जिंदगी में तो हम ठीक रहते हैं पर जैसे ही ध्यान में बैठते हैं वैसे ही भीतर कुछ कुलबुलाने लगता है। वह सब वही है। वह कभी हँसी के रूप में अभीव्यक्त होता है, और कभी बेचैनी के रूप में।

प्रश्नकर्ता: दोनों भी होते हैं। हँसते-हँसते अचानक से रोना आ जाता है।

आचार्य प्रशांत: बिलकुल हो सकता है। ले देकर वह सिर्फ मन की अकुलाहट है। वह सिर्फ मन की संचित वृत्तियाँ हैं। वह आपका पूरा अतीत है जो ध्यान के क्षणों में साफ हो जाने के लिए आतुर हो रहा है।

प्रश्नकर्ता: वहाँ पर भी कोई छुपी हुई हिंसा है?

आचार्य प्रशांत: बिलकुल है, लेकिन अब वह हिंसा तिरोहित हो रही है। वह हिंसा ही है जो अब बही जा रही है। समझ लीजिए कि जैसे बंदूक की गोलियाँ ही हैं जो अब दुश्मन पर नहीं चल रही हैं बल्कि यूँ ही बस ज़मीन पर गिर रही हैं। ज़हर है जो अब किसी को पिलाया नहीं जा रहा है बल्कि यूँ ही गिरा दिया जा रहा है, बहा दिया जा रहा है। उसको जाने दीजिए और जाते-जाते भी कुछ मज़ा दे जाता है, तो लूट लीजिए, क्या बुराई है? आदत तो पुरानी है न हँसी से ही मज़ा आता है।

हँसी क्षद्म तरीका है वहाँ तक पहुँचने का जहाँ आपको स्थित होना ही है। मैं इतनी देर से बोल रहा हूँ, कृपा करके ये ना समझें कि मुझे हँसने से कोई दुश्मनी है। मैं खुद भी बड़े अट्हास मारता हूँ। लेकिन हँसी कोई तरीका नहीं बनना चाहिए। हँसी को सड़क या माध्यम नहीं बनना चाहिए अपनेआप तक पहुँचने का। अपनेआप तक इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि हँसना हमेशा आनंद की तलाश में होता है; हँसी को जोड़ा हमेशा आनंद से जाता है। कोई कहता है बड़े आनंदित हैं इसलिए हँस रहे हैं — यह व्यर्थ की बात है। आनंद इतनी सुलभ चीज़ है कि उसके लिए आपको कुछ भी करने की ज़रूरत नहीं है, यहाँ तक कि हँसने की भी नहीं। आप ना हँसे तो भी आप आनंदित हैं। बल्कि यदि आपने हँसी का छद्म आवरण ओढ़ लिया तो आपका आनंद होते हुए भी आप से ही छुप जाएगा।

हँसी का दमन मत करिएगा। हमारे भीतर बहुत सारी हँसी और बहुत सारा क्लेश छुपा हुआ है, वह अभिव्यक्त हो तो उसे अभिव्यक्त होने दीजिए, पर उसके प्रति कदापि यह भावना मत रखिएगा कि यह आनंद है या कि प्रेम है, या भक्ति है, या सत्य है — ना आँसुओ को सत्य मान लीजिएगा, ना हँसी को आनंद मान लीजिएगा। वह आते हैं, बहते हैं, उन्हें बहने दीजिएगा। उस बहने देने में आपकी असीम मुस्कुराहट है और वो बहुत सुंदर है।

यह अभी पिछले सौ-दो सौं सालों का प्रचलन है कि लोगों ने हँसी पर इतना मूल्य रखना शुरू कर दिया है। इससे पहले तो कभी ऐसा हुआ भी नहीं। आप नानक को या कबीर को हास्य की प्रशंसा में उक्तियाँ कहते नहीं सुनेंगे। उपनिषदों को आप मौन में पायेंगे, हँसी में नहीं। हाँ, उनके मौन में खिलखिलाहट पूरी है। हँसता-नाचता हुआ मौन है।

यह तो अभी सौ-डेढ़- सौ, ढाई-सौ साल, औद्योगिक क्रांति के बाद की बात है। जब उत्पादन के कारण, सतही संपन्नता के कारण, आदमी की बेचैनी और दुःख और बढ़ गया कि इस तरह की बातें प्रचलन में आ गयीं — पॉज़िटिव थिंकिंग, हँसते हुए चित्र। अमेरिकन सीईओ की कोई भी फोटो आपको शांत नहीं मिलेगी, उससे कम-से-कम दो दर्जन दाँत बाहर आ रहे होंगे। पर आप मुझे दिखा दो कि आपने कब महावीर के दाँत देखे? कृष्ण भी चाहे युद्ध में हों, चाहे रास में हों, उनमें गहराई पूरी है, पर हँसी दिखा दो। मुस्कुराहट है उनकी मोहक, पर एक सस्ती, बिकाऊ हँसी उनके चेहरे पर नहीं है। और मुझे लग रहा है मैंने बहुत उचित शब्दों का प्रयोग किया है — सस्ती और बिकाऊ। पश्चिम ने जो हमें हँसी दी है वह यही है — सस्ती और बिकाऊ। जिसके कारण जो गहरी और मूल्यवान मुस्कुराहट है, वो कहीं दब गई है। आज आप कहीं पर जाते हैं कि फोटो खींच दो मेरी, तो फोटोग्राफर कहता है, “हँसो!” उसको किसने सिखाया कि हँसना आवश्यक है? किसने? किसी न किसी ने सिखाया है। अगर फोटो खींचने वाले में गहराई है, अगर उसने ज़रा जाना है, अध्ययन किया है तो उसको अच्छे से पता होगा कि इस हँसी का इतिहास क्या है। इस हँसी का इतिहास है — उत्पादन में क्रांति।

प्रश्नकर्ता: रावण था जैसे।

आचार्य प्रशांत: मुझे बहुत शक है इस बात में कि रावण वैसे ही हँसता था जैसा हम उसको दिखाते हैं। रावण तो बेचारा बहुत छोटा रावण था, हँसते तो आज के रावण हैं। उसके ‘सिर्फ’ दस सर थे।

मीरा के, बुल्लेशाह के गीत आपको आनंद से भर देंगे — छलक उठेंगे आप, बिलकुल लबरेज़ हो जाएँगे। पर दिखाइए मुझे मीरा ने कहाँ ठहाका मारा? दिखाइए? आनंद वहाँ पूरा है, पर वह दाँत फाड़ने वाली हँसी कहाँ है? और उससे ज़्यादा आनंदित कोई हुआ नहीं आज तक। हमें पता भी नहीं होता न कि हम किसका अनुकरण कर रहे हैं। कोई ज़रूरी नहीं है कि आपने अमेरिका की यात्रा की हो, कोई ज़रूरी नहीं है कि आपने आज तक पासपोर्ट भी बनवाया हो, ज़रूरी नहीं है किसी कॉर्पोरेशन ने, उसके मालिक ने, उसके सीईओ ने आपको दिक्षित किया हो, लेकिन फिर भी आप उसके चेले हैं। मुखौटे पहनने की यही मजबूरी है। मुखौटा क्या है? कहाँ से आ रहा है? किसने बनाया? क्यों बनाया? कब बनाया और कैसे पहना दिया? यह हमें पता भी नहीं होता। हमें पता भी नहीं होता कि हम जिनके नक्शे-कदम पर चल रहे हैं, वे कौन हैं?

आज हमने जो कपड़े धारण कर रखे हैं, क्या हमें पता है कि ये आ कहाँ से रहे हैं? यह हमें किसने और क्यों पहनने सिखा दिए?

कल मैं एक जगह पर था, उसका नाम था वेस्टसाइड, रखने वालों ने चुन के नाम रखा है। आपको पता भी नहीं चलेगा कि आपको नाम क्यों अच्छा लग रहा है पर आपको नाम अच्छा लग जाएगा। गौर करेंगे तो तुरंत समझ जाएँगे कि नाम अच्छा क्यों लग रहा है। और गौर करेंगे तो फिर आप यह भी समझ जाएँगे कि उस जगह पर जो आपको कपड़े मिल रहे हैं वह आपको क्या दीक्षा देंगे। हमें पता भी नहीं है कि हमारी हँसी हमें किसने सिखा दी है, हम नहीं जानते। लेकिन इतना मैं आपको बता दूँ — जिसने भी आपको हँसी सिखाई है वह बहुत अधूरा है। और इतना ज़्यादा हँसते हैं हम कि जो बेचारे शांत बैठे होते हैं उन्हें अपने ऊपर शक हो जाता है, वो ना भी चाहें तो हीन भावना से भर जाते हैं कि — ‘हमारे साथ ही कुछ गड़बड़ है। देखो, कितने खुश हैं सब। कतई आनंद फूट-फूटकर बह रहा है। हम ही में कुछ कमी रह गई। हमें नहीं आ रही हँसी।’

प्रश्नकर्ता: हमारा सेंस ऑफ ह्यूमर (हास्यवृत्ति) नहीं अच्छा है।

अचार्य प्रशांत: और सेंस ऑफ ह्यूमर बहुत लाज़वाब चीज़ होती है। मैं भी उसका बहुत कायल हूँ। मुझे कबीर का सेंस ऑफ ह्यूमर बहुत पसंद है। एक-एक दोहा चुटकुला है। कितना सूक्ष्म उनका व्यंग है। सेंस ऑफ ह्यूमर का ‘हो हो हो’ करके हँसने से क्या लेना देना है? जब कहते हैं कबीर

बरसे कंबल भीगे पानी

तो यहाँ पर है सूक्ष्म हास्य, पर इसमें हमें हँसी नहीं आएगी, हमें तो चुटकुले चाहिए। ‘संता ने बंता से कहा’ और आप हँस दिए। देवेश जी (एक श्रोता) हैं यहाँ पर। चुटकुलों की वेदशाला है उनकी, वहाँ से उत्पादन होता है।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, ये जो चुटकुले हैं, इनका संबंध भी उसी से है कि जो लोग ज़्यादा दुःखी हैं, उनके पास ज़्यादा अच्छे जोक्स हैं?

आचार्य प्रशांत: बिलकुल! देखो, जिसके पास आँख हो, उसके लिए जो कुछ सामने चल रहा है वही चुटकुला है। मुझे चुटकुलों से कोई समस्या नहीं है, मुझे चुटकुलों के भौंडेपन, उनकी अग्लीनेस, उनके खुरदुरेपन, उनकी स्थूलता से समस्या है।

एक परिवार बाज़ार की ओर जा रहा है, मेरी दृष्टि में इससे गहरा चुटकुला नहीं हो सकता। यदि आप जीवन को जानते हैं, यदि आपने स्वयं को समझा है, तो बस इतना देखना काफ़ी है कि, ‘एक परिवार बाज़ार की ओर जा रहा है’, और दिनभर मुस्कुराइए इस बात पर। पर चूंकि उस महीन के लिए हम अनुपलब्ध हो गए हैं तो इसीलिए हमको भद्दे चुटकुले चाहिए होते हैं। भद्दे की ज़रूरत क्या है? जो कुछ है, वो अपनेआप में एक चुटकुला ही तो है। चुटकुला माने क्या? जहाँ कुछ विसंगति हो, जहाँ कुछ गड़बड़ हो। देखिए, अगर कुछ गड़बड़ ना हो वहाँ, आपको हँसी नहीं आ सकती। चुटकुलों में भी आप वही तलाशते हैं कि कुछ वैसा नहीं है, जैसा होना चाहिए और फिर आप हँस देते हैं। सबसे पहली विसंगति तो संसार स्वयं है। आप संसार को देखते हैं, यह पहला द्वैत है, पहली विसंगति है। विसंगति समझते हैं न? — समथिंग दैट इज़ आउट ऑफ प्लेस, समथिंग दैट इज़ नॉट इन ऑर्डर (कुछ ऐसा है जो क्रम से बाहर है), तो सबसे पहले तो ये सब कुछ जो दिख रहा है, यह सब कुछ जो घटित हो रहा है, उसका होना और दिखना ही विसंगति है। यही चुटकुला है, अब और क्या चाहिए?

बुद्ध इसीलिए तो हर समय मुस्कुरा रहे होते हैं। आँख खोलते नहीं है कि — चुटकुला। हाँ, उनका चुटकुला निरंतर है, शाश्वत है, और सूक्ष्म है। हमारे चुटकुले कभी-कभी आते हैं और तब आते हैं जब हम दुःखी होते हैं और बड़े भद्दे होते हैं। एक पत्ता गिरा पेड़ से — यह बुद्ध के लिए चुटकुला है। नदी बही — चुटकुला है। एक स्त्री पानी भर रही है — चुटकुला है। वो मुस्कुराते थे और मुस्कुराने का कोई कारण नहीं है। इतना स्पष्ट है कि चुटकुला है, कि आप मुस्कुराए जा रहे हैं। आप करोगे क्या जाकर के उन सब अश्लील कहानियों को पढ़के कि जिन्हें हम चुटकुलों का नाम देते हैं? कोई किसी से मिला — चुटकुला। कोई किसी से बिछुड़ गया — चुटकुला। मुस्कुराते रहिए, लगातार मुस्कुराइए, यही बुद्ध की मुस्कुराहट है। आज कंधे में ज़रा दर्द है — चुटकुला ही तो है। आज मन ज़रा प्रसन्न अनुभव कर रहा है, आज मन ज़रा खिन्न है — दोनों चुटकुले हैं। क्या फूल खिला क्या फूल झढ़ा — चुटकुला। मुस्कुराइए! कोई पूछे क्यों मुस्कुरा रहे हैं? उसको बोलो मुस्कुराकर ही समझोगे, समझा के नहीं समझा सकते। देख लो ध्यान से, तो तुम भी मुस्कुराओगे; नहीं देखा ध्यान से और हमसे कहोगे समझा दो, तो भाई बात समझाने की नहीं है। अरे! भद्दे से भद्दा चुटकुला भी अगर अर्थ करके किसी को समझाना पड़े तो अपना असर खो देता है, तो अस्तित्व तो सूक्ष्मतम चुटकुला है, वहाँ पर भी अगर समझाने की ज़रूरत पड़ गई, फिर तो बात ही गई। मौका चूक गया।

तो दो ही तरह के लोग होते हैं: एक — जिनको दिखाई पड़ता है। जिनको दिखाई पड़ता है उनके भीतर एक बड़ा महीन हास्य लगातार बजता रहता है, गूँजता रहता है, और दूसरे तरह के लोग होते हैं जो — पूछते रहते हैं कि मुस्कुरा किस बात पर रहे हो? बेचारे फिर भी नहीं पूछ पाते क्योंकि मुस्कुराहट इतनी झीनी होती है कि दिखाई नहीं पड़ती। इतनी झीनी होती है कि कई बार लोग उस मुस्कुराहट को उदासी समझ लेते हैं। आप तो शांत बैठे हैं, मुस्कुरा रहे हैं और वो कह रहे हैं, “क्या बात है, उदास क्यों बैठे हो? हँस क्यों नहीं रहे?” मिले हैं न ऐसों से जो शांति को उदासी समझते हैं? वह कहेंगे कि बड़े गंभीर हो, कुछ हो गया क्या? तुम कहो कि हमारे साथ जो भी हुआ है, वह उससे कम खतरनाक है जो तुम्हारे साथ हुआ है! पर नहीं, हम तो ऐसों को खुश-मिज़ाज या हँसमुख का नाम देते हैं। हम कहते हैं यह देखिए — इसने जीना जाना है, इसका मुँह हर समय फटा ही रहता है।

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कभी-कभी ऐसा लगता है कि किसी बात पर जैसे बहुत तेज़ हँसी आएगी, फिर वो बंद ही नहीं होती, आती ही रहती है।

आचार्य प्रशांत: वही आखरी बात! उस हँसी को खोजो जो कभी बंद ना हो, और उसे बहुत महीन होना ही पड़ेगा, क्योंकि महीन नहीं है तो थका देगी और बंद हो जाएगी। उस हँसी को खोजो न जो तुम्हें कभी धोखा ना दे, जो जाने का नाम ना ले, जो विषम-से-विषम परिस्थिति में भी तुम्हारे साथ बनी रहे — उस हँसी को खोजो, वही है जीने की कला। हँसी जितनी ज़्यादा प्रकट और भौंडी होगी, वह उतना ज़्यादा तुम्हें परेशान कर देगी। किसी छोटे बच्चे को पकड़ लो और उसको गुदगुदी करने लग जाओ, वह खूब हँसेगा, और अगर तुम कहीं पांच मिनट तक करते रहे तो बेचारे की मौत भी हो सकती है, हँसते-हँसते मर जाएगा। अपने साथ ही करलो, बड़ों को भी गुदगुदियाँ होती हैं, पाँव के तलवे वगैरह में बोलो किसी से करने को, और फिर देखना, दो मिनट, तीन मिनट बीतते-बीतते उससे कहोगे छोड़-छोड़-छोड़, और नहीं छोड़ेगा

तो वही टांग देकर मारोगे उसको। हँसी और हिंसा का संबंध देखा है? जो ज़्यादा हँसाएगा, फिर उसको एक लात! वह हँसी खोजो जो थकाती ना हो और जाती ना हो, जिसके साथ निरंतर रह सको, यहाँ तक कि सोते वक्त भी रह सको। और मैं आश्वस्त करता हूँ, उसको जान लिया तो सोते-सोते भी मुस्कुरा रहे होगे। अक्सर छोटे बच्चों को देखना कभी गौर से, वो सो रहे होते हैं और मुस्कुरा रहे होते हैं। वह मुस्कुराहट हमसे छिन जाती है क्योंकि हम हँसना सीख जाते हैं। आपको मालूम है, मनुष्य अकेला जीव है जो हँसता है। छोटा बच्चा भी हँसी नहीं मुस्कान लेकर पैदा होता है। हँसी तो हमारी करीब-करीब पूर्णतया सामाजिक होती है। अस्तित्व में आप कुछ भी और ऐसा न पाएँगे जो हँसता हो, मुस्कुराता सब कुछ पायेंगे। पेड़- पौधे भी मुस्कुराते हैं, फूल मुस्कुराते हैं, जानवर मुस्कुराते हैं — हम अकेले हैं जो हँसते हैं।

लेकिन हँसी का दमन मत करने बैठ जाइयेगा, वह भी एक और मुखौटा है। हँसिये! पर रोती हुई हँसी नहीं, मुस्कुराती हुई हँसी हो। रोइए! पर हँसता हुआ मत रोइए। हम तो रो भी रहे होते हैं तो उसमें हँसने की कामना छुपी हुई होती है। अक्सर रोते ही इसीलिए हैं कि हँस नहीं पाए। मुस्कुराते हुए रोइए। हम यहाँ पर कोई खाली लोग नहीं बैठे हैं, हम सब के पास हमारा इतिहास है, हमारे मन की पूरी सामग्री है, वह शेष रहेगी और वह अपनेआप को अभिव्यक्त करेगी — हँसी भी आएगी और क्रांति भी आएगी। ना हँसी का दमन करिएगा ना आँसुओं का। अनुरोध बस यह है कि हँसी और आँसू, दोनों के मध्य आप मुस्कुराते रहें।

हममें से कई लोगों को उलझन हो रही होगी। कुछ चेहरों पर उलझाव देख रहा हूँ। उलझन इसलिए हो रही है क्योंकि ‘मन’ जब भी सोचेगा, द्वैत में सोचेगा। मन को आप कहेंगे हँसना नहीं है तो वो तुरंत किस निष्कर्ष पर पहुँचेगा? कि रोना है। मैं आपको हँसी के विपरीत छोर पर नहीं ले जा रहा। मैं आपसे कह रहा हूँ — हँसना और रोना एक हैं, और दोनों मुखौटा हैं, और इनके पार कुछ है। उससे डरिए मत! जरा श्रद्धा रखिये!

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, उस मुस्कुराहट में बोध से सम्बंध है?

आचार्य प्रशांत: देखो! सैद्धांतिक तौर पर बात सही है तुम्हारी कि उस मुस्कुराहट का ‘बोध’ से संबंध है, ‘समझ’ से संबंध है। लेकिन एक व्यवहारिक बात बोलता हूँ — समझने की कोशिश छोड़ो, समझने की कोशिश श्रम है, और हर श्रम में तनाव होता है। जब समझने की ‘कोशिश’ छोड़ देते हो तब जो अबोध की स्थिति होती है वही बच्चे-सी सरलता है, और उस स्थिति में बहुत कुछ अपनेआप समझ में आ जाता है, या ये कहो कि उस स्थिति में यह स्पष्ट ही हो जाता है कि कुछ खास समझने की ज़रूरत नहीं है। जो कुछ भी मूलतः जानने लायक है, वह हमें पता ही है, तो बहुत समझने की कोशिश मत किया करो। यह भी हमारी पूरी व्यवस्था ने हमें सिखा दिया है कि ‘समझना’ बहुत ज़रूरी है और जिसे हम समझना कहते हैं वह और कुछ नहीं होता बस ज्ञान-वर्धन होता है — सूचना भर ली, ज्ञान बढ़ा लिया — इसको हम कहते हैं ‘समझ’ लेना। या किसी निष्पत्ति पर आ गए, उसको हम कहते हैं समझ लेना — कोई बाध्यता नहीं है, न सोचने की, न समझने की।

अगर कहना ही चाहते हो कि क्या कोई धर्म है तुम्हारा, कोई कर्तव्य है, कुछ ऐसा है जो तुम्हें करना ही चाहिए तो इतना ही कहूँगा कि तुम्हारा एकमात्र दायित्व है — सरल रहे आना; टेढ़े-टपड़े मत हो जाओ, सीधे-सीधे रहो, होशियार बनने की कोशिश मत करो! अब यहाँ बैठे हो, बात को सुन रहे हो, तो सुनो न, उसका अर्थ मत निकालो। शब्द तो यूँ ही हैं, बड़े सतही हैं। असली बात यह नहीं है कि मैं क्या कह रहा हूँ, असली बात यह है कि तुम क्या हो और मैं क्या हूँ। और जो लोग आते हैं यहाँ पर समझने के इच्छुक, होशियार वृत्ति के, वह इसी में उलझकर रह जाते हैं कि ‘मैं क्या कह रहा हूँ’। वो यह देख नहीं पाते कि ‘मैं क्या हूँ’। तो इस बीमारी से बचना — अर्थ, अन्वेषण, शोधन — कोई आवश्यकता नहीं है।

मन अखुलाएगा, मन कहेगा, “दो घंटे सुन लिया। अरे! पता भी तो होना चाहिए बात क्या थी, कोई पूछेगा बाहर तो क्या बताएँगे कि क्या सुनकर आए हैं? या कि बाद में अगर स्वयं को ही याद करना होगा कि उस दिन क्या सुना, क्या सीखा, तो क्या कहेंगे?” भूल जाओ! एकदम भूल जाओ!

एक आए थे, अभी पिछला शिविर हुआ उसके बाद, कि आप तो बार-बार लगातार कहते रहे ‘कुछ याद मत रखना, कुछ याद मत रखना’, अब आपने यह ट्रैकर (शिविर के बाद चलने वाला मासिक कार्य) शुरू करा दिया है, अब लिखें क्या? आपने तो जो भी कहा हमें याद ही नहीं। मैंने कहा कि तुम ही लिखोगे सच्ची बात, बाकी लोग तो स्मृति से लिखेंगे क्योंकि उन्हें याद है, तुमने अगर वाकई कुछ याद नहीं रखा है फिर तुम-पी गए हो, अब तुम जो लिखोगे उसमें कुछ खास होगा, तुम लिखना। और आपसे कह रहा हूँ जितने लोग अभी उस ट्रैकर में हिस्सा ले रहे हैं, उनमें से शायद सबसे साफ़ बात, सबसे सीधी बात, सबसे निर्मल बात उन्हीं सज्जन की होती है जो वहाँ पर बेबूझ बैठे रहते थे, सत्र में। शक्ल उनकी ऐसी रहती थी जैसे कुछ समझ में ना आ रहा हो, कुछ पकड़ में ना आ रहा हो कि यह क्या बोल दिया। उनसे कहा भी जाता था कुछ अपनी बात कहो, तो वह कुछ ऐसे ही दो-चार अक्षर बुदबुदा-कर चुप हो जाते थे कि हम क्या बोलें, हमें तो ज़्यादा कुछ पता नहीं चला। ये जो अबूझ, गैर पढ़े-लिखे लोग होते हैं, इनकी बात दूसरी होती है, ये कबीर हो जाते हैं। चूंकि इन्हें कुछ पता नहीं होता इसलिए इन्हें सब पता होता है।

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