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हमारे बच्चों पर हमला हो रहा है, और हम बेख़बर हैं || आचार्य प्रशांत (2019)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। मेरी छः वर्ष की बेटी है। जो विद्यमान औपचारिक शिक्षा व्यवस्था है, उससे तो उसको भाषा की, विज्ञान की, गणित की, संसार की शिक्षा मिल ही जाएगी। ये भी समझ में आता है कि उस औपचारिक, सांसारिक शिक्षा के समानांतर, साथ-साथ, पैरेलल जीवन-शिक्षा भी देनी ज़रूरी है बल्कि शायद वो जीवन-शिक्षा हमारी औपचारिक शिक्षा से कहीं ज़्यादा आवश्यक है।

लेकिन अपनी बेटी को सही शिक्षा दे पाऊँ, इससे पहले तो मुझे ख़ुद सही रूप में शिक्षित होना पड़ेगा न! पिछले एक महीने से आपके वीडियोज़ यूट्यूब के माध्यम से सुन रहा हूँ और अब शिविर में भी आ गया हूँ। कृपया मुझे ये समझाएँ कि आपके वीडियोज़ देखने और शिविर में आने के अलावा वो क्या तरीक़ा है जिससे मैं वो सही शिक्षा प्राप्त कर सकता हूँ और उसको वो शिक्षा उसे कैसे दे सकता हूँ?

आचार्य प्रशांत: सबसे पहले तो बच्चे तक पहुँचने वाले विकृत शिक्षा के जितने रास्ते हैं, दरवाज़े-खिड़कियाँ हैं, उनकी पहचान कर-करके उनको बंद करना पड़ेगा।

ये बताने से पहले कि बच्चे को सही जीवन शिक्षा और उच्चतर जीवन मूल्य कैसे दिए जाएँ, मैं ये बताना ज़रूरी समझता हूँ कि उसको जो गलत शिक्षा मिलती है और निकृष्ट जीवन मूल्य मिलते हैं, उनको रोकना, उनको अवरुद्ध करना, उनका रास्ता ब्लॉक करना ज़्यादा ज़रूरी है।

दोहराए देता हूँ क्योंकि बहुत सारे यहाँ पर अभिभावक बैठे हैं। आप बच्चे को उचित और ऊँचे जीवन मूल्य सिखाएँ, वो आवश्यक है लेकिन उससे पहले तत्काल, आकस्मिक, इमरजेंसी ज़रूरत इस बात की है कि बच्चे तक जो विकृत मूल्य और कुशिक्षा पहुँच रही है, उसको रोकें।

उसको अगर आपने रोक दिया तो फिर उसको कुछ सिखाना संभव भी हो पाएगा बल्कि आसान भी। पर उस तक जो विकृति और गंदगी पहुँच रही है, वो पहचानी ही नहीं गयी, रोकी ही नहीं गयी, तो गड़बड़ हो जाएगी। खेद की बात ये है कि कई बार घरवाले ही, माँ-बाप ही उस मलिनता को और विकृति को बच्चे तक पहुँचाने के बड़े सक्रिय माध्यम बन जाते हैं।

पहचानना बहुत मुश्किल नहीं है कि कौन-से दरवाज़ों को बंद करना है। थोड़ी देर के लिए अपने व्यक्तित्व से बाहर निकल आइए — यहाँ पर अध्यात्म शुरू होता है। क्योंकि अध्यात्म का अर्थ ही होता है, अहंकार से थोड़ा दूर हो जाना। अहंकार का ज़मीनी मतलब ये है कि मैं बस ‘मैं’ ही होकर के देखता, सुनता, सोचता हूँ। मैं सबकुछ अपनी व्यक्तिगत दृष्टि और अपने व्यक्तिगत केंद्र से होकर देखता हूँ; इसके अलावा मुझे कुछ सुनाई नहीं देता, कुछ समझ नहीं आता।

थोड़ी देर के लिए भूल जाइए कि आप तीस या चालीस या पचास के हैं; बच्चे हो जाइए, बिलकुल बच्चे हो जाइए। अब बच्चे का दिन बिताइए। बच्चे हो गये हैं न अब आप, तो उसका दिन बिताइए। और भूलिए नहीं वो बच्चा है, बल्कि आप बच्चे हैं। अब देखिए कि आप तक क्या-क्या पहुँच रहा है, कौन-कौनसी बीमारियाँ, और कहीं बाहर नहीं, अक्सर घर के अंदर ही।

माँ-बाप बातचीत कर रहे हैं, उनको वो बहुत साधारण बात लग सकती है, वो साधारण बात शायद है भी। पर किनके लिए साधारण है वो बात? दो वयस्क लोगों के लिए, दो उम्रदराज़ लोगों के लिए; तीस-चालीस साल के दो लोगों के लिए वो बात सामान्य-साधारण हो सकती है।

बच्चा आपका आपके साथ में ही होता है। आप दोनों कुर्सी पर बैठे बात कर रहे हैं, बच्चा कहीं आसपास खेल रहा है या खड़ा सुन रहा है। हो सकता है वो दूर है और आप लोग बातचीत कर रहे हैं और आपने ही उसे बुला दिया कि आना, थोड़ा पानी देना और आपने ज़रा भी ख़याल नहीं किया कि आप जो बातचीत कर रहे हैं, वो हो सकता है वयस्कों के लिए ठीक हो, बच्चे के लिए तो बिलकुल भी ठीक नहीं है।

क्यों? क्योंकि हम अपने अहंकर की सीमा के भीतर ही रहते हैं। हम अपनी अहंता के केंद्र से ही देखते-सोचते हैं। हमें लगता है कुछ हमारे लिए ठीक है तो बच्चे के लिए भी ठीक होगा।

अब ये तो हुई वयस्कों की सामान्य-साधारण बात। बहुत दफ़े तो ऐसा होता है कि माँ-बाप या घर के और नात-रिश्तेदार या अतिथि वगैरह ऐसी बातें कर रहे होते हैं जो वयस्कों को भी शोभा नहीं देती। और वो सब बातें भी, वो सब क्रियाकलाप भी, बच्चे की इन्द्रियों तक पहुँच रहे होते हैं। और वो बातें, वो सब कर्म जो वयस्कों के बीच घट रहे हैं, वो ऐसे हैं कि अगर उनको कोई वयस्क भी देख ले तो उसके चित्त पर भी बुरा असर पड़ेगा ही पड़ेगा।

वो बातें ऐसी हैं कि कोई अगर तीसरा प्रौढ़ आदमी भी देख ले तो उसका मन भी ख़राब हो जाए और अक्सर ये सब बातें बच्चे देख रहे होते हैं। हममें इतनी भी शालीनता नहीं होती बच्चे के प्रति, बच्चे की गरिमा के प्रति, हम इतनी भी मर्यादा नहीं रखते कि अगर ये बातें करनी हैं तो बच्चे से थोड़ा दूर होकर करें।

मैं आपसे एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ — जो फ़िल्में, जो पिक्चरें, मूवीज़ जनसामान्य के लिए रिलीज़ करी जाती हैं, उन पर सेंसर बोर्ड ‘ए’, ‘यूए’, ‘यू’ ये सब ठप्पा लगाता है न? लगाता है न? तो बहुत सारी बातें होती हैं जिनको समाज और सरकार और बाहर की जो व्यवस्था है हमारी, वो भी समझती है कि बच्चों तक नहीं पहुँचनी चाहिए। ठीक है न!

किसी फ़िल्म में उस तरह की बातें होती हैं तो उसको ' ए’ सर्टिफ़िकेशन दे दिया जाता है। प्रमाणित कर दिया जाता है कि भाई, इसमें जो सामग्री है, वो सिर्फ़ बड़ों के लिए है। और आवश्यक नहीं है कि वो जो ‘ए’ सर्टिफ़ाइड फ़िल्म है, उसमें सेक्स संबंधित मसाला हो इसीलिए उसको ‘ए’ का, एडल्ट का प्रमाणपत्र मिला है, हिंसा हो तो भी मिल जाता है न? मिल जाता है न?

जो बातें वर्जित होती हैं कि बच्चे सिनेमा हॉल की स्क्रीन (पर्दा) पर न देखें, मुझे बताइए क्या उससे ज़्यादा हिंसायुक्त बातें और दृश्य बच्चे अपने घर में और मोहल्ले में ही नहीं देख रहे होते?

सेंसर बोर्ड इतना ही तो कर सकता है कि जब आप थिएटर के अंदर आएँ बच्चों को लेकर के तो स्क्रीन पर कुछ ऐसा बच्चे को न दिखायी दे जो उसके कोमल मन पर आघात करे, है न!

अब अपने पिछले साल, दो साल, पाँच साल के अनुभव को थोड़ा याद करिए। घर में ही बच्चे ने क्या-क्या नहीं देख लिया! घर में जो दृश्य बच्चे ने देख लिए और जो संवाद सुन लिए, वो उसे सिनेमा हॉल में देखने की अनुमति नहीं है। सिनेमा हॉल में हम उसे नहीं देखने देते, घर में लाइव दिखाते हैं।

सिनेमा हॉल में हम कहते हैं, ‘अरे! नहीं, नहीं, मत देखना।’ रिकार्डेड है, अभिनय मात्र है, तब भी कहते हैं कि मत देखना। और घर में तो सजीव है, लाइव , और अभिनय नहीं है, मामला असली है और बच्चा देख रहा होता है। और फिर हम कहते हैं, ‘फ़िल्मों का बड़ा बुरा असर पड़ रहा है बच्चों पर।’

हाँ, फ़िल्मों का असर तो बुरा पड़ रहा है बच्चों पर, पर वो ‘वो’ फ़िल्म है, जो रोज़ घर में ही चल रही है। और टीवी के पर्दे पर नहीं चल रही है, रसोईघर में चल रही है, लिविंग रूम (बैठक) में चल रही है, दालान में चल रही है, सीढ़ियों पर चल रही है।

बोलिए, घर में बहुत कुछ ऐसा हो रहा है न जो हम स्क्रीन पर भी अगर देखें तो वीभत्स लगेगा? कहिए! स्क्रीन पर तो वर्जित कर दिया, घर में कौन वर्जित करेगा? कौनसा सेंसर बोर्ड है जो आपके घर में घुस कर वर्जित करेगा कि माँ-बाप इस तरह की बातें और इस तरह की हरक़तें बच्चों के सामने न करें। बात माँ-बाप की नहीं है; कोई भी हो सकता है। हो सकता है आपके मोहल्ले में किसी और घर में इस तरह का माहौल हो कि दुष्प्रभाव पड़ता हो बच्चे पर।

आप संगीत के बड़े रसिक हैं और ऐसा तो आपका घर होगा नहीं कि एक कमरे में संगीत चले तो आवाज़ दूसरे कमरे तक नहीं जाती होगी। साधारणतया ऐसे घर तो होते नहीं हैं न! अब आप सुन रहे हैं संगीत और आप जो संगीत सुनते हैं वो कोई शास्त्रीय संगीत तो है नहीं, न रविन्द्र संगीत है, न लोक संगीत है, न भजन है। आप जो सुन रहे हैं साहब, वो तो आपके लिए भी हानिप्रद है। वो इतना ज़हरीला है। सोचिए, बच्चे के लिए वो कैसा होगा।

आप जो सुन रहे हैं वो ऐसा है कि आप भी उसे सुनते हैं तो आपकी रगों में ज़हर दौड़ जाता है और जो आप सुन रहे हैं, क्या वो सबकुछ बच्चे तक नहीं पहुँच रहा? पर आप तो अपने में मगन हैं।

अहंकार का यही काम है। वो बस अपनेआप को देखता है। आप अपने में मगन हैं। कह रहे हैं, बढ़िया है! चल रहा है, दर्द भरे गीत चल रहे हैं। वो दर्द भरे गीत आपको भी नहीं सुनने चाहिए, बच्चे को सुना दिए आपने। और हमें लगता है, 'नहीं-नहीं, ये सब कोई गलत चीज़ें थोड़ी ही हैं। हाँ, कोई अश्लील गीत होगा तो हम बंद कर देंगे।'

हमें लगता है कि जैसे बच्चे को एक ही चीज़ से बचा कर रखना है — अश्लीलता से। अश्लीलता तो बुरी है पर उससे कहीं ज़्यादा बुरे और कई दुष्प्रभाव हैं। बचपन में ही बच्चे की पूरी आन्तरिक मूल्य व्यवस्था निर्धारित हो रही होती है, उसका वैल्यू सिस्टम डेवलप हो रहा होता है और आप जो गीत सुन रहे हैं वो गीत नहीं है, उसमें बहुत ताक़तवर छुपे हुए संदेश होते हैं।

आमतौर पर फ़िल्मी संगीत ही तो चलता है घर में; और क्या चलता है! और बहुत घरों में होता है कि माताएँ या पिता भी कुछ कर रहे होते हैं, बैठे होते हैं, और एफ़एम लगा देते हैं, और उसमें जो आ रहा है, उसका तो आपने वास्तव में चुनाव भी नहीं करा न!

जब आप कोई सीडी वग़ैरा लगाते हैं तो कम-से-कम आपका उस पर थोड़ा नियंत्रण होता है। आप जानते हैं कि आपने क्या लगाया है, उसमें कैसी अंदर सामग्री है। जब आप एफ़एम लगा देते हैं तो आपको पता भी नहीं है कि अगला गाना वो क्या बजा देगा और ये जो रेडियो जॉकी (रेडियो पर बोलनेवाला) हैं, ये कौनसी अगली फूहड़ बात कह जाएँगे।

पर आप उसको लगा देते हो और आप सोचते हैं घर में थोड़ी रौनक रहनी चाहिए, कुछ-न-कुछ बजता रहना चाहिए। थोड़ा शोर तो होता रहे, कुछ आवाज़ें आती रहें, उससे माहौल थोड़ा उत्तेजना का रहता है।

आपके लिए वो सबकुछ जो रेडियो से आ रहा है, साधारण हो सकता है, बच्चे के लिए साधारण नहीं है। बच्चा ऐसा होता है जैसे रुई, रुई का बहुत बड़ा फाहा; जैसे कपास का ढ़ेर और इधर-उधर से जो सब प्रभाव आ रहे हैं, वो ऐसे होते हैं जैसे गन्दा पानी। रुई क्या करेगी? गंदे पानी को सोख लेगी। आपको लग रहा है, नहीं, कुछ नहीं है। ये तो साधारण सी बात है। एफ़एम ही तो चल रहा है; रेडियो मसाला।

वो जो चल रहा है, वो बच्चे को मारे डाल रहा है। पर ये आप नहीं समझेंगे क्योंकि आप बच्चा बनकर नहीं सुन रहे हैं रेडियो को। इसीलिए आपसे कह रहा हूँ कि एक दिन ज़रा बच्चे बन जाइए और देखिए उसके ऊपर क्या-क्या असर हो रहे हैं दिनभर। बच्चा बनकर देखिए कि क्या चल रहा है।

जो लोग वहाँ रेडियो में बोल रहे हैं, उनके बोलने का अंदाज़, बच्चे ने बहुत कुछ सीख लिया, उसने पा ली जीवन शिक्षा, वो समझ गया कि ऐसे बोला जाता है, ये तरीक़े हैं।

विज्ञापन आ रहे हैं रेडियो में। विज्ञापन मात्र विज्ञापन नहीं होता, विज्ञापन आपके भीतर कुछ मूल्यों को संचारित करता है। विज्ञापन का मतलब होता है ‘कुछ खरीदो’। कुछ खरीदोगे तभी न, जब उस चीज़ को क़ीमत दोगे! कुछ खरीदोगे तभी न, जब उस चीज़ को महत्वपूर्ण मानोगे!

तो जब एक विज्ञापन आता है तो वो बेची जा रही वस्तु को, विज्ञापित वस्तु को आपके भीतर महत्वपूर्ण बनाता है सबसे पहले। जब आपके भीतर उसका महत्व स्थापित हो जाएगा तब आप तुरन्त तैयार हो जाएँगे उस चीज़ को खरीदने के लिए। ऐसा ही होता है न!

आप सोच रहे हैं बस विज्ञापन ही तो आ रहा है रेडियो पर। पर आप समझ ही नहीं रहे कि बच्चे की पूरी आतंरिक व्यवस्था यहाँ तैयार की जा रही है। फिर आपको एकदिन अचरज होगा कि ये मेरा शोनू ऐसी बातें क्यों कर रहा है। क्योंकि आपने उसे रेडियो तड़का सुनाया है।

अब आप बैठे हैं मैच देख रहे हैं, आपको उकताहट होगी, आप कहेंगे, ‘क्या हर चीज़ बच्चे पर प्रभाव डालती है?’ जी साहब, डालती है। मैच सिर्फ़ मैच नहीं होता, मैच बहुत कुछ होता है।

मैच चल रहा है, वहाँ पर खिलाड़ियों की किस तरह से चिअरिंग चल रही है, बच्चा देख रहा है। आपको लग रहा है कि मैं तो मैच देख रहा हूँ। हो सकता है आपको उन चीयर गर्ल्स से कोई मतलब न हो, मान लिया। पर बच्चा तो कौतूहल से भरा हुआ है। वो समझना चाह रहा है कि गेंद-बल्ले के खेल में ये लड़कियाँ इस तरह क्यों पागल हुई जा रही हैं।

भाई, खेल तो वहाँ पिच पर चल रहा है, बात गेंद की और बल्ले की है, ये चीयर गर्ल्स का क्या मतलब है? आपको वो बात साधारण लगेगी, बच्चे के लिए साधारण नहीं है। बच्चा उसमें से जीवन शिक्षा सोख रहा है। जैसे रुई सोखती है, बच्चा बहुत कुछ सोख रहा है।

कमेन्ट्री चल रही है, इन्निंग्स ब्रेक हुआ है, वो जो कमेंटेटर बैठे हुए हैं वो किस लिहाज़ में बात कर रहे हैं, किस तरह से वो बात को पेश कर रहे हैं। क्योंकि भाई, वो तो आदर्श बनकर बैठे हैं न वहाँ पर। और कहने की ज़रूरत नहीं, जहाँ कहीं भी कुछ ऐसा है जो प्रचलित है, वहाँ विज्ञापन भी मौजूद होंगे ही।

मास मीडिया हो और विज्ञापन न हों, ऐसा तो हो नहीं सकता। आप तो अपनी तरफ़ से मैच देख रहे हैं, बच्चा विज्ञापन देख रहा है। आपको लग रहा है विज्ञापन तो यूँही हैं, बीच की खाली जगह को भरने का तरीक़ा हैं विज्ञापन, बच्चे के लिए वो बीच की खाली जगह को भरने का तरीक़ा नहीं है; वो आँख फाड़े देख रहा है। बच्चों की देखी है न ऐसे बड़ी-बड़ी आँखें, गोलगोल?

आपको लग रहा है कि ये तो अभी दो ओवरों के बीच में एक मिनट था, फ़ील्ड एडजस्टमेंट किया जा रहा था तो विज्ञापन दिखा दिया कुछ। आप तो वो बस एक मिनट शायद गुज़ार देना चाहते हैं कि अगला ओवर शुरू हो और हम आगे का मैच देखें। बच्चे के लिए ऐसा नहीं है। और ये बातें पकड़ पाना बहुत आसान है अगर आप बच्चे के साथ बच्चा हो पायें।

हम बच्चे को क़रीब-क़रीब अपने ही जैसा समझ लेते हैं। हम जो खा रहे होते हैं बच्चे को वही खिला देते हैं। रेस्तराँ में जाकर देखिए, ‘भाई! वीकेंड है, चलो, आज बाहर खाएँगे।’ वहाँ बच्चे को भी ले गये हैं। वो कोई चार का, कोई छः का है, कोई आठ का है; वहाँ जो-जो मँगाया गया है, वो बच्चे को भी दिया जा रहा है। उसके मुँह की, जीभ की, गले की और आँतों की कोशिकाएँ नरम हैं। रेस्तराँ ने जो खाना बनाया है वो वयस्कों के लिए बनाया है, वो आपके लिए बनाया है।

कोई शेफ़ ये सोचकर खाना नहीं बनाता कि ये बच्चे खाएँगे। पर जाकर के देखिए अभी, चले जाइए किसी रेस्तराँ में, जो माँ-बाप खा रहे हैं, वहीं बच्चे को बैठा रखा है, उसकी प्लेट में डाल दिया है। अंतर बस इतना करा है कि माँ-बाप अगर दो-दो, तीन-तीन रोटियाँ ले रहे हैं तो बच्चे की प्लेट में एक रख दी है। मात्रा कम कर दी है, माल वही है।

आप जो अपने लिए कर रहे हैं, वही बच्चे के लिए कर डालते हैं। और बच्चा वो सब लानतें झेलने के लिए तैयार नहीं है जो हमारी ज़िंदगी में मौजूद हैं।

ये सब जो खेल वगैरह हैं, पूरी जो गेमिंग इंडस्ट्री है, हमें लगता है कि हम बड़े स्नेही अभिवावक हैं अगर हमने अपने बच्चों को गेमिंग का उपकरण लाकर के दे दिया। जानते हैं, दुनिया में इस वक़्त जितना पैसा फ़िल्म उद्योग कमाता है पूरे विश्व में, उससे तीन-चार गुणा ज़्यादा पैसा गेमिंग उद्योग कमाता है और उसमें बच्चों की शिरक़त कुछ कम नहीं है।

पबजी तो आप जानते ही होंगे! और हमें लगता है, ‘कोई बात नहीं, बड़ा उपद्रवी था, कोने में बैठा हुआ है हाथ में मोबाइल लेकर, कुछ बटन-वटन दबा रहा है। शैतान शांत है, हमारा पिंड छूटा, हम अपना काम करें।’ वो शैतान शांत नहीं है। देखिए तो सही कि उसके मोबाइल में चल क्या रहा है।

कई घरों में तो बच्चों के लिए अलग से सिस्टम लाकर रखे जाते हैं जिसपर वो गेम्स खेल पायें। भाई, थोड़ा पैसा आ गया है, कुछ तो उस पैसे का उपयोग करना ही है न! तो बच्चों को ये सब चीज़ें लाकर के दो।

कभी बच्चा बनकर के वो खेल खेला नहीं; कभी सोचा नहीं कि बच्चा इस खेल से सीख क्या रहा होगा। और फ़िल्में तो फ़िल्में हैं, अब तो नेटफ्लिक्स है, इन्टरनेट का पूरा मायाजाल है। सब खुला हुआ है।

देखिए, मैं अभी भी बस नकार की भाषा में बात कर रहा हूँ। वो सबकुछ बता रहा हूँ आपको जो नहीं करना है। यही सूची बहुत लम्बी हो जाएगी और आप पाएँगे कि इस सूची को अगर साफ़ करना है तो पहले आपको अपनेआप को साफ़ करना पड़ेगा। आप इस सूची को साफ़ कर लें, यही बहुत है।

समझ में आ रही है बात?

बच्चे के स्कूल का चयन किस आधार पर करते हैं? किन पैमानों पर, किन पैरामीटर्स (मापदंड) पर करते हैं आप? क्या सिखा रहा है वो स्कूल आपके बच्चों को? बहुत सारे स्कूलों के तो सिर्फ़ विज्ञापन देखकर, होर्डिंग इत्यादि देखकर के स्पष्ट हो जाता है कि ये स्कूल बहुत ज़हरीला होगा। पर विज्ञापन आकर्षक है, माँ-बाप खिंचे चले जाते हैं। और दाख़िल करा आये बच्चे को।

देखिए, आपका बच्चा भारतीय संस्कृति सीखे न सीखे, ये कोई बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न नहीं है। संस्कृति तुलनात्मक रूप से छोटा मुद्दा है अध्यात्म के सामने। और जब मैं बच्चों को देखता हूँ कि छठवीं-आठवीं में आ गये हैं और हिंदी बोलना नहीं आया। ‘राम’ को रामा और ‘कृष्ण’ को कृष्णा बता रहे हैं तो मैं ये भी समझ जाता हूँ कि ये बच्चा अब कभी जीवन में गीता को सम्मान नहीं देने वाला। इनका सम्बन्ध है दोनों का। हम जिस जगह पर रहते हैं, जिस समय में रहते हैं वहाँ पर इन दोनों बातों का सम्बन्ध निश्चित रूप से है।

आपका बच्चा अगर ऐसे माहौल में शिक्षा पा रहा है जहाँ ‘कृष्ण’ कृष्णा हो जाते हैं या 'कृष' हो जाते हैं तो अब उस बच्चे ने मात्र हिंदी को ही नहीं त्यागा है, उसने गीता को भी त्याग दिया। कुछ है सम्बन्ध हिंदी और गीता के बीच।

आप अगर अपने बच्चे को ऐसी परवरिश दे रहे हैं कि वो हिंदी से दूर रहे तो समझ लीजिएगा कि आपने अपने बच्चे को गीता से भी दूर कर दिया। और माँ-बाप की छाती फूल जाती है ये बताने में कि मेरे बच्चे की हिंदी ज़रा कमज़ोर है। क्या गौरव की बात है! बताते हैं कि वो अंग्रेज़ी ही ज़्यादा समझता है।

बात अगर सिर्फ़ हिंदी की उपेक्षा या अवहेलना करने की होती तो मैं किसी तरह बर्दाश्त भी कर लेता पर यहाँ बात सिर्फ़ हिंदी की भी नहीं है। जब आप अपने बच्चे को अंग्रेज़ी परस्त बनाते हैं तो आप उसके भीतर बिलकुल अलग तरह के मूल्य स्थापित कर देते हैं। और वो मूल्य आध्यात्मिक नहीं हैं, इतना मैं आपको बताए देता हूँ। क्योंकि बच्चे को आप अंग्रेज़ी परस्त इसलिए नहीं बना रहे कि अंग्रेज़ी बड़ी सुंदर भाषा है। बच्चे को आप अंग्रेज़ी परस्त इसलिए बनाते हैं क्योंकि अंग्रेज़ी भाषा में आपको पैसा और भौतिक सुख दिखायी देता है।

अगर माँ-बाप ऐसे हों कि शेक्सपियर और मिल्टन से प्यार करते हों और इस नाते उन्होंने बच्चों को शुरू से ही अंग्रेज़ी में पारंगत करा तो मैं कहूँगा, ‘बहुत अच्छी बात है!’ पिता शेक्सपियर से प्यार करते थे, माता अंग्रेज़ी की लेखिका थी तो उनके घर का जो बच्चा है, वो बचपन से ही अंग्रेज़ी में सिद्धहस्त है, बड़ी अच्छी बात है। पर ऐसा नहीं है।

यहाँ तो बच्चों को दूध के साथ अंग्रेज़ी पिलायी जा रही है। इसलिए नहीं कि अंग्रेज़ी बड़ी प्यारी भाषा है बल्कि इसलिए क्योंकि लालच है कि अंग्रेज़ी सीखेगा तो शायद रूपया ज़्यादा बनाएगा, शायद भौतिक तरक़्क़ी ज़्यादा करेगा।

आप उसको सिर्फ़ एक भाषा नहीं दे रहे, आप उसको बता रहे हैं कि तरक़्क़ी का अर्थ क्या होता है। आप उससे कह रहे हैं कि जीवन में आगे बढ़ने का मतलब है रुपया-पैसा इकट्ठा कर लेना और भौतिक रूप से समृद्ध हो जाना। आप उसके भीतर ये मूल्य प्रविष्ट करा रहे हैं। मैं इसलिए कह रहा हूँ कि जो हिंदी को छोड़ रहा है वो अब आध्यात्मिक हो नहीं पाएगा।

माताएँ होती हैं, बच्चा उनका अभी छः महीने, आठ महीने का है, वो बोकैयाँ चलता है, दो पाँव पर ठीक से चल भी नहीं पाता और उससे वो अंग्रेज़ी में बात करने की कोशिश कर रही हैं। बच्चा अभी कोई भाषा नहीं बोल पाता, मम-मम-मम करता है बस और माताजी उसको बता रही हैं, ‘चिंटू, कम ओवर दिस साइड। (इस तरफ़ आओ।)

ये तुम क्या कर रही हो? कितनी बेवकूफ़ हो सकती हो? हमने तो यही सुना और माना था कि माँ को बच्चे की कुशलता की चाहत होती है। ये कैसी माँ है जो अपने बच्चे को ज़हर पिला रही है! ‘ कम ओवर दिस साइड’ ?

इतना तो आप समझते ही हैं कि मुझे अंग्रेज़ी से कोई समस्या नहीं; ख़ूब पढ़ता हूँ अंग्रेज़ी, ख़ूब बोलता हूँ। समृद्ध भाषा है। लेकिन आमतौर पर आप लोग जिस कारण से अंग्रेज़ी की ओर जाते हैं, वो कारण बहुत गलत है।

आप अगर ज्ञान के पुजारी हों और अंग्रेज़ी की तरफ़ इसलिए जाएँ कि अंग्रेज़ी भाषा में ज़्यादा ज्ञान उपलब्ध है तो मैं कहूँगा, ‘अच्छी बात है!’ पर आप अंग्रेज़ी की ओर ज्ञान के कारण नहीं जाते हैं, न उसके भाषायी सौंदर्य के कारण जाते हैं। आप उसकी ओर जाते हैं उसी पुरानी मध्यमवर्गीय हीनभावना के कारण कि हाय राम! हमें तो अंग्रेज़ी आयी ही नहीं, अपने छुन्नू को सिखा दें अब।

अब आप पूछते हैं, ‘आचार्य जी, बताइए, बच्चे को सही जीवन मूल्य कैसे दें?’ मैं पूछना चाहता हूँ, सही मूल्य देने की बात तो बहुत-बहुत दूर की है पहले आप उसे ज़हर देना तो बंद करिए। शायद आप उसे ज़हर देना बंद कर दें तो सही जीवन मूल्य देना आसान हो जाए और बहुत मेहनत भी न पड़े।

मैं कई दफ़े कह चुका हूँ कि किसी की जान लेना अपराध है, उससे ज़्यादा बड़ा अपराध है किसी को पैदा करके बिगाड़ देना। क्योंकि आपने जिसकी जान ले ली, उसने कम-से-कम अब आगे दुख नहीं सहना। आपने उसे एक बार का, एक पल का दर्द दिया और फिर किस्सा ख़त्म।

पर यदि आप अभिभावक हैं और आपने बच्चा पैदा करा है और आपको उसकी परवरिश करनी नहीं आती तो आपने एक प्राणी को आने वाले साठ साल, अस्सी साल का दुख दे दिया। कहिए, ये किसी की जान लेने से छोटा अपराध है या बड़ा?

खिलवाड़ नहीं है माँ होना या बाप होना और यूँही नहीं है कि जो पीढ़ियाँ निकल कर आ रही हैं, वो नशे से ग्रस्त हैं, तनाव से ग्रस्त हैं। किसी भी मनोचिकित्सक के पास चले जाइए, वो आपको बताएगा कि आठ-आठ, दस-दस साल के बच्चे डिप्रेशन (अवसाद) के शिकार और आज की युवा पीढ़ी जितनी ज़्यादा साइकॉटिक है, जितने ज़्यादा मनोरोगों से ग्रस्त है उतना पहले कभी नहीं हुआ था।

बहुत कारण होंगे पर क्या आप इस बात से इन्कार करना चाहते हैं कि माँ-बाप की आध्यात्मिक अज्ञानता एक बहुत बड़ा कारण है? कहिए! और भी कारण होंगे पर केंद्रीय कारण क्या उसका घर ही नहीं है? तो जब बच्चे को बिगाड़ने वाली सबसे ख़तरनाक जगह शायद अक्सर घर ही है तो उसको सुधारने के लिए फिर शायद घर को ही सुधारना पड़ेगा।

अपने बेटे-बेटियों के प्रति आपके प्रेम की इससे बड़ी अभिव्यक्ति नहीं हो सकती कि आप ख़ुद सुधर जाएँ। और ये तो व्यर्थ की बात करिएगा मत कि हमें अपनी बच्ची से प्यार बहुत है और हम ख़ुद गले तक कीचड़ में धँसे हुए हैं। जो ख़ुद गले तक कीचड़ में धँसा हुआ है वो अपने बच्चे के लिए और अपनी बच्ची के लिए शुभ नहीं हो सकता।

आपका प्यार किसी काम का नहीं है। क्षमा कीजिएगा! लेकिन ऐसा प्यार झूठा है।

आप ये नहीं कर सकते, दोहरा रहा हूँ, कि आप बिगड़े हुए हों और बच्चे सुधरे हुए निकल जाएँ। आप ये नहीं कर सकते कि आपका जीवन तो उथला है और बच्चे का जीवन गहरा हो जाए। आप ये नहीं कर सकते कि आपको तो जीवन की कोई समझ नहीं है और बच्चा अपने जीवन में हीरे की तरह चमके। आप ये नहीं कर सकते कि आप ख़ुद तो अध्यात्म से दूर भागते हों और आपके बच्चे सौंदर्य समझें, प्रेम समझें, सत्य समझें, बोध जानें, करुणा जानें; नहीं हो पाएगा।

आप अगर माँ हैं और आप मातृत्व का अर्थ बस ममता समझती हैं तो आप अपने बच्चों के लिए शुभ नहीं हैं। ऐसी माँ जो गहराई से आध्यात्मिक नहीं है वो अपने बच्चों के लिए अच्छी नहीं है। अच्छी हो सकती है, संभावना है, इसी के लिए आपसे बात कर रहा हूँ। इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि आप हतोत्साहित हो जाएँ, इसलिए कह रहा हूँ ताकि आप सही राह चलने के लिए प्रेरित हो पायें।

मैं आपसे कह सकता था आपके प्रश्न के जवाब में कि बच्चों को अच्छा साहित्य लाकर पढ़ने को दें, बहुत सारी सीडीज़ वगैरह आती हैं वो सब दिखाएँ, ये करें वो करें। बच्चों के उत्थान के लिए संस्था का भी एक कार्यक्रम है, मैं कह सकता था कि उसमें से मैं कुछ आपको बातें बता दूँगा, आप वो कर लें अपने घर पर। पर वो सब बातें बताना मुझे अभी ज़रा व्यर्थ लगता है।

जिसको रोज़ नाश्ते में, खाने में और दूध के साथ ज़हर दिया जा रहा हो, उसको मैं विटामिन की गोलियाँ दूँ क्या? कहिए! दिन-रात अगर किसी के सिस्टम में टॉकसिन्स (विषाक्त पदार्थ) प्रविष्ट कराये जा रहे हों तो मैं क्या करूँ? उसको डिटॉक्स की विधि समझाऊँ या कहूँ कि सबसे पहले ये ज़हर पीना बंद कर?

ज़हर पीना बंद कर दे तो फ़िर डिटॉक्स की ज़रूरत क्या रहेगी! या रहेगी? और ज़हर पीना बंद कर देंगे तो फिर व्यवस्था की शुद्धि और रेचन ज़रा आसानी से हो पाएगा।

अब एक तरफ़ तो ज़हर पिये जा रहे हैं, दूसरी तरफ़ मैं कहूँ कि बच्चे को हितोपदेश लाकर के दो, पंचतंत्र लाकर के दो, कृष्णमूर्ति साहब की युवाओं के लिए कुछ किताबें हैं, उनको लाकर के दो, तो वो सब बात व्यर्थ हो जाएगी। वो सब बातें सार्थक तभी होंगी जब पहले जो बच्चे को मानसिक प्रदूषण मिल रहा है, उस प्रदूषण को रोका जाए सर्वप्रथम। है न!

एक दफ़े किसी ने ऐसे ही प्रश्न करा था और फिर वो कुछ तर्कबाज़ी करने लगे, तो मैं थोड़ा कुपित ही हो गया था। मैंने कहा था कि अधिकांश अभिभावकों को तो अपने बच्चों से माफ़ी माँगनी चाहिए। वो विडियो भी मौजूद है, उसको जाकर देखिएगा, अंग्रेज़ी में है; उसका शीर्षक है — पेरेंट्स, अपोलोजाइज़ टू योर किड्स

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