प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, हर समय परमात्मा याद कैसे रहे?
आचार्य प्रशांत: परमात्मा नहीं याद रहेगा। जो याद रखने वाली चीज़ें हैं उन्हें याद रखो। उदाहरण के लिए, अभी ऐसे बैठे हो थोड़ी देर में मैं नहीं होऊँगा यहाँ पर। तब और बातें याद करने की जगह इसी पल को याद रख लेना।
अगर याद से तुम्हारा तात्पर्य स्मृति है तो स्मृति भी उसकी रखो न जो सार्थक है। स्मृति में उसको क्यों घूमने देते हो जो व्यर्थ है। और अगर याद से तुम्हारा तात्पर्य सुरति है तो उसके साथ तो तुम मजबूर हो। वहाँ तुम्हारा कर्ताभाव नहीं चलता है। सुरति को लेकर तुम कोई योजना नहीं बना सकते, सुरति तो स्वयमेव होती है। और वो इस पर निर्भर करती है कि सत्संग में तुम कितना गहरा डूबे। इतना गहरा डूब जाओ कि बाहर आ ही न पाओ।
भई! जो डूबा लेकिन जान बचाये रहा वो क्या करेगा? अरे! वो बाहर आ जाएगा, हाथ-पाँव मारेगा। और तुम, डूब के, डूब ही जाओ कि तुम्हारे बाहर आने की कोई सम्भावना न रहे। अब ये तो छवि ही ख़तरनाक लगती है कि डूबे और मर गये। तो तुम दूसरी छवि ले लो, तुम डूब के घुल जाओ, जिसमें डूबे हो उसी में मिल जाओ।
शक्कर पानी में डूब जाए तो मर थोड़े ही जाती है। क्या होता है उसका? मिल जाती है। मर जाने और मिल जाने में भेद हैं। तुम मिल जाओ। ये मरना, मिटना नहीं है, ये मरना मिलना है। इस मिट जाने में मिलाप है।
फिर बाहर आ ही नहीं पाओगे। शक्कर घुल गयी फिर उसे बाहर ला सकते हो। बड़ा मुश्किल पड़ेगा। तो इतना गहरे डूब जाया करो। इतना गहरे डूब जाया करो कि जब भजन नहीं भी चल रहा हो, जब सत्संग नहीं भी चल रहा हो, जब मेरी उपस्थिति नहीं भी हो, तो भी तुम वैसे ही हो जैसे अभी थे। पर उसका इंतज़ाम तुम बाद में नहीं कर पाओगे। बाद में जैसा मैंने कहा, ‘तुम मजबूर हो।’ उसकी व्यवस्था तुम बस अभी कर सकते हो। अभी ऐसा डूबो कि, डूब गये, भूल गये। उसको कहते हैं, लीन हो गये, लय हो गये।
और मान लो नहीं हो पाये पूरी तरह से लय, आदमी तो आदमी है। थोड़ी बहुत चोरी तो कर ही लेता है; थोड़ा घुल गये, थोड़ा बचा लिया। जब कोई नहीं देख रहा था तो आँख बचाकर पॉकेट में डाल लिया, ‘इतना तो बचा ही ले जाएँ।’ दस में से नौ हिस्सा गुरुदेव की मानी एक हिस्सा तो हमारी भी चलनी चाहिए न। तो फिर जब सत्संग पूरा होगा तो इधर-उधर की यादें सताएँगी वही बहुत महत्त्वपूर्ण लगेंगी। है न?
उससे पैसा लेना है फ़लानी चीज़ ख़रीदनी है — नून, तेल, लकड़ी। जब उस तरह की यादें आने लगें, स्मृतियाँ ही मन पर छाने लगें, तो तुम कहना, ‘जब याद करना ही है, जब — नाम, रूप, स्मृतियाँ, अतीत की घटनाएँ — यही सब मन में चलनी ही हैं, तो फिर मैं चुनूँगा कि मुझे कौनसी घटना को मन में चलने देना है।’ और फिर तुम चुनो, फिर जिस घटना में सात्विकता हो, सार्थकता हो, सत्यता हो, तुम कहो, ‘ये घूमे मन में, अब हम याद करेंगे भी तो इसको याद करेंगे।‘
मैंने दो बातें कहीं — पहली तो ये कि तुम्हें कुछ भी याद करने की ज़रूरत ही न पड़े; याद करने वाला ही घुल जाए। जब याद करने वाले ही घुल गया तो क्या याद आता है, क्या याद नहीं आता, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, अब सब ठीक है। ऊपर-ऊपर यादें चलती रहेंगी और भीतर वो बैठा हुआ है जिसे सन्तों ने कहा है, “सुमिरन सुरति।”
“सुमिरन सुरति” — ये स्मृति के काम थोड़े ही होते हैं। याददाश्त के काम थोड़े ही होते हैं कि तुम बैठकर याद कर रहे हो कि कृष्ण की छवि कैसी है। न!
“सुमिरन सुरति” दूसरी चीज़ है, उसमें बाहर-बाहर दुनियादारी का खेल चलता रहता है और भीतर कृष्ण की मुरली बजती रहती है। वो हो जाए तो उससे अच्छा कुछ है ही नहीं। और वो हो जाने का उपाय ये है कि अभी डूब जाओ, अभी डूब जाओ।
वो न हो पाये और तमाम तरह की स्मृतियाँ आ जाए, और तुम पर हावी होने लगें इधर-उधर के ढोल नगाड़े बज रहे हैं और मुरली सुनायी नहीं दे रही। अब तुम्हें दिख गया है कि भाई सुरति तो टूटी। उसका धागा तो टूट गया। क्योंकि ढोल-ही-ढोल सुनायी दे रहे हैं, मुरली सुनायी नहीं दे रही। तो तुम कहो कि जब इधर-उधर की घटनाएँ ही याद आनी है तो चुनाव करूँगा, मैं चैतन्य चुनाव करूँगा। और मैं क्या चुनूँगा? वो घटना जिस घटना में परमात्मा की ख़ुशबू है।
मेरे ज़ेहन में अगर चेहरे ही घूमने हैं, मेरी आँखों के सामने अगर छवियाँ ही कौंधनी हैं, तो मैं चुनूँगा। और मैं कहूँगा, ‘मेरी आँखों के सामने वो चेहरा घूमे, मेरे ज़ेहन में वो छवि स्थापित रहे जो मुझे शीतल करती है।‘ लेकिन इस दूसरी विधि की नौबत न आये तो ही अच्छा। सबसे अच्छा ये है कि तुम ऐसे डूब जाओ की तुमको कोई चुनाव करना ही न पड़े। दुनिया का मेला चलता रहे और भीतर, “मुरली बाज उठी अन घाताँ”, चुपचाप अनघत बज रही है। अन घाताँ, अनहद बजे जा रही है।
जो नये-नये साधक होते हैं उनको दूसरी विधि का सहारा लेना पड़ता है। वो अपने कमरे में गुरुओं की, अवतारों की मूर्तियाँ लगाएँगे, चित्र लगाएँगे। उनके शब्द न भूलें उसके लिए उनके पोस्टर इत्यादि लगाएँगे। ये वो क्यों कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि दिमाग में कुछ-न-कुछ तो चलेगा। और कुछ और चले इससे अच्छा है कि ये चले।
तो बहुत सारे साधक इसका इस्तेमाल करते हैं। वो गाड़ियों में बैठेंगे तुरन्त गाड़ी में क्या शुरू कर देंगे? भक्ति संगीत शुरू कर देंगे या किसी प्रवचन की रिकॉर्डिंग लगा देंगे। घर पर आएँगे तुरन्त सीडी लगा देंगे, उसमें कबीर साहब बज रहे हैं या कोई सत्संग, प्रवचन चल रहा है वो अपना सुन रहे हैं। ये उनके लिए आवश्यक है क्योंकि उन्हें पता है कि अगर ये नहीं चलेगा तो कुछ और चलेगा। वो कहते हैं, ‘कुछ और चले उससे पहले मैं ये चला दूँ।‘ ये सारे काम चल रहे हैं छवियों, स्मृतियों और इंद्रियगत अनुभवों के तल पर। और फिर साधना की एक अवस्था वो आती है जब तुम्हें शनै-शनै कम ज़रूरत पड़ती है कि तुम मूर्ति देखो या कानों से सुनो, उस अवस्था में मुरली बजने लग जाती है भीतर ही।
अब बहुत फ़र्क़ नहीं पड़ता कि आँखों से चित्र दिख रहा है या नहीं और कानों से शब्द सुनायी दे रहा है या नहीं। अब गुरु भीतर आकर बैठ गया है। पर जबतक — याद रखना, याद रखना कि जबतक — गुरु भीतर ही आकर न बैठ जाए तबतक उसे बाहर अपनी आँखों से ओझल मत होने देना, क्योंकि बाहर तुम्हारी आँखों से ओझल हुआ तो तुम्हारी आँखे जाकर के बैठ जाएँगी कहीं और।
तो जबतक आँखों की आदत है बाहर की ओर ही देखते रहने की, तो तुम आँखों के साथ एक खेल, खेल लो, आँखों के साथ एक उपाय कर लो। आँखों को ज़रा बुद्धू बना दो एक तरक़ीब से। क्या तरक़ीब? कि आँखे कह रही है कि साहब हमें तो बाहर ही देखते रहना है, और मन कह रहा है हमें तो साहब संसार का ही चिंतन करना है, और कान कह रहे हैं हमें तो साहब बाहर की ही दुनिया सुननी है।
तो तुम कहो, ‘ठीक कानों तुम्हें बाहर का ही सुनना है, लो मैं तुम्हें कबीर साहब का भजन सुनाऊँगा। तुमने यही तो कहा था कि बाहर की चीज़ सुननी है। तो लो भजन सुनो। और आँखों तुमने यही तो कहा कि मुझे बाहर-ही-बाहर सबकुछ देखना है तो बाहर मैं जहाँ-जहाँ जितना-जितना देख सकता हूँ। वहाँ मैं कृष्ण की मूर्ति लगा दूँगा, राम का चित्र लगा दूँगा। जिधर देखूँ वही दिखायी दें। क्योंकि वो न दिखायी दिये तो इन आँखों को जानता हूँ, इनका बेहूदापन जानता हूँ, मैं जानता हूँ ये कहाँ जाकर चिपक जाएँगी।’
‘और मन तुझे अगर बाहर की ही स्मृतियों में डोलना है तो मैं चुनाव करूँगा कि बाहर की स्मृति रहे उन घटनाओं की, उन बातों की, उन वाक्यों की, उन सूत्रों की, उन लोगों की जिनकी स्मृति मात्र से मन पावन हो जाता है।’
और जब तुम ये करते रहते हो, करते रहते हो कि आँखे देखेंगी तो राम को देखेंगी, कृष्ण को देखेंगी, गुरु को देखेंगी जितना सम्भव हो सकेगा उतना। और कुछ याद करूँगा अगर तो वही याद करूँगा जो मन को निर्मल करता हो। तो धीरे-धीरे मन की, आँखों की, कानों की जो बहिर्गामी प्रवृत्ति होती है वो क्षीण पड़ने लग जाती है। क्योंकि वो बाहर अब जिसकी ओर जा रहे हैं वो वैसा है कि वो भीतर भेज देता है वो रिफ्लेक्टर (परावर्तक) है।
आँखें उसकी ओर गयीं और उसने क्या कहा आँखों को? ‘चलो भीतर जाओ।’ जैसे अभी तुम मेरे सामने बैठे हो। तुम्हारी आँखें मुझे देख रही हैं और मैं तुम्हारी आँखों से कह रहा हूँ, मुझे मत देखो अपनेआप को देखो। तो मैं क्या हो गया? मैं आइना हो गया। मैं क्या कर रहा हूँ अभी यहाँ पर? जो आँख मेरी ओर आ रही है उस आँख को मैं वापस भेज रहा हूँ कि जाओ अपने भीतर प्रवेश कर जाओ।
तो जैसे-जैसे तुम अपनी आँखों को, कानों को, मन को, इंद्रियों को सत्य ही विषय रूप में देते जाते हो। इन सबको विषय चाहिए न — आँखों को विषय चाहिए, मन को विषय चाहिए — और ये चिल्लाएँगे, भूखे हैं, माँगेंगे, विषय दो! कुछ दो जिसे पकड़ लें। तुम उन्हें सात्विक आहार दे दो। जैसे बच्चा भूखा हो, चिल्लाता भूख लगी है, भूख लगी है, तो तुम ये थोड़ी कहोगे कि कुछ खा मत, तुम खाना तो उसको दोगे पर क्या खाना दोगे, अच्छा खाना दोगे न। तो वैसे ही आँखे माँगेंगी कि हमें देखना है कुछ, हमें देखना है कुछ। तुम उन्हें कहो, ‘अच्छा तुम्हें देखना है, हम दिखाते हैं, लो ये देखो।‘ क्या दिखा दिया तुमने? तुमने कृष्ण की छवि दिखा दी, ‘लो देखो।’
तुम गये यूट्यूब पर कोई रिकॉर्डिंग खोली, दिखा दी। बोले, ‘तुम्हारा बहुत मन कर रहा था न कि कुछ देखना है लो, ये देखो।’ बच्चा भूखा था कि खाना है, तुमने उसे फल दे दिया, लो खाओ फल पौष्टिक है। ये थोड़ी है कि बच्चा कह रहा है भूख लगी है, भूख लगी है, तुमने उसको चटपटी चाट… भले ही वो गया था बाज़ार चटपटी चाट खाने, तुमने उसी चटपटी चाट के बगल में फल की दुकान से ख़रीद के उसको सेब दे दिया, ले सेब खा बेटा।
अब गया था यूट्यूब पर कि आज कुछ चटपटा हो जाए, मसालेदार। अब तुमने पकड़ लिया कि मैं समझ रहा हूँ ये काहे के लिए आ रहा है, ‘चल टाइप कर आचार्य प्रशांत।’ (श्रोतागण हँसते हैं।)
और वो बड़ा कुलबुलाएगा। कहेगा, ‘यहाँ चिकनी चमेली टाइप करना था और टाइप क्या करा दिया, आचार्य प्रशांत सफ़ेद दाढ़ी वाला। कहाँ चिकनी चमेली, कहाँ ये राक्षस।‘ जैसे बच्चा शोर मचाता है, उसे चाट खानी है तो तुम उसे सेब दोगे तो क्या करता है? वो मुट्ठी भींचेगा, पाँव पटकेगा। वैसे जब मन चिकनी चमेली माँग रहा हो तुम उसे आचार्य प्रशांत थमा दोगे तो उसे ग़ुस्सा तो आएगा-ही-आएगा। थमा दो, बोलो, ले खा।
ऐसा होते-होते धीरे-धीरे सेब में रस आना शुरू हो जाता है। मन अंतर्मुखी हो जाता है भीतर की यात्रा पर चल देता है। क्योंकि बाहर जिसके पास गया था उसी ने कहा कि भीतर जा। संसार के पास मन जाएगा अगर तो संसार कहेगा, ‘और आ बाहर; आ, और आ बाहर। और बाहर अगर उधर कहीं गुरु बैठा है तुम्हारा उसकी ओर मन गया। तो गुरु कहेगा, ‘जा भीतर जा, और स्वयं में प्रवेश कर जा, जा।’
तो बाहर अगर मन जा ही रहा हो तो तुम्हारे लिए श्रेष्ठ ये है कि उसको सत्य की दिशा में भेजो, सन्तों की दिशा में भेजो। वो उसको वापस तुम्हारे अंदर भेज देंगे, और फिर धीरे-धीरे वो भीतर ही स्थापित हो जाता है। फिर वो कहता है, ‘अब संसार में कुछ भी चलता रहे, भीतर बाँसुरी बज रही है। अब चलता रहे जो चल रहा है संसार में हमें रुचि ही नहीं बाहर की ओर जाने में।’
अब तो बाहर जिसकी ओर भेजा गया कई बार वो भीतर ही मिल गया है। अब मगन होकर घूमो अब कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। इधर ये चल रहा हो उधर वो चल रहा हो। छत्तीस तरह के प्रपंच चल रहे हों दुनिया में तुम मौज में रहोगे।
प्र: आचार्य जी, जिस तरह आप किसी चीज़ को पूर्णतया देख पाते हैं, हम क्यों नहीं देख पाते?
आचार्य: क्योंकि अभी तो तुम्हें किसी और की ओर ही देखना है। अभ्यास ग़लत हो गया है, आँखों को आदत लग गयी है। अभ्यास मिल गया है किधर की ओर जाने का? बाहर की ओर जाने का। तो ये तो पुरानी पीड़ा है, ये तो पुराना बोझ है। अभी तुम कह रहे हो मेरा अपना कुछ क्यों नहीं? मुझे क्यों सोचना पड़ता है कि आचार्य जी क्या सलाह देंगे? क्या कहेंगे?
क्योंकि तुम्हारा अपना बहुत दब गया है। तुम्हारे पास अपना कुछ बचा ही नहीं है या ये कह लो कि तुम्हारे पास जो अपना है तुमने उसके ऊपर इतना कुछ लाद दिया है कि वो दिखता ही नहीं है। तो अभी तो तुम्हारी विवशता है तुम्हें संसार की ओर ही देखना पड़ेगा। हाँ, अभी तुम बस एक चुनाव कर सकते हो कि संसार में देख रहे हो तो किसको देख रहे हो।
अभी तुम ये कोशिश मत कर लेना कि मैं अपनी सुनूँगा और अपनी चलाऊँगा, क्योंकि अभी जो अपना है, निज है, आत्मिक है वो तुम्हें उपलब्ध ही नहीं है। अभी तुम अपने के नाम पर किसी और की चला लोगे और तुम्हें पता भी नहीं चलेगा ये कौन है जो तुम पर चढ़ गया। ये भूल बहुत लोग कर रहे हैं। जितने भी निजतावादी हैं, इन्डविजूअलिस्ट्स (व्यक्तिगत) हैं वो सब यही भूल कर रहे हैं।
वो कहते हैं, ‘हम गुरु की नहीं सुनेंगे, हम अपनी सुनेंगे।‘ भाई तुम्हारे पास अपना कुछ है ही नहीं तुम किसकी सुन रहे हो। जिसको तुम अपना कह रहे हो वो सांसारिक है। और तुम इतने भ्रम में हो कि जो कुछ तुमने संसार से पाया है — संसारी विचारधाराएँ, प्रभाव, संसारी संस्कार, सारी कन्डिशनिंग (अनुकूलन) — उसको तुम कह रहे हो कि ये तो मेरा है, वो तुम्हारा है ही नहीं। तुम्हारा क्या है ये भी तुम्हें तब पता चलेगा न जब पहले तुम गुरु की तरफ़ जाओगे। ये बहुत बड़ी भूल है इसको समझना।
बहुत इस भ्रम में रहते हैं और वो अपने भ्रम को जायज़ ठहराने के लिए कहीं से कुछ भी उद्धृत करते हैं। वो आकर कहते हैं, ‘बुद्ध ने कहा था न “अप्प दीपो भव”।‘ बुद्ध ने कहा था पर क्या तुमसे कहा था? उससे कहा था न जिसका दीया जल रहा हो। तुम्हारा दीया तो कब का बुझ गया समाज और संसार की हवाओं तले। तुम्हें तो अभी कोई चाहिए जो स्वयं प्रकाशित हो और उसकी लौ से तुम्हारा दीया भी जल उठे।
तुम हाथ में दीया लेकर घूम रहे हो और वो दीया है बुझा हुआ, और फिर तुमसे कहा जाए तुम अपना दीया स्वयं बनो। तो तुम करोगे क्या उस बुझे हुए दीये का। सामर्थ्य पूरी है उस दीये में कि वो तुम्हें रोशनी दिखा सकता है, पर सामर्थ्य मात्र है। दीया भी है, तेल भी है, बाती भी है; प्रकाश कहाँ है? प्रकाश तो बुझ गया, ज़माने की हवाएँ चलीं और दीये की रोशनी बुझा गयी। सामर्थ्य लेकिन दीये में अभी पूरा है, सम्भावना है, पोटेंशिअल (क्षमता) है।
पर दीया तो अब तब चलेगा न जब वो किसी दूसरे जले हुए दीये के संपर्क में आएगा, फिर जल उठेगा, फिर तुम्हारा सामर्थ्य साकार हो जाएगा, मूर्त रूप ले लेगा, फिर तुम चलो अपनी रोशनी पर। जब तुम्हारा दीया जल जाए तब तुम बेशक और बेधड़क अपनी रोशनी पर चलना। तब तुम्हें किसी का सहारा लेने की ज़रूरत नहीं है, पर अभी अपनी हालत देखो।
किसी की टाँग टूट गयी हो, दस जगह फ्रैक्चर (टूटा) हुआ हो, और दोनों टाँगें उसकी ऐसी हैं और उसको तुम बोलो बेटा बड़े लोग बता गये हैं अपने पाँव पर खड़ा होना चाहिए। तो तुम उसका भला कर रहे हो कि बुरा कर रहे हो। अभी तो उसको बैसाखियाँ दो। बैसाखियों की अपनी क़ीमत है।
हाँ, बैसाखियाँ सार्थक तभी हैं, जब एक दिन ऐसा आये जब तुम्हें बैसाखियों की ज़रूरत न पड़े। पर जब तुम्हें बैसाखियों की ज़रूरत हो, तभी तुम कह दो कि हम तो बड़े ख़ुद्दार हैं, कर्मठ हैं; हम तो अपने पाँव पर चलते हैं साहब। तो चल लो, भड़भड़ा के गिरोगे दस बार।
भला है तुम्हारा जो तुम्हें दिखायी देता है कि तुम्हारे पास अभी अपना कुछ नहीं हैं, निजता तो कुछ नहीं है। तुम्हारे पास जो है वो संसारी मसाला है। किसी ने इधर से प्रभावित कर दिया, किसी ने उधर से प्रभावित कर दिया, किसी ने कुछ कर दिया, किसी ने कुछ कर दिया। और वो सब मिलकर बन गयी है तुम्हारी चेतना, जिसको तुम कहते हो मेरी चेतना, मेरे विचार।
न तुम्हारे पास तुम्हारे अपने कोई विचार हैं, न चेतना है। तुम्हारे पास जो कुछ है वो आयातित है, वो उधार का है, तुमने पढ़ लिया है, सुन लिया है, और उसको तुम कहने लग गये हो कि ये तो, मेरा है। और बहुत घूम रहे हैं बुद्धिजीवी, वो मैं-मैं, मेरा-मेरा इसी की रट लगाए हुए हैं। कहते हैं, ‘मेरे ऐसे विचार हैं, मेरा ऐसा मानना है, मेरा ऐसा अभिमत है, मेरे ऐसे ओपिनियन (राय) हैं।
भाई, तुम्हारा कुछ नहीं है। तुम नख से लेकर शिख तक पूरे ही नक़ली हो, उधार के हो, “कहीं का ईट कहीं का रोड़ा भानुमति ने कुनबा जोड़ा।“ कुछ इधर से लिया कुछ उधर से लिया और तुमने अपनी इमारत खड़ी कर ली है और इस इमारत को बोलते हो ये तो मेरी है।
“कहीं का ईट कहीं का रोड़ा भानुमति ने कुनबा जोड़ा।“ और भानुमति हैं लेकिन बड़ी बुद्धिजीवी इन्टलेक्चूअल लिबरल (बौद्धिक उदार) हैं। वो बताती हैं कि देखिए साहब मेरा ऐसा मानना है, और सबको व्यक्तिगत आज़ादी होनी चाहिए, पर्सनल फ्रीडम। उसके समझ में ही नहीं आ रहा कि जो पर्सन (व्यक्ति) है वो स्वयं ही ग़ुलाम होता है, उसकी परिभाषा ही यही है कि वो ग़ुलाम होता है; तो पर्सनल फ्रीडम जैसी कोई चीज़ हो ही नहीं सकती।
तुम कहते हो कि तुम लिबरल (उदारवादी) हो पर तुम्हें समझ में नहीं आता कि लिबर्टी (स्वतंत्रता) सिर्फ़ अध्यात्म में मिल सकती है। तुम बिना लिबर्टी वाले लिबरल हो, ये कैसे लिबरल हो तुम। तो अभी तो तुम्हारी जो हालत है उसमें तुम्हें बाहर ही किसी-न-किसी की ओर जाना पड़ेगा।
तुम्हारी आत्मा का तेज अभी क्षीण है, तुम्हारे आँखों की रोशनी अभी मंद है, अभी तुम्हें सहारा लेना पड़ेगा, किसी-न-किसी से तो तुम्हें जुड़ना पड़ेगा। तुम बस ये देख लो कि किससे जुड़ रहे हैं। दुनिया से जुड़ोगे तो दुनिया ये पक्का बंदोबस्त करेगी कि दुनिया से जुड़े ही रहो और दुनिया पर निर्भर और आश्रित ही रहो। गुरु से जुड़ोगे तो कुछ दिन के लिए जुड़ोगे और उतने दिनों में तुममें ये फिर सामर्थ्य आ जाएगी कि आगे अब तुम्हें कभी किसी पर निर्भर न होना पड़े।
और गुरु की पहचान ही यही है, जो तुम्हें हर प्रकार की निर्भरता से मुक्त कर दे वो गुरु। यहाँ तक कि गुरु को तुम्हें गुरु से भी मुक्त कर देना चाहिए। एक दिन ऐसा आना चाहिए जब तुम कहो कि अब मुझे गुरु की भी आवश्यकता नहीं है।
गुरु जब बाहर था तो मुझे लगता था मुझे ज़रूरत है उसकी। मैं इतना निकट आया गुरु के, इतना निकट आया गुरु के कि गुरु अब भीतर बैठ गया है। जब भीतर बैठ गया है तो मैं कैसे कहूँ कि मुझे उसकी ज़रूरत है। गुरु तुम्हें आज़ादी देता है, दुनिया से भी आज़ाद करता है और स्वयं से भी आज़ाद कर देता है। कहता है, ‘तुम पूरी तरह आज़ाद हो जाओ उड़ो,’ और दुनिया के पास जाओगे तो दुनिया, मैं फिर कह रहा हूँ कि हर प्रकार का प्रबंध करके रखेगी कि तुम सदा दुनिया पर आश्रित रहो, जितना आश्रित उस पर होते जाओगे वो तुम्हें अपने ऊपर और आश्रित करती जाएगी।
प्र: आचार्य जी, एक बात पूछना चाहूँगा। पहले कल जो पहले आपने पूछा था वो इलेक्ट्रोकेमिस्ट्री (विद्युत् रसायन) वाला। वो एक था जो पूछा था कि क्योंकि अपन जो भी करते हैं उस चीज़ को आप समय निवेश करके करते हो। पर उसके बाद आप वापिस नहीं कर सकते। जैसे, आपका कोई एग्ज़ाम (परीक्षा) हो, आपका पाँच तारीख़ का कोई पेपर है और आप कुछ और कर रहे हो। वो आपका निर्णय सही होना चाहिए। आपको मालूम होना चाहिए कि मुझे उस पेपर कि तैयारी करनी है तो कब रुकना है किसी चीज़ के लिए कब इंसान को ये एहसास हो जाना चाहिए कि अब मुझे रुक जाना चाहिए?
आचार्य: दुनिया में तो बेटा जो काम करोगे उसी की सीमा है, जहाँ सीमा आ जाएगी वहीं रुकना पड़ेगा। तो वो तो ठीक ही है। उसके लिए तो साधारण व्यावहारिक बुद्धि चाहिए कि चार काम करने है, आठ घंटे हैं अगर चारों काम बराबर महत्त्व के हैं। एक ही तरह के हैं तो सब को दो-दो घंटे दे दो और दो घंटे बाद रुक जाओ, अलार्म लगा दो रुक जाओ।
तुम तो अभी ये प्रश्न पूछो कि वो काम कैसे ढूँढूँ जिसमें रुकना ही न पड़े? वो काम कैसे ढूँढूँ जिसमें असीम समय देने का मन करे। जिससे बाहर आने की कभी इच्छा ही न हो, उसको ढूँढों। दुनिया तो ख़ुद ही रोक देगी, तुम नहीं रखोगे तो कही-न-कही ख़ुद ही कोई और आ करके रोक देगा। तो ये प्रश्न बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं है कि रुकें कैसे? तुम गाड़ी चलाए जा रहे हो चलाए जा रहे हो रोड ख़त्म हो गयी है, चलाए जा रहे हो तुम नहीं रोकोगे तो गाड़ी अपनेआप रुक जाएगी।
रुकना तो प्रकृति में विद्यमान ही है। यहाँ तो एक दिन जीवन को भी रुक जाना है। फिर तुमने जितनी भी चीज़ें चला रखी होंगी वो ख़ुद ही रुक जाएँगी। तो ये प्रश्न क्यों पूछते हो कि ये कैसे रुके? यहाँ तो सबकुछ ही रुकता ही रहता है। तुम पूछो की क्या है जो कभी रुकेगा नहीं उसको कैसे पाऊँ? वो ढूँढों।
ऐसी कौनसी चीज़ है जिसमें समय का पता ही नहीं चलता? ऐसी कौनसी चीज़ है जिससे मन कभी ऊबता ही नहीं? जब कुछ वैसा मिल जाए तो फिर जीने में मज़ा आने लगता है। समझ रहे हो?
प्र: आचार्य जी, शिक्षा गुरु और दीक्षा गुरु में क्या फ़र्क है और हम आपको अपना गुरु बनाना चाहते हैं?
आचार्य: किसी शास्त्र में किसी ग्रंथ में पचास तरह के गुरुओं की बात नहीं हुई है। ये एक शिक्षा गुरु हैं, एक दीक्षा गुरु है, फिर एक भिक्षा गुरु है। गुरु माने गुरु। आत्मा चार तरह की होती है क्या? गुरु आत्मा का ही दूसरा नाम है। जब आत्मा चार तरह की नहीं होती तो गुरु चार तरह के कहाँ से हो गये, कहाँ से भेद ले आये। ये सब लिखा-पढ़ी कहाँ से करके आये।
गुरु-गुरु होता है। उसके न आगे कुछ होता है, न पीछे कुछ होता है। छुटका गुरु, बड़का गुरु ऐसे थोड़ी चलेगा। ममेरा गुरु और चचेरा गुरु फिर कर लो जितने भेद तुम्हें करने है। गुरु माने गुरु।
ये भी एक धृष्टता है कि उसको गुरु बोल दिया उसे कोई नाम भी नहीं दिया जा सकता है। पर नाम देना मजबूरी है हमारी, तो एक छोटा सा नाम दे देते हैं — गुरु। इतना छोटा नाम देना भी ठीक नहीं है और तुम उस नाम के साथ कुछ और जोड़ दो ये तो बड़ी मूर्खता है। कुछ मत जोड़ो।
प्र: फिर आचार्य जी ये बाहर तो बहुत भ्राँति फैली है। ख़ुद तो अभी समझे कि गुरु के साथ और विशेषण नहीं लगाना है और गुरु भी बोलना मजबूरी है, और सीमाएँ हैं। पर बाहर तो कोई कह रहा है योगा गुरु, कोई कह रहा है मैथ्स (गणित) गुरु, कोई कह रहे हैं अपनेआप को आध्यात्मिक गुरु। किसी ने बोल ही दिया अपनेआप को राष्ट्रसंत अब संत कब से राष्ट्रीय और ग़ैर राष्ट्रीय होने लग गये हैं। तो अज्ञानी ने जो गुरु का चुनाव भी करा तो वही अज्ञानी ही, क्योंकि अगर वो ज्ञानी होते तो ये राष्ट्रसंत जैसे शब्द तो आते ही नहीं।
आचार्य: “गुरु लोभी शिष्य लालची दोनों खेलें दाँव दोनों बूढ़े बापुरे चढ़ पाथर की नाव।“
(कबीर साहब)
प्र: हम अपने जीवन में जो समझ रहे हैं, समझ-समझ के आगे बढ़ रहे हैं, सीख रहे हैं। तो अब कैसे कर्म हों? इनकी वजह से जो इतना सब बाहर ये फैला हुआ है वो कुछ साफ़ हो, कुछ सुधरे, कुछ ठीक हो पाये, सार्थक हो पाये।
आचार्य: जो भी कर्म सही केंद्र से होगा वो सही होगा। अभी यहाँ बैठे हो तुमने अपना केंद्र सत्य को बना रखा है। वास्तव में इस वक़्त तुम्हारा जो केंद्र है वो निर्विकार, निराकार, निर्गुण सत्य है। पर चूँकि तुम देहधारी हो तो इसलिए तुमने अपना केंद्र एक देहधारी को बना रखा है। जो तुम्हारे सामने बैठा हुआ है।
तो दो तरह से कह सकते हो। तुम अगर निराकार हो तो इस वक़्त तुम्हारा केंद्र है निराकार सत्य, और तुम यदि साकार हो तो तुम्हारा अभी केंद्र है साकार सत्य। साकार सत्य को ही कहते हैं देहधारी गुरु, निराकार देह रूप में तुम्हारे सामने प्रकट है, बैठा हुआ है। केंद्र जब ठीक है तो तुम जो भी कुछ करोगे वो ठीक ही होगा।
केंद्र जब ठीक होता है तो केंद्र ही कर्ता बन जाता है। तुम अकर्ता हो जाते हो। तुम अकर्ता हुए, सत्य कर्ता हुआ, सत्य करतार हुआ, अब जो होगा सब भला होगा। पर दिक्क़त ये होगी कि सत्र अभी ख़त्म हो जाएगा, सत्र जैसे ही ख़त्म होगा, वैसे ही तुम्हारी चेतना का केंद्र ‘मैं’ नहीं रह जाऊँगा।
अभी तुम्हारी चेतना का केंद्र कौन है? अभी ‘मैं’ हूँ। थोड़ी देर में तुम्हारी चेतना में दस और चीजें घूमने लगेंगी तुम्हारी चेतना का केंद्र तब्दील हो जाएगा, बदल जाएगा, शिफ्ट (परिवर्तन) हो जाएगा। वो शिफ्टिंग रोकनी है, वो बदलाव रोकना है। अभी जैसे तुम मुझ पर पूरे तरीक़े से ध्यानस्थ हो, एकाग्र हो। वैसे ही एकाग्र रहो जब ये सत्र समाप्त भी हो जाए तब भी।
बल्कि आज अभी जब घूमने निकलोगे तो ये प्रयोग करना, सबके लिए है, ऐसे घूमना जैसे मेरे साथ घूम रहे हो। तो ‘मैं’ निराकार तुम्हारे साथ मौजूद हूँ। ऐसे घूमना जैसे चल ही रहा हूँ साथ में। फिर वो सब काम मत करना जो मेरी मौजूदगी में नहीं करते। वो सब बातें मत बोलना जो मेरे सामने नहीं बोलते।
पूरा दिनभर ऐसे ही रहो जैसे अभी सत्र चल रहा है; ऐसे ही देखो मुझे जैसे अभी देख रहे हो। फिर शाम को जब मिलना तो अपने अनुभव बताना कि क्या दिन बदल गया? पूरा दिन ऐसे ही बिताओ जैसे मेरे साथ हो, और मेरे साथ हो ही, दिक्क़त बस इन आँखों की है। ये बेवकूफ़ होतीं हैं, इनको दिखता नहीं तो ये मानती नहीं। अभी इनको दिख रहा है तो ये मान रही हैं कि हाँ अभी तो साथ में हैं। ज़रा देर बाद दिखना बंद हो जाएगा तो ये क्या कहना शुरू कर देंगी? ये साथ नहीं हैं।
तुम इनसे कहना, ‘हट पगली! हैं, बगल में चल रहें है, यहीं तो हैं।‘ तो ये बोलेंगी, ‘दिख तो रहे नहीं तुम कहना तुझे नहीं दिख रहे मुझे दिख रहे हैं।‘ क्या बोलोगे? ‘तुझे नहीं दिख रहे हैं मुझे दिख रहे हैं और बिलकुल शत-प्रतिशत पक्का है कि चल रहे हैं, साथ में हैं, जहाँ जा रहे हैं साथ में हैं।’ इस विधि को आज़मालो कुछ फ़र्क़ आएगा। जैसे अभी हो ऐसे ही रहे आना, ठीक है।
तो जो-जो जहाँ-जहाँ जा रहा है मुझे लेकर जा रहा है। मेरे तो मज़े हो गये। एक बार में पूरा पंचमढ़ी घूम लूँगा। ठीक है। बहुत काम है जो मेरी उपस्थिति में तुम करोगे ही नहीं। एक बार तुम्हें ये ख़्याल आ गया कि मैं तुम्हारे बगल में हूँ फिर वो काम तुम करोगे नहीं। और बहुत काम है जो मेरी उपस्थिति के कारण तुम करोगे। कुछ है जो जीवन से हटेगा कुछ है जो जीवन में प्रविष्ट होगा। दोनों ही आवश्यक है। ठीक है, आज इसी विधि को आज़माओ। चाहो तो मुझसे बातचीत भी कर लेना, जवाब भी मिल जाएगा।
प्र: आचार्य जी, आपके साथ शिविर में हैं तो कितना आनंद है। लेकिन जब हम वापस लौटते हैं, तो वापस वैसे ही क्यों बन जाते हैं?
आचार्य: बस बता दिया न मुझे लेकर लौटना दो टिकट करवा लो।
(श्रोतागण हँसते हैं।)
तुम्हारे जैसों के लिए यही विधि है; तुम पर नज़र न रखो, तुम शरारत करते हो। जिनको पता हो कि शरारती हैं वो यही विधि चला लें कहें, ‘अब ये चल ही रहे हैं बगल में, हो गया फँस गये अब।’
प्र: आचार्य जी, एक जिज्ञासा है। कभी अपने सत्रों में आप श्रोताओं से पूछते हैं कि उन्हें आपकी बात समझ आ रही है या नहीं। कभी आप कहते हैं कि लोग संस्कारित हैं वह जो समझते हैं अपने स्तर के हिसाब से समझते हैं, अपने पूर्व अनुभवों के हिसाब से समझते हैं। अभी हाल ही में एक वीडियो देखा जिसमें आपने कहा है कि सुनने बोलने में कुछ नहीं रखा है बस मौन हो जाइए। तो यह क्या विधि है? आप प्रकाश डालिए।
आचार्य: अलग-अलग बातें अलग-अलग श्रोताओं से कही जाती हैं। अलग-अलग श्रोता अलग-अलग तल पर होते हैं। सामने एक श्रोता समूह है वो अपनी तंद्रा में है, तंद्रा समझ रहे हो, अपनी ही दुनिया में है। हो सकता है मुझसे पहली बार मिल रहा हो, हो सकता है अनभिज्ञ हो। अपरिचित समूहों से कई बार मैंने बात करी है। ऐसे लोगों से बात कर रही है जो किसी विशेष स्थिति में हैं और वो स्थिति उन पर छायी हुई है। तो वहाँ मैं उनसे पूछता हूँ, ‘समझ में आ रहा है, आर यू गेटिंग इट ?
ये उनकी तंद्रा तोड़ने का तरीक़ा है कि अगर कोई बैठ गया हो चुपचाप मौन, और बाहर-बाहर से लग रहा हो कि सुन रहा है। पर वो सुन नहीं रहा वो अपने अंतरजगत में ही व्यस्त है तो मैं उससे फिर पूछता हूँ, ‘समझ में आ रहा है।’
ये मेरा तरीक़ा है उसकी तंद्रा को तोड़ने का, समझ में आ रहा है। इससे उसे कुछ समझ में नहीं आ जाएगा। बस उसे ये पता चल जाएगा कि उसको समझ में नहीं आ रहा है, कि वो अपने में ही मगन था, खोया हुआ था, कुछ और ही सोच रहा था। संस्कारों के नाते, तमीज़ के नाते, सम्मान के नाते, वो शोर नहीं मचा रहा था, बैठा चुपचाप ही था।
भई! सम्माननीय वक्ता हैं तो ज़रा मर्यादा रखो, तो कैसे बैठ गये हैं? चुपचाप बैठ गये हैं, पर वो वास्तव में सुन नहीं रहा है। वो क्या कर रहा है? वो अपनी दुनिया में खोया हुआ है क्योंकि इसी का उसे अभ्यास है, अपनी दुनिया में खोए रहने का, तो बैठ गया है और खो गया है। तो फिर मैं उसे झंझोड़ता हूँ और झंझोड़ के क्या पूछता हूँ? कुछ समझ में आ रहा है। तो इससे वो अचकचा के उठता है।
और फिर ज़रा पके हुए श्रोता दल होते हैं। ये सुनने के पुराने खिलाड़ी हैं। तो इन्हें सुनने का बहुत अभ्यास हो गया है और ये सुन-सुन के सबकुछ पकाते रहते हैं; पके हुए लोग है न। तो फिर मैं इनसे बोलता हूँ पकाना बंद करो और जो भी कुछ तुम सोच रहे हो कि तुम्हें समझ में आ गया है वो व्यर्थ है। हटाओ उसको तुम तो मौन होकर बैठ जाओ बस।
अलग-अलग लोगों से अलग-अलग बात बोलता हूँ; देखता हूँ कि क्या हालत है किसकी, उसको वो बात बोलता हूँ। इसीलिए वीडियो क़ीमती हैं, पर पूरे नहीं हैं। उनसे आपको बहुत कुछ मिल जाएगा। पर आपको जो चाहिए वो वास्तव में तभी मिलेगा जब सामने आकर बैठो। क्योंकि वीडियो में बातें बहुत बोली गयी हैं। पर कौनसी बात ठीक-ठीक सिर्फ़ आपके लिए है वो आपके लिए पहचान पाना मुश्किल पड़ेगा।
एक ही प्रश्न के पन्द्रह तरह के अलग-अलग जवाब दिये हैं मैंने। अब आप कैसे जानोगे कि आपके लिए कौनसा जवाब सर्वाधिक उपयोगी है। और याद रखना उसमें से कोई जवाब ऐसा भी हो सकता है जो आपके लिए ख़तरनाक हो जाए। और कहीं आपने वही जवाब पकड़ लिया जिसकी सम्भावना बहुत है। क्योंकि इसका भी हमें पक्का अभ्यास है कि वही हम पकड़ें जो हमारे लिए हानिप्रद हो।
जो हानिप्रद होता है वो आकर्षक बहुत होता है, तो तुरन्त हम उसको पकड़ लेंगे, और पकड़ ही नहीं लेंगे, हम कहेंगे, ‘आचार्य जी ने बताया।’ मुझे ऐसे भी बड़े मामले मिलते हैं वो आते हैं कहते हैं, ‘आपको सुना था फ़लाने वीडियो में आप बोल रहे थे, बस आप ही की बात पर अमल कर लिया हमने। देखिए, अब क्या हो गयी हमारी हालत।’
तो मैं कहता हूँ पगले! मैंने तो पचास बातें और भी बोली थीं, तूने इसी पर क्यों अमल किया? और तू इस बात पर अमल करेगा ये तेरी मर्ज़ी थी या मेरी मर्ज़ी थी? अब तू मुझसे मिलने आ रहा है और पूछने आ रहा है कि हमारी ये हालत हो गयी। मेरी बात को जब तू चुन रहा था अपने व्यक्तिगत दृष्टिकोण से, अपनी व्यक्तिगत बुद्धि लगाकर, तब तू मुझसे पूछने आया था?
दस बातें मैंने बोलीं, दस में से एक चुनी किसने? तूने। तब तूने मुझसे पूछा कि इस दस में से मेरे लिए कौनसी श्रेष्ठ है? एक ही रोग की दस दवाइयाँ होती हैं। तुम्हें देखकर तुम्हारे मुताबिक़ जो दवाई श्रेष्ठ होती है, अनुकूल होती है, वो दी जाती। यहाँ तो तुमने ख़ुद ही बुद्धि लगा दी, इंटरनेट पर पढ़ लिया कि इस रोग की ये दस दवाई होती हैं, तुमने कहा, ‘अक्कड़-बक्कड़ बम्बे बो अस्सी-नब्बे पूरे सौ, धाड़।’
(श्रोतागण हँसते हैं।)
ये वाली ठीक है। या जिस दवाई पर चित्र सबसे सुंदर बना था डिब्बे पर तुमने वो उठा ली। और अब जब पेट में कुछ हलचल मालूम पड़ती है तो तुम आचार्य जी के पास आये हो। ‘क्या?’ ‘आचार्य जी, कुछ मरोड़ रहा है।’
मर्ज़ का असली इलाज चाहिए हो तो मिलने आना। वीडियो अच्छे हैं, वो तुम्हें मुझसे जोड़कर रखेंगे। जब मैं नहीं हूँ तो वीडियो हैं, ऑडियो हैं, लेख हैं; पढ़ लो, देख लो, सुन लो, पर वो मेरा विकल्प नहीं हैं; मिलने आना। ये मत कह देना कि मिलने कौन जाए, वीडियो तो है।
ऐसा भी ख़ूब होता है ये (स्वयंसेवी) फ़ोन लगाएँगे कि शिविर हो रहा है आ जाइए। वो बोलते हैं, अरे! शिविर का क्या करना है, यहाँ है तो ये, वीडियो। शिविर में आने में पहले तो पाँच दिन लगाओ फिर रुपया पैसा ख़र्च होता है, असुविधा होती है। सबसे बड़ी असुविधा तो यही है कि उनके सामने बैठना पड़ेगा, वो परम कष्ट है। सामने बैठ गये तो न जाने क्या बोल दें, कहाँ से कान पकड़ लें।
वीडियो बढ़िया है जब मन करे लगा लो, और जब लगे कि असुविधा हो रही है कोई कड़वी बात बोली जा रही है, तो वहीं पर रोक दो। कहो, ‘अगला सुनेंगे, अभी नींद आ रही है।’ जो तुम्हारे सामने बैठ के बोला हो तब थोड़ी मुझे तुम पॉज़ (ठहराव) कर दोगे, करके देखो मुझे पॉज़, मैं बताता हूँ तुम्हें। ठीक है।
बहुत समय से बोल रहा हूँ, इतने-इतने लोगों से बोला सब बहुत अलग-अलग तरह के। आरंभिक दिनों में छात्र होते थे चलिए। बहुत बातें उनसे करी हैं वो उनके तल की हैं। ऋषिकेश में बोला हूँ तो वहाँ सब विदेशी हैं तो उनसे उस संदर्भ में बात करी है कि उनकी जो मानसिकता होती है, और भी अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरह के समूह होते हैं।