हमारी सबसे बड़ी हार || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

Acharya Prashant

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हमारी सबसे बड़ी हार || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

आचार्य प्रशांत: स्त्री में इस बात की कभी बहुत प्रशंसा नहीं की गयी कि उसके पास दमदमाता, दहकता रूप है। और आज भी अगर आप थोड़ा देहात की तरफ जाएँगे, जहाँ पाश्चात्य हवा ज़रा कम बहती हो, तो आप पाएँगे कि अगर कोई लड़की बहुत ज़्यादा रूप-श्रृंगार करके घूम रही हो तो उसके घर वाले ही इस बात को पसंद और प्रोत्साहित नहीं करते। कहते हैं, “ये कोई बात है? ये शील का और अच्छे चरित्र का लक्षण नहीं है कि तुम इतना सजती-संवरती हो”।

ये बात सिर्फ संस्कृति और प्रथा की नहीं है, इसके पीछे सिद्धांत था एक गहरा, बल्कि बोध था गहरा। बोध ये था कि इस शरीर को इतना चमकाने से पाओगे क्या? और ज़्यादा देह केंद्रित हो जाओगे, बॉडी आईडेंटिफाइड। और फिर कह रहा हूँ, ऐसा नहीं कि प्राकृतिक रूप से भारतीय सुंदर थे नहीं या हो नहीं सकते थे। प्राकृतिक रूप से सुंदरता भारत को भी बहुत बख़्शी गई है, पर वो सुंदरता सहज और नैसर्गिक है, कृत्रिम नहीं, थोपी हुई या चमकाई हुई नहीं है। सरलता पर ज़ोर था, सहजता पर ज़ोर था, सादगी पर। जो जितना सादा रहता था, उसको उतनी प्रशंसा और मूल्य मिलता था।

इसी तरीके से धन की बात: भारत विश्व अर्थव्यवस्था में बड़ा अग्रणी देश रहा। सत्रहवीं, बल्कि अट्ठारहवीं शताब्दी तक भी ऐसा नहीं है कि भारत में पैसों की कमी थी, लेकिन धन के प्रदर्शन को कभी अच्छा नहीं माना गया। जैसे यहाँ की मिट्टी ही जानती थी कि सब धन मिट्टी ही हो जाना है। कोई अगर अपना पैसा दिखाकर रुआब झाड़े या सम्मान पाना चाहे तो उसको बहुत सफलता नहीं मिलती थी। अपवाद रहे होंगे, मैं प्रचलित संस्कृति की, आम संस्कृति की बात कर रहा हूँ। ज़्यादा कीमत दी जाती थी गुणों को, ज्ञान को, गहराई को, बोधवत्ता को।

फिर ये सब बदला। एक दिन में नहीं, वो बदलाव भी एक लंबी प्रक्रिया के अंतर्गत हुआ। वो प्रक्रिया आप समझिए। संस्कृति बहुत श्रेष्ठ थी भारत की और बोध बहुत गहरा था भारत का, लेकिन कई सौ सालों तक युद्धों में पराजय झेलनी पड़ी। और ऐसा नहीं कि निरन्तर पराजय ही झेलनी पड़ रही थी; आक्रांताओं का पुरज़ोर विरोध भी किया भारत ने, बहुत युद्ध जीते भी, बहुत लंबे समय तक आक्रमणकारियों को बाहर खदेड़ कर भी रखा, पर कोई चूक हुई होगी या काल का कुछ ऐसा संयोग बना होगा कि युद्धों में बार-बार पराजय झेलनी पड़ी। एक बार, दो बार होता है तो आदमी को अपने ऊपर शंका नहीं होती। आपको ज़िन्दगी में अगर एक-दो बार हार झेलनी पड़े, तकलीफ़ झेलनी पड़े तो आप झेल लेते हो, पर अगर बार-बार आपको हार झेलनी पड़े, तो पक्के-से-पक्के आदमी को भी अपने ऊपर शक होने लग जाता है।

बहुत दिनों से हार झेल ही रहे थे, और फिर जब अंग्रेज़ों के आगे हार मिली, तो वो हार बहुत बुरी और गहरी थी; पूरे हिंदुस्तान पर ही कब्ज़ा कर लिया अंग्रेज़ों ने। इस हार ने भारत के आत्मबल की कमर तोड़ कर रख दी और आत्मबल का स्थान आत्मसंशय ने ले लिया। आत्मसंशय समझते हो? अपने ही ऊपर संदेह। इतने सालों से हारते आ रहे थे कि ये जो आख़िरी हार थी, जो अंग्रेज़ों के हाथों मिली, इस हार ने अधिकांश भारतीयों को ये निष्कर्ष करने पर मजबूर कर दिया कि ये जो विदेशी हैं ये हमसे शस्त्र बल, सैन्य बल और बाहुबल में ही नहीं श्रेष्ठ हैं, बल्कि इनकी संस्कृति भी हमसे श्रेष्ठ है। बात समझ रहे हो?

भारत के मन में हीनभावना घर कर गयी। भारत ने कहा, “हम इतना हार रहे हैं, कोई वजह तो होगी। निश्चित रूप से जो हमें हरा रहे हैं वो हमसे सिर्फ़ सैन्य रूप से बेहतर नहीं हैं, उनकी संस्कृति भी हमसे बेहतर है”। तो फिर भारत में अपनी ही संस्कृति के प्रति एक संशय का भाव जगा। भारतीय अपनी ही संस्कृति से हटकर उनकी संस्कृति अपनाने लग गए जो विजेता लोग थे। उन्होंने कहा कि, “भई, जो जीत रहे हैं उनमें कोई तो बात होगी न कि वो जीत रहे हैं, तो मुझे ज़रा उनकी संस्कृति अपनाने दो”। और उनकी संस्कृति में वैराग्य, विवेक, संयम, त्याग जैसे महत्वपूर्ण शब्द नहीं थे। जो विजेता लोग थे उनकी संस्कृति में विवेक, संयम, त्याग, और वैराग्य, ये शब्द नहीं थे।

अब शारीरिक रूप, यौवन और सौंदर्य का महत्व बढ़ गया। अब धन के अर्जन और प्रदर्शन—दोनों का महत्व बढ़ गया। और एक-एक चीज़ जिसके साथ भारतीयता जुड़ी हुई थी, उसका महत्व कम हो गया। जैसे भारतीयों ने कहा, “इस भारतीयता ने ही तो हमको इतना परास्त करवाया न, तो हम इस भारतीयता को ही त्याग देंगे”।" तो भारतीयों ने अपनी संस्कृति, भाषा, धर्म, इन सब से धीरे-धीरे कन्नी काटनी शुरू कर दी। और सुनो, रही-सही कसर पूरी की उस शिक्षा ने जो पिछले सौ सालों से भारतीयों को दी जा रही है। वो शिक्षा प्रत्यक्ष-परोक्ष हर तरीके से न सिर्फ़ आपको आपके धर्म और अध्यात्म से दूर रखती है, आपकी संस्कृति के प्रति उदासीन रखती है, बल्कि वो आपको तरीक़े-तरीक़े से जताती है कि जो कुछ भी श्रेष्ठ है, सुंदर है, वो अधिकांशतः भारत के बाहर कहीं विदेश में हैं। नतीजा ये हुआ है कि पहले तो भारतीयों में भारत के प्रति सिर्फ़ शंका का भाव था या उदासीनता थी, अब भारतीयों में भारतीयता के प्रति अपमान और अवमानना भर गयी है। हर वो चीज़ जिसका संबंध भारत के इतिहास से है, आज की युवा पीढ़ी उसे अनादर की दृष्टि से देखती है। क्यों? क्योंकि दिमाग में कहीं ये तुक बैठा दिया गया है, दिमाग में कहीं एक जोड़ बैठा दिया गया है। क्या? “भारत माने वो जो पिछड़ा है, परास्त है, जिसकी प्रगति नहीं होने वाली”। तो वो कहते हैं, “हमें तो प्रगति करनी है, हमें तो परास्त नहीं रहना, और भारतीयता का मतलब अगर यही है कि तुम पीटे जाओगे, तुम परास्त होओगे, तो हमें भैया भारतीयता चाहिए ही नहीं”। तो जो जवान पीढ़ी है आज की उसने भारतीय भाषा को त्याग दिया, उसने भारतीय पहनावे को त्याग दिया, भारतीय चाल-चलन को त्याग दिया, भारतीय ग्रंथों को त्याग दिया। जो कुछ भी भारतीय है और त्यागा जा सकता है, वो सब कुछ त्यागा जा रहा है। और जो जितना ज़्यादा भारतीयता को त्याग सकता है, उसको उतना ही ज़्यादा ही स्मार्ट माना जाता है।

तुम मुझे बताओ, ‘स्मार्ट’ की और परिभाषा क्या है? ‘कूल’ की और परिभाषा क्या है? जो जितना ज़्यादा अनइंडियन है, जो जितना ज़्यादा अभारतीय है, वो उतना स्मार्ट है। मुझे बताओ, खाल गोरी करने का और बाल सफ़ेद और नीले-पीले करने का औचित्य क्या है? ये मत कह देना, “ये तो ऐसे ही हमें बस अच्छा लगता है”। नहीं, यूँ ही नहीं अच्छा लगता। अगर तुम्हें यूँ ही कुछ भी अच्छा लगता तो तुम अपनी खाल कभी काली करके क्यों नहीं घूमते? कोई दिखा है आज तक जो अपना चेहरा काला करके घूम रहा हो? जब चेहरा काला होता है तब तो कहते हो, "कहाँ से मुँह काला करके आ गए?" ये गोरी खाल का इतना आकर्षण कहाँ से आ गया? तुम्हें समझ में नहीं आ रही बात? तुम अंग्रेज़ होना चाहते हो क्योंकि अंग्रेज़ो ने तुम्हें बहुत पीटा है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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