ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय एक हैं, तो इनको जानने वाला कौन?

Acharya Prashant

16 min
1K reads
ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय एक हैं, तो इनको जानने वाला कौन?

ज्ञानं ज्ञेयं तथा ज्ञाता त्रितयं नास्ति वास्तवं।

अज्ञानाद् भाति यत्रेदं सोऽहमस्मि निरंजनः॥ २-१५॥

ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता यह तीनों वास्तव में नहीं हैं, यह जो अज्ञानवश दिखाई देता है वह निष्कलंक मैं ही हूँ

~ अष्टावक्र गीता (अध्याय 2 श्लोक १५)

प्रसंग:

"The Self is abstract intelligence free from thought. The knower, knowledge and the known are not real as different entities. When differentiation among them is destroyed, their true nature is evident in the resulting non-dual consciousness, which is also the state of emancipation.

~ Vidya Gita (Shlok 72)

आचार्य प्रशांत: क्या है ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय? जो कुछ आपको दिख रहा है, वो ज्ञेय वस्तु है। जिसे जाना जा सकता हो। जो कुछ भी आपको दिख रहा है, जिस भी चीज़ का आपका मन संज्ञान ले सकता है, कॉग्नाइज़ कर सकता है, वो वस्तु कलायी ज्ञेय वस्तु। ज्ञेय माने जिसे जाना जा सकता है।

ज्ञाता कौन? जो भीतर बैठ करके यही हुड़दंग कर रहा है, जानने का। मैं ज्ञाता हूँ। मैं ज्ञाता हूँ। मैं जान रहा हूँ।

और ज्ञान? ये जो घटना घट रही है, ये ज्ञान की कहलाती है। ज्ञाता और ज्ञेय के मध्य जो सम्बंध है वो ज्ञान का कहलाता है। मुझे अभी-अभी ज्ञान हुआ, किसका? कि वहाँ तीन कुर्सियां रखी हैं।

ठीक है?

ये वैसा ही त्रैत है जैसा कि दृश्य-दृष्टा-दर्शन में होता है। जानते हैं न? देखने वाला, दिखाई देने वाली वस्तु, और? ये तीनों एक साथ चलते हैं। ऐसा कभी नहीं हो सकता कि एक ही है या कोई दो ही हैं। आमतौर पर जो अहम् होता है, अहम् (मैं) वो चिपका रहता है ज्ञाता के साथ। और ज्ञाता साथ किसके चल रहा है? ज्ञेय के। तो अहम् ज्ञाता बनकर ज्ञेय वस्तु पर आश्रित हो जाता है। मैं ज्ञाता हूँ। और ज्ञाता साहब कौन हैं? जिस चीज़ का वो ज्ञान ले रहे हैं, उसके वो ज्ञाता हैं। जिस चीज़ का वो ज्ञान ले रहे हैं उसका वो ले ही क्यों रहे हैं? और भी पचास चीज़े हैं, वो चीज़ बड़ी आकर्षक लग रही है। हम हर चीज़ का थोड़े ही ज्ञान लेते हैं, कि लेते हैं?

हम हर चीज़ थोड़े ही देखते हैं, हर चीज़ थोड़े ही सुनते हैं। जिस भी चीज़ पे नज़र पड़ती है, किसी कारण से ही पड़ती है। बाज़ार से भी निकल रहे हैं वहाँ पर हज़ारों चीज़े हैं। हर चीज़ पर तो आपकी नज़र ठहरती भी नहीं। न हर चेहरे पर आपकी नज़र ठहरती है। किसी चीज़ पर और किसी चेहरे पर नज़र जाकर चिपकती है। और जिस भी चीज़ पर नज़र जा के चिपक गई, हम उस पर आश्रित हो जाते हैं। उस पर अवलम्बित हो जाते हैं।

समझ में आ रही है?

अहम् आमतौर पर आश्रित रहता है ज्ञेय वस्तु पर ज्ञाता बनकर। अहम् क्या बन जाता है? ज्ञाता। मैं ज्ञाता हूँ या ज्ञानी हूँ और ज्ञेय वस्तु पर आश्रित हो जाता है। इस चीज़ का नतीजा क्या होता है? दासता-गुलामी। जो ज्ञाता बन गया वो किस पर आश्रित हो गया? ज्ञेय वस्तु पर। तो गुलाम हो गया न, क्योंकि वो वस्तु आपके अधिकार में है नहीं। वस्तु आपके अधिकार में तो है नहीं, वस्तु उड़ गई, गायब हो गई, छूमंतर। अब आपको क्या मिलेगा?

दु:ख।

और वो वस्तु आपको मिल भी गई, तो आपको क्या मिलेगी? उदासी। क्योंकि आपको उस वस्तु से जो चहिए था, वो तो मिलेगा नहीं न। वस्तु मिल गयी, वस्तु से जो संतुष्टि चाहिए थी वो मिलेगी नहीं। नहीं मिलेगी तो बेचैनी और मिल जायेगी तो निराशा। ये ज्ञाता की किस्मत है। जो ज्ञानी बन के घूमेगा, जो दुनिया भर की तमाम चीज़ो का संज्ञान ही लेता रह जाएगा (भाई ज्ञेय वस्तुएं सब संसार में ही होती हैं न)। तो जो ज्ञाता बनकर घूम रहा है, उसने अपना सम्बंध किससे बिठा लिया है? संसार से। उसका हश्र ये होगा कि वो दुख में जियेगा।

ठीक है?

इस दुख से निपटने के लिए ऋषियों ने जो मंत्र दिया है आपको, जो उपाय दिया है आपको, उसका नाम है- आत्मा। अहम् का क्या काम है? अहम् का काम है चिपकना, तो वो जाता है ज्ञाता से चिपक जाता है।

ज्ञाता-ज्ञेय-ज्ञान ये सारा काम चल रहा है प्रकृति में। चल रहा है कि नहीं चल रहा है? ये काम तो एक इलेक्ट्रान और प्रोटान के बीच में भी हो जाएगा न। इलेक्ट्रान, प्रोटान का संज्ञान लेता है कि नहीं लेता है? इन दोनों को आस-पास ले आ दो, ये दोनों एक दूसरे को जानना शुरू कर देंगे। जान लेंगे और एक दूसरे की ओर बढ़ने लग जाएंगे। तो एक दूसरे को जाना इन्होंने न? ये सारा जानना, ये आकर्षण-विकर्षण ये सब कहाँ होते हैं? प्रकृति में। ये प्रकृति का खेल है।

और अहम् जाकर के जुड़ गया है ज्ञाता से। और आश्रित हो गया है ज्ञेय पर। और समझने लग गया अपने आपको ज्ञानी। तो वास्तव में अहम् किससे जुड़ गया? प्रकृति से जुड़ गया न? अहम्, प्रकृति से जुड़ गया। ये अहम् का हिसाब-किताब है। और इस पूरी प्रक्रिया का नतीजा है - दु:ख, निराशा, बेचैनी।

तो ऋषियों ने देखा, उन्होंने कहा ये खेल चल रह है। प्रकृति में ये त्रैत चलता है। कोई भोक्ता है, कोई भोग्य वस्तु है और उन दोनों के बीच में रिश्ता है, भोग का। प्रकृति में यही सब त्रैत चलते रहते हैं। प्रकृति का ये त्रैत चल रह है और ये हमारे नासमझ अहम् भाई साहब हैं, ये जाकर के उसी से चिपक जा रहे हैं। और बदले में क्या पा रहे हैं? दु:ख। और अध्यात्म का उद्देश्य ही क्या है? दु:ख से मुक्ति। तो उन्होंने कहा ठहर, तू दूर रह, तू दूर रह। यही अहम् जब किसी पर अवलम्बित, निर्भर, आश्रित होने से इंकार कर दे, तो इसका नाम है - आत्मा। पहले वो सम्बंधित था अब वो असम्बद्ध है। इसी असम्बद्ध होने को कहते हैं- दृष्टा मात्र होना, साक्षी मात्र होना।

खेल चलता रहेगा। जानना किसकी प्रकृति में है? जानना ज्ञाता की प्रकृति में है। हम तो ज्ञाता नहीं। जिसे ज्ञाता होना हो, होता रहे। तो कौन ज्ञाता है? मस्तिष्क ज्ञाता है। सारा ज्ञान कहाँ जाके इकठ्ठा हुआ है? मस्तिष्क में, हममें नहीं। हमने ज्ञान से तौबा नहीं कर ली है। ज्ञेय वस्तुएं हैं सारी संसार में और ज्ञाता कौन है? मस्तिष्क, हम नहीं - मस्तिष्क। हमें इस पूरे खेल से कोई लेना ही देना नहीं।

ये ज्ञेय वस्तु है और इसका संज्ञान कौन लेगा? ये खोपड़ा। कौन लेगा? खोपड़ा। हमें इस खेल से कोई मतलब नहीं। हमें दूर रखो भाई। जब आप इस खेल से दूर हो गये, आपको अब इसमें ऐसा कुछ दिख ही नहीं रहा कि आप इससे चिपको। तो आत्मस्थ कहलाते हो आप। और जब आप इस खेल में शामिल-सम्मिलित-शरीख हो गए, तो अहम् कहलाते हो आप। जो खेल से इतना आकर्षित हो जाए कि खेल में कूद जाए और अपनी ऐसी-तैसी कर आये। उसका नाम है? अहम्।

जो दुनिया के खेल से इतना आकर्षित हो जाए कि उसमें कूद पड़े और फिर अपनी दुर्गती कर आए, उसी का नाम है- अहम्। और जो इस खेल को देखे और कहे ठीक है भैया खेलो। तुम्हारा काम है खेलना, हमारा काम थोड़े ही है खेलना। हमारा कोई काम ही नहीं है। हम स्वयंभू हैं। हम सनातन हैं। हम पूर्ण हैं। हम मौज में हैं। हम मस्त हैं। हमें कोई कमी ही नहीं है, हम कोई खेल क्या खेलेंगे। और तुम्हारे सारे खेल कमियों की वजह से ही हैं। ज्ञाता जब भी देखता है कि ज्ञेय वस्तु को तो लार टपकाना शुरू कर देता है।

यही करता है, कि नहीं करता है?

शॅापिंग मॅाल गए हो और वहाँ सब ज्ञेय वस्तुएं रखी हैं। उनके साथ क्या सम्बंध होता है? साक्षी का? खड़े हो गए हैं फूडकोर्ट में, सामने मेन्यु है। एक-एक वस्तु को देख के कह रहे हो, हूँऊ... या जितने नाम पढ़ रहे हो उतने चट्खारे उठ रहे हैं भीतर, पिज़्ज़ा विथ एक्स्ट्रा चीज़। तो ज्ञाता की बड़ी दुर्गती है दुनिया में। वो जो ही चीज़ देखेगा, उसी में उसको लिप्त होना पड़ जाता है। साक्षी, कहता है भाईया, ये सारा उपद्रव ज्ञाता को उठाने दो, हमें कोई मतलब नहीं। ज्ञाता को लार आती है तो आए हमें नहीं लार आयी। लार उठी भी तो किसको? मुँह को आयी है लार, हमें नहीं आयी है लार। हमें नहीं आयी है। जब लार सिर्फ मुँह में आती है, आपको नहीं आती, तो समझिए आप आज़ाद हो गए। अब आप में बड़ी ताकत है। अब कोई आपको बंधन में नहीं डाल सकता।

आ रही है बात समझ में?

तो ये प्रक्रिया तो चलती रहेगी ज्ञान-ज्ञाता-ज्ञेय। जब तक शरीर है, तब तक शरीर संज्ञान लेता ही रहेगा, आप रोक नहीं सकते उसको। रोकना चाहिए भी नहीं, फिजूल। शरीर का मतलब ही है, एक ऐसा उपकरण जो अपने वातावरण का लगातार संज्ञान लेता रहता है, लेता रहता है न? पंद्रह मिनट को कान न सुनें, तो कैसा लगेगा आपको? बेचैन हो जायेंगे। दस मिनट को आंखो की रोशनी चली जाये तो कैसा लगेगा आपको? या त्वचा किसी भी चीज़ का अनुभव करना बंद कर दे, स्पर्श करे और पता ही न चले, तो कैसा लगेगा? अरे छोड़ो अभी बैठे हो आप, खड़े हो और पाओ कि पाँव सो है गया। पाँव सोता है, जानते हो न? अब वो संज्ञान नहीं ले रहा। वो सो गया है। कैसा लगता है फिर? झुंझलाहट होती है न। फिर अरे! जग, फिर उसको चूँटी काटते हैं, फिर उसपे पाँव रगड़ देते हैं, कोई कुछ करता है, कोई कुछ करता है।

तो ये शरीर ऐसा उपकरण है जिसका अपने वातावरण से अनिवार्य सम्बंध होगा ही। आपका नहीं होना चाहिए, न वातावरण से न शरीर से, ये साक्षित्व है। माने क्या? ज़मीनी अर्थ क्या हुआ इसका? ज़मीनी अर्थ ये हुआ - ठण्ड रख। क्या हुआ? ठण्ड रख। होंड़ दे.. आ रही है बात समझ में? और बोलूँ, मैनु की! क्या? मैनु की!

सरदर्द बहुत हो रहा है, किसका सर? पड़ोसी का नहीं यही सर जिसको अपना सर कहते हैं, पर अपना भी बहुत दर्द हो रहा है तो क्या बोलना है? मैनु की! बैंक से फोन आया आप लुट गए तबाह हो गए, आपके खाते से कोई सबकुछ निकाल के ले गया, यहाँ से जवाब क्या जा रहा है? मैनु की! मुझे क्या फर्क पड़ता है? मेरा क्या है इसमें? तो बैंकर हैरान होने लग गया। बैंकर बोल रहा है अरे! आपको कोई फर्क नहीं पड़ता? आपका अकाउंट था, ये था, वो था। तो बोलिए तैनु की! अगर मेरा था और मुझे फर्क नहीं पड़ रहा तो तू क्यों इतना बदहवास हो रहा है। समझ में आ रही है बात? ये छोटे-छोटे सूत्र हैं जीवन के। क्या? ठण्ड रख, ठण्ड रख।

मुझे बताया गया, मैं जानता नहीं हूँ। कहानी है अब वो, इशारा कर रही हैं तो बताए देता हूँ। चैनल उड़ा था बीच में पता ही होगा आपको? तो रात में एक डेढ़ बजे किसी ने धावा बोला था, हमला करा था। मेरे ख्याल से मैग(ऑनलाइन सम्वाद) का सेशन था। वो मैं लेकर के आया फिर मुझे बताया गया कि अब ये लाइव हुआ और लाइव होने के बाद हैक हो गया। मैं कहा अच्छा ठीक है। मैंने कहा भूख लगी है पहले खाना खाओ। सेशन कर के आए हैं, अब यही सब सुनेंगे। खाना-वाना खाया। थोड़ा-बहुत देखा, क्या है, सो गए। मैं तो सो गया, बोधस्थल में अफरा-तफरी मची हुई थी। लोग ढूढ़ने लगे भाई ये सब हो जाए तो क्या तरीके होते हैं? क्या विधियाँ होती हैं? वापस कैसे लाया जाता है? कोई बोला पुलिस स्टेशन चलो एफआईआर करेंगे। कोई कुछ कह रहा है- कोई कुछ कह रहा है। जितने मुँह उतनी बातें। तो ये सब कुछ-कुछ योजना बनाएं, मैं सो चुका था, आके मुझे जगाएं। एक-दो बार जगाया तो एक आंख खोल के देखूं। बोला कि चलो हटो। मुड़ के देखूं। फिर चार-पांच बजे भी आके जगाने लगे तो डांट दिया, सोने दो चुप-चाप।

अगले दिन इन्होंने करीब-करीब मुझसे इस भाषा में शिकायत की, कि जैसे मैं गैर-ज़िम्मेदार हूँ। बोलें इतनी बड़ी चीज़ हो गई आपको कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। कहा नहीं उन्होंने, शालीन लोग हैं लेकिन टोन कुछ ऐसी ही थी कि आप तो बड़े गैर-ज़िम्मेदार हैं। इतना बड़ा हादसा हो गया और सो रहे थे। तो वही है, मैनु की!

क्या उखाड़ लोगे, जो उखाड़ सकते हो उखाड़ लो। और जो चीज़ उखड़ सकती है वो कभी न कभी तो उखड़ेगी ही। कौन सा चैनल अमर है भाई? यू-ट्यूब अमर है क्या? तो चैनल कहाँ से अमर हो गया? हाँ उसकी कुछ उपयोगिता है इस नाते अभी उसको चला रहे हैं। इस नाते उसको बचाने की भी पूरी कोशिश करेंगे। इस नाते उसका पालन-पोषण करते हैं। बहुत लोग उस पर काम कर रहे हैं। बीस जनों की एक पूरी टीम है जो उसपर काम करती है। इस नाते उसकी सुरक्षा के लिए भी प्रबंध किये गए हैं। लेकिन ये थोड़े ही भूल जाएंगे कि ये संसार है, यहाँ कुछ भी अमर नहीं है। तो इतनी क्या छाती पीटनी, जैसे भूचाल आ गया हो।

एक फ्यूज़ होना चाहिए भीतर। फ्यूज़ का काम क्या होता है, इलेक्ट्रिकल सर्किट में? कि अगर अम्पियरेज करेंट एक सीमा से ज़्यादा बढ़ा तो वो जो फ्यूज़ का तार होता है वो पतला होता है। उसका रेसिस्टेंस ज़्यादा होता है। उसका तापमान बढ़ता है और वो फ्यूज़ कर जाता है। फ्यूज़ माने पिघलना। वो पिघल जाता है। भीतर एक फ्यूज़ होना चाहिए। तापमान थोड़ा-बहुत बढ़े चलो कोई बात नहीं। एक सीमा से जैसे ही ज़्यादा बढ़े, सर्किट ही ब्रेक हो जाए, सो जाओ! कहें क्या हुआ? फ्यूज़ हो गया।

एक सीमा से ज़्यादा तनाव सहने की आदत ही नहीं होनी चाहिए। थोड़ा-बहुत चलेगा। ज़्यादा करोगे तो हम सो जाएंगे। सो जाएंगे माने? गायब हो जाएंगे। चेतना को ही विलुप्त कर देंगे। वही कला है। उसी को अध्यात्म बोलते हैं। और वो इन्बिल्ट होना चाहिए भीतर। इन्बिल्ट नहीं है तो काम नहीं आएगा। ये जीवन जीने का एक तरह का एटीट्यूड है। एक कला है इसको साधना पड़ता है। समझ रहे हैं? कि देखो भाई थोड़ा-बहुत लोड हम ले लेंगे पर हम एक सीमा जानते हैं, उस सीमा से ऊपर चीज़े जब भी गुज़रेंगी हम कहेंगे, जय रामजी की! छोड़ो जाओ।

दुनिया इतनी भी कीमती नहीं है कि वो भाव खाए और हम भाव देते रहें। थोड़ा-बहुत भाव खाओगे, हम झेल लेंगे तुमको। ज्यादा भाव खाओगे हम कहेंगे अच्छा चल, जाण दे!

समज में आ रही है बात?

व्यवहारिक अर्थों में ये चीज़ साक्षित्व के करीब हुई। साक्षित्व का अर्थ ही है निरलिप्तता। चेप नहीं हो जाएंगे। चेपना समझते हो? तने न छोड़ूंगी सइयां! आ रही है बात समझ में? तुम्हें तो आ ही रही होगी ज्ञानी आदमी हो (एक श्रोता की और इशारा करते हुए)। मैं लजाता किसी को नहीं हूँ, खेलता हूँ बस साथ में, ठीक है? तो उसमें कोई भारी-भरकम भावनाएं बीच में लाने की ज़रूरत नहीं है। मैं डांट भी रहा हूँ अगर कभी, तो खेल ही रहा हूँ। खेलना नहीं पसंद तुमको? तो खेला करो! आ रही है बात समझ में? क्या? गरम होना किसको पसंद है भाई? किसको पसंद है? इसी लिए कह रहा हूँ भीतर लगा होना चाहिए एक सर्किट ब्रेकर। ठीक है न? हमें पता होना चाहिए कि इससे आगे हम नहीं झेलेंगे।

कोई भी चीज़ इस संसार की इतनी कीमती नहीं कि उसके लिए अपनी आत्यांतिक शांति को दाव पर लगा दें। जबतक बाहर-बाहर कोलाहल है तबतक हम बर्दाश्त कर लेंगे। पर जैसे ही पाएंगे कि कोलाहल अब आत्मा पर छाने लगा है, हम कहेंगे अजी हटो! हमें इस धंधे में पड़ना ही नहीं है। जो चीज़ मेरी आत्मा को ही दूषित करने की धमकी देने लगे, वो चीज़ मुझे चाहिए ही नहीं। वो चीज़ बहुत महंगी हो गई, नहीं चाहिए।

ठीक है?

आचार्य: इसका जो दूसरा हिस्सा था सवाल का वो भी बताइएगा, मैं भूल गया।

प्रश्नकर्ता: ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता यह तीनों वास्तव में नहीं हैं,

यह जो अज्ञांवश दिखाई देता है वह निष्कलंक मैं ही हूँ।

~ अष्टावक्र गीता (अध्याय २ श्लोक १५ )

आचार्य: ये तीनों वास्तव में नहीं हैं। अर्थ ये तीनों वास्तव में वो नहीं हैं जो आप इन्हें समझ बैठे हो। आप इन्हें क्या समझ बैठे हो? आप इन्हें ज़िन्दगी समझ बैठे हो। आप इन्हें बड़ी हैसियत, बड़े मूल्य का समझ बैठे हो। तो जब अष्टावक्र जैसे कोई मुनि बोलेंगे तो वो कहेंगे ये हैं ही नहीं। हैं ही नहीं माने, शून्य वैल्यु के हैं। जिस चीज़ की कीमत शून्य की हो गई उसका होना न होना बराबर हो गया न। तो अष्टावक्र कहते हैं वो है ही नहीं। जिस वस्तु का मूल्य शून्य हो गया, क्या अब उसकी ओर देखोगे भी? जब देखोगे ही नहीं तो क्या वो चीज़ अब है? है ही नहीं। तो कहते हैं साक्षी मात्र असली है। शास्त्र आपको बताएंगे कि आत्मा का ही दूसरा नाम साक्षी है, साक्षी मात्र असली है और साक्षी जिनका साक्षी है वो सब नकली है। नकली क्यों है? असली होता तो फिर वो साक्षी काहे को होता। अगर चीज़े असली होती तो हम उनके साक्षी क्यों रहते? फिर तो हम क्या बन जाते उनके भोक्ता बन जाते न!

अरे भाई साक्षी, साक्षी ही इसलिए है क्योंकि वो जिनका साक्षी है उनमें कोई दम नहीं है। तो वो कहता दूर ही से देख लेंगे इनमें दम ही कितना है। अगर उनमें कुछ मूल्य होता, कुछ दम होता तो साक्षी, साक्षी नहीं रहता। तो फिर वो क्या बन जाता? भोक्ता बन जाता। तो साक्षी का होना ही इस बात का प्रमाण है कि साक्षी जिन सब का साक्ष्य ले रहा है, साक्षित्व का जो विषय है, हालाँकि साक्षित्व का कोई विषय होता नहीं, पर साक्षी, जिनका साक्षी है, जो साक्ष्य वास्तु है, वो सब बिल्कुल ही मूल्यहीन हैं। तभी तो वो साक्षी है। मूल्यहीन हैं, तो अष्टावक्र कह देते हैं कि हैं ही नहीं।

ठीक है?

YouTube Link: https://youtu.be/d0FBfP9htUY

GET UPDATES
Receive handpicked articles, quotes and videos of Acharya Prashant regularly.
OR
Subscribe
View All Articles