प्रश्नकर्ता: आचार्य जी नमस्ते! हाल ही में एक हथिनी की हत्या के संबंध में देश में बहुत खलबली रही। आचार्य जी उस हथिनी में ऐसा क्या था कि पूरा देश ही भावुक हो गया? वो लोग भी जो रोज़ जानवर खाते हैं वो सोशल मीडिया पर आकर बयान देने लग गए। क्या जानवर जानवर में भी भेद होता है? कोई मुर्गा-मुर्गी मरते, कोई बकरा-बकरी मरते तो कोई पूछता? क्या कुछ जानवर खाए जाने के लिए ठीक होते हैं और कुछ ठीक नहीं होते? क्या खाने के लिए मारना और मज़े के लिए मारना, जैसा हथिनी के साथ हुआ अलग-अलग होता है? क्या हत्या-हत्या में भी अंतर है?
आचार्य प्रशांत: ये एक बहुत प्रचलित, बहुत भ्रामक, बहुत हिंसक और बहुत मूर्खतापूर्ण धारणा है कि कुछ जानवर तो खाने के लिए ही बनाए गए हैं। जिन भी लोगों में ये धारणा हो, वो ज़रा ईमानदारी से अपने आप से पूछें कि ये क्या सोच रहे हैं वो? और ये बहुत लोगों का तर्क होता है कि हाथी को मार देना गलत है पर अगर रोज़ मुर्गा-बकरा काट कर खा रहे हैं तो ये ठीक है क्योंकि कुछ जानवर तो ऊपर वाले ने बनाए ही हैं काट के खाने के लिए और कुछ जानवर खाने के लिए नहीं बनाए गए हैं। ये बात तुम्हें किसी जानवर ने बताई? "कि मैं तो बना ही हूँ खाने के लिए!" ये बात तुम्हे प्रकृति ने बताई कि कुछ जानवर बने ही हैं खाने के लिए? ये जहाँ से भी बात आ रही है तुम्हारे मन में, ये बात निहायत हिंसक, वाहियात और बेवकूफ़ी भरी है।
तुम्हें जीव में जीव नहीं दिखाई दे रहा? तुम्हें प्राणी में प्राण नहीं दिखाई दे रहा? अपनी ज़बान के स्वाद के चलते जिन जानवरों का माँस तुम्हें प्रिय है उनको तुम कह देते हो- "ये तो बना ही है खाने के लिए।" और इस तरह के कुटिल और हिंसक तर्क देने के लिए अक्सर तुम धार्मिक किताबों का भी सहारा ले लेते हो? कहते हो फ़लानी किताब में ऐसा लिखा है कि इस जानवर को मार के खाओ तो कोई बात नहीं हो गई और उस जानवर को मत खाना। यह बहुत ही बचकानी बात है और बिल्कुल ठीक कहा तुमने बहुत हास्यास्पद होता अगर यह इतना दुखद न होता कि जो लोग रोज़ खा रहे होते हैं माँस वगैरह वह भी आकर के घड़ियाली आँसू बहा रहे थे कि अरे! हथिनी के साथ बहुत बुरा हो गया। हो सकता है प्लेट में चिकन रखा हो और ट्विटर पर वो बहुत उग्र संदेश डाल रहे हो कि हथिनी को मारने वाले लोग बड़े राक्षस हैं। जो हथिनी को मारे वो राक्षस और जो मुर्गा खा रहा हो मार कर के, वो क्या हुआ फ़िर?
सब लोगों ने आकर के शोर मचाया कि हथिनी के साथ जो हुआ उसे मौत नहीं हत्या बोलना चाहिए तो वो लोग जो माँस की ख़ातिर और स्वाद की ख़ातिर रोज़ जानवर काटते और खाते हैं उन्हें क्या बोलना चाहिए? हत्यारा! और हत्यारे से कम कुछ भी क्यों बोले उनको? वहाँ किसी जंगल में, किसी गाँव में, किसी हथिनी का वध हो गया तो आप इतने आँसू बहाने लगे और आपके सभ्य शहरों के बीचो-बीच इतने बड़े-बड़े कत्लखाने और कसाईखाने खुले हुए हैं जिनमें हज़ारों-लाखों जानवरों की रोज़ निर्मम हत्या होती है तब आपको बुरा नहीं लगता? और ऐसे भी तर्क दिए जाते हैं कि देखिए साहब! खाने के लिए किसी जानवर को मारना ठीक है पर हथिनी को तो मज़े के लिए मारा गया न?
अच्छा? क्या तर्क है? कि खाने के लिए किसी को मारना ठीक है लेकिन मज़े के लिए किसी को मारना ठीक नहीं है। जैसे कि मौत और मौत में कोई अंतर होता हो? दोनों ही स्थितियों में तुमने अपने स्वार्थ के लिए किसी जीव का वध किया है। ठीक? ज़बान भी तुम्हारी, मज़ा भी तुम्हारा। तुम चाहे ज़बान के लिए मारो और चाहे मज़े के लिए मारो जिसको मारा वो तो मरा ही न? और जिसको मारा उसका क्या हित था मरने में?
तो ये तो पाखंड की सीमा है कि ऐसे देश में जहाँ अब करीब करीब 70-75 प्रतिशत आबादी माँसाहारी हो चुकी है वहाँ लोग अपने गिरेबान में झाँक कर नहीं देख रहे हैं और दूसरों की और उंगलियाँ उठा रहे हैं। दुनिया से अपराध और हिंसा और घृणा और युद्ध और तमाम तरह की पाश्विकताएँ नहीं मिट सकती जब तक सुबह-सुबह शहरों की सड़कों पर वह गाड़ियाँ दौड़ रही होंगी जिनमें छोटे-छोटे दरबों में सैकड़ों मुर्गे कैद होते हैं। हम इसे सभ्यता बोलते हैं, हम इसे कह रहे हैं - हमारे शहर सभ्यता के अड्डे हैं और इन शहरों की सड़कों पर रोज़ वो गाड़ियाँ दौड़ती हैं, रोज़ लाखों-करोड़ों जानवरों को कत्ल किया जाता है सिर्फ़ इसलिए ताकि आपकी ज़बान को स्वाद मिल सके। आपको क्या लगता है यह जो गुनाह है, इसकी कोई सुनवाई नहीं होने वाली? जो तड़प-तड़प के मर रहे हैं आपको क्या लगता है उनकी 'आह' व्यर्थ जाने वाली है? नहीं बिल्कुल भी नहीं!
जो मन जानवरों के प्रति हिंसक है भूलिएगा नहीं वो सबके प्रति हिंसक होगा। वो पूरी दुनिया के प्रति हिंसक होगा। समाज के देश के प्रति हिंसक होगा यहाँ तक की वो अपने परिवार के प्रति हिंसक होगा, वो अपने ही छोटे बच्चे के प्रति हिंसक होगा। जानवर को मार कर के आप चैन से नहीं जी सकते। बात ख़त्म!
और आप कितने भी तर्क दे लें कि नहीं साहब! हमारे समुदाय में तो जानवर को मारना तो ठीक माना जाता है, अनुमति है। ये बात समुदाय वगैरह की नहीं है, ये बात सत्य की है। आपके पंथ की कोई परंपरा चल रही है उससे सत्य नहीं बदल जाएगा। और आप सौ तरह के तर्क देने लग जाएं उससे भी सत्य नहीं बदल जाएगा। हत्या-हत्या होती है और कुतर्कों का कोई अंत नहीं है बहुत तरह के कुतर्क दिए जा चुके हैं। मैं उन सब कुतर्कों के समय-समय पर जवाब दे चुका हूँ।
एक कुतर्क ये होता है कि पौधों में भी तो जान होती हैं। इसका भरपूर जवाब मैं बहुत बार दे चुका हूँ। एक कुतर्क ये होता है कि जानवर नहीं खाएँगे तो प्रोटीन और अन्य तरीकों के पोषण कहाँ से मिलेंगे? उसका जवाब भी दे चुका हूँ। ये सारे कुतर्क बेहूदे हैं, इन सबकी बात मत करिएगा बात बस इतनी सी है जानवर कमज़ोर है, आपका विरोध नहीं कर सकता तो आप उसे मार ले जाते हैं। इसी जानवर में ताकत होती तो आप अपनी ही जान बचाकर भाग रहे होते। कोई हो जाए ऐसा जानवर जो आपकी सब मशीनों पर भारी पड़े, आपकी ताकत से कहीं ज़्यादा उसकी ताकत हो, आप खाएँगे क्या उसको? तो आप जितने भी तर्क दे रहे हैं वो वास्तव में सिर्फ़ पाशविक ताकत के तर्क हैं। ले दे के बात बस इतनी है कि मुर्गा अशक्त है तो आप उसको पकड़ के काट देते हो कुछ आपका बिगाड़ नहीं सकता वो और उसके माँस में मसाला वगैरह मिला कर खाने से आपको बड़ा ज़ायका आता है और ये बात फ़िर कह रहा हूँ बिल्कुल हैवानियत की है कि जो कमज़ोर मिला उसको काट दिया। जो कमज़ोर मिला उसको काट दो और उसके माँस में मसाला मिला कर खा जाओ और फ़िर अपनी बात को सही साबित करने के लिए इधर-उधर के पचास तर्क गढ़ो।
हथिनी का मरना निःसंदेह दुर्भाग्यपूर्ण और अति दुःखद है लेकिन ये अच्छे से समझ लीजिए कि हम प्रतिदिन करोड़ों नहीं अरबों जानवरों को मार रहे हैं, करोड़ों नहीं अरबों जानवरों को मार रहे हैं। इतने बड़े पैमाने पर हत्या, कैसे जी लोगे चैन से? जिस प्रकृति से तुम आए हो उसी प्रकृति से वो सब जीव भी आए हैं। स्रोत तो हमारा एक ही है। ऐसा नहीं है कि उन सब जीवों का कोई माई-बाप नहीं।