प्रश्नकर्ता: छह माह पहले जब मैं पहली बार आया था तो बहुत ऊर्जा मिली, लगा कि बहुत गहरे जा रहे हैं, उसका प्रभाव भी दिखा कि डर कम हो गए, लेकिन अब एक ठहराव सा है। अब ऐसे में क्या करना है?
आचार्य प्रशांत: ऐसे में करना है। अभी तक सुनने से काम चल रहा था, अब करना है। क्या करना है? जो अभी तक सुना है।
आरंभिक लाभ साधक को श्रवण से भी हो जाता है, अच्छी बात। सुनना ही बड़ी राहत की बात होती है, आसरा मिलता है, आस बँधती है; किसी ने आपके सामने एक खाका खींचा। आप अँधेरे में थे, किसी ने उँगली दिखाई चाँद की ओर, बड़ा अच्छा लगेगा। अब उसके बाद चाँद तक जाना भी तो पड़ेगा न। उँगली से कब तक काम चलाओगे? तो आप पूछ रहे हैं, “अब क्या करना है?” मैं कह रहा हूँ, “अब करना है।”
सुनते जाओगे और जो सुन रहे हो उसको जीवन में उतारोगे नहीं, जीवन में उतारने की जो कीमत है, वो चुकाओगे नहीं, ख़तरे उठाओगे नहीं, ज़ोर लगाओगे नहीं, तो जितना सुनोगे वो फ़िर अपच करने लगेगा। सुनना पचता ही तभी है जब वो कर्म में तब्दील होता रहे। खाते हो, वो पचेगा तभी न जब कर्म करते रहो। कोई कुछ काम ना करे, बस बैठा रहे खाली और खाता जाए, खाता जाए, तो जो खा रहा है, वो अब लाभ नहीं देगा; हानि देने लगेगा, पचेगा ही नहीं। और काम जितना करोगे, ख़ुराक उतनी अच्छी रहेगी तुम्हारी। ख़ुराक अच्छी रखनी है तो काम करना पड़ेगा।
अब ख़ुराक तो मैं खूब दे रहा हूँ, काम मैं थोड़े ही करूँगा। काम किसे करना है? काम आपको करना है, भाई। ना मेरा अधिकार है, ना मेरा सामर्थ्य है कि मैं आपका काम आपके लिए कर सकूँ। मेरा अधिकार, मेरी सामर्थ्य दोनों ही एक सीमा पर जाकर रुक जाते हैं, उसके आगे आपकी स्वेच्छा है। उस स्वेच्छा पर परमात्मा भी अधिकार नहीं रखता, वो स्वेच्छा आपकी है, आप चाहें तो चलें, चाहें तो ना चलें, चाहे उठें, चाहे ना उठें, चाहे दाएँ जाएँ, चाहे बाएँ जाएँ, करें कि ना करें, अब वो आपके अधिकार की बात है।
आप कुछ उलटा-पुलटा काम कर रहे होते हैं, वो अधर्म हो सकता है, वो पाप हो सकता है, तो आपका दिल धड़कना थोड़े ही रुक जाता है, आपके नथुनों में हवा आनी थोड़े ही रुक जाती है। ऐसा थोड़े ही होता है कि तुम ग़लत काम कर रहे हो तो परमात्मा तुम्हारी हस्ती मिटा देगा। आप सही काम कर रहे हों, आप ग़लत काम कर रहे हों, सूरज आप पर रौशनी डालेगा, हवा आप के लिए उपलब्ध रहेगी, भोजन भी आपके लिए उपलब्ध रहेगा, पृथ्वी भी आपको मिली रहेगी। देने वाले ने आपको अधिकार दे रखा है, आपको स्वेच्छा दे रखी है कि आपको जीवन कैसा जीना है और उसने नियम बाँध रखा है कि जैसा जीवन जियोगे, वैसे परिणाम भुगतोगे।
तो उसने सारी छूट, सारी बात, सारा अधिकार आपको दे रखा है। सब आपके हाथ में है, तो फिर वो क्या कर रहा है ऊपर बैठ कर? उसको क्यों कहते हैं कृपालु? उसको क्यों कहते हैं दयानिधान? वो इतना ही करता है कि वो आपको किसी-न-किसी तरीके से रौशनी दिखा देता है, वो आप तक सच्ची सीख पहुँचा देता है। इतना करने का उसका अधिकार है, वो कर देता है। जितना उसका अधिकार है, वो कर देता है, उसके आगे की स्वेच्छा और अधिकार आपके हैं, भाई।
आपको दस वर्ष तक उपनिषद् घोट-घोट कर भी पिला दिए जाएँ तो इस बात की कोई आश्वस्ति नहीं है कि आपका जीवन बदल ही जाएगा, क्योंकि उन उपनिषदों को जीवन में उतारना है या नहीं उतारना है, यह बात आपके स्वेच्छा की है। इस बात को आप बिलकुल तय मत मानिए कि किसी ने दस साल उपनिषद् पढ़े हैं तो उसके जीवन में क्रांति आ ही जाएगी, बिलकुल भी नहीं। तुम पाँच हज़ार साल पढ़ लो उपनिषद्, हो सकता है कुछ भी ना हो तुम्हारे जीवन में।
ज्ञान एक बात है, और ज्ञान और जीवन का एक हो जाना बिलकुल दूसरी बात है। उसके लिए फ़िर या तो बड़ा डर चाहिए या बड़ा प्रेम चाहिए। या तो यह डर लगे कि, "जैसी ज़िन्दगी जी रहा हूँ—हाय, हाय, हाय, हाय!" या तो आज़ादी से बड़ा प्रेम हो। वो सब नहीं है, वो दोनों ही नहीं हैं, तो फिर ज्ञान मन के एक कोने में पड़ा रह जाएगा, आपके उपयोग का नहीं होगा। आप सब जानते बूझते हुए भी बुद्धू बने रहेंगे।
ज़िन्दगी वैसी ही चलाएँगे जैसी पहले चल रही थी, तो ज्ञान किस काम का? ज़िन्दगी में आँशिक परिवर्तन करेंगे तो आँशिक लाभ होगा, थोड़ा और परिवर्तन करने की हिम्मत जुटाएँगे, थोड़ा और लाभ होगा। जितनी आपने हिम्मत दिखाई है, उतना आपको गति मिली है, उतना आप आगे बढ़े हैं। जहाँ पर आकर आपकी हिम्मत टूट गई है, जहाँ आपने कह दिया है कि, "नहीं, भाई, अब मुझे अपने स्वार्थ बचाने हैं, आगे नहीं बढूँगा", उसके आगे आपको लाभ नहीं मिलेगा।
बात समझ में आ रही है?
ज्ञान से लाभ पाने की शर्त है जीवन को बदलने की तैयारी। जो जीवन को बदलने को तैयार है, उसे ही ज्ञान से लाभ होगा, अन्यथा नहीं होगा।
आप यह तय करके आए हो कि ज़िन्दगी तो मेरी पुराने जैसी ही चले, तो फ़िर ज्ञान कचरा है आपके लिए। जीवन में अगर आपने कुछ बातें भी तय कर रखी हैं कि वो तो पुरानी जैसी ही रहेंगी, तो वहाँ जाकर ज्ञान अटक जाएगा, मदद नहीं कर पाएगा आपकी। साधक की पूरी तैयारी होनी चाहिए कि पुराने में जो कुछ भी कूड़ा-कचरा है, उसे मैं नि:संकोच त्यागता चलूँगा। जो कूड़े-कचड़े को साथ लेकर ही चले जा रहा है, लेकर ही चले जा रहा है, ज्ञान उसके काम नहीं आएगा।
ज्ञान चुनौती है, संपदा ही नहीं है।
प्र२: मेरा सवाल यह है कि क्या यह हो सकता है कि प्रेम भी हो, ज्ञान भी हो, लेकिन साथ में संशय भी हो?
आचार्य: ज्ञान और संशय साथ-साथ चलते हैं। ज्ञान आता है जो कहता है कि, "ऐसा है।" अब वैसा है या नहीं है, यह तो चलकर ही पता चलेगा न। तुम्हें ज्ञान दे दिया गया, 'अहम् ब्रह्मास्मि', संशय तो बना ही रहेगा क्योंकि ब्रह्म होकर जिए तो नहीं तुम। ब्रह्म तुम्हारे लिए एक आयातित धारणा है, किसी ने बता दिया 'अहम् ब्रह्मस्मि', वो तो आगे बढ़ोगे तो संशय दूर होगा न, कि हाँ, बात ठीक कही, अब हमें भी लगने लगा है कि 'अहम् ब्रह्मास्मि'।
ये जो थका हुआ और रुका हुआ ज्ञान होता है, इसमें तो सौ तरह के संशय होते ही हैं। गुरुदेव ने बातें बता दीं, वो बातें तुम्हारी ज़िन्दगी की तो हैं नहीं, ना तुमने कभी उनका अनुभव करा है, तो तुम कितनी भी श्रद्धा दिखा लो, उन बातों को लेकर तुम्हारे मन में शक़ और संदेह तो रहेगा-ही-रहेगा न। तो ज्ञान अपने साथ संदेह लेकर ही आएगा, जब तक तुम प्रेम की राह ना चल दो। जब राह चल दोगे, तो धीरे-धीरे एक-एक करके संशय मिटते जाएँगे।
संशय का मतलब जानते हो क्या होता है? अनिश्चितता, अनसर्टेनिटी * । जो कुछ भी बिलकुल तुम्हारा नहीं है, वह तो अनिश्चित ही होता है न। जहाँ तुम पहुँचे नहीं, उसको लेकर के सदैव अनिश्चितता रहेगी, क्योंकि दोनों बातें हो सकती हैं, पहुँचो कि ना पहुँचो। जब पहुँच जाओ, तभी संशय दूर होता है, तभी नि:शंक होते हो, तभी नैश्चित्य आता है पूरा, कि, "अब तो पहुँच ही गए, अब तो वहीं खड़े हैं, अब क्या शक़ करें, कोई कारण नहीं बचा शक़ का।" वरना तो ज्ञान जो है पूरा वह तुक्केबाजी की तरह है, * स्पेक्युलेटिव है। किसी ने तुमको बता दिया, "तुम देह नहीं हो।" तुमने कहा, "हाँ।" अरे, ज़रा आगे बढ़ो प्रेम में तो पता चलेगा न कि देह हो कि नहीं हो, ऐसे बैठे-बैठे बस पिए जा रहे हो कि, "मैं देह नहीं हूँ", उससे क्या हो जाएगा? किसी ने तुमको बता दिया चार तरह की समाधि होती हैं, तुमने उँगलियों में गिनती करके कहा, “ठीक, चार तरह की होती है समाधि।” तो? आगे बढ़ो, फिर संशय दूर होता जाता है। आख़िरी संशय मिट जाने की, आख़िरी दशा का नाम है—समाधि। उससे पहले संशय रहेंगे ही।
मेरी बातों पर जब तक अमल नहीं करोगे, मेरी एक-एक बात पर शक़ रहेगा, संशय बना ही रहेगा। संशय हटाने का एक ही तरीका है, अमल करके देख लो न। बैठे-बैठे बस ज्ञान विचारोगे, सोच बघारोगे तो शक़-ही-शक़ कुलबुलाएगा, "नहीं, ऐसा होता भी है? इन्होंने कह तो दिया, लग तो नहीं रहा कि ये बात ठीक है।" अरे, ठीक है या नहीं, हाथ कंगन को आरसी क्या, आज़मा कर देखो। "एक यही तकलीफ़ है आचार्य जी के साथ, होमवर्क (गृहकार्य) बहुत देते हैं। इतना ही नहीं करते कि यहाँ अपना बैठाकर मनोरंजन कर दें तीन-चार घण्टे और फ़िर कहें कि जाओ खेल ख़त्म। ये कहते हैं कि ये तो शुरुआत हुई है, तीन घण्टे के क्लास की। तीन घण्टे की क्लास, अब तीस दिन का होमवर्क ; जाओ, अब बाहर जाकर तीस दिन होमवर्क करते रहो। ये अच्छा नहीं लगता बिलकुल। अब तो स्कूलों में भी बच्चों को कहा गया है कि गृहकार्य मत देना, भाई, बड़ा अन्याय होता है। और आचार्य जी ज़िन्दगी भर का गृहकार्य थमा देते हैं। और गृह का ही कार्य थमाते हैं कि अब घर में जाकर कार्य करना और वहीं बड़ा मुश्किल लगता है गृहकार्य।" गृह वाला ही कार्य अटका हुआ है, सभी का अटका है, सब वहीं अटके हैं। होमवर्क नहीं कर पा रहे हो, बेटा? क्लासरूम तो बढ़िया है, होमवर्क कौन करेगा?
प्र३: आचार्य जी, क्या ज्ञान को जीवन में लागू करना का मतलब यही होता है कि जब कोई प्रसंग आए या कोई परिस्थिति, तो जो सीखा है उसका उपयोग करना ताकि उस स्थिति में दु:ख कम हो जाए?
आचार्य: ज्ञान इसीलिए नहीं होता कि तुम उन्हीं परिस्थितियों में रहो जिन परिस्थियों में सदा रहे हो, बस उन परिस्थियों का ताप और संताप तुम्हे अनुभव ना हो। ना, यह तो बड़ी गड़बड़ बात हो गई। ज्ञान पेनकिलर (दर्द निवारक) थोड़े है कि तुम ज़िन्दगी वैसी ही बिताओ जैसी बिताते थे, वहीं बिताओ जहाँ बिताते थे, वही सब करते रहो जो पहले कर रहे थे, बस जब तुम्हारे कर्मों का तुम्हे अंजाम आए, तो तुम ज्ञान को ढाल की तरह प्रयोग कर लो। ना, यह कोई ज्ञान का उपयोग नहीं हुआ।
ज्ञान का मतलब है तुम्हारी परिस्थितियाँ ही बदल जाएँ। जब अन्तःस्थिति बदलती है तो परिस्थिति क्यों नहीं बदलेगी, भाई? ज्ञान का मतलब है, पहले जो तुम्हारे साथ होता था, वह होता रहे, यह ज़रूरी तो नहीं है न। कुछ नया क्यों नहीं हो सकता तुम्हारे साथ?
ज्ञान का यह अर्थ थोड़े ही है कि पहले जब शराब पीकर ढुलकते थे और लोग गाली देते थे तो हमें बड़ा बुरा लगता था, और अब जब हम शराब पीकर ढुलकते हैं और लोग गाली देते हैं तो हम कहते हैं कि, "गालियाँ मुझे थोड़े ही दी जा रही हैं, मैं तो कोई हूँ ही नहीं।" यह तुम ज्ञान का क्या इस्तेमाल कर रहे हो? कि चोरी करते पकड़े गए और पीटे जा रहे हैं तो कह रहे हैं, “में देह हूँ ही नहीं, 'नाहं देहास्मि'।” ये क्या इस्तेमाल है, भाई, ज्ञान का? ज्ञान का मतलब है, जो कर रहे हो, जो कर्ता है, वही बदल जाए। कर्ता बदल गया तो कर्म पुराने कैसे रह जाएँगे, बताना? अन्तःस्थिति बदल गई तो परिस्थिति पुरानी कैसे रह जाएगी, बताना? कि रह जाएगी?
ज्ञान वाशिंग पाउडर नहीं है, ज्ञान कीचड़ में ना लोटने की अकल है। अंतर समझो। ये थोड़े ही है कि कीचड़ में जैसे पहले लोटते थे, अभी भी लोट रहे हैं और उसके बाद ज्ञान का साबुन लगा रहे हैं, "संतों ने यही तो बताया है कि ज्ञान साबुन है।"
अधिकांश लोग अध्यात्म की ओर आते ही इसीलिए हैं कि दुखों से थोड़ी, सतही, तात्कालिक निजात मिल जाए। वो जीवन बदलने नहीं आते, वो अपना थोड़ा दुःख-दर्द कम करने आते हैं। यह अध्यात्म का दुरूपयोग है। वो कहते हैं, "बाकी तो सब कुछ हमारा बिलकुल सेट (व्यवस्थित) है, बस ये जो सब कुछ सेट है, इसमें बीच-बीच में चाँटे पड़ते हैं और जूते पड़ते हैं। तो जो चाँटे और जूते पड़ते हैं, वो खाते हुए भी लज्जित कैसे ना अनुभव करें? और दर्द कैसे ना हो? ये बता दीजिए, गुरुदेव।" मैं कहता हूँ, “कीलों वाला जूता एक मेरे पास भी है, उसके माध्यम से बताऊँ क्या?”
हमें ना कर्ता बदलना है, ना कर्म बदलना है, हमें बस कर्मफल से भागना है। बोलो, हाँ या ना? ना हमें कर्ता बदलना है, ना हमें कर्म बदलना है, हम बस इतना चाहते हैं कि कर्म पुराने ही चलते रहें, कर्मफल ना मिले। मज़े पूरे लेते रहें, अय्याशी करते रहें जीवन की, और मज़ों के बाद जो दुःख आता है, वह दुःख ना झेलना पड़े। हम सोचते हैं कि अध्यात्म इसमें हमारी सहायता कर देगा, बिलकुल नहीं करेगा। ये इरादे ही बिलकुल नापाक हैं, कि कर्म तो रहे हैं बिलकुल घटिया और अंजाम भी ना भुगतना पड़े उनका। अंजाम भुगतना तो ज़रूरी है, ताकि दोहराओ ना पुरानी हरक़त।
कर्मफल के नियम का तो विधाता भी उल्लंघन नहीं करता, हम कौन होते हैं! कर्मफल से नहीं बच सकते, इतना कर सकते हो कि कर्म बदल दो। कर्म बदलने के लिए, कर्ता को ही बदलना होगा।