प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, हम एक छोटे गाँव से बारहवीं करे। अब दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदु कॉलेज में दाखिला पाए। एक साल हो गया है, अच्छा नहीं लग रहा है कुछ। पढ़ाई छूट गई है। यहाँ सुंदर लड़की और अमीर लड़का का ही चलता है। हम सुंदर और अमीर दोनों नहीं हैं। बहुत हीनभावना भर गई है। कॉलेज छोड़ दें?
आचार्य प्रशांत: भाई, थोड़ा समझो कि ये जो हो रहा है ये क्या हो रहा है। भारत इतना मूर्ख कभी नहीं था। कंचन-कामिनी, दोनों का यथार्थ भारत ने इतना समझा, इतना समझा कि जैसे यहाँ की मिट्टी को ही अकल आ गई हो। यहाँ का जैसे कोई बिलकुल आम, औसत आदमी भी, गाँव का एक किसान भी, इतनी बुद्धिमानी रखता था कि कंचन-कामिनी पर नहीं मरना है। हालाँकि इनका जो आकर्षण होता है वो बड़ा प्राकृतिक होता है, बड़ा ज़बरदस्त होता है, लेकिन फिर भी कम-से-कम सैद्धांतिक रूप से तो उसको पता था कि ये चीज़ें ठहरने वाली नहीं होतीं। यही वजह थी कि भारत ने शारीरिक सौंदर्य को कोई बहुत बड़ी बात नहीं माना। हालाँकि यहाँ श्रृंगार के काव्य भी रहे हैं, श्रृंगार के शास्त्र भी रहे हैं, विविध तरीक़ों से सौंदर्य का चित्रण भी किया गया है, लेकिन फिर भी शारीरिक रूप से कोई इंद्रियों को कितना आकर्षक लग रहा है, इस चीज़ को भारत ने कभी बहुत महत्व दिया नहीं। मैं आज से सौ दो-सौ साल पहले तक की बात कर रहा था।
'बाबरनामा' कहता है कि जब बाबर हिंदुस्तान में कुछ महीनों के लिए रहा, तो कहा करे कि, "यहाँ के लोग अति साधारण हैं; ना लंबे हैं, ना तगड़े हैं, ना सुंदर हैं। बहुत साधारण लोग हैं।" आम नागरिकों की बात कर रहा था। तो बोले कि, "मुझे काबुल बहुत याद आता है; काबुल के फल, काबुल के ख़रबूज-तरबूज़। हिंदुस्तान का तो चना भी काबुली चने से कुछ छोटा है।" ये एक आम भारतीय की शारीरिक रूप-रेखा थी।
आँखों को चौंधिया देने वाला रूप, आकर्षण, लावण्य, भारत ने कभी बहुत क़ीमत का माना ही नहीं। स्त्री में इस बात की कभी बहुत प्रशंसा नहीं की गई कि उसके पास दमदमाता, दहकता रूप है। और आज भी अगर आप थोड़ा देहात की तरफ जाएँगे, जहाँ पाश्चात्य हवा ज़रा कम बहती हो, तो आप पाएँगे कि अगर कोई लड़की बहुत ज़्यादा रूप-श्रृंगार करके घूम रही हो तो उसके घर वाले ही इस बात को पसंद और प्रोत्साहित नहीं करते। कहते हैं, “ये कोई बात है? ये शील का और अच्छे चरित्र का लक्षण नहीं है कि तुम इतना सजती-सँवरती हो।”
ये बात सिर्फ़ संस्कृति और प्रथा की नहीं है, इसके पीछे सिद्धांत था एक गहरा, बल्कि बोध था गहरा। बोध ये था कि—इस शरीर को इतना चमकाने से पाओगे क्या? और ज़्यादा देह केंद्रित हो जाओगे, *बॉडी-आईडेंटिफाइड*। और फिर कह रहा हूँ, ऐसा नहीं कि प्राकृतिक रूप से भारतीय सुंदर थे नहीं या हो नहीं सकते थे। प्राकृतिक रूप से सुंदरता भारत को भी बहुत बख़्शी गई है, पर वो सुंदरता सहज और नैसर्गिक है, कृत्रिम नहीं, थोपी हुई या चमकाई हुई नहीं है। सरलता पर ज़ोर था, सहजता पर ज़ोर था, सादगी पर। जो जितना सादा रहता था, उसको उतनी प्रशंसा और मूल्य मिलता था।
इसी तरीक़े से धन की बात: भारत विश्व अर्थव्यवस्था में बड़ा अग्रणी देश रहा। सत्रहवीं, बल्कि अट्ठारहवीं शताब्दी तक भी ऐसा नहीं है कि भारत में पैसों की कमी थी, लेकिन धन के प्रदर्शन को कभी अच्छा नहीं माना गया। जैसे यहाँ की मिट्टी ही जानती थी कि सब धन मिट्टी ही हो जाना है। कोई अगर अपना पैसा दिखाकर रुआब झाड़े या सम्मान पाना चाहे, तो उसको बहुत सफलता नहीं मिलती थी। अपवाद रहे होंगे, मैं प्रचलित संस्कृति की, आम संस्कृति की बात कर रहा हूँ। ज़्यादा क़ीमत दी जाती थी गुणों को, ज्ञान को, गहराई को, बोधवत्ता को।
फिर ये सब बदला। एक दिन में नहीं, वो बदलाव भी एक लंबी प्रक्रिया के अंतर्गत हुआ। वो प्रक्रिया आप समझिए।
संस्कृति बहुत श्रेष्ठ थी भारत की और बोध बहुत गहरा था भारत का, लेकिन कई सौ सालों तक युद्धों में पराजय झेलनी पड़ी। और ऐसा नहीं कि निरंतर पराजय ही झेलनी पड़ रही थी; आक्रांताओं का पुरज़ोर विरोध भी किया भारत ने, बहुत युद्ध जीते भी, बहुत लंबे समय तक आक्रमणकारियों को बाहर खदेड़ कर भी रखा, पर कोई चूक हुई होगी या काल का कुछ ऐसा संयोग बना होगा कि युद्धों में बार-बार पराजय झेलनी पड़ी। एक बार, दो बार होता है तो आदमी को अपने ऊपर शंका नहीं होती। आपको ज़िंदगी में अगर एक-दो बार हार झेलनी पड़े, तकलीफ़ झेलनी पड़े तो आप झेल लेते हो, पर अगर बार-बार आपको हार झेलनी पड़े, तो पक्के-से-पक्के आदमी को भी अपने ऊपर शक़ होने लग जाता है।
बहुत दिनों से हार झेल ही रहे थे। और फिर जब अंग्रेज़ों के आगे हार मिली, तो वो हार बहुत बुरी और गहरी थी; पूरे हिंदुस्तान पर ही कब्ज़ा कर लिया अंग्रेज़ों ने। इस हार ने भारत के आत्मबल की कमर तोड़ कर रख दी और आत्मबल का स्थान आत्मसंशय ने ले लिया। आत्मसंशय समझते हो? अपने ही ऊपर संदेह। इतने सालों से हारते आ रहे थे कि ये जो आख़िरी हार थी, जो अंग्रेज़ों के हाथों मिली, इस हार ने अधिकांश भारतीयों को ये निष्कर्ष करने पर मजबूर कर दिया कि ये जो विदेशी हैं ये हमसे शस्त्र बल, सैन्य बल और बाहुबल में ही नहीं श्रेष्ठ हैं, बल्कि इनकी संस्कृति भी हमसे श्रेष्ठ है। बात समझ रहे हो?
भारत के मन में हीनभावना घर कर गई। भारत ने कहा, “हम इतना हार रहे हैं, कोई वजह तो होगी। निश्चित रूप से जो हमें हरा रहे हैं वो हमसे सिर्फ़ सैन्य रूप से बेहतर नहीं हैं, उनकी संस्कृति भी हमसे बेहतर है।” तो फिर भारत में अपनी ही संस्कृति के प्रति एक संशय का भाव जगा। भारतीय अपनी ही संस्कृति से हटकर उनकी संस्कृति अपनाने लग गए जो विजेता लोग थे। उन्होंने कहा कि, “भई, जो जीत रहे हैं उनमें कोई तो बात होगी न कि वो जीत रहे हैं, तो मुझे ज़रा उनकी संस्कृति अपनाने दो।” और उनकी संस्कृति में वैराग्य, विवेक, संयम, त्याग जैसे महत्वपूर्ण शब्द नहीं थे। जो विजेता लोग थे उनकी संस्कृति में विवेक, संयम, त्याग, और वैराग्य, ये शब्द नहीं थे।
अब शारीरिक रूप, यौवन और सौंदर्य का महत्व बढ़ गया। अब धन के अर्जन और प्रदर्शन—दोनों का महत्व बढ़ गया। और एक-एक चीज़ जिसके साथ भारतीयता जुड़ी हुई थी, उसका महत्व कम हो गया। जैसे भारतीयों ने कहा, “इस भारतीयता ने ही तो हमको इतना परास्त करवाया न, तो हम इस भारतीयता को ही त्याग देंगे।" तो भारतीयों ने अपनी संस्कृति, भाषा, धर्म, इन सब से धीरे-धीरे कन्नी काटनी शुरू कर दी। और सुनो, रही-सही कसर पूरी की उस शिक्षा ने जो पिछले सौ सालों से भारतीयों को दी जा रही है। वो शिक्षा प्रत्यक्ष-परोक्ष हर तरीक़े से न सिर्फ़ आपको आपके धर्म और अध्यात्म से दूर रखती है, आपकी संस्कृति के प्रति उदासीन रखती है, बल्कि वो आपको तरीक़े-तरीक़े से जताती है कि जो कुछ भी श्रेष्ठ है, सुंदर है, वो अधिकांशतः भारत के बाहर कहीं विदेश में है। नतीजा ये हुआ है कि पहले तो भारतीयों में भारत के प्रति सिर्फ़ शंका का भाव था या उदासीनता थी, अब भारतीयों में भारतीयता के प्रति अपमान और अवमानना भर गई है।
हर वो चीज़ जिसका संबंध भारत के इतिहास से है, आज की युवा पीढ़ी उसे अनादर की दृष्टि से देखती है। क्यों? क्योंकि दिमाग में कहीं ये तुक बैठा दिया गया है, दिमाग में कहीं एक जोड़ बैठा दिया गया है। क्या? “भारत माने वो जो पिछड़ा है, परास्त है, जिसकी प्रगति नहीं होने वाली।” तो वो कहते हैं, “हमें तो प्रगति करनी है, हमें तो परास्त नहीं रहना, और भारतीयता का मतलब अगर यही है कि तुम पीटे जाओगे, तुम परास्त होओगे, तो हमें भैया भारतीयता चाहिए ही नहीं।”
तो जो जवान पीढ़ी है आज की, उसने भारतीय भाषा को त्याग दिया, उसने भारतीय पहनावे को त्याग दिया, भारतीय चाल-चलन को त्याग दिया, भारतीय ग्रंथों को त्याग दिया। जो कुछ भी भारतीय है और त्यागा जा सकता है, वो सब कुछ त्यागा जा रहा है। और जो जितना ज़्यादा भारतीयता को त्याग सकता है, उसको उतना ही ज़्यादा 'स्मार्ट' माना जाता है।
तुम मुझे बताओ, ‘स्मार्ट’ की और परिभाषा क्या है? ‘कूल’ की और परिभाषा क्या है? जो जितना ज़्यादा अनइंडियन है, जो जितना ज़्यादा अभारतीय है, वो उतना स्मार्ट है। मुझे बताओ, खाल गोरी करने का और बाल सफ़ेद और नीले-पीले करने का औचित्य क्या है? ये मत कह देना, “ये तो ऐसे ही हमें बस अच्छा लगता है।” नहीं, यूँ ही नहीं अच्छा लगता। अगर तुम्हें यूँ ही कुछ भी अच्छा लगता तो तुम अपनी खाल कभी काली करके क्यों नहीं घूमते? कोई दिखा है आज तक जो अपना चेहरा काला करके घूम रहा हो? जब चेहरा काला होता है तब तो कहते हो, "कहाँ से मुँह काला करके आ गए?" ये गोरी खाल का इतना आकर्षण कहाँ से आ गया? तुम्हें समझ में नहीं आ रही बात? तुम अंग्रेज़ होना चाहते हो क्योंकि अंग्रेज़ों ने तुम्हें बहुत पीटा है। और तुम्हारे मन में ये बात घर कर गई है कि “अगर मैं भारतीय हूँ तो मैं पिटूँगा, इसीलिए मुझे अंग्रेज़ होना है।”
बौद्धिक तल पर भी भारतीय जो बुद्धिजीवी हैं, वो पश्चिम के सामने ज़बरदस्त रूप से नतमस्तक हैं। पश्चिम से सिद्धांत चलते हैं, पश्चिम से प्रयोग चलते हैं, और भारत उनका अंधा स्वीकार और अनुकरण कर लेता है। मुझे दिखा दो कोई बुद्धिजीवी जो कहे कि, "मैं भारतीय भाषा में ही बात करना चाहता हूँ।" बुद्धिजीवी होने का तो अर्थ ही यही है कि जो कुछ भारतीय है तुम उसपर थूको, और जितना तुम ज़ोर से थूकोगे, उतने बड़े बुद्धिजीवी कहलाओगे!
ये और कुछ नहीं, ये बहुत गहरी हीनभावना है। और ये हीनभावना सिर्फ युद्ध के मैदान में बार-बार परास्त होने से और फिर सैकड़ों सालों तक ग़ुलामी करने से आ गई है। इतना मानना ठीक था कि सामने वाला हमसे सैन्य शक्ति में बेहतर निकला, या उसकी जो सामरिक नीति थी, वॉर-टेक्टिक्स , वॉर-स्ट्रेटिजीज़ , वो हमसे बेहतर निकल गईं। यहाँ तक मान लेते तो ठीक था, पर हमने तो बड़ी दूर की बात मान ली। हमने मान लिया कि वो बंदा ही हमसे बेहतर है। हमने मान लिया कि उसकी संस्कृति, कला, विज्ञान, भाषा, धर्म, सब हमसे बेहतर हैं। हमने मान लिया कि हम हर अर्थ में उनसे नीचे और गए-गुज़रे हैं।
ये आज के भारतीय युवा का मनोविज्ञान है। वो अपने आप को बहुत स्मार्ट और कूल समझता है, जबकि है वो ज़बरदस्त रूप से हीनभावना से ग्रस्त और आक्रांत; एक सिकुड़ा हुआ प्राणी जिसको पता भी नहीं है कि वो कितना डरा हुआ है, भीतर से कितना दरिद्र है, ग़रीब है। उसको पता भी नहीं है कि वो कितना झुका हुआ है, उसको पता भी नहीं है कि वो किस कदर अंदरूनी ग़ुलामी में जी रहा है। ये आज का भारतीय युवा है।
नाम होगा मोहन वर्मा, और इनका ट्विटर पर नाम होगा गैरिकूल। ये मोहन वर्मा ‘गैरीकूल’ कैसे हो गया? और कोई पूछने भी नहीं आता कि, "मोहनवा, ये गैरिकूल कैसे बने तुम?" कोई सवाल ही नहीं कर रहा, क्योंकि हम समझना भी नहीं चाहते कि हमारे मन में वास्तव में चल क्या रहा है, हमारी इन हरकतों के पीछे वजह क्या है! कभी तुमने देखा हो कोई विदेशी… कोई नाम बोलना उसका (श्रोताओं को संबोधित करते हुए)। कोई नाम बताना ज़रा।
प्र: जेम्स।
आचार्य: जेम्स! जेम्स अपना नाम जन्मय करदे या जनक कर दे, ऐसा होता है? या जेम्स अपना नाम जैमिनी कर दे, ऐसा होता है? नहीं होता है न? पर भारत में अगर किसी का बहुत सुंदर नाम हो—जनक, जैमिनी—उसका नाम तुरंत जेम्स पड़ जाएगा। ऐसा क्यों हो रहा है? मुझे बताओ। भारतीय नाम तुरंत जेम्स क्यों बन जाता है? तुम्हें समझ में नहीं आ रहा? तुम डरे हुए हो! तुम झुके हुए हो! तुम तलवे चाटने को तैयार हो!
ऐसा कैसे हुआ जा रहा है कि कानपुर शहर में लड़का-लड़की मिलते हैं और वो बातचीत अंग्रेज़ी में कर रहे हैं? कैसे? और अंग्रेज़ी माशाल्लाह है दोनों की; अंग्रेज़ को अपने ऊपर शक़ हो जाए ऐसी अंग्रेज़ी। लेकिन उन्हें बातचीत करनी अंग्रेज़ी में है। वजह बताओ। वजह स्पष्ट है! हाँ, तुम अपने को धोखे में रखना चाहो तो बात दूसरी है।
धर्म से संस्कृति जुड़ी हुई होती है, संस्कृति का एक प्रमुख स्तम्भ होती है भाषा, और भाषा बिना लिपि के नहीं चलती। लिपि गई तो भाषा गई; भाषा गई तो संस्कृति गई; संस्कृति गई तो धर्म गया।
हमारे हिंदी में चैनल हैं सब सोशल मीडिया पर; हिंदी में भी, अंग्रेज़ी में भी। बड़ा ध्यान रखा है कि कहीं ऐसा ना हो कि हिंदी का चैनल ना बने। कोई भी सोशल मीडिया, चाहे फेसबुक हो, यूट्यूब हो, ट्वीटर हो, इंस्टाग्राम हो, सब पर हिंदी का भी एक अलग चैनल बनाया हुआ है। लेकिन हिंदी चैनल के हिंदी वीडियो पर भी जो कमेंट, टिप्पणियाँ आती हैं, वो या तो अंग्रेज़ी में आती हैं या उससे भी ज़्यादा भयानक बात ये है कि अगर हिंदी भी वो लिख रहे हैं तो रोमन लिपि में लिख रहे हैं, देवनागिरी देखने को नहीं मिलती।
लिपि गई तो अंततः इंसान गया। मैंने यहाँ तक तो बता दिया था कि लिपि से भाषा, भाषा से संस्कृति, संस्कृति से धर्म। आगे का भी बता देता हूँ: धर्म से इंसान, धर्म से व्यक्ति। ये तुम अपनी देवनागिरी लिपि नहीं खो रहे, ये तुम अपनी हस्ती खो रहे हो। और चले जाओ आज किसी भी शॉपिंग मॉल में, शॉपिंग मॉल क्या बोलें किसी भी जगह चले जाओ बाज़ार में, वहाँ मजाल है कि तुम्हें दुकानों के ये जो होर्डिंग होते हैं, नामपट्टिकाएँ, ये तुमको हिंदी में, देवनागरी में मिल जाएँ। और जितनी ज़्यादा ऊँची जगह होगी, हिंदी वहाँ से उतनी नदारद होगी। ऊँची जगह पर तुम्हें हिंदी मिल गई तो जगह नीची हो जाती है। छोटे शहरों में तो फिर भी संभव है कि तुम्हें दुकान पर लिखा मिल जाए: “गुप्ता किराना भंडार”। तुम गुड़गाँव के किसी मॉल में चले जाओ या साकेत चले जाओ दिल्ली में, वहाँ पर तुम खोज कर दिखा दो हिंदी कहीं पर।
दिख नहीं रहा क्या हो रहा है? तुम्हारे मन ने एक रिश्ता बना लिया है कि पैसा तो अंग्रेज़ी से ही आना है। और ये रिश्ता बिलकुल झूठा है। जापान में पैसा अंग्रेज़ी से आया? चीन की तरक़्क़ी अंग्रेज़ी से हुई? बोलो। स्पेन अंग्रेज़ी पर चलता है? फ्रांस, जर्मनी अंग्रेज़ी पर चलते हैं? अंग्रेज़ी की ये ख़ूबी नहीं है कि वो अंर्तराष्ट्रीय भाषा है; अंग्रेज़ी की ख़ूबी ये है कि अंग्रेज़ों ने हमें बहुत लात मारी है। ये सब बहुत झूठी बातें हैं कि अंग्रेज़ी से ही तो हमें अंतर्राष्ट्रीय ज्ञान मिलेगा। अगर अंग्रेज़ी से ही अंतर्राष्ट्रीय ज्ञान मिलना होता तो जापानी तो सब अभी तक फिर अंधे युग में जी रहे होते। बेचारे अज्ञानी! उनको तो अंग्रेज़ी आई नहीं; ना रूसीयों को आई, ना फ्रांसीसियों को आई। और ये सब तो दुनिया के अग्रणी देश हैं, इन्हें क्यों नहीं आई?
भारतीयों को शायद ये लगता है कि हिंदुस्तान से बाहर जहाँ कोई मिलेगा वो अंग्रेज़ी ही बोल रहा होगा। एक तो ये बहुत बड़ी ग़लतफहमी है कि बाहर जैसे ही हम निकलेंगे, वैसे ही जो ही मिलेगा वो अंग्रेज़ी बोल रहा होगा। “हिंदुस्तान बेचारा बस पिछड़ा हुआ है; यहाँ हम देसी भाषाएँ बोलते हैं—हिंदी, बांग्ला, पंजाबी, तमिल—बाहर तो सब अंग्रेज़ी बोलते हैं।” इनको पता भी नहीं है कि अगर दुनियाभर के अंग्रेज़ी बोलने वालों की संख्या में से अंग्रेज़ हिंदुस्तानियों की संख्या हटा दो तो अंग्रेज़ी बोलने वाले तो बहुत लोग बचेंगे भी नहीं। स्पेनिश ही अंग्रेज़ी से बड़ी हो जानी है। बड़ी है! मैंडरिन (चीन की मुख्य भाषा) तो है ही। पूरा-का-पूरा दक्षिण अमेरिका अंग्रेज़ी बोलता है क्या? पूर्वी यूरोप अंग्रेज़ी बोलता है? दक्षिण-पूर्व एशिया अंग्रेज़ी बोलता है क्या? ये सब उन्नत जगहें हैं, ये सब तरक़्क़ी करे हुए मुल्क हैं। और बहुत हँसते होंगे ये हिंदुस्तान को देखकर कि "वाह रे ग़रीबों! वाह रे ग़ुलामों!"
मैं अंग्रेज़ी का कोई विरोधी नहीं हूँ, पर अंग्रेज़ी ने भारत के मन पर जो ग़ुलामी की ज़ंजीर पहना दी है, मैं उसका ज़रूर विरोधी हूँ। जैसे सब भाषाएँ सुंदर होती हैं, वैसे ही अंग्रेज़ी भी सुंदर है। अगर अंग्रेज़ी सिर्फ़ भाषा होती तो क्या बात थी! हमारे लिए अंग्रेज़ी सिर्फ़ भाषा नहीं है न, हमारे लिए अंग्रेज़ी हमारी हीनभावना से बचने का उपाय है—जो कि हीनभावना को और प्रदर्शित ही कर देता है।
मैंने कहा था एक बार, तुम्हें अंग्रेज़ी इसलिए पसंद होती क्योंकि अंग्रेज़ी शेक्सपियर की, इलियट की, मिल्टन की भाषा है, तो बहुत बढ़िया बात है; पर तुम्हें अंग्रेज़ी इसलिए थोड़े ही पसंद है, तुम्हें अंग्रेज़ी इसलिए पसंद है क्योंकि जब अंग्रेज़ी बोलते हो तो टी.टी. तुमसे टिकट के लिए नहीं पूछता। किसी ने एक बार उपाय बताया था, बोले, “ट्रेन में ज़्यादा चेकिंग हो रही हो तो खट-खट-खट अंग्रेज़ी बोलना शुरू कर दीजिए। टी.टी. इधर-उधर देखकर बाहर हो जाता है, फिर ज़्यादा पूछता नहीं है। या किसी से बहस-बाज़ी हो रही हो ज़्यादा तो बहस अंग्रेज़ी में करनी शुरू कर दो, वो दब जाता है।” अब ये सब बातें, ज़ाहिर है, कि पूरी तरह सही नहीं हैं, पर पूरी तरह निराधार भी नहीं हैं। हिंदुस्तान में कुछ-कुछ होता है ऐसा। नतीजा? जैसे आज सवाल आए हैं वैसे सवाल, कि यहाँ तो अमीर लड़का और सुंदर लड़की चलते हैं।
ये जो पूरी व्यवस्था चल रही है आज के जवान लोगों में, ये अभारतीय है। इसका आधार ही यही है: वो सब कुछ करो जिसका संबंध भारत से बिलकुल ना हो। अमीर होने में क्या बुराई है? अच्छी बात है। तुम बढ़िया काम कर रहे हो उससे तुम्हें कुछ पैसा आता है, बढ़िया बात है। लेकिन वो अमीरी तुम्हारे लिए सिर्फ़ पैसा नहीं है; वो अमीरी तुम्हारे जीवन का केंद्र बन गई है। उस पैसे के माध्यम से तुम अपने आप को कुछ साबित करना चाहते हो, और तुम ये साबित करना चाहते हो कि तुम हीन नहीं हो, तुम गए-गुज़रे और दबे हुए नहीं हो।
एक सूत्र समझ लो ज़िन्दगी का; जिस चीज़ का इस्तेमाल करके तुम अपनी हीनभावना हटाना चाहोगे या दबाना चाहोगे, वो चीज़ तुम्हारी हीन-भावना को और बढ़ाएगी। जिस चीज़ का इस्तेमाल करके तुम मानसिक रूप से अपने आप को सुरक्षित करना चाहोगे, वो चीज़ तुम्हें मानसिक रूप से और असुरक्षित कर देगी। वो चीज़ ही!
आ रही है बात समझ में कुछ?
सब सतह की बातें हैं ये: सतही सौंदर्य, सतही पैसा, और बाकी सब चीज़ें। भारत ने सतह से आगे बढ़कर मर्म पर ध्यान दिया, हृदय पर ग़ौर किया। ऐसा नहीं कि सतह को ठुकरा दिया या सतह से घृणा करी, पर सतह पर अटका नहीं रहा भारत। ये सब जीवन की सतहें हैं, क्या? जवानी, पैसा, रूप-यौवन, आकर्षण। भारत ने कहा कि, "इससे गहरे जाना है, जीवन की असली खोज करनी है।" भारत ने आत्मा पर ध्यान दिया।
जो लोग उन चक्करों में फँसे रह जाएँगे जिनकी यहाँ बात कर रहे हो तुम, उनको जीवन सज़ा ये देगा कि कभी गहराई नहीं मिलेगी, कभी आत्मा नहीं मिलेगी, कभी सच्चाई नहीं मिलेगी; भीतर बड़ा खालीपन-सा रहेगा, और उसमें कुछ धुँआ-धुँआ सा।
एक काम कर लिया करो, कम-से-कम सतही लोगों को देखकर के ना डर जाया करो, ना दब जाया करो, ना प्रभावित हो जाया करो। इतना उपकार करो अपने ऊपर भी, और उस स्मार्ट और कूल इंसान पर भी कि उसको देखकर इम्प्रेस (प्रभावित) मत हो जाया करो। क्योंकि उसकी सारी स्मार्टनेस और कूलनेस का कुल एक उद्देश्य है - दूसरों को इम्प्रेस कर देना। अगर तुम उसको दिखा दो कि जो कुछ उसके पास है उससे तुम प्रभावित नहीं हो रहे, वो तुम्हारी नज़र में कीमत का नहीं है, तो फिर उस व्यक्ति को भी मजबूर होकर ये सोचना पड़ेगा कि, “मेरे पास जो कुछ है अगर वो इस अगले को प्रभावित नहीं कर पा रहा, तो मेरे पास जो चीज़ है उसकी क़ीमत कितनी है?" ये तुम्हारा एहसान होगा उसपर।
तिरछी चालें, कटीले नैन-नक्श, धारा-प्रवाह अंग्रेज़ी और पैसे का प्रदर्शन, इन चीज़ों से प्रभावित होना बिलकुल बंद कर दो। हौसला रखो, जिगर रखो किसी अंग्रेज़ी के बहुत कायल आदमी से भी शुद्ध हिंदी में बात करने का; या जहाँ के भी हो तुम हो, पंजाबी, कन्नड़, तमिल, जो भी; ये हौसला रखो। जब उसमें ये हौसला है कि वो एक ख़ालिस हिंदुस्तानी से अचानक अंग्रेज़ी में बात कर सकता है… ये बात बचकानी है न कि तुम जाकर खड़े हो गए हो एक हिंदुस्तानी के सामने और तुम उससे बात किसमें कर रहे हो? अंग्रेज़ी में! ये बात ही बदतमीज़ी की है, पर तुम कर ले जा रहे हो।
तुम जाओ और अमेरिका में एक अमेरिकन के सामने भोजपुरी बोलने लग जाओ, चलेगा क्या? ये बात ही कितनी बेवकूफ़ी की लगेगी न कि ये तो अमेरिकन है, तुम इससे भोजपुरी में क्यों बोल रहे हो! अमेरिकन के सामने भोजपुरी बोलना बेवकूफ़ी की बात है, लेकिन तुम्हारे सामने एक अपरिचित शुद्ध हिंदुस्तानी आ रहा है, और तुम उससे बात की शुरुआत ही अंग्रेज़ी में कर रहे हो, ये बात भी बराबर की बेवकूफ़ी की क्यों नहीं है? तुम भली-भाँति जानते हो कि तुम्हारे सामने जो खड़ा है उसे हिंदी आती है, तुम्हें भी आती है, तुम ये अंग्रेज़ी क्यों बोल रहे हो? और अगर बोलनी है अंग्रेज़ी तो अमेरिकन से जाकर भोजपुरी बोलकर दिखाओ। वहाँ तुम्हारी हिम्मत नहीं पड़ेगी, काँप जाओगे।
काँपना छोड़ो, ये सीख है मेरी। ना किसी के पैसे के प्रदर्शन के आगे दबो-झुको, ना किसी के ताक़त के प्रदर्शन के आगे दबो-झुको, और किसी की अंग्रेज़ियत के आगे तो बिलकुल दबना-झुकना नहीं है। और किसी के सौंदर्य के आगे भी दबना-झुकना नहीं है, कि कोई सुंदर लड़की आ गई या हैंडसम लड़का आ गया, और तुम बिलकुल काँपने लग गए, हिलने-डुलने लग गए।
जो तुम्हें अपना शरीर दिखा कर प्रभावित करना चाहे, तुम पर हावी होना चाहे, उसका प्रतिरोध आवश्यक है। कोई साधारण तौर पर सुंदर हो, तुम्हारे सामने आ जाए, उसकी तो फिर भी तारीफ़ कर दो एक बार, चलेगा; लेकिन अगर जान जाओ कि कोई जानबूझकर अपने सौंदर्य का प्रदर्शन करके तुमको प्रभावित करना चाहता है, तुमसे वाहवाही लेना चाहता है, तो उसकी तारीफ़ तो बिलकुल नहीं करनी है, उससे प्रभावित तो बिलकुल नहीं होना है।
मैं कह रहा हूँ कि यही तुम्हारे लिए भी ठीक है और यही उसके लिए भी ठीक है। उसको भी कुछ सीख मिलेगी।