प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं नौवीं कक्षा में था तब से ओशो को, एक बुक (पुस्तक) मिली थी मुझे लाइब्रेरी (पुस्तकालय) में गाँव के, तब से मैं पढ़ रहा हूँ उनको। फिर मेरी सरकारी नौकरी लगी तो मुझे लगा कि नौकरी से सब अच्छा हो जाएगा और मैं अध्यात्म को और भी समय दे पाऊँगा। लेकिन फिर धीरे-धीरे समझ आया कि समय तो रहा ही नहीं, सिर्फ़ पैसे ही मिल रहे हैं, लेकिन जो पहले भी मैं कुछ कर लेता था, ध्यान, कुछ भी नहीं कर पा रहा हूँ, और सिर्फ़ पैसों के लिए मैं जाता हूँ।
तो मुझे लगा ये नौकरी शायद ग़लत है, तो एक और दूसरी सरकारी नौकरी लगी। लेकिन फिर एक साल बाद, २०१२ में, मैंने उससे भी इस्तीफ़ा दे दिया। उस समय बिलकुल समझ आ गया कि ग़लत जगह आ गया था मैं, फिर मैंने छोड़ दिया २०१२ से। लेकिन ये था कि “करूँगा क्या, क्या होगा?” मैंने सोचा कि “देखता हूँ, बिना पैसों के भी रह पाऊँगा या नहीं रह पाऊँगा।“
मेरे पिताजी हैं जो गवर्नमेंट-सर्वेंट (सरकारी-कर्मचारी) हैं रिटायर्ड (सेवानिवृत्त)। ये छोटा भाई है (एक श्रोता की ओर इशारा करते हुए)। तो ये घर चलाते हैं और मैं खाता हूँ घर पर, २०१२ से १८ तक, अभी तक। तो ऐसे ही चलता रहा, लेकिन इन छः सालों में एक रुपया भी मैंने नहीं कमाया। जितना कुछ मुझे मिला, छः साल में मैंने सारी किताबें ही पढ़ी हैं, कृष्णमूर्ति जी की, ओशो की, वीडियो (चलचित्र) सुना, ऑडियो , और फिर आपके वीडियो देखे। लेकिन कुछ रुका हुआ था।
फिर जैसे ही मैं जुड़ा आपसे, कुछ चीज़ है जो बिलकुल खुल गई, टूट गई। अब मुझे नहीं पता क्या है वो, और इतना मिल रहा है और अब मुझे लग रहा है कि मैं कुछ करूँ। ये काम की तरह नहीं है, लेकिन अब रुका नहीं जा रहा है, कुछ ऐसा लग रहा है कि कुछ करूँ। तो ये क्या है, आचार्य जी?
आचार्य प्रशांत: बढ़िया है। संबंधों के बारे में जान कर अंततः सम्बंधित ही तो होना होता है न? संबंधों के बारे में जान-जान कर तो नहीं जी पाओगे। किसी नए पकवान का पता चलता है तो उसको पकाने की जो रेसिपी (विधि) होती है, उसको पढ़-पढ़ कर अंततः पकाना होता है न? इसी तरीके से समस्त अध्यात्म का उद्देश्य जीवन है, ज्ञान नहीं। क्या आप लोग इस बात को पूरी तरह से ग्रहण कर पा रहे हैं?
अध्यात्म का उद्देश्य ज्ञान नहीं है; अध्यात्म का उद्देश्य है एक सुफलित जीवन, ज्ञान नहीं।
ज्ञान माध्यम है, भक्ति भी माध्यम है। एक दफ़े तो मैं यहाँ तक कह आया था कि परमात्मा तक मात्र माध्यम है। लोगों को अचरज हुआ, बोले, "जो अंतिम है, उसको आपने माध्यम बोल दिया?" मैंने कहा, "कारणवश बोला।" परमात्मा नाम नहीं न, मनुष्य के लिए तो परमात्मा उपस्थित होता है धड़कन में, साँस में, प्रति-पल के जीवन में। परमात्मा को जब तुम कहते हो “प-र-मा-त-मा”, तो वो तो सिद्धांत हुआ, उस सिद्धांत में क्या रखा है? प्राण तो जीवन में है न; और परमात्मा प्राण है। जीवन आखिरी कसौटी है और जीवन माने कर्म, क्योंकि जीव के जीवन की बात कर रहे हैं न? जीव माने तन और मन, उसको ही तो जीव कहते हो? और तन और मन दोनों का क्या काम —चलना, कर्म। तो बहुत स्पष्ट है कि आख़िरी चीज़ ये है कि जी कैसे रहे हो, कर क्या रहे हो—जीवन।
आज तक जितने भी पथ-प्रदर्शक, ज्ञानी, गुरु, संत हुए, उन्होंने भी आपको जो कुछ बताया है वो इसीलिए बताया है कि अंततः आप सही सम्बन्ध बना सकें। वो भली-भाँति जानते थे कि वो किससे बात कर रहे हैं। एक किताब दूसरी किताब से नहीं बात करती, किताब बात कर रही है साँस लेते हाड़-माँस के एक पुतले से; और जो ये हाड़-माँस का जीव है, इसको जीना है, इसे सम्बन्ध बनाने हैं। तो तुमने पढ़ा, तुमने जाना, ज़ाहिर-सी बात है उसके बाद तुमको बाहर निकल कर के रिश्ते बनाने हैं, सही कर्म तय करना है और फिर उस सही कर्म में आकंठ डूब जाना है। माध्यम आवश्यक तो होता ही है, तो ज्ञान आवश्यक है। छः महीने तुमने अध्ययन किया, वीडियो देखे, वो सब भला था, पर उसकी निष्पत्ति तो तभी होगी जब बाहर निकल कर के सही जीवन में उतरो, सही व्यक्ति से सम्बंधित हो जाओ, सही कर्म करो।
तुम्हारे लिए सेब खाना आवश्यक हो, और जिन्हें तुमसे प्यार है, जो तुम्हें सही दिशा दिखाना चाहते थे, वो बता गए हों, “सेब ऐसा होता हो, सेब ऐसा होता है, सेब से ये लक्षण, सेब से ये फ़ायदे”, वो किसलिए बता गए हैं? कि पहचान सको जब सेब सामने आए, और पहचान कर क्या करोगे? पहचानते रह जाओगे, शोर मचाओगे कि, "मैंने सेब पहचान लिया"? खाओगे न? इसी तरीके से अगर तुम उपनिषदों के ऋषियों से मिलते हो, कबीर से, फ़रीद से, नानक से मिलते हो, और वो तुमको बताते हैं कि कौन है जिसकी संगत तुम्हारे लिए भली है, तो क्या करोगे? उनके श्लोक, उनके दोहे, उनकी वाणी याद कर लोगे, रट लोगे? कबीर से मिले तुम और कबीर ने तुम्हें बताया जीवन में क्या भला है, जीवन में किसके साथ होना भला है। बताया कबीर ने तुम्हें कि सही गुरु की क्या पहचान है, सही साथी की, सही मित्र की क्या पहचान है। इस सारे ज्ञान का क्या करना है? इस सारे ज्ञान को माध्यम बना कर, इस सारे ज्ञान को उपयोग करके तुमको सही साथी ढूँढ लेना है, सही रास्ता ढूँढ लेना है और सही गुरु ढूँढ लेना है।
कबीरदास शायद गुरुता के विषय में जितना कहते हैं, उतना किसी अन्य विषय में नहीं कहते। “सच्चा गुरु कौन, झूठा गुरु कौन, अच्छा शिष्य कौन?” ये वो तुम्हें क्यों बता रहे हैं, ताकि तुम दोहे स्मृति में संग्रहित कर लो? ये क्यों बता रहे हैं? तुम्हें सेब का विवरण क्यों दिया गया? कि सेब पहचान सको, खोज सको और फिर उसका सेवन कर सको। तो गुरु के बारे में भी तुम्हें, चाहे गुरु नानक हों, चाहे गुरु कबीर हों, इतनी बातें क्यों बता गए? ताकि अपनी ज़िन्दगी में, अपने जीवन-काल में सही साथी को, सही मित्र को और सही गुरु को खोज भी सको और फिर उससे सम्बंधित भी हो सको। तो छः साल में तुमने जो भी अध्ययन किया, उस अध्ययन की निष्पत्ति, उसका फल आना ही है न; और वो जो फल होगा, याद रखना, वो ज्ञान नहीं होगा। सेब का स्वाद ज्ञान नहीं होता; सेब का नाम, सेब का आकार-प्रकार, सेब का पता, ये सब होते हैं ज्ञान। सेब का अनुभव, सेब का स्वाद और सेब से तुम्हें जो पोषण मिलता है वो ज्ञान नहीं होता, वो प्राण होता है। ज्ञान इसलिए होता है ताकि तुम प्राण की दिशा में बढ़ सको। तो अब ज्ञान ले लिया है, अब प्राण से जुड़ो, कर्म में उतरो, सही सम्बन्ध बनाओ।
ये बड़ी चूक हो जाती है और इसके प्रति सावधान होना होगा। क्या चूक? हम सोचना शुरू कर देते हैं कि अध्यात्म का अर्थ है ज्ञान। जैसे कोई सीढ़ी पर ही घर बना ले। देखा है न, कुछ बेचारे होते हैं वो फ्लाईओवर के नीचे सोना शुरू कर देते हैं। उनको तुम बहुत भाग्यवान तो नहीं बोलते, या बोलते हो? जिस फ्लाईओवर का इस्तेमाल करके दुनिया अपने घर को जाती है, उनके लिए वही फ्लाईओवर घर हो गया। उनको तुम कहते हो “इनके जैसे सौभाग्यशाली कौन”? कहते हो क्या? तो जो लोग ज्ञान में अटक गए, वो वही हैं जो फ्लाईओवर के नीचे सो रहे हैं।
ज्ञान का उपयोग करना है ताकि तुम पहुँच सको उस तक जिस तक पहुँचना आवश्यक है।
प्र२: सार ग्रहण कर लेना है?
आचार्य: जीना है; सही जीना है। और सही जीवन माने सही कर्म और सही सम्बन्ध; इन दो के आलावा जीवन क्या है? किसका खयाल कर रहे हो और उसके साथ क्या कर रहे हो, किसकी संगत में हो और उसके साथ क्या कर्म कर रहे हो — यही जीवन है। इसके अतिरिक्त कभी तुम कुछ करते हो क्या? तुम चौबीस घण्टों के किसी भी पल को उठा कर के देख लो, उसमें दो ही चीज़ें पाओगे - संगति और कर्म। किसके निकट हो और जिसके निकट हो उसके साथ कर क्या रहे हो, बस यही दो बातें हैं। तो ग्रहण इत्यादि क्या? बस ये पूछिए अपने-आप से, “किसके साथ हूँ और कर क्या रहा हूँ?” और जिसके साथ हो, आवश्यक नहीं है वो कोई जीव ही हो, कोई व्यक्ति ही हो; हम वस्तुओं के साथ भी होते हैं, हम विचारों के साथ भी होते हैं। मन में क्या विषय चल रहा है और उस विषय के साथ तुम्हारा रिश्ता क्या है, कर क्या रहे हो उस विषय के साथ तुम?
जीवन, ज़िन्दगी। मैंने देखा है, ना जानने से जानने तक की यात्रा बहुत दुष्कर नहीं होती; सबसे कठिन होता है जानने से जीने तक आना। जो नहीं जानता, उसे जनवाया तो जा सकता है, पर जो जानता भी हो, वो जीना शुरू कर दे ये जादू होता है। जानते बहुत हैं, जीते कितने हैं?
(आयोजित शिविर की बात करते हुए) तो इन चार दिनों में हम अधिक-से-अधिक ज़ोर जीवन पर रखें। “क्या हो रहा है? क्या चल रहा है? कहाँ समय बीत रहा है?” सिद्धांत, ज्ञान, जानकारी, तर्क, ये सब बहुत आवश्यक नहीं होते, बहुत आख़िरी नहीं होते; आपकी ज़िन्दगी आख़िरी बात है।
प्र३: आचार्य जी, आपने कहा कि कर क्या रहे हो वो ज़्यादा ज़रूरी है। और आप ये भी कहते हो कि “आप ख़ुद को हटा दो, बाधा मत बनो, जो होता है उसे होने दो।“ तो फिर इन दोनों बातों में कैसे सामंजस्य बैठाएँ?
आचार्य: बहुत नींद आ रही हो, बहुत नींद आ रही हो; जाड़े के दिन हैं, रात का समय है, एक-दो बज रहा है, बहुत नींद आ रही है। अँधेरी सड़क है, बहुत नींद आ रही है, सोना है। ऐसे किसी को मैं देखता हूँ तो उससे मैं कहता हूँ, “तुम सो जाओ।“ क्या बोलता हूँ? “तुम सो जाओ, तुम व्यर्थ थक रहे हो। तुम्हें नींद आ रही है, तुम थके हो, तुम्हें सोना ज़रूरी है।“
पर क्या वो वहीं सो सकता है जहाँ पर वो है? वो कहाँ पर है?
प्र१: अँधेरी सड़क पर।
आचार्य: वो जाड़े की एक ठिठुरती रात में अँधेरी सड़क पर है। जहाँ पर है, क्या वो वहाँ सो सकता है? तो मैं दोनों बातें एक-साथ बोलता हूँ, मैं बोलता हूँ, “सो जाओ” और मैं कहता हूँ, “ज़ोर से दौड़ लगाओ घर की ओर।“ इन दोनों बातों में क्या विरोधाभास है? मैं उससे कहता हूँ, “तेरे लिए सोना बहुत ज़रूरी है। पर ये भी तो देखो कि अभी जहाँ तुम हो, वहाँ तुम सो नहीं पाओगे। सोना हो तो दौड़ लगाओ।“
अब ये बात सुनने में तो विचित्र लगेगी ही, कि एक तरफ़ तो कह रहे हैं सो जाओ और दूसरी तरफ़ कह रहे हैं दौड़ लगाओ। भला दौड़ लगा कर कोई सोता है? हाँ, मैं कह रहा हूँ दौड़ लगाओ ताकि सो सको, दौड़ कर अपने घर पहुँच जाओ ताकि सो सको। मेरे लिए बहुत आसान होगा कहना, कि “इतना थक गए हो, सो जाओ न!” पर मैं तुम्हें जानता हूँ, जीवन जानता हूँ, व्यवहार जानता हूँ। बहुत सर्दी है, बहुत सर्दी है, जहाँ तुम हो, वहाँ सो नहीं पाओगे। इशारा समझ रहे हैं न? जो अपनी हालत कर ली है, उस हालत में समाधि नहीं मिलेगी। तो अभी तो भागिए, ज़ोर से भागिए, ताकि वहाँ पहुँच सकें जहाँ विश्रांति, समाधि, नींद मिल सके; भागिए, घर की तरफ़ भागिए।
और अगर किसी ने निर्णय कर लिया, कि “गुरुदेव तो बता गए थे कि परमात्मा सर्वत्र है, जहाँ तुम हो, सत्य ठीक वहीं पर है।“ इस तरह की बातें खूब सुनी होंगी तुमने, है न? कि “जहाँ हो, बस वहीं थम जाओ, सत्य तुम्हें वहीं मिल जाएगा।“ और तुमने उन बातों के प्रभाव में आकर के वहीं सड़क पर बिस्तर बना लिया अपना, तो सारी रात ठिठुरोगे, अकड़ोगे; ना नींद मिलेगी, ना परमात्मा, हो सकता है मौत ज़रूर मिल जाए। सच्चे और वाजिब कर्म से बचने का ये बड़े-से-बड़ा बहाना होता है, कि “जहाँ हो, वहीं थम जाओ। जो करते हो, वही करते रहो। बस ज़रा ध्यान से करो, बस ज़रा भक्ति से करो, बस ज़रा होश से करो तो सत्य मिल जाएगा, जीवन खिल जाएगा।“ ऐसा होता नहीं। कोई कतल करने के ही व्यवसाय में हो और उसे तुम बता दो कि तुम अपनी दुकान चलाते रहो और दुकान को ही तुम परमात्मा मान लो, तो ये तुम छल कर रहे हो उसके साथ। उसे भागना पड़ेगा, उसे अपनी वर्तमान स्थिति का त्याग करना पड़ेगा, उसे उस जगह से दूर जाना पड़ेगा जहाँ वो अभी फँसा हुआ है, तब उसे नींद मयस्सर होगी।
मैंने कहा ना फ्लाईओवर के नीचे सो जाना, ना जाड़े की रात में सड़क पर सो जाना; नींद तो मंज़िल पर ही आएगी। और ये बात भी ठीक है, कि जहाँ नींद आ जाए वहीं मंज़िल है; तो तुम प्रयोग करके देख लो, तुमको दो डिग्री तापमान में, अँधेरे में, सड़क पर नींद अगर आती हो तो वही तुम्हारी मंज़िल है, मैंने माना। तुम प्रयोग कर लो, तुम्हें नींद आएगी नहीं। स्वभाव बड़ी बात होती है; शांति स्वभाव है। अगर किसी ने अपने-आप को अशांति से घेर रखा है; अगर तुम्हारे जीवन में उपद्रवी-तत्व भरे हुए हैं, तो तुम्हें नींद नहीं आने वाली। ठीक वैसे, जैसे अगर खाल को पाला नोच रहा हो, ठंडी हवा अगर खाल को काट रही हो, तो नींद नहीं आती न? उसी तरह से अगर तुम्हारे माहौल में अशांति भरी हुई है, उपद्रव भरा हुआ है, तो समाधि नहीं लगती, माहौल बदलना पड़ता है; यही साधना है, यही तपस्या है।
(कुछ समय पहले ऊपर के कमरे से बच्चे के शोर के बारे में कहते हुए) थोड़ी-सी देर पहले ऊपर बच्चा शोर कर रहा था, यहाँ कोई ना होगा जो कहे कि उसे बिलकुल सुनाई नहीं दिया। अभी बच्चा शोर करता था तो सुनाई-भर दिया। अगर शोर ही कर देता, जैसा कि बच्चे कर सकते हैं, तो ये सत्र यथावत् नहीं चल पाता, फ़र्क पड़ जाता। और सुना था आपने कि बच्चा तो बच्चा, बच्चे की माँ माँ ही थी। बच्चा चिल्ला कर जितना शोर कर रहा था, माँ की लोरी उससे ज़्यादा शोर कर रही थी। हल्का था तो झेल गए, वो अभी और बढ़ता तो आप ये ना कह पाते कि आप ऐसे श्रवणकुमार हैं, ऐसे गहरे श्रोता हैं कि आप पर कोई अंतर नहीं पड़ रहा; अंतर पड़ जाता। तो अपने-आप को उपयुक्त माहौल देना पड़ता है और जहाँ शोर हो वहाँ से हटना पड़ता है।
ये गद्दा क्यों बिछाया है? ज़मीन पर क्यों नहीं बैठ गए?
प्र१: ठंड लगेगी।
आचार्य: (श्रोता से सहमति जताते हुए) कृष्ण भी जब योग के बारे में दो-चार बातें कहते हैं, तो कहते हैं, “एकांत देश ढूँढना।“ कैसा देश ढूँढना? एकांत देश; और कहते हैं, “नीचे मृगछाल बिछा लेना।“ वो भी ये नहीं कहते कि चले जाओ बाज़ार में और वहीं पर तुम्हारा ध्यान लग जाए। सही माहौल दो न अपने-आप को! मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि बाज़ार से दुश्मनी कर लो या बाज़ार में कभी नज़र ना आओ। तुम्हारा ध्यान गहरा जाए, उसके बाद बाज़ार नहीं बिगाड़ सकता तुम्हारा कुछ।
पौधे की जड़ें गहरी चली जाएँ, फिर हवाएँ उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाएँगी, फिर तो हवा चलेगी तो पौधा नाचेगा। लेकिन यही पौधा नन्हा-सा हो और हवाएँ चलती हों, तो क्या होगा? वो उखड़ जाएगा न? नन्हा हो पौधा और तेज़ बारिश हो जाए, तो क्या होता है पौधे का?
प्र१: बह जाता है।
आचार्य: वो बह ही जाता है। और यही वो विशाल वृक्ष बन गया हो, फिर तेज़ बारिश हो जाए तो?
प्र१: खड़ा रहता है।
आचार्य: खड़ा ही नहीं रहता, आनंद मनाता है, कहता है, "अरे वाह! बरखा-बहार, पानी मिला, आनंद आया।"
एक बार तुम्हारी जड़ें गहरी हो गईं, फिर दुनिया-भर के उपद्रवों में तुम उत्सव मनाओगे; पर पहले जड़ें गहरी तो हो जाएँ। और जड़ें गहरी हो सकें, इसके लिए तुम्हें पौधे को थोड़ा संरक्षण देना पड़ेगा। इसीलिए मैं कह रहा हूँ, “माहौल का खयाल रखो।“ नन्हे पौधे को बाढ़ देनी पड़ती है। पौधा छोटा होता है, उसे बकरी से बचाना पड़ता है न? और वही पौधा जब वृक्ष बन जाता है तो बकरी को छाया दे देता है; वही बकरी जो उसे ख़त्म कर देती, वो बकरी अब उस वृक्ष के नीचे पनाह पाती है; पनाह भी पाती है, पोषण भी पाती है।
अभी छोटे हो, अभी अपने माहौल का खयाल करो। जब बड़े हो जाना तो फिर कोई आँधी, कोई तूफ़ान, कोई बारिश, कोई बकरी तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ पाएगी; तब संसार का उपद्रव उपद्रव नहीं, उत्सव होगा।
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