हिन्दू खतरे में हैं? || (2021)

Acharya Prashant

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हिन्दू खतरे में हैं? || (2021)

प्रश्‍नकर्ता: नमस्ते आचार्य जी, डिस्मेंटलिंग ग्लोबल हिंदुत्व (वैश्विक हिंदुत्व की समाप्ति) के नाम से अमेरिका में एक कॉन्फ्रेंस हो रही है। बहुत सारे लोगों का ऐसा मानना है कि यह कॉन्फ्रेंस हिन्‍दुओं को बदनाम करने की एक साज़िश है।

इसी विषय में, आपके एनआरआई (प्रवासी भारतीय) श्रोता हैं एक, उनकी ओर से हमें एक ई-मेल आई है। ई-मेल में वो अपील कर रहे हैं कि आप इस विषय पर कुछ बोलें और उनका ऐसा मानना है कि इस कॉन्फ्रेंस में जो भी तर्क दिए जाएँगे वो सत्‍य संगत नहीं होंगे, ग़लत होंगे और उनके शब्‍द हैं — ‘‘*आचार्य जी, यू हैव ए लार्ज एनआरआई ऑडियन्‍स दैट रेग्‍यूलरली वाचेस यूअर वीडियोस एण्‍ड एक्‍सट्रैक्‍स विसडम फ्रॉम दैम। वी नीड यूअर लीडरशीप इन एड्रेसिंग द फाल्‍स ट्रुथस्, दैट वील बी स्‍पोकन एट दिस कॉन्फ्रेंस। प्‍लीज़ स्‍पीक*।’’ (प्रवासी भारतीयों में एक बहुत बड़ा समूह आपके वीडियो का नियमित श्रोता है और वो चाहते हैं कि इस समारोह में जो ग़लत तर्क दिया जाएगा उसको काटने के लिए आप हमारी ओर से सच का प्रतिनिधित्व करें। कृपया कुछ कहें।)

जब उनका ई-मेल पढ़ा और इस कॉन्फ्रेंस के बारे में मैंने भी थोड़ी रिसर्च (शोध) करी तो यह सवाल मेरे मन में भी उठ रहा है कि क्या सचमुच ये हिंदुओं को बदनाम करने की साज़िश है, अगर है तो किस तरीके से?

आचार्य प्रशांत: देखो, साज़िश अगर है भी — जो लोग इस कॉन्फ्रेंस में बोलने वाले हैं या जिन्होंने इस कॉन्फ्रेंस को ऑर्गनाईज़ (आयोजित) करा है, मुझे नहीं मालूम कि उनके मन में क्या हो रहा है। मैं अंतरयामी नहीं हूँ। पर अगर ये साज़िश है भी, तो आप किसी को साज़िश करने से रोक तो सकते नहीं। दुनिया में इतने लोग हैं, उनके अपने मन हैं, दिमाग हैं और उन सब के पास बोलने के लिए ज़बान है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। आप किसी की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो छीन नहीं सकते। तो जिन्‍हें जो करना है वो तो करते ही रहेंगे। आप उनके लिए अगर एक रास्ता रोकोगे वो दूसरा रास्ता पकड़ लेंगे। कहीं-न-कहीं तो उनको बोलने के लिए जगह मिल ही जाएगी और ये उचित भी नहीं है कि किसी को उसके मन की बात बोलने से रोक ही दिया जाए। और जब मैं ये सब कह रहा हूँ, मैं फिर कह रहा हूँ कि मैंने वहाँ बोलने वालों को अभी सुना नहीं, मैं जानता नहीं वहाँ क्या बोला जाने वाला है। मुझे नहीं मालूम कि साज़िश वगैरह है या नहीं है और मुझे उस बात से कोई बहुत मतलब भी नहीं है कि साज़िश है या नहीं है।

मुझे मतलब देखो दूसरी बात से है। वो कॉन्फ्रेंस कर रहे हैं, तो जो लोग अपने-आपको हिन्‍दू धर्म का हितैशी बोलते हैं उनको बड़ी तकलीफ़ वगैरह हो रही है। भई आपको तकलीफ़ हो रही है तो आपने आज तक कॉन्फ्रेंसेस् क्यों नहीं करी? सिर्फ़ प्रतिक्रिया में रोना-चिल्लाना आपको क्या लाभ दे देगा? वो कर रहे हैं कॉन्फ्रेंस , करने दीजिए। उन्हें वैसे भी रोका नहीं जा सकता। आपकी कॉन्फ्रेंसेस् कहाँ हैं? और जहाँ तक मुझे पता है कि वहाँ ये हो रही है कॉन्फ्रेंस तो उसकी प्रतिक्रिया में उन्‍हीं तारीखों पर यहाँ पर भी कुछ आयोजित हो रहा है। हिंदुत्व के समर्थन में कोई कॉन्फ्रेंस हो रही है। प्रतिक्रियावाद किसी को बहुत दूर तक नहीं ले जा सकता न।

वो अगर हिंदू धर्म को बदनाम करने की कोशिश कर भी रहे हैं, तो मैं पूछ रहा हूँ कि हिंदू धर्म वास्‍तव में क्या है, ये आपने समाज को, जनता को, छात्रों को, बताने के लिए आज तक क्या किया? आप सही बताए नहीं, और फिर कोई और आ करके अपनी बात बोले जो सच्ची भी हो सकती है झूठी भी हो सकती है, तो आप छाती पीटें, इससे लाभ क्या होगा? बहुत पढ़ने को मिल रहा है, बहुत लोग बोल रहे हैं कि हिंदू धर्म के बारे में बहुत भ्रामक प्रचार किया जाएगा और ग़लत बातें बोली जाएँगी। जैसा हिंदू धर्म है नहीं, उसकी उस तरह की छवि दुनिया भर में बनाई जाएगी। ये कॉन्फ्रेंस भी अमेरिका में हो रही है।

तो अगर आप नहीं चाहते कि हिंदू धर्म की भ्रामक छवि विदेशों में फैले, लोगों के मन में बैठे, तो हिंदू धर्म की जो वास्तविक छवि है, वह आप लोगों तक ले कर जाइए न। पर सनातन धारा की वास्तविकता क्या है, मर्म क्या है सनातन धर्म का, ये बताने वाले तो लोग हैं ही नहीं या बहुत कम हैं।

तो वहाँ पर एक पक्ष खड़ा हुआ है, जो कह रहा है कि हिंदू धर्म इस-इस तरीके की मान्यताओं में यकीन रखता है कि हिंदू धर्म आक्रामक है, हिंदू धर्म में हिंसा बहुत है और भेदभाव बहुत है और हिंदू लोग दूसरे धर्मों के अनुयायियों को सता रहे हैं, पीड़ा दे रहे हैं, इस तरह की बातें आमतौर पर करी जाती हैं। मान लीजिए वहाँ इस तरह की बातें खूब की जा रही हैं। और प्रचार भी यही किया जा रहा है कि हिंदू धर्म फासीवाद का समर्थक है, इत्‍यादि-इत्‍यादि और इस तरह की बातें। आप भी तो बताइए न कि हिंदू धर्म फिर वास्‍तविकता में क्‍या है। आप विरोध करने को तो खड़े हो जाते हैं कि, "नहीं-नहीं-नहीं, वो लोग जो बोल रहे हैं हिंदू धर्म वैसा नहीं है।" मैं आपसे पूछ रहा हूँ, वैसा नहीं है, तो कैसा है, ये तो बताइए। सवाल आप समझ रहे हैं?

आप ये तो बताने को तैयार हो जाते हैं कि नहीं हिंदू धर्म वैसा नहीं है, जैसा कि उसके विरोधी प्रचार करते हैं। फिर मैं पूछ रहा हूँ कि, हिन्‍दू धर्म की असलियत क्‍या है? वो बताइए। वो असलियत आप बता नहीं पाते क्‍योंकि ज़्यादातर हिंदुओं को पता ही नहीं है कि उनका धर्म है क्‍या। धर्म के नाम पर निन्यानवे-दशमलव-नौ-नौ प्रतिशत हिंदू बस एक परंपरा जानते हैं। रूढ़ियों का पालन कर रहे हैं, प्रथाओं का पालन कर कर रहे हैं। परंपराओं पर चल रहे हैं और इसी को ही धर्म समझ लेते हैं।

हमारे लिए धर्म अधिक-से-अधिक एक चली आ रही संस्कृति का नाम है। हमने धर्म और संस्कृति को बिलकुल जैसे एक ही समझ लिया है। उनमें संबंध ज़रूर है, पर वो एक नहीं हैं न। और हमने कौन सी संस्‍कृति पकड़ ली है? जो हमको एक संस्कृति का रूप पता है, जो अभी मध्यकाल में प्रचलित था। हम कहते हैं कि यही हिंदू धर्म है। मैं आपसे पूछूँ, "एक हिंदू कौन है?" आपके पास जवाब होगा नहीं। बड़ी दिक़्क़त होगी। आप कहेगें कि जो होली-दिवाली मनाता है, वो हिंदू है। आप ये बोल ही नहीं पाएँगे कि हिंदू वो है जिसका एक विशेष तरह के दर्शन में विश्‍वास है, जिसे एक तरह के दर्शन का ज्ञान है। नहीं आप नहीं बोल पाएँगे, क्‍योंकि ऐसा कोई दर्शन आप जानते ही नहीं।

आप यह कहेंगे कि जो होली-दिवाली मनाता है, जो तिलक लगाता है, वो हिंदू है। जो राखी बाँधता है, वो हिंदू है। इस तरह की आप बातें करेंगे। एक हिन्‍दू पहचाना भी और कैसे जाता है? ऐसे ही तो पहचाना जाता है। हिन्‍दू ऐसे थोड़े ही पहचाना जाता है कि जिसको फलानी किताब का ज्ञान हो, जो फलानी पुस्तक को सम्मान देता हो, जो फलानी विचारधारा का या फलाने दर्शन का ज्ञाता हो, उसको हिंदू कहेंगे। हिंदू ऐसे नहीं जाना जाता है। हिन्‍दुओं को हमारे यहाँ ऐसे जाना जाता है कि जो जाकर के रंग उड़ाता है होली में, वो हिंदू है। और हिन्‍दुओं के साथ कौन सी चीज़ें जुड़ी होती हैं? कि जो, जो रोटी खाते हैं, जो करी बनाते हैं, वो हिंदू हैं। जो गाय की पूजा करते हैं वो हिंदू हैं।

आप कहेंगे, "नहीं-नहीं-नहीं, हिंदू ये सब मात्र थोड़े ही है, हिन्‍दू तो इससे आगे की बात है।" तो मैं पूछता हूँ इससे आगे की बात क्‍या है, वो तो बताइए। आगे की बात आपको ख़ुद नहीं पता। जब आपको ख़ुद नहीं पता, तो आप उनका विरोध कैसे करेंगे जो हिंदू धर्म को बदनाम करते हैं? आप मुझे बताइए तो, ये जो आप कुछ परंपराओं का पालन कर रहे हैं, ये जो आपने कल्चर पकड़ रखा है, एक तरह की संस्कृति, उसके अलावा और उसके आगे हिंदू धर्म क्या है? हिंदू धर्म का मूल क्या है? हिंदू धर्म की जड़ क्या है? मर्म क्या है हिंदू धर्म का? वो लोगों को ख़ुद ही नहीं पता। यहाँ तक कि जो लोग सबसे बड़े पैरोकार बनते हैं सनातन धर्म के, शायद वो स्वयं भी कम ही जानते हों कि 'सनातन' माने क्या। तो फिर इसीलिए आप जब विरोध करने निकलोगे, तो आप दो-चार इधर-उधर की कुछ लिबलिबी-सी बातें बोल कर रह जाओगे, या नारेबाजी कर लोगे, या आप कुंठाग्रस्त होकर हीन-भावना में आ करके कुछ गाली-गलौज कर लोगे। पर आप कोई ठोस बात नहीं बोल पाओगे क्‍योंकि आप स्‍वयं ही नहीं जानते कि हिंदू धर्म माने क्या।

ये सवाल ऐसा है जिस पर आपने शायद कम ग़ौर किया हो। पर मैं फिर पूछ रहा हूँ, मैं पूछ रहा हूँ कि मुझे बताइए कि, आप ऐसा क्या करेंगे कि फिर आप हिन्‍दू नहीं कहला पाएँगे और अगर आप कुछ भी करके हिन्‍दू रह सकते हैं तो फिर तो हिंदू का कोई अर्थ ही नहीं हुआ न। आप दाएँ जाएँ बाएँ जाएँ आप हिंदू हैं, आप ऊपर जाएँ आप नीचे जाएँ आप हिन्‍दू हैं। आपको बहुत कुछ पता हो, आपको कुछ ना पता हो आप तब भी हिंदू हैं। तो फिर तो हिन्‍दू होने का कोई मतलब ही नहीं रह गया न। जबकि जो बहुत उदारवादी लोग हैं, वो हिन्‍दू धर्म की व्याख्या कुछ इसी तरह से करना चाहते हैं। वो कहते हैं आप कुछ भी करिए आप हिंदू हैं। तो फिर तो इसका मतलब है कि हिंदू कुछ है ही नहीं। बात समझ में आ रही है?

और हो भी यही रहा है। लोग कुछ भी कर रहे हैं, हिंदू तब भी कहला रहे हैं, ऐसे कैसे? और मैं करने भर की बात नहीं कर रहा हूँ। जब मैं कह रहा हूँ 'करना', तो मैं करने से पहले जानने की बात करता हूँ। कुछ आपको पता तो होना चाहिए। कुछ आपके मन में सामग्री तो होनी चाहिए, कुछ आपका ज्ञान तो होना चाहिए। तब तो आप सनातनी कहलाओगे न? या बस ये कह दोगे कि, "नहीं साहब हम तो फलाने त्यौहार मनाते हैं और फलाने तरीके की परम्पराएँ रखते हैं, फलाने तरीके के हमारे विश्वास हैं तो हम हिंदू हैं"? और ये जिन प्रथाएँ, परम्पराएँ और आप जिन विश्वासों की बात करते हैं, वो भी लगातार बदलते रहते हैं, तो फिर हिन्‍दू हुआ कौन? और ये जो बदलते रहते हैं, उसमें ऐसा नहीं है कि जितने नास्तिक हैं और जो पश्चिम के लोग हैं या जो दूसरे धर्मों के लोग हैं उन्होंने साज़िश करके हमारे प्रथाओं को और परंपराओं को बदल दिया है।

बिहार में छठ चलती थी, उत्तर प्रदेश में और मध्य प्रदेश में तीज चलती थी, हरतालिका तीज। पंजाब की तरफ़ बस करवा चौथ मनाया जाता था। पर फ़िल्मों ने करवा चौथ दिखाया, करवा चौथ दिखाया और ये गाने चल रहे हैं और उस पर कमसिन सुंदरियाँ नाच रही हैं। तो अभी स्थिति ये है कि उत्तर प्रदेश में और बिहार में और मध्य प्रदेश में भी हरतालिका तीज पीछे होती जा रही है और सब नई नवेलियाँ कहती हैं — हमें भी करवा चौथ मनाना हैं। तो यह प्रथाएँ, परम्पराएँ भी लगातार बदलती जा रही हैं। तो हिन्‍दू माने क्‍या? जो फिल्‍म देख करके अपनी प्रथाएँ बदल देता है, वो हिन्‍दू हो गया? और प्रथाओं का तो ऐसा ही होता है। वो कभी जन्‍म लेती हैं और फिर समय के साथ बदलती चली जाती हैं। आप मुझे एक परंपरा बता दीजिए जो शाश्‍वत रही है, सत्‍य शाश्‍वत होता है, कोई प्रथा, कोई परंपरा तो शाश्‍वत होती नहीं। कोई भी अपने-आपको हिंदू तब कह सकता है जब उसके पास कम-से-कम कुछ तो ऐसा हो जो सनातन हो।

सनातन माने जानते हैं क्‍या होता है? सनातन माने वो जो कालातीत है, जो समय के साथ बदलता नहीं। आपके पास अगर सिर्फ़ रूढ़ियाँ हैं और परम्पराएँ हैं और कुछ ऐसा है जिसको आप बहुत मुखर होकर और गौरवान्वित होकर सांस्कृतिक विरासत बोल देते हो। तो ये जितनी चीज़ें हैं साहब ये बदल जाती हैं, संस्कृति कोई बड़ी भारी बात नहीं है संस्कृतियाँ आती-जाती रहती हैं, बदलती रहती हैं, जिसको आप हिंदू संस्कृति या भारतीय संस्कृति भी बोलते हो वो लगातार परिवर्तनशील रही है। सत्‍य कहाँ है जो कभी बदलता नहीं? उस सत्य से हिंदुओं का बहुत कम लेना-देना है। जबकि अगर कोई आपके सामने आता है जो हिंदू धर्म को, सनातन धर्म को बदनाम करने की कोशिश कर रहा है, तो उसका सामना सिर्फ़ सत्य के साथ ही किया जा सकता है। उस सत्‍य का आपको कुछ अता-पता नहीं, फिर आप बिलबिला जाते हो कि, "अरे, अमेरिका में कॉन्फ्रेंस हो रही है, वहाँ हम लोगों को बदनाम किया जा रहा है, क्या करें, क्या करें, क्या करें!" क्या करोगे? जाकर पहले होमवर्क करो, ‘गृहकार्य’। कुछ समझो, तब तो दूसरों को समझा पाओगे न?

अब बात समझने वाली क्‍या है वो बता देता हूँ। क्‍या है हिंदू धर्म में जो कालातीत है, ग़ौर से समझिएगा। हिंदू धर्म की मैंने मर्म की बात की, मूल की बात की। वो मर्म, वो मूल क्‍या है? देखिए सनातन धर्म मूलत: वैदिक है, ठीक है? वो वेदों से अपनी अभिव्यक्ति पाता है और वेदों में दो हिस्से हैं मोटे तौर पर। एक कर्मकांड का हिस्सा है और एक ज्ञान का हिस्सा है। जो कर्मकांड वाला हिस्सा है उसके अंतर्गत आप कह दीजिएगा संहिता आती है और ब्राह्मण आते हैं। मैं ब्राह्मण जाति की बात नहीं कर रहा, ये ब्राह्मण वेदों के हिस्‍से हैं। तो संहिताएँ हैं, मंत्र हैं, जो देवियों को देवताओं को प्रसन्न करने के लिए बोले गए गए हैं, उन्हें समर्पित हैं। वो सब संहिताओं में आते हैं और ब्राह्मण हैं जहाँ पर विधियों की बात की गई है कि भई आप कैसे प्रसन्न करोगे, यज्ञ कैसे करोगे, पूजा कैसे करोगे, इत्‍यादि-इत्‍यादि। ये कर्मकांड में आता है। ये जो सारी बातें होती हैं ये कालातीत नहीं होतीं। ये समय के साथ सब बदल जाती हैं। फिर जो दूसरा हिस्‍सा होता है वेदों का, उसमें आते हैं आरण्‍यक और उपनिषद। उसमें वो बात कही गई है जो समय के साथ नहीं बदलती। उसमें वो बात कही गई है जो वैदिक धर्म का मूल है। कहाँ कही गई है वो बात? आरण्‍यक में और उपनिषद में। और उसमें भी, इन दोनों में भी प्रमुखतया उपनिषदों में।

तो अगर आपको हिंदुओं के ख़िलाफ़ हो रहे किसी भी तरह के दुष्प्रचार का सामना करना है, तो बहुत ज़रूरी है कि आपके पास उपनिषदों का बोध होना चाहिए। क्योंकि हिंदू धर्म, सनातन धर्म के केंद्र में उपनिषद ही बैठे हैं। आप बात समझ रहे हैं? वेदांत हैं उपनिषद, वेदों का शिखर। वेदों का उच्‍चतम बिंदु, वो वेदों के बड़े छोटे-छोटे हिस्‍से हैं, जैसे कोई बड़ा भारी फल हो, अमर फल, सुंदर, बहुत बड़ा और फिर उससे बस कुछ बूंदो का रस, साररूप रस प्राप्त होता हो, अमृत रस प्राप्त होता हो। तो वेदों की जो पूरी सामग्री है, जो पूरा वांग्मय है, उसका अमृत हैं उपनिषद। वेदों का निचोड़ हैं उपनिषद। वेदों में जितनी बातें कही हैं वो जिस अंत के लिए कही हैं, जिस उद्देश्य के लिए कही हैं, वो हैं उपनिषद। वेद यदि यात्रा हैं तो उस यात्रा की मंज़िल हैं उपनिषद और उपनिषद — फिर बता रहा हूँ — उपनिषद वेदों से अलग कुछ नहीं हैं, वो वेदों के ही हिस्‍से हैं।

तो ये मत कहने लग जाइएगा कि, "अरे-अरे नहीं, वेद सबसे ऊँचे हैं, आप उपनिषदों की बात क्‍यों कर रहे हैं?" जब मैं उपनिषदों की बात करता हूँ तो मतलब वेद ही हैं क्‍योंकि उपनिषद वेदों के ही हिस्‍से हैं। ये कुछ समझ में आ रही है बात? अगर आपको अच्‍छे से पता हो कि हिन्‍दू धर्म क्‍या है, तो फिर आप उनका सामना कर सकते हैं जो कभी कोशिश करे हिन्‍दू धर्म को बदनाम करने की भी। इतना नहीं अगर आपको पता होगा कि हिन्‍दू धर्म क्‍या है, तो आप फिर जीवन भी ऐसा जिएँगे कि कोई आप को बदनाम करने की कोशिश कर ही नहीं सकता। आपका जीवन ही बदनामी से ऊपर के तल का होगा। कोई क्या आपका नाम ख़राब करेगा। समझ में आ रही है बात?

लेकिन अधिकांश हिंदुओं को उपनिषदों से कोई लेना-देना नहीं है। मैं फिर पूछ रहा हूँ आप मुझे बताइए न कि ज़्यादातर हिंदुओं के लिए हिंदू होने का मतलब ही क्या होता है, क्या मतलब है हिंदू होने का? वो कहगें, "नहीं, जो मंदिर जाता है, जो राम को और कृष्ण को मानता है।" अरे भाई राम और कृष्‍ण भी अंतत: प्रतीक हैं। संतों की मानें तो चार तरह के राम हैं। चार तलों पर हैं राम। आप जिन राम को जानते हैं, वो तो रामायण के एक पात्र हैं। राम जिस उच्‍चतम अभिव्यक्ति के प्रतीक हैं, राम जो कि ब्रह्म ही हैं। उनसे हमारा कोई संबंध ही नहीं। हमारे लिए राम कौन हैं? बस जैसे रामलीला का कोई पात्र। हम तो श्री राम को भी पूरा-पूरा सम्मान नहीं दे पाते, क्योंकि हमने उन्हें कभी ठीक से जाना ही नहीं, समझा ही नहीं, गहराई से हमने उनमें प्रवेश ही नहीं किया। फिर लोग आते हैं वो राम पर सवाल उठाने लग जाते हैं, राम ने ये क्यों किया, राम ने वो क्यों किया, और तब हमारे पास कोई जवाब नहीं होता। हम बस तिलमिला कर रह जाते हैं, और जब तिलमिला कर रह जाते हैं तो कई बार हिंसा भी करने लग जाते हैं।

आपके पास कोई जवाब इसीलिए नहीं होता, क्‍योंकि आप राम को वास्‍तव में जानते ही नहीं। राम को जानने के लिए रामचरितमानस जितनी आवश्यक है उससे ज़्यादा आवश्यक है योगवासिष्ठ। पर अब मैं कह रहा हूँ कि योगवासिष्ठ आपने नाम ही नहीं सुना होगा। मैं कहूँ रामगीता, आपने नाम ही नहीं सुना होगा। आप कहेंगे, "अरे! एक ही तो गीता है, भगवतगीता। ये रामगीता कौन सी आ गई?" पर अगर आप रामगीता नहीं जानते, अगर आपने योगवासिष्ठ या कम-से-कम योगवासिष्ठ सार नहीं पढ़ा है तो मैं फिर कह रहा हूँ, फिर आप श्री राम को बहुत सतही रूप से जानेंगे और जिस चीज़ को आप सतही रूप से जानेंगे, उस चीज़ की सफ़ाई के लिए, उस चीज़ की रक्षा के लिए आप बहुत समर्थ नहीं हो पाएँगे। जब आपके विचारों पर, आपकी मान्यताओं पर आक्रमण होगा, तो आपको कुछ पता नहीं चलेगा कि अब क्या दलील दें, क्या सफाई दें।

गीता आपने पढ़ी नहीं, मैं श्रीमद्भगवतगीता की बात कर रहा हूँ, बहुत गीताएँ हैं, गीता आपने पढ़ी नहीं फिर कोई आकर-के कृष्‍ण के बारे में कोई बात बोल देता है, आप तिलमिला जाते हैं। बड़े आजकल तो जो ऊँचे-ऊँचे गुरू हैं, उनमें ये चलन हो गया है कि राम को, श्रीकृष्ण को कोई भद्दी बात बोल दो और ये सब भद्दी बात बोल कर निकल जाते हैं। ये सारी चीज़ें पिछले पचास-सौ साल में ही शुरू हुई हैं, कि, "अरे उनकी इतनी रानियाँ थीं, उन्‍होनें ये किया, उन्‍होनें वो किया। राम ने छल किया, कृष्‍ण ने कपट किया।" खूब इस तरह की बातें चल रही हैं। पर आप ना राम के मर्म को समझते हैं, ना कृष्‍ण के मर्म को समझते हैं। इसीलिए आप कोई उचित उत्तर नहीं दे पाते हैं और उचित उत्तर देना भी देखिए बाद की बात होती है, दूसरे को उत्तर देना हमेशा ज़रूरी भी नहीं होता। अगर कोई पागल आदमी, व्यर्थ प्रलाप कर रहा है, फ़िज़ूल बकवास कर रहा है, हमेशा ज़रूरी नहीं होता कि जा करके उसको प्रतिक्रिया दो, उसको जवाब दो। बिलकुल ज़रूरी नहीं होता। लेकिन ये तो ज़रूरी होता है न कि आपकी ज़िन्दगी में ऊँचाई रहे, सफाई रहे, आपके मन में बोध रहे ये तो हमेशा ज़रूरी होता है। ये अगर हमेशा ज़रूरी है तो फिर ज़रूरी है कि आप धर्म के मर्म में उतरें। और धर्म का मर्म, वेदांत है। भक्ति की धारा भी वेदांत से ही निकली है। आपमें से कुछ लोग आपत्ति कर सकते हैं, कहेगें, "नहीं देखिए वेदों में तो बस जो आस्तिक लोग हैं या दर्शन की जो आस्तिक शाखाएँ हैं उन्‍होंने विश्‍वास किया है न, साहब हम तो नास्तिक हैं।"

भारत में नास्तिक दर्शन भी रहे हैं, चारवाक हो गया, बौद्धों और जैनों को भी उसी श्रेणी में डाल दिया जाता है कि साहब ये नास्तिक हैं, तो उसमें भी मैं आपको बताए देता हूँ। मैं समझता हूँ भारत में दो ही गहरे वेदांती हुए हैं उपनिषदों के बाहर। जिन्‍होनें उपनिषदों की रचना नहीं की, या जिनका उल्‍लेख उपनिषदों में नहीं मिलता फिर भी वो प्रखर वेदांती थे। ऐसे मैं दो ही मानता हूँ। पहले गौतम बुद्ध और दूसरे आचार्य शंकर। आचार्य शंकर से आपको कोई अचरज नहीं हुआ होगा क्योंकि उनका नाम तो वेदांत के साथ जुड़ा ही हुआ है। अद्वैत वेदांत के साथ। लेकिन गौतम बुद्ध से हुआ होगा। पर मैं कह रहा हूँ गौतम बुद्ध एकदम उच्‍चतम कोटी के वेदांती थे। लेकिन हाँ सामाजिक परिस्थितियों में और ब्राह्मणों के एक वर्ग की लोलुपता ने, उस समय पर वैदिक धर्म को इतना भ्रष्ट कर दिया था कि उन्हें अपनी भाषा दूसरी रखनी पड़ी। जो लोग बुद्ध की भाषा तक ही सीमित रह जाते हैं और बुद्ध के मर्म को नहीं समझ पाते, उनको लगता है बुद्ध ने वेदों का विरोध किया। पर अगर आपके पास वो दृष्टि है कि आप बुद्ध के मर्म को देख पाएँ तो आपको समझ में आएगा कि बुद्ध बहुत बड़े वेदांती थे। मैं कहना चाह रहा हूँ, मुझे एक तरह का लोभ हो रहा है कि बोल दूँ कि बुद्ध से बड़ा वेदांती दूसरा हुआ नहीं। क्‍योंकि वेदांत को पूरी तरीके से समझे बिना उसको एक दूसरी भाषा में अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता। जिस चीज़ को आप समझते नहीं उसको विशुद्ध तरीके से दूसरी भाषा में अभिव्‍यक्‍त नहीं कर पाएँगे। बुद्ध ने किया, वो खूब समझते थे। तो उपनिषदों के बाहर बुद्ध से बड़ा वेदांती दूसरा नहीं।

तो आप आस्तिक हों, नास्तिक हों, आप किसी भी दर्शन में यकीन करते हों; आप ज्ञान मार्गी हों, आप कर्म मार्गी हों, आप भक्ति मार्गी हों, आप कोई मार्गी हों; आप बिना मार्ग के हों, आप आकाश मार्गी हों, आप पाताल मार्गी हों, आपको वेदांत तक तो जाना ही पड़ेगा और वेदांत तक आप नहीं जाएँगे तो ऐसे ही जब कोई कॉन्फ्रेंस वगैरह करेगा, आप बस हाथ झटकेगें, छाती पीटेंगे और तिलमिलाएँगे। और यहाँ मैं अभी स्पष्ट करे दे रहा हूँ, मैं नहीं जानता हूँ उस कॉन्फ्रेंस में क्या हो रहा है। हो सकता है उस कॉन्फ्रेंस में बेहुदा-से-बेहुदा बात हो रही हो, ये भी हो सकता है उस कॉन्फ्रेंस में कोई ढंग की बात हो रही हो, मुझे भी पता नहीं है। मैं अभी सिर्फ़ उस हल्‍ले का जवाब दे रहा हूँ जो उस कॉन्फ्रेंस की प्रतिक्रिया में मच रहा है।

मैं उन लोगों से बात कर रहा हूँ, जो अपने-आपको हिंदू धर्म का शुभचिंतक समझते हैं। मैं उनसे कह रहा हूँ — अगर तुम वाकई शुभचिंतक हो हिंदू धर्म के, तो हिंदू धर्म का जो मर्म है उसका प्रचार करो। लोगों तक उपनिषदों को, वेदांत को लेकर के जाओ। अगर ये जो नई पीढ़ी आ रही है, इसकी ये हालत है कि मैं इससे पूछूँ कि बादरायण कौन, अश्‍वघोष कौन, माधवाचार्य कौन, रामानुज कौन, नागार्जुन कौन, और ये ऐसे कहें "हअ्अ् ये क्‍या?" कुमारिल भट्ट कौन? "अरे! क्‍या बोल दिया? क्‍या बोल दिया?" कपिल कौन, कणाद कौन? उन्‍हें कुछ ना पता हो कि ये कौन से नाम बोल दिए हमारे सामने, तो फिर आप बस शोर ही मचाते रह जाएँगे और जिन्हें बदनाम करना है अगर, वो बदनाम कर ले जाएँगे। देखिए उनको, उनके इरादे जो भी हों, उन्‍हें कम-से-कम कुछ पता तो हैं न। वो एक मंच पर चढ़ कर बोल रहे होंगे, वो कुछ बात तो बोल रहे हैं।

आप अपने-आपको हिंदू कहते हो और आपको अपने धर्म का अगर ज्ञान ही नहीं है, तो आप क्‍या किसी भी ऊँची चीज़ की रक्षा करेंगे? आप कैसे ऊँचा जीवन जी पाएँगे सबसे पहले? बस नाम के हिंदू हैं। हिंदू कौन? "गाय के घी के बढ़िया वाले मूली के पराठे!" इसका संबंध हिंदू धर्म से है। कैसे? ये क्या बात है? कि वो जो गरबा नाचते हैं, वो हिंदू हैं। आपको ख़ुद नहीं लग रहा कि ये सब बहुत सतही, बहुत उथले प्रतीक हैं धार्मिकता के? धार्मिकता गहराई में क्या है, वहाँ जाइए न।

और ऐसे लोगों से बार-बार बचिएगा, जो संस्कृति को ही धर्म बनाए बैठे हों। धर्म वो चीज़ है जो शाश्वत रहती है। संस्कृति वो चीज़ है जो आती-जाती रहती है, बदलती रहती है। बहुत परम्पराएँ, बहुत प्रथाएँ कभी थीं, आज नहीं हैं। और आज आपसे मैं कहूँ कि, "देखिए आज से दो-सौ साल पहले हमारे ही दादा-परदादा, हमारे ही पुरखे, फलानी प्रथाओं का पालन करते थे तो आप क्यों नहीं कर रहे?" तो आप मानेंगे नहीं। आप कहेंगे, "नहीं, हमें नहीं करना।" तो धर्म को प्रथाओं से जोड़ मत दीजिए, कि आज से छह-सौ साल पहले भी ऐसा होता था, उन्‍होनें ऐसा करा तो हम भी तो करेंगे। नहीं-नहीं, क्योंकि अगर आप ऐसा कह रहे हैं, तो आप पाखंडी हो रहे हैं। समझिए कि आप आज ख़ुद भी पचासों ऐसी चीज़ें नहीं कर रहे जो आप के दादा-परदादा करते थे और आप पचासों ऐसी चीज़ें कर रहे हो जो आपके दादा-परदादा नहीं करते थे। तो आपको स्‍वयं ही स्‍पष्‍ट होना चाहिए कि मान्यताओं, रिवाज़ों, प्रथाओं, परंपराओं और संस्कृति को धर्म नहीं बोलते। धर्म कोई बहुत गहरी चीज़ है।

ये सब जो आप बातें कह रहे हैं धर्म, प्रथा, रिवाज़, रूढ़ी, संस्कृति, ये सब पेड़ के पत्‍तों और फलों जैसी चीज़ें हैं। पत्‍ते लगते हैं, कुछ दिन तक हरे रहते हैं, सुंदर रहते हैं फिर झड़ जाते हैं; फल आते हैं, फल गिर जाते हैं। पर जड़, जड़ कायम रहती है और जड़ है तो नए-नए पत्‍ते आते-जाते रहेंगे, अलग-अलग रंगों के भी पत्‍ते आ सकते हैं। कितने ही तरह के फूल खिल सकते हैं। उस जड़ तक जाइए। उस जड़ के बारे में मैंने कहा, वो जड़ आपको मिलेगी वेदांत में। स्‍पष्‍ट हो रही है बात?

प्र: अगर श्रीराम को समझना है तो, रामायण या रामचरितमानस से नहीं समझ पाएँगे, योगवासिष्ठ से समझ पाएँगे?

आचार्य: नहीं मैंने यह नहीं कहा। मैंने कहा कि रामभक्ति में जितना महत्‍व रामचरितमानस का है, रामबोध में उतना ही महत्व योगवासिष्ठ का है। और ये अच्‍छे से समझ लीजिए कि बिना ज्ञान के अगर आप भक्ति कर रहे हैं तो वो अंधभक्ति है। भक्ति जो कि ज्ञान-विहीन हो, बोध-विहीन हो, वो दूर तक नहीं जाती। भक्ति और ज्ञान को, भक्ति और बोध को एक साथ चलना चाहिए।

प्र: श्रीराम और श्रीकृष्ण को समझने के लिए और उनको आधुनिक रूप से आज के समय में अभिव्‍यक्‍त कर पाने के लिए, किसी से विवेचना कर पाने के लिए, उनके अस्तित्व की संरक्षा करने के लिए...

आचार्य: तुम कह रहे हो किसी से बहस कर पाने के लिए, किसी के सामने बात रख पाने के लिए?

प्र: हाँ।

आचार्य: हाँ बोलो।

प्र: तो, जो उनके संबंध में जो केंद्रीय दार्शनिक ग्रंथ हैं उनका पता होना बहुत ज़रूरी है।

आचार्य: बिलकुल वही पहली बात है।

प्र: जैसे इब्राहमिक रिलिजन्‍स में, एक कोई-न-कोई केन्‍द्रीय ग्रंथ होता है, वो एक आधार होता है। इस्‍लाम के लिए क़ुरआन है और क्रिस्‍च्‍यनीटी (ईसाइयत) के लिए बाइबल है।

आचार्य: हाँ।

प्र: आप क्‍या यह कह रहे हैं कि हिंदू धर्म भी एक किसी ग्रंथ के ऊपर स्थापित हो जाए?

आचार्य: बिलकुल।

प्र: अगर आप ऐसा कह रहे हैं तो इस धर्म की जो खूबसूरती है कि ‘इट्स ए यूनिवर्सल सेट ', आप कुछ भी हो सकते हो और हिन्‍दू हो सकते हो वो आज के समय तो बड़ी कमज़ोर चीज़ हो गई है।

आचार्य: नहीं-नहीं, आप बात नहीं समझ रहे हैं। मैं कह रहा हूँ आप वेदांत के पास जाओ। उसकी तुमको विवेचना क्‍या करनी है, अर्थ क्‍या करना है वो तुम कर लो न। अभी भी जितने भी दर्शन की आस्तिक शाखाएँ हैं वो सब वेदों को मानती हैं। लेकिन अपना-अपना अलग-अलग अर्थ करती हैं भाई। न्‍याय दर्शन अलग है, वैशेषिक अलग है, मिमांसा अलग है, योग अलग है, सांख्‍य अलग है, वेदांत अलग है। लेकिन ये सब के सब मानते किसको हैं? वेदों को मानते हैं न। पढ़ा तो पहले इन्‍होंने वेदों को, फिर वहाँ से अपने-अपने इन्होंने अर्थ करे हैं। तो तुम पहले पढ़ो तो सही, अर्थ अपने कर लेना। मैं फासीवादी होने को नहीं कह रहा हूँ। मैं नहीं कह रहा हूँ कि "एक ग्रंथ एक अर्थ और हम कोई बात नहीं करेंगे।" साहब अर्थों के भी तल होते हैं। अर्थ भी एक निचले तल का होता है, एक ऊँचे तल का होता है, और एक आत्यंतिक अर्थ होता है। तो आप अपनी चेतना के अनुसार अर्थ करें और आप लगातार ये कोशिश करते रहें कि आपने उसका जो अर्थ करा है वो और ऊँचे, ऊँचे, ऊँचे तल हासिल करता जाए। लेकिन पहले आप अर्थ करिए तो सही, पढ़िए तो सही। पढ़ेंगे ही नहीं, तो अर्थ कहाँ से करेंगे?

प्र: यह विवाद का मुद्दा नहीं है कि वेद हिंदू धर्म का मर्म हैं।

आचार्य: हाँ।

प्र: तो जैसे ईसाई धर्म में बाइबिल है, इस्‍लाम में क़ुरआन है, वैसे हिन्‍दू धर्म के केन्‍द्र में, हृदय में जो बैठे हैं वो वेद बैठे हुए हैं। वहीं से सब कुछ निकलता है।

आचार्य: देखिए धर्म के हृदय में कोई ऐसी चीज़ होगी न जो आपको ऊँचाई की ओर ले जाए। आप कह रहे हो आप एक धर्म का पालन करते हो और आपके पास कोई ऐसी चीज़ ही नहीं है जो आपके मन को ऊँचाई की ओर ले जाए, जो आपकी चेतना को शुद्धि की ओर ले जाए, तो आप धार्मिक हुए ही कहाँ फिर। फिर तो आप अधार्मिक हो। आप कहिए ही नहीं कि आप धार्मिक हो।

प्र: मेरा जन्‍म अगर एक हिन्‍दू परिवार में हुआ और मैं तीस साल का हो गया और अभी तक मैंने वेद नहीं पढ़े तो मेरा क्‍या अस्तित्‍व है?

आचार्य: मैं समझता हूँ आपको अपने-आपको हिन्‍दू कहने का वास्‍तव में तो कोई अधिकार मिला नहीं है। आप एक संभावित हिन्‍दू हैं। हिन्‍दू हुए नहीं हैं अभी। आप पोटेन्‍श्‍यली एक हिन्‍दू हैं, पर हैं नहीं अभी आप। जब आपने आज तक अपने केंद्रीय, अपने शीर्षस्थ ग्रंथ को कभी पढ़ा ही नहीं, तो आप किस अधिकार से अपने-आपको हिंदू बोल रहे हैं? ना पढ़ा, ना उसको कभी बाँचा, ना कभी उसको पिया, ना कभी उससे प्रेम किया, कुछ नहीं किया। आपके घर में भी आपके केंद्रीय ग्रंथ पाए ही नहीं जा रहे। आपसे कह दूँ कि तीन-चार उपनिषदों के नाम बता दीजिए, आपको पता नहीं होगा। आप कृष्ण-कृष्ण करते हैं, मैं आपसे कहूँ गीता के पाँच श्लोक बता दीजिए और उनका सटीक अर्थ, आपको पता नहीं होगा। तो आप काहे के हिन्‍दू हैं?

प्र: आप धर्म के केन्‍द्र में ग्रंथ को रखना चाह रहे हैं?

आचार्य: मैं धर्म के केन्‍द्र में किसी ऐसी ताक़त को रखना चाह रहा हूँ जो आपकी चेतना को उठा कर ऊपर की ओर खींचे और ग्रंथ में वो ताक़त है। और ग्रंथ में नहीं ताक़त है तो वो ताक़त और कहाँ है फिर?

प्र: लेकिन साथ-साथ यह भी कह रहे हैं कि जैसा ईस्‍लाम के साथ हुआ, उदाहरण के तौर पर, कि उस ग्रंथ को एक ही अर्थ पर सीमित कर दिया गया।

आचार्य: मैं कट्टरवादी नहीं हूँ बाबा। किसी भी दृष्टि से, किसी भी कोण से मैं इस बात का नहीं समर्थन कर रहा हूँ कि ये चीज़ इसका ये अर्थ होगा और इसका जो अर्थ होगा, वो सिर्फ़ या तो मौलाना बताएँगे या ख़लीफ़ा बताएँगे और कोई और अर्थ आप मान मत लीजिएगा, नए अर्थ आ ही नहीं सकते, समसामयिक अर्थ आ ही नहीं सकते। मैं इस तरह की कोई बात नहीं कर रहा हूँ। तो उस तरह की मतलब कोशिश भी मत करना मेरी बात को वैसा मोड़ देने की। मैं वो नहीं कह रहा हूँ। मैं कह रहा हूँ कि अर्थ तुम्हें जो करना हो करो, पर अगर तुम्हारे सामने एक ऊँची चीज़ है तो तुम उसके निकट तो जाओ कम-से-कम। उपनिषद को पढ़ो तो सही। बिना पढ़े तुम कौन सा अर्थ करोगे? बिना पढ़े तो तुम बस अपने जीवन का अर्थ-का-अनर्थ करोगे। तुम अपनी ज़िंदगी जो है अनर्थ करोगे अगर तुम उपनिषदों का कोई अर्थ नहीं कर पा रहे तो। यह कह रहा हूँ मैं।

प्र: जैसे एक साहित्‍य के विद्यार्थी के लिए शेक्‍सपियर को पढ़ना अनिवार्य है। आपको अपनी चीज़ पता हो।

आचार्य: बिलकुल, भाई आपको मैं नहीं कह रहा हूँ कि आप फिज़िक्स में न्‍यूटन तक सीमित रह जाइए, आप आगे भी जाइए। लेकिन न्यूटन से आगे भी जाना है आपको तो न्यूटन को तो पढ़ोगे पहले। आइंस्टीन से आगे भी जाना है तो आइंस्‍टीन को तो पढ़ोगे पहले। आप कहो कि आप भौतिकी के शोधकर्ता हो, साहब फिज़िक्स में रिसर्चर हैं, लेकिन मैं कहूँ कि, न्यूटन कौन? "नहीं पता।" निल्‍सबोर कौन? "नहीं पता।" श्रोडिंगर कौन? "नहीं पता।" आइंस्‍टीन कौन? "नहीं पता।" तो आपको हक़ भी है फिर अपने-आपको फिज़िसिस्‍ट बोलने का? ठीक इसी तरीके से आप अपने-आपको धार्मिक बोलते हो। ठीक है, मैं आपसे कहूँ अष्‍टावक्र-गीता, "नहीं पढ़ा।" बृहदारण्यक-उपनिषद, "नहीं पता।" योगवासिष्ठ, "नहीं पता।" ऋभु-गीता, "नहीं पता।" समझ में आ रही है बात कुछ? ईशावास्य-उपनिषद, "नहीं पता।" तो आपको हक़ भी है अपने-आपको धार्मिक बोलने का? एक फिज़िसिस्‍ट (भौतिकशास्त्री) जिसे कुछ मूलभूत बातें ही नहीं पता, एकदम बच्‍चों वाली बातें, आर्कमिडीज के प्रिंसिपल्‍स नहीं पता उसको, कोई उसे मानेगा फिज़िसिस्‍ट ? क्‍या वो ख़ुद को भी कह सकता है कि वो फिज़िसिस्‍ट है? इसी तरीके से आप कहो कि आप धार्मिक हो लेकिन आपको धर्म की किसी भी केंद्रीय पुस्तक का कुछ पता ही नहीं, तो आप किस कोण से धार्मिक हो गए भाई?

और मैं नहीं कह रहा हूँ कि आपको सिर्फ़ सनातन धर्म की ही पुस्तकों का ही पता होना चाहिए। आप और आगे जाइए। आपने अभी बाइबल, क़ुरआन का नाम लिया, आप उनका भी पाठ करिए, पढ़िए पता होना चाहिए ये ज्ञान। आप लाओत्ज़ु के पास जाइए आप चुआंग-ज़ू के पास जाइए। दुनिया भर के दार्शनिक हैं जैसे प्राचीन भारत में दर्शन फल-फूल रहा था वैसे ही प्राचीन ग्रीस में भी फल-फूल रहा था। आप ग्रीस के दार्शनिकों के पास जाइए। लेकिन आप कहें कि, "नहीं साहब मैंने आज तक कोई किताब पढ़ी ही नहीं है लेकिन मैं तो धार्मिक आदमी हूँ।" और मैं धार्मिक आदमी क्यों हूँ? "मैं धार्मिक नारे लगाया करता हूँ, मैं धार्मिक प्रतिक्रियाएँ दिया करता हूँ, मतलब धर्म से मिलती-जुलती।" तो आपको मैं तो कम-से-कम धार्मिक नहीं मानने वाला। आप तीज-त्यौहार मनाते हैं, आप हुड़दंग मचाते हैं धर्म के नाम पर, आप नारे लगाते हैं धर्म के नाम पर, लेकिन धर्म का ज्ञान आपको शून्‍य है, तो माफ़ कीजिएगा मैं तो आपको धार्मिक नहीं मानूँगा।

प्र: आचार्य जी, जो फैलाव है हिंदू धर्म का, सनातन धर्म का और जो परंपरा है पूरी वो इतनी ओपन एंडेड (खुली हुई) रही कि उसमें अनंत कंट्रीब्यूटर्स (योगदानकर्ता) आए हैं, सबने अपनी-अपनी बात कही और कोई एक व्यक्ति या कोई एक ग्रंथ उसमें कभी भी बहुत सामने (प्रतिनिधि के रूप में) नहीं आ पाया। आदि शंकराचार्य ने ग्रन्थों का संकलन किया।

आचार्य: ऐसा नहीं है। कोई एक ग्रंथ आगे नहीं आ पाया क्योंकि इतने लोगों ने वेदांत से अपनी ज्ञान ऊर्जा ग्रहण की, कि उन सब लोगों ने अपने-अपने ग्रंथ लिख डाले। बात समझ रहे हो? लेकिन उन सब ग्रंथों के मूल में वेदांत की ही आत्मा बैठी हुई है। यही तो ताक़त है वेदांत की। तुम पढ़ोगे, तुम अपना ग्रंथ लिख डालोगे, कोई दूसरा पढ़ेगा, वह अपना कोई ग्रंथ लिख डालेगा, कोई और पढ़ेगा, वह अपना श्लोक बोलने लग जाएगा। लेकिन उन सब में एक साझा सूत्र है, जैसे मोती के मनको के बीच से धागा निकल रहा हो। वो जो, जितने भी ग्रंथ भारत भूमि पर आध्यात्मिक क्षेत्र में लिखे गए हैं, उन सबमें जो साझी बात है, मैं फिर कह रहा हूँ वो साझी बात औपनिषदिक है। वो साझी बात उपनिषदों से आ रही है। जो उपनिषदों के मूल सूत्र हैं वहाँ से आ रही है।

"अहम् ब्रह्मास्मि, अयम् आत्‍मा बह्म, तत् तत्वमसि", ऐसे तीन-चार तुमको अगर बातें पता हों और तुम इनमें पैठ गए हो, इतना तुमने इनका मनन करा हो, इतना मनन करा हो कि ये बातें तुम्‍हारे बिलकुल शरीर में दौड़ने लग गई हों; "सर्वम् खलविदम् बह्म", तो फिर तुम सब समझ जाओगे। भक्ति के संतों ने क्या कहा ये भी समझ जाओगे, वहाँ चैतन्य महाप्रभु क्या कह रहे थे अचिंत्‍य भेद-अभेद वो भी समझ जाओगे। वहाँ नानक साहब क्या कह रहे हैं, वहाँ दादू साहब क्या कह रहे हैं, वो सब समझ जाओगे, अगर तुम उपनिषदों की बात समझ गए हो। मैं इतनी बार कह चुका हूँ, उपनिषद कुंजी हैं। उपनिषद समझ गए हो तो फिर बाकी सब कुछ समझ जाओगे।

तो यहाँ जो इतनी सारी शाखाएँ-प्रशाखाएँ रही हैं, बातों के इतने मत रहे हैं, इतने मतांतर रहे हैं, हज़ारों तरह के हम बोलते हैं पंथ रहे हैं, ये रहे हैं, वो रहे हैं। वो सब इसीलिए रहे हैं क्‍योंकि जब सूरज की रौशनी पड़ती है न ज़मीन पर तो लाखों तरह के फूल खिलते हैं। वेदांत सूरज की रौशनी जैसे हैं। वेदांत बारिश जैसा है। जब वो मन की ज़मीन को सिंचित करता है और जब रौशनी पड़ती है, तो उसमें अलग-अलग तरीके के बहुत सारे फूल खिलते हैं। तो फूलों में खोकर-के सूरज को और बादल को मत भूल जाना। तुम कहो, "इतने सारे अलग-अलग हैं हम किसी एक की बात कैसे कर सकते हैं? हिंदुइज्म इज़ ए रिलिजन ऑफ डाइवर्सिटी (हिन्दू धर्म विविधता का धर्म है)", साहब उस डाइवर्सिटी (विविधता) को पॉवर (ऊर्जावान)) करने वाला जो सूरज है, वो एक ही है। उस सूरज को आप कैसे भूल गए? अनेकों के पीछे जो एक है, वो एक ही है। उस एक को आप कैसे भूल गए? बस अनेकों की बात कर रहे हैं। और अनेकों की बात करके आप बस ये कहते हैं, "इसका मतलब यहाँ तो सब कुछ चलता है। हिंदुइज्म वो धर्म है, जहाँ सब कुछ चलता है। क्योंकि यहाँ तो कुछ भी, इतने सारे ग्रंथ हैं, इतनी सारी बातें हैं।" कोई ये कर रहा है, कोई वो कर रहा है, कोई आगे जा रहा है, कोई पीछे जा रहा है। वो जो अनेको हैं, मैं फिर कह रहा हूँ, वह वैसे ही हैं जैसे बारिश के मौसम में खिले हुए सैकड़ों तरह के फूल। ठीक है? वो सब अलग-अलग हैं, लेकिन उनको ऊर्जा, उनको पोषण एक ही जगह से मिल रहा है। वो जो एक है, वेदांत उसकी बात करता है। उस एक को पकड़ लो, सब सध जाएगा। एक साधे सब सधे।

प्र: तो भारत में जो इतनी विविधता है, भाषा के नाम से, संस्कृति के नाम से वो एक तरह से उसकी खूबसूरती है, किसी केंद्र का अभाव नहीं है।

मैंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पढ़ाई की है और मैंने हिंदुत्व के ख़िलाफ़ ये तर्क सुना है कि हिंदुत्व सनातन धर्म की जो विविधता है, सुंदरता है उसे अनावश्यक रूप से कट्टर बनाता है।

आचार्य: नहीं मैं हिन्‍दुत्‍व का पैरोकार नहीं हूँ क्योंकि ये जो हिंदुत्‍व है, ये सिर्फ़-और-सिर्फ़ संस्कृति की बात करता है। ये सनातन धर्म के मूल तक नहीं जाता। इसलिए मुझे हिंदुत्व से कोई लेना-देना नहीं है। पहली बात ये — मैं यहाँ पर हिंदुत्व का हिमाइती होकर नहीं बैठा हूँ। मैं यहाँ ऋषियों की वाणी आपके सामने लाने के लिए बैठा हूँ। किसी राजनैतिक-सांस्कृतिक विचारधारा से मेरा कोई लेना देना नहीं है। दूसरी बात ये जो डायवर्सिटी की बात होती है, दिस डायवर्सिटी इज़ नॉट विदाउट ए सेंटर (यह विविधता कोई केंद्र विहीन नहीं है)। आपको इतने सारे तो दिख रहे हैं जो पृथक हैं, जो भिन्न हैं, जो विविध हैं, उन सब विविधताओं के बीच में जो एक बैठा है, सब विविधताओं को जन्म देने वाला वो आपको दिखाई नहीं दे रहा। आप बहुत अँधे हो। इसीलिए हमारे संतों ने बोला है कि सब साधे सब जाय। एक को समझ लिया, एक को साध लिया तो सब पा जाओगे। पर ये बहुतों के फेर में पड़ गए तो एक तो मिलेगा ही नहीं, बहुतों को भी गँवाओगे।

ये बहुत भ्रामक बात है, कि हिंदू धर्म का तो मतलब डायवर्सिटी होता है, यहाँ तो कुछ भी चलेगा। साहब वो डायवर्सिटी , मैं फिर कह रहा हूँ वैसे ही है जैसे बरसात के मौसम में खिले हुए हज़ार तरह के फूल। भूलों नहीं कि उन सब फूलों को रंग सूरज की रौशनी ने दिया है, कि उन सब फूलों को पोषण बादलों की बारिश ने दिया है। वो जो एक बादल है, वो जो एक जल है और वो जो एक अग्नि है सूरज के रूप में, उसको कैसे भूल सकते हो? उसी को सत्‍य बोलेते हैं, वही सनातन है, वही कालातीत है। वही वेदों का केन्‍द्र है। वही पूजनीय है। उसको भूल करके तुम बस कह रहे हो ये फूल और वो फूल और ऐसा फूल और ये घास का पत्‍ता, इसी में उलझ कर रह गए तो तुम मूर्ख हो।

बस डायवर्सिटी ही दिख रही है। ये क्‍या बात है? डायवर्सिटी अच्‍छी है, जब वो डायवर्सिटी निकल रही हो, एक गहरी स्पिरिचुअलिटी (आध्यात्मिकता) से, कि, "मैं सत्‍य को समझता हूँ, इसीलिए मुझसे अब सत्‍य के अनंत रूप फूटते हैं और मैं सत्‍य के अनंत रूपों को पहचान पाता हूँ।" बहुत सारे रूप हों, बहुत सुदंर बात है पर सब रूपों के बीच में जो अरूप बैठा है, उसको जानना, रूपों को जानने से ज़्यादा महत्वपूर्ण है। वास्तव में यह जो विविध रूप हैं, ये विविध हैं ही इसीलिए ताकि उन के माध्यम से तुम उस तक पहुँच सको जो अरूप है। "मन के बहुतक रंग हैं, छिन-छिन बदले सोय। एक रंग में जो रंगे, ऐसा बिरला कोय।" तो जो बहुतक रंग हैं ठीक है, अच्‍छी बात है। वो तो संसार में पाए ही जाते हैं। पर वो जो एक रंग है जिससे बहुतक पैदा होते हैं, वो बड़ी अनोखी, बड़ी अमूल्य चीज़ है।

हम यहाँ पर अनेकों की ख़िलाफ़त नहीं कर रहे। ये जो अनेक हैं, जो विविध हैं, हमें इनसे कोई समस्या नहीं, हम इन्‍हें ख़त्म नहीं करना चाहते। हम बस ये कह रहे हैं कि वो सब जो अनेक हैं, उनके मूल में जो एक बैठा है उसको भूल मत जाना। वो जो अनेक हैं वो एक की छाया में रहें, एक के संपर्क में रहें, एक से पोषण पाएँ तो फिर वह सब जो अनेक हैं, विविध हैं वो सुहाते हैं, वो भी पूजनीय हो जाते हैं। पर ये जो अलग-अलग हैं, विविध हैं, अनेक हैं, अगर इनका कोई साझा केन्‍द्र नहीं, तो फिर तो ये वृक्ष से झड़े हुए, पौधों से टूटे हुए पत्‍तों और फूलों जैसे हैं। इनमें कोई जीवन नहीं क्‍योंकि ये अपने अब मूल से अलग हो चुके हैं। जो मूल से टूट गया उस पत्‍ते में अब क्‍या दम, जो मूल से टूट गया उस फूल में अब क्‍या सुगंध।

प्र: आचार्य जी, हिन्‍दुओं का एक राजनैतिक विचारधारा, या एक तरह के बिहेविरियल पैटर्न (व्यवहार-स्वरुप) से यूनाइट (एकत्र) होने में और हिंदुओं का एक ग्रंथ के प्रति या उपनिषदों के प्रति समर्पित होने में, दोनों में मूल भेद क्‍या रहेगा? क्योंकि हिन्दू तो राजनैतिक रूप से संगठित हो ही रहे हैं।

आचार्य: क्योंकि उपनिषद किसी विचारधारा को आगे नहीं बढ़ा रहे। उपनिषद कोई आईड्योलाजी (विचारधारा) थोड़े ही हैं भई। वो तो सारे विचारों को काटने का काम करते हैं, वो तो मौन में ले जाते हैं तुमको। तो कोई व्यक्ति किसी किताब को पढ़े, अब जैसे विचारधाराओं की किताबे हैं और आप पढ़ते हो, कहते हो आप फलाने इज़्म को मानते हो, आप फलानी आइडियोलॉजी को मानते हो, तो आपको ये किताब पढ़नी ही होगी। फिर आप उसको पढ़ते हो, उस किताब में दीक्षित हो जाते हो, जो-जो बातें लिखी हैं, आप दोहराना शुरू कर देते हो। उपनिषद ऐसे थोड़े ही हैं। उपनिषद आपको अहम् से परिचित कराते हैं कि अहम् कैसे काम करता है, और अहम् के काम करने की प्रक्रिया में विचार बड़े महत्‍वपूर्ण होते हैं। आपको समझ में आता है कि आपके विचार आप के हैं ही नहीं। विचार पराए हैं इसीलिए अहम् भी पराया है। तब आप विचारों से ज़रा अलग होकर-के सत्य में जाने का साहस पटा पाते हो। नहीं तो आप विचारों में ही उलझे रह जाओगे।

मैं फिर समझा रहा हूँ, उपनिषद कोई विचारधारा नहीं हैं। उपनिषद कोई बात नहीं कहते कि ये बात है हमारी मान लो। उपनिषद कोई बिलीफ सिस्‍टम (मान्यताएँ) आपको नहीं देते कि फलानी मान्यताएँ हैं इसमें विश्‍वास करो। उपनिषद किसी भी अन्य धार्मिक किताब जैसे नहीं हैं, कि ऐसा हुआ था, ऐसा हुआ था, ऐसा हुआ था अब मान लो। उपनिषद कोई इतिहास नहीं पढ़ा रहे आपको। उपनिषद ना आपको कोई ऐतिहासिक वर्णन दे रहे हैं, ना आपको कोई सांस्कृतिक पाठ पढ़ा रहे हैं। उपनिषद दुनिया की दूसरी धार्मिक किताबों जैसे नहीं हैं भाई। वो आपको आपके भीतर ले जाने की कोशिश कर रहे हैं। आपको चुनौती दे रहे हैं बल्कि, कि क्या तुम अपने मन को समझ सकते हो? ये जो तुम 'मैं' करते रहते हो, ये जो अहम्-अहम् बोलते रहते हो 'मैं-मैं', ये 'मैं' कहाँ से आया उसकी कामनाएँ कहाँ से आईं, उसके विचार कहाँ से उठ रहे हैं। भावनाएँ कहाँ से आ रही हैं, कहाँ जाना चाहता है, कहाँ को आना चाहता है — ये सब बातें ये उपनिषदों में हैं।

प्र: जो आज का सत्र है ये धार्मिक रूप से अरुचि रखने वालों के लिए कैसे उपयोगी है?

आचार्य: ये कोई चीज़ ही नहीं होती रिलिजीयसली इंडिफ्रेन (धार्मिक अरुचि), इंसान है या नहीं? आदमी के ही तो बच्‍चे हैं न?

प्र: ज़्यादा तादाद आजकल वो ही है जो रिलिजीयस आईडेन्‍टीटी (धार्मिक पहचान) रखती ही नहीं है।

आचार्य: भई आप जो भी हैं, आप इंसान हैं, रिलिजीयस आईडेन्‍टीटी मानें चाहे ना मानें। और जो इंसान पैदा हुआ है, उसके पास एक बेचैन तड़पती हुई चेतना है, जो कहती है, "मुझे मुक्ति चाहिए, सच्चाई चाहिए, मैं झूठ में नहीं जीना चाहती। मैं सीमाओं में नहीं जीना चाहती।" चेतना की इसी छटपटाहट इसी तड़प को शांत करने का उपाय धर्म होता है। तो वो इंसान, इंसान ही नहीं है, जो कहे कि, "मैं रिलीजियस नहीं हूँ।" बात समझो। क्योंकि इंसान तो रिलीजियस (धार्मिक) होता ही है। जन्म से रिलीजियस होता है। एक बच्चा पैदा होता है। वो हाथ बढ़ाता है कि, "मुझे कोई चीज़ चाहिए, मुझे पोषण चाहिए, दूध चाहिए या मुझे खिलौना चाहिए।" यह भी एक तरह की प्रछन्‍न धार्मिक गतिविधि है भाई, क्योंकि वो जो भी कुछ कर रहा है, वो किसलिए कर रहा है? अपनी शांति के लिए। मन को जो शांति दे उसी को तो धर्म बोलते हैं। तो छोटा बच्‍चा भी जन्‍म से ही धार्मिक है। बस अभी उसकी जो धार्मिकता है वो इतनी सूक्ष्म है, इतनी सद्यजात है कि उस धार्मिकता में कोई दम नहीं है। उसकी धार्मिकता तो वैसी ही है जैसे समझ लो किसी पशु की धार्मिकता। क्‍यों‍कि खाना-पीना तो पशु भी माँगते हैं। इस धार्मिकता को आगे जाकर के परवान चढ़ना होता है। इस धार्मिकता को आगे जाकर के पूरे तरीके से पुष्पित-पल्लवित होना होता है।

इंसान रह ही नहीं सकता बिना धर्म के, जो कहते भी हैं कि, "हमारा कोई धर्म नहीं है" उन्होंने यही धर्म बना लिया है कि 'हमारा कोई धर्म नहीं है'। तो धर्म तो सबके पास है। जो लोग कहते हैं, "हम फलानी विचारधारा में यकीन रखते हैं, हम धर्म को नहीं मानते", वो विचारधारा उनका धर्म है। धर्म का मतलब क्या है? धर्म का मतलब है वो करना जो आपके लिए वास्तव में सही है, ठीक है। धर्म का ये मतलब है - वो करना जो मेरे लिए वास्तव में सही है। अब हर इंसान अपनी समझ से तो वही कर रहा है न जो उसके लिए सही है? तो हर इंसान धार्मिक है। बस कुछ लोगों का धर्म सुलझा हुआ है और कुछ का धर्म भ्रमित है, उलझा हुआ है। मैं आप से कह रहा हूँ कि सही धर्म की ओर चलें। जैसे गौतम बुद्ध कहा करते थे कि हीन धर्म का सेवन मत करो। मतलब समझ रहे हो? हीन धर्म का सेवन नहीं करना है। धर्म का सेवन तो सभी कर रहे हैं, वो भी कर रहे हैं, जो अपने आप को नास्तिक, अथीस्‍ट , एग्‍नोस्‍टीक , अधार्मिक कुछ भी बोलते हैं। धर्म का सेवन तो वह भी कर रहे हैं, बस वो हीन धर्म का सेवन कर रहे हैं। ऊँचे धर्म का सेवन करो। ऊँचा धर्म कौन सा है? जो तुम्हें वास्‍तव में मुक्ति दे, आज़ादी दे, ऊँचाई दे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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