हम क्यों दुख में अटके हैं? || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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हम क्यों दुख में अटके हैं? || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: आपकी वीडियो देखती हूँ मैं हमेशा। और आपने बहुत लोगों को इस राह पर लगाया है, सत्य की राह पर। मैं भी बहुत महीनों से आपको सुन रही हूँ। और ऐसे जीवन को देखने लगी हूँ अभी। विवेक थोड़ा-थोड़ा जाग्रत होने लगा है, क्या सत्य है, क्या असत्य है। तो ऐसा लग रहा है कि जीवन में ये माया जो है — अभी इधर बैठी हूँ बहुत शान्त हूँ, आपके साथ हूँ। लेकिन इधर से बाहर जाऊँगी, तो कुछ-न-कुछ दिमाग में चलता रहेगा। ऐसे ही घर पर भी होता रहता है, हमेशा होता रहता है — ये माया-मोह के चक्कर में इतना हम लोग फँसे हैं। और सब लोग बोलते हैं और मैंने ऐसा समझा है कि कितना आत्म-सुख है। तो आत्म-सुख इतना नज़दीक है हमारे, वो आनन्द सागर है, वो हमारे इतने नज़दीक है, फिर भी हम लोग क्यों ऐसा माया-मोह में अटके हैं?

आचार्य प्रशांत: वो आनन्द सागर नज़दीक नहीं है, वो मिल ही गया है। उसी का नाम माया-मोह है। किसने कह दिया कि आत्मा का कोई भी सम्बन्ध सुख से है। जब आप कहते हैं ‘आनन्द सागर’, तो देखा है मन में कैसी अनुभूति होती है?

मैं बताता हूँ, कैसी होती है। पहली बात, छोटे सुख से बहुत बड़ा सुख, उसको आप नाम देते हैं आनन्द का। और जो सुख हमें अभी तक मिला है वो दो-चार बूँदें होती हैं, छींटें या बाल्टी भर के पानी अधिक-से-अधिक। उससे बहुत ज़्यादा बड़े — परिमाण में बड़े — सुख को आप नाम देते हैं सागर का। तो जब आप आनन्द सागर भी कह रहे हैं, तो वो वास्तव में उसी सीमित सुख का एक बड़ा प्रदर्शन है जिससे आप सदा से ही लिप्त और आसक्त रहे ही हैं।

हम जिसको सुख कहते हैं और हम जिसको आनन्द कहते हैं वो हमारे लिए एक ही आयाम की बातें हैं। उनमें हमारे देखे अन्तर आयाम का नहीं, बस परिमाण का, मात्रा का, संख्या का है। थोड़ा सा सुख, तो कह दिया सुख। और जब आनन्द कहा, तो भी कल्पना यही करी कि बड़ा भारी सुख। और थोड़े सुख की जब कल्पना करते हो तो साथ में मिलता है थोड़ा सा दुख, क्योंकि सुख-दुख क्या हैं? साथ हैं। सुख-दुख ऐसे ही हैं कि जैसे इस पर रोशनी पड़ रही है तो यहाँ रोशनी और यहाँ नीचे अन्धेरा (मेज़ पर पड़े रूमाल की तरफ़ इशारा करते हुए)।

तो थोड़े सुख की जब कल्पना करते हो, तो उसके साथ में मिल जाता है थोड़ा सा दुख। और आनन्द सागर की जब कल्पना करते हो, तो फिर उसके साथ मिल जाता है विराट दुख। इसलिए जो लोग आनन्द सागर इत्यादि की कामना में रहते हैं उन्हें और बड़े दुख मिलते हैं, क्योंकि वो मायाजाल में और गहरे फँस गये हैं।

अरे, ये सब लक्षणाएँ थीं, प्रतीक भर थे कि कह दिया ‘आनन्द सागर’। हमने उसको ऐसा मान लिया जैसे सही में सागर जैसी कोई बृहद, विकराल सुख की अनुभूति होने वाली है। बड़ी-से-बड़ी ग़लती ये कि सुख को और आनन्द को समानार्थी बना लिया। अध्यात्म कोई आनन्द सागर नहीं देने वाला। हम होते कौन हैं आनन्द सागर की माँग करने वाले! थोड़ा ग़ौर से तो देखिए। हमें दुख सागर से मुक्ति मिल जाए, यही क्या कम है! बोलो।

दस दिन का भूखा कोई घूम रहा हो और वो तुम्हें मिले। तुम कहो, ‘बड़ी ख़राब हालत है तुम्हारी।’ हालत, दस दिन से कुछ खाया नहीं और वो बोले कि मार्घेरिटा पिज़्ज़ा, एक्स्ट्रा चीज़ — और क्या-क्या हो सकता है उसमें — एक्स्ट्रा हेल्पिंग ऑफ़ ओलिव्स, जेलिपिनो। तुम उससे कहोगे, ‘अरे धुरन्धर! तुझे सूखी रोटी मिल जाए, ये भी क्या कम है? छोटे मुँह बड़ी बात! माँग क्या रहा है तू?’ तुम उसको कहो, ‘ले, पानी पी ले। दस दिन से भूखा भी है, प्यासा भी।’ तो बोले, ‘नो, ट्रिपल रिफाइंड, मिनरल इनरिच्ड हिमालयन फाउंटेन वाटर, इससे नीचे नहीं चाहिए कुछ।’

ऐसी हमारी हालत है, कि बेचारा कोई मिले कबूतर, इधर-उधर घूम रहा है दाने के लिए और आप उसको थोड़ा चावल डाल दो, गेहूँ डाल दो। तो कह रहा है, ‘ये क्या देसी चीज़ है! आई वांट थाई फूड (मुझे थाई खाना चाहिए)।

अध्यात्म का उद्देश्य आपको किसी विशेष सुख इत्यादि का अनुभव कराना नहीं है। हम सुख की बात इसलिए करते हैं, समझिएगा, क्योंकि हम दुख के मारे हुए हैं। पर जब हम दुख से त्रस्त होकर सुख की बात करते हैं, तो हम ये नहीं समझते कि सुख दुख से मुक्ति का नहीं, बल्कि दुख का ही दूसरा नाम है। ये बड़ी सामान्य, बड़ी प्रचलित भूल है। हमें जब दुख आता है, तो हम सुख माँगने लग जाते हैं इस कल्पना में कि सुख का अर्थ है दुख से मुक्ति। जबकि सुख 'दुख से मुक्ति' नहीं है, वो दुख का ही दूसरा नाम है।

अध्यात्म दुख से मुक्ति का नाम है, सुख की प्राप्ति का नहीं। इन दोनों में बहुत अन्तर है। अध्यात्म दुख से मुक्ति का नाम है, सुख की प्राप्ति का नहीं। आनन्द क्या है? जब दुख से मुक्त हो गये और सुखी भी नहीं हो, तब जानना आनन्द है। अगर दुख से मुक्त हुए, पर मिल गया सुख, तो जान लेना कि साँपनाथ से पीछा छूटा और नागनाथ मिल गया। अगर दुख से तो मुक्ति मिल गयी, लेकिन दुख से मुक्ति के साथ मिल गया सुख, तो समझ लेना की कैंसर से पीछा छूटा और एड्स लग गया। बधाई हो! आप कितने सौभाग्यशाली हैं! अस्पताल गये थे कैंसर छुड़ाने और लेकर आये एचआईवी। चढ़ा होगा खून-वून कुछ।

जब दुख भी छूट जाए और सुख का रोग भी न लगे, तब जानना कि मिला आनन्द। और वो आनन्द अपरिमित होता है। उसके साथ कोई उपाधि, कोई विशेषण मत जोड़ देना। मत कह देना ‘आनन्द सागर’, ‘आत्म-सुख’ इत्यादि। ये तुमने आनन्द को भी दूषित ही कर डाला। सागर बड़ा होता होगा, पर परिमित है न, सीमित है न। आनन्द का कोई परिमाण नहीं होता, न छोटा न बड़ा। आनन्द न छोटा होता है, न बड़ा होता है। तो तुम कहो ‘आनन्द बिन्दु’ तो ग़लत कह रहे हो और तुम कहो ‘आनन्द सागर’ तो भी ग़लत कह रहे हो।

आनन्द बस एक मुक्ति का नाम है, किसी तरह के अनुभव, अवस्था या प्राप्ति का नाम नहीं है। कोई नहीं है जो आनन्द अनुभव करता हो। पर गुरुओं के मुख से, या अध्यात्म की किताबों में इस तरह की बातें अगर तुम पढ़ो कि ऐसा करके, या ऐसा होकर के, या ऐसा सुनकर, या ऐसा पढ़कर तुमको आनन्द अनुभव होगा, तभी समझ लेना कि ये पुस्तक पढ़ने लायक़ नहीं, वो जगह बैठने लायक़ नहीं। जहाँ आनन्द की चर्चा भी एक अनुभव के तौर पर होती हो, वो जगह अन्धकार का अड्डा है।

आनन्द किसी क़िस्म का अनुभव नहीं है, अनुभवों से मुक्ति का नाम आनन्द है। जो कोई बोले कि मैंने बड़े आनन्द का अनुभव किया, उसको कहना, ‘अब तुम नींबू का अनुभव करो, उससे नशा उतरता है।’ हमें तनाव चाहिए न, उत्तेजना। सीधा, सहज, शान्त मन रखने को हम तैयार ही नहीं होते। तो या तो हमें उत्तेजना चाहिए दुख के रूप में, या फिर हमें उत्तेजना चाहिए सुख के रूप में।

अध्यात्म को भी हम किसी तरह की उत्तेजना की प्राप्ति का साधन बनाते हैं। तो हम कहते हैं, ‘कुछ अनुभव तो होना चाहिए न मसालेदार।’ आनन्द छाप मसाला! पूरी तरह आध्यात्मिक है, ज़रूर ख़रीदें। तो बाक़ी सब मसाले इधर-उधर के होते हैं, कोई चाट मसाला, कोई मीट मसाला। उनको कह देते हो कि ये तो भौतिक मसाला है, नरक जाएँगे जो इसको खाएँगे। तुम माँगते हो ‘आनन्द मसाला’, अध्यात्म की फ़ैक्ट्री में तैयार। आहाहा, क्या ज़ायका है! तो घरों में जाओ तो जो जवान पीढ़ी होगी वो 'सुख-दुख मसाला' चाट रही होगी और जो थोड़े बुज़ुर्ग लोग होंगे वो 'अध्यात्म छाप आनन्द मसाला' चाट रहे होंगे। पर बिना मसाले के कोई राज़ी नहीं है। सीधा, सरल, सात्विक मन किसी को नहीं भाता।

मैं यहाँ पर दो तस्वीरें लगा दूँ, एक बड़े भोगी आदमी की, जो अभी-अभी अपनी मनचाही वस्तु का भोग करके आया है और एक दूसरे आध्यात्मिक साधक की, जो कह रहा है कि मुझे बड़े आनन्द का अनुभव हो रहा है। तुम अन्तर नहीं बता पाओगे, क्योंकि दोनों के चेहरे पर भाव एक ही है, ‘मार लिया मैदान! आज मची है लूट। बढ़िया मिला, आहाहा, छककर के पान किया है।’

एक है जिसका दावा है कि अभी-अभी मुझे समाधि का अनुभव हुआ है। मैं फ़लाने पेड़ पर चढ़ गया था। और पेड़ पर चढ़ने के बाद मुझे पता ही नहीं चला कि मैं कौन हूँ और पेड़ कौन है। मुझे पता ही नहीं चल रहा था कि मैं आदमी हूँ, कि पत्ती हूँ, कि फल हूँ, या पेड़ पर कौआ बैठा है मैं वो हूँ। थोड़ी देर को तो मैं पेड़ का कौआ हो गया और मैं उड़ने की कोशिश करने लगा। ऐसा बहुतों को आध्यात्मिक आनन्ददायक अनुभव होता है। तो उनकी शक्ल देखिए उस आनन्दित अवस्था में कैसी होती है। कैसी होती है? जैसे अभी आपकी है (मुस्कुराते हुए श्रोता की ओर इशारा करते हैं)।

और उनके बगल में तस्वीर लगा दीजिए किसी महाभोगी की, जो अभी कुछ भोगकर आ रहा है एकदम बिलकुल छककर के। चाहे मुर्गा-मटन भोगकर आ रहा हो, चाहे धन, यश, प्रतिष्ठा भोगकर आ रहा हो, चाहे स्त्री-पुरुष की देह भोग कर रहा हो, उसकी शक्ल भी कैसी रहती है? उन्हीं के शक्ल जैसी जिन्हें समाधि के अनुभव का दावा है, क्योंकि हैं तो दोनों भोग की ही वस्तुएँ न, मसाला ही हैं।

‘कसूरी मेंथी या देगी मिर्च; असली मसाले सच-सच।’ अब क्या फ़र्क पड़ता है कि कसूरी मेथी है या देगी मिर्च है, है तो वही। क्या फ़र्क पड़ता है कि आध्यात्मिक मुद्रा में वो भोग कर रहे हो, या किसी और पाशविक, दैहिक मुद्रा में भोग कर रहे हो; भोग तो रहे ही हो। तो इसीलिए आनन्द की प्राप्ति नहीं, दुख से मुक्ति।

आनन्द की प्राप्ति आपको आपसे बाहर ले जाएगी और दुनिया भर के जंजाल में भटका देगी, क्योंकि प्राप्ति तो इधर ही कहीं है (बाहर की तरफ़ इशारा करते हुए)। तुम ये भी कहो कि मैं अपने भीतर जा रहा हूँ प्राप्ति करने, तो अपने भीतर क्या? जब तुम कह रहे हो ‘अपने भीतर जा रहा हूँ’, तो तुमने इस काया को सर्वप्रथम 'मैं' माना न, तभी तो कहा, ‘अपने भीतर जा रहा हूँ।’ तो अपने भीतर माने कहाँ जा रहे हो? खोपड़े के अन्दर जा रहे हो, नाक के अन्दर जा रहे हो, अपनी आँत में घुस जाओगे, क्या करोगे? अपने फेफड़े में जाकर के प्लॉट खरीदोगे?

अन्दर माने कहाँ रहोगे? ये काम तो बैक्टीरिया का है — आँत में रहना, नाक के अन्दर घुसकर रहना; बड़ी गन्दी-गन्दी जगहों में। और तुम भी यही कहते हो, ‘मैं अपने भीतर प्रवेश कर रहा हूँ।' टेपवर्म (फ़ीता कृमि) हो? दवा लानी पड़ेगी, फिर मल के साथ निकलोगे। कहाँ से निकले? अपने ही भीतर से निकले हैं। तो अपने भीतर भी प्रवेश करने का अर्थ क्या है?

कभी पूछते नहीं न? गुरुजन बड़े आसानी से सुना जाते हैं, ‘वत्स, अपने भीतर प्रवेश करो।’ और तुम घुस भी जाते हो। कहाँ से, कान से घुसते हो अपने भीतर? कैसे घुसते हो? धारणा ही ग़लत है न? अपने भीतर प्रवेश करना माने, अगर तुम आत्मा हो तो आत्मा के भीतर कोई कैसे प्रवेश करेगा? सेन्ध मारेगा? आत्मा को तोड़ा, फिर उसमें घुस गये अन्दर, क्या किया? कैसे प्रवेश किया अपने भीतर?

अपने भीतर प्रवेश करने की धारणा ही तुम तब रखोगे जब सर्वप्रथम अपनेआप को शरीर मानो। तो तुम कहते हो, ‘मैंने आँख बन्द करी और मैं भीतर घुस गया।’ तुम आँख थे क्या? तुम आँख से बाहर भागते थे? कि आँख बन्द करी और भीतर घुस गये? कौन हो तुम? पर नकली आदमी कभी इस मूल प्रश्न की चर्चा ही नहीं करेगा कि मैं हूँ कौन। बातें और बहुत सारी, असली बात नहीं; मैं हूँ कौन। मैं क्या वो हूँ जो आँख से बाहर देख रहा है? मैं क्या वो हूँ जो खाल के इस बोरे के भीतर क़ैद है? और अगर मैं वो सब नहीं तो बाहर को जाऊँ, भीतर को जाऊँ, बात तो एक ही है न!

ये शरीर भी तो संसार मात्र है। तो मैं पड़ोस के घर में जाऊँ, चाहे इस शरीर के भीतर जाऊँ; जा तो मैं संसार में ही रहा हूँ। ये शरीर क्या संसार से भिन्न है? नहीं तो इधर जाना कि उधर जाना, चाहे इधर जाना; बात तो एक ही है।

आनन्द की प्राप्ति आपको कहीं-न-कहीं बाहर को ही भेजेगी। चाहे भेज दे दायें, चाहे बायें और चाहे अन्दर। अन्दर भी बाहर ही है, आपके अन्दर कुछ नहीं।

जिसको आप कहते हो अन्तर्गमन करना, वो भी वास्तव में बहिर्गमन ही है। अन्तर्गमन जैसा कुछ नहीं होता। और आनन्द की प्राप्ति की बातें छोड़कर अगर आप दुख से मुक्ति की बात करेंगी, तो फिर आपको ये प्रश्न पूछना पड़ेगा कि मैं हूँ कौन जो दुख भोग रहा है। दुख किसको है? कहाँ से आया? ये प्रश्न असली है। आनन्द की प्राप्ति का प्रयास बड़ा नकली उपक्रम है, दुख से मुक्ति की कोशिश बड़ी असली साधना है। आनन्द की प्राप्ति की कोशिश मत करिए जबकि आप दुखी ही हैं।

ऐसे में आनन्द मिल भी गया तो वो एक चादर जैसा होगा, वो चादर जो आपने अपने ऊपर ओढ़ ली। अपने ऊपर कोई भी चादर ओढ़ लें, आप बदल जाते हैं क्या? तो आनन्द की चादर ओढ़कर के क्या मिलेगा? ये जो तुम दुखी बने बैठे हो, इस दुखी इकाई का और उस दुख का पर्दाफ़ाश करो। झूठ के ऊपर सच बैठाकर क्या मिलेगा? मिलेगा कुछ?

सड़े हुए आलू के सैंडविच खिलाएँगी क्या अपने घरवालों को? ब्रेड बिलकुल ताजी है। क्यों, क्यों नहीं खिलाएँगे? ब्रेड तो ताजी है, वही तो देख रही हैं। ब्रेड भी ताजी है, तेल भी ताजा है, आग भी अभी की है और बनाया भी अभी है। बस, भीतर का आलू एकदम सड़ा हुआ है। क्यों नहीं खिलाएँगे घरवालों को? आनन्द की प्राप्ति सड़े हुए सैंडविच जैसी ही है। ऊपर से तो ताजी ब्रेड और अन्दर सड़ा हुआ आलू।

अन्दर जो हमारी सड़न है वो बनी ही रह जाती है, उसके ऊपर हम ताजा आनन्द ओढ़ लेते हैं। क्या फ़ायदा होगा? आनन्द सागर को सुखाने की अपनी कोशिश के लिए मैं (हाथ जोड़कर) माफ़ी चाहता हूँ। मुझे मालूम है कि हम बड़ी आशाओं, बड़ी कल्पनाओं में रहते है। हमने बड़ी छवियाँ बना रखी होती हैं कि आनन्द सागर में हम भी डुबकी मारेंगे। और वहाँ पर और लोग भी मिल जाएँगे इधर-उधर जिन्होंने डुबकी मार रखी है, कि डुबकी मारी ज़ोर की और जैसे ही बाहर आये, तो देखा उधर थोड़ा मीराबाई भी नहा रही हैं, ‘हम अड़ोसी-पड़ोसी हो गये।’ ऐसा कुछ नहीं है।

दुख से मुक्ति, स्वयं से मुक्ति। ये वो सागर है जिसमें कोई डुबकी नहीं मारता, इसमें मिट जाते हैं। जो मिट गया उसके लिए कौनसी बूँद और कौनसा सागर, बताओ मुझे। पर उसमें भी हम चतुराई कर जाते है। हम कहते हैं, ‘अच्छा, मिट जाते हैं, हमने पहले भी सुना है। “बूँद समानी समुन्द में, अब कित हेरत जाई” — हमने भी सुना है। तो बूँद मिटी न! बूँद मिटकर सागर हो गयी, तो बढ़िया है, बढ़िया, अच्छा।’

पहले बूँद बराबर अहंकार था, अब सागर बराबर अहंकार है। बढ़िया मिला अध्यात्म से, यही तो है रिटर्न ऑन इन्वेस्टमेंट। तीन दिन लगाये, बूँद से सागर होकर आये। सागर हो नहीं जाते हो, वो बात प्रतीकात्मक थी। तुम इतना ही याद रखो कि बूँद मिट जाती है, मिटना याद रखो। ये प्राप्ति की भाषा ही गड़बड़ है कि हम सागर हो जाएँगे और ये हो जाएँगे। जीवन भर तो पाने के लिए ही तड़पे हो न?

अच्छा, एक बात बताओ, ये रूमाल ही पाना हो और न मिले तो कितनी तड़प उठेगी? जल्दी बोलो।

श्रोता: थोड़ी सी।

आचार्य: थोड़ी सी, ठीक है। ये गमला पाना हो, न मिले तो कितनी उठेगी फिर? थोड़ी ज़्यादा। ये कैमरा पाना हो और न मिले तो फिर कितनी तड़प उठेगी?

श्रोता: उससे ज़्यादा, और ज़्यादा।

आचार्य: एक मकान पाना हो, न मिले तो कितनी उठेगी?

श्रोता: और ज़्यादा।

आचार्य: काफ़ी ज़्यादा। और आनन्द सागर ही अगर पाना हो और न मिले तो कितनी उठेगी?

श्रोता: सागर जितनी।

आचार्य: मार ही डालेगी। तो तुम देख रहे हो न, तुम क्या कर रहे हो अपने साथ? जितनी बड़ी तमन्ना, उतना बड़ा दुख। इसीलिए अध्यात्म दुख से निवृत्ति की जगह दुख का कारण बन जाता है। वो तुम्हारे भीतर और बड़ी-बड़ी हसरतें पैदा कर देता है, जो कि आपके प्रश्न में भी परिलक्षित हो रही थीं, कि मैंने ये किया, मैंने वो किया, पर आनन्द सागर का अनुभव क्यों नहीं होता? लो, आ गया अब ज़िन्दगी में बड़े-से-बड़ा दुख, सागर समान दुख।

हम यही देख लें कि हम कहाँ मात खा रहे हैं तो काफ़ी है। दिनचर्या को देखिए अपनी। इतनी सरल, इतनी सहज साधना है, सुबह से लेकर रात तक क्या करते हैं, इसको देखिए ईमानदारी के साथ। और नहीं कुछ करना है, किसी पैंतरेबाज़ी की, किसी क्रिया-प्रक्रिया, विधि की, किसी मुद्रा की कोई आवश्यकता नहीं है। या अगर उनकी आवश्यकता पड़ेगी भी, तो तब जब पहले आपको ये तो पता हो कि आपकी बीमारी क्या है, मर्ज़ क्या है। मर्ज़ का पता चल जाए, फिर दवा की बात हो सकती है। अगर रोग का ही नहीं पता, तो इधर-उधर की दवाइयाँ आज़माने से क्या लाभ?

दुख से मुक्ति के लिए सर्वप्रथम दुख की पहचान ज़रूरी है। ठीक? दुख को पहचानिए। क्या है? कहाँ से आता है? और किसको आता है? दुख को पहचानिए, ठीक? दुख के पल को ज़बरदस्त चेतना का पल बना लीजिए। दुख उठा नहीं कि दस तरह के अलार्म बज जाए। अभी-अभी कुछ हुआ, अभी-अभी कुछ हुआ।

और दुख के तमाम नाम हैं — निराशा, ईर्ष्या, तुलना, अपेक्षा। उन सब में साझी बात ये है कि भीतर खलबली मचती है। उस खलबली से ही पहचानिए दुख को। दुख माने ‘भीतर खलबली मच जाना।’ जहाँ खलबली मची नहीं, तहाँ पहचानिए कि अभी-अभी कुछ हुआ। यही साधना है। खलबली को ही विधि बना लीजिए। भीतर की खलबली को काटने की विधि किसको बना लेना है? खलबली को ही। लो, अब कोई विधि चाहिए ही नहीं।

ये ऐसा है जैसे किसी बन्द डब्बे में आग लगे। डब्बा बन्द है, पूरी तरह बन्द है और भीतर उसके कुछ रखा है, लकड़ी, कागज़ वगैरह। उसमें आग अगर लग भी गयी भीतर, तो आग ही आग को बुझाने का कारण बन जाएगी। आग उसमें अगर भीतर लग भी गयी, तो आग ही कारण बन जाएगी आग को बुझाने का। क्यों? क्योंकि आग लगेगी तो आग ही ऑक्सीजन सब पी जाएगी। आग ने ही ऑक्सीजन को पी लिया, जब ऑक्सीजन ही नहीं बचा तो आग कैसे बचेगी।

ऐसा कर लेना है मन को कि दुख ही दुख से मुक्ति का कारण बन जाए। और वो तभी होगा जब दुख के समय आप सुख की ओर न भागें, बल्कि दुख में ही निर्भय होकर प्रवेश कर जाएँ कि ये क्या हुआ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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