प्रश्नकर्ता: ज्ञान मार्ग पर चलें या भक्ति मार्ग पर, कौनसा मार्ग श्रेष्ठ है?
आचार्य प्रशांत: ये जो मार्ग रहे हैं परंपरागत रूप से, ये दो अलग-अलग तरह की मानसिकताओं के लिए रहे हैं। बदलाव हम सभी चाहते हैं। चाहते हैं न? बदलाव हम सभी चाहते हैं पर बदलाव चाहने के दो कारण होते हैं हमारे पास।
एक कारण ये होता है कि जो वर्तमान में समक्ष है, प्रस्तुत है, घेरे हुए है, वह पसंद नहीं आ रहा है। उसको जान लिया है और वो अखरता है, चुभता है, उसकी निकृष्टता, उसकी मूल्यहीनता दिख गई है। ये वो नज़र है जो अपने आसपास देख रही है और आसपास जो कुछ पा रही है उससे संतुष्ट नहीं है। उसके प्रति एक विरोध का भाव है, एक जुगुप्सा जगी है।
बात समझ में आ रही है?
जब आसपास जो है वह दिख नहीं रहा ठीक, तो लगता है कुछ बदलाव हो, कि कुछ ठीक हो, कुछ चाहिए। कचरे से घिरे हुए हैं, ऐसे नहीं जीना- ये एक चित्त है। दूसरा चित्त भी बदलाव चाहता है पर वो बदलाव इसलिए नहीं चाहता कि आसपास जो है वह बुरा है, दूसरे प्रकार के चित्त की प्रेरणा थोड़ी दूसरी होती है। उसकी प्रेरणा ये होती है कि किसी तरीके से उसके अंतर्मन को ये आभास मिल गया है कि कुछ है जो बहुत सुंदर है, प्यारा है, बुला रहा है, आकर्षित कर रहा है। और क्योंकि वो आकर्षित कर रहा है इसलिए अभी जो सामने है, निकट है, आसपास है, वह हेय लगने लगा है, वह मुल्यहीन लगने लगा है।
इन दोनों मानसिकता में अंतर समझ पा रहे हैं?
पहला मन कह रहा है कि मैंने देखा, मैंने साफ़-साफ़ देखा, मैंने जाना, मैंने परखा और पाया कि ये जो कुछ है वो अच्छा नहीं है, मज़ेदार नहीं है, कीमती नहीं है, आनंदप्रद नहीं है। तो उसने कहा, 'हटाओ ये सब कुछ'। ये नेति-नेति का मार्ग है, ये ज्ञान का मार्ग है, ये देखता है, ये मूल्यांकन करता है, ये जांचता है कि जो सामने है वो सार है कि आसार है, नित्य है कि अनित्य है, सच्चा है कि झूठा है, मधुर है कि कटु है। और जब ये पता है कि अधिकांशत: जो कुछ है अपने इर्द-गिर्द, अधिकांशतः जो कुछ है अंदर बाहर, इर्द-गिर्द ही नहीं भीतर भी तो खिन्न होता है, तो कहता है, 'नहीं चाहिए'! यही नेति-नेति की पुकार है। ये ज्ञान मार्ग है।
ज्ञान नहीं कहता कि अंततः क्या मिल जाएगा। ज्ञान कहता है कि अंततः क्या मिलेगा, छोड़ो इसको तुम। अभी बस शुरुआत करो। जो कुछ तुम्हारे अनुभव में है, जो कुछ प्रत्यक्ष है उसको तो देख लो कैसा है। और उसको देखा तो यही पाया कि उसमें कोई दम नहीं, कोई मज़ा नहीं।
प्रेमी की शुरुआत दूसरी है। प्रेमी को इस बात से कोई मतलब ही नहीं कि आसपास क्या पड़ा है। उसे तो दूर का कोई तारा है जो बुला रहा है। और दूर का जो तारा है वह इतना सुंदर टिम-टिमा रहा है, इतनी प्यारी, इतनी शीतल वो रोशनी दे रहा है कि उसकी तुलना में आसपास का सब भूल जाता है। ये प्रेमी का चित्त है।
दोनों चित्तों में अंतर समझ रहे हो?
प्रेमी को कुछ दूर का है जो बुला रहा है, उसे आकर्षण है और ज्ञानी को जो निकट है उससे विकर्षण है। प्रेमी को अनंतता से आकर्षण है और ज्ञानी को क्षुद्रता से विकर्षण है। अब आप देख लीजिए आपका चित्त कौनसा है।
अगर आप थोड़ा खोजी किस्म के हैं, जानते हैं, परखते हैं। चीज़ों के अंत: में प्रवेश करना चाहते हैं, अन्वेषक हैं अनुसंधान में आपका जी लगता है, वैज्ञानिक आपका चित्त है, आप देखते हैं इस कृति को, इस वृक्ष को, इंसान को, इंसान के सम्बन्धों को और पूछते हैं, 'ये सब क्या चल रहा है, आज जो है वह कल क्यों नहीं था, कल वाला कहाँ चला गया? जो जैसा प्रतीत होता है वो वैसा क्यों नहीं है? ये स्तंभ अचानक कहाँ से आ गया, थोड़ी देर पहले तो नहीं था, और जिन्होंने इसे बनाया उन्होंने इसे ऐसे तो नहीं बनाया था। समय सबकुछ खराब क्यों कर देता है'?
अगर आप जिज्ञासु हैं, ऐसी आपकी प्रवृत्ति है तो आपके लिए हुआ ज्ञान मार्ग। और अगर आपका चित्त भावना पर ज़्यादा चलता है, गीत पर चलता है, लहर पर चलता है, मधुरता के रसिक हैं आप कि आप रात में अकेले छत पर बैठे हुए हो और चाँद की तरफ निहार रहे हैं, और चाँद की तरफ ऐसा निहार रहे हो कि आसपास का सब भूल गए तो फिर प्रेम मार्ग है आपके लिए।
ज्ञानी चाँद को नहीं निहारेगा, ज्ञानी कहेगा, 'मैं छत पर बैठा हूँ और मेरे आस-पास कचरा फैला हुआ है। मुझे ये छत नहीं चाहिए। चाहिए ही नहीं क्योंकि साफ़ भी हमने बहुत बार करके देखा, ये सफ़ाई चलती नहीं'। इस दुनिया में कुछ ऐसा नहीं है जिसे शुद्ध कर दो और वह शुद्ध ही बने रहे। तो कहता है, 'सफ़ाई भी हमने बहुत देख ली, बहुत आए साफ़-सफ़ा, सब सफ़ा हो गए'। तो ज्ञानी छत को देखेगा और कहेगा, 'गंदी बहुत है'।
प्रेमी चाँद को देखेगा और कहेगा, 'इस छत पर किसे रहना है, हमें चाँद चाहिए'। दोनों में ये अंतर है। "अंततोगत्वा" - दोनों को ही छत से उठना है, दोनों को ही चाँद हो जाना है लेकिन दोनों की शुरुआत अलग है।
अब आप देखिए, आपका चित्त कैसा है। आप साधक हैं कि गायक हैं। साधक के लिए एक मार्ग होता है और गायक के लिए दूसरा मार्ग होता है। अगर आप चांँद के अनुरागी हैं, आपके लिए एक मार्ग है और अगर आप नित्य प्रतिदिन जीवन में क्रियाशील हैं, सक्रिय हैं, सामाजिक क्रांति, व्यक्तिगत उत्थान से आपका सरोकार है, तो आपके लिए फिर दूसरा मार्ग है।
और चित्त की बनावट कैसी है, मूल संरचना कैसी है, ये बहुत छुटपन से ही पता चलना शुरू हो जाता है। कुछ बच्चे होते हैं जो सवाल बहुत पूछते हैं और कुछ बच्चे होते हैं जो गाते बहुत हैं या गाना सुनकर ज़्यादा आकर्षित हो जाते हैं।
और ये भी आवश्यक नहीं है कि ये दोनों परस्पर भिन्न अवस्थाएंँ ही हों कि इन दोनों में किसी तरीके का कोई साझापन या साम्य न हो। ऐसा भी हो सकता है कि आपको चाँद भी चाहिए हो और कचरा भी न पसंद हो तो आपके लिए दोनों मार्ग हैं। तब आप उसकी ओर भी बढ़िए और इससे दूर भी हो जाइए।
ठीक है?
प्र: आचार्य जी, ये चुनेगा भी अहंता ही? कुछ मनुष्य इस तरीके का कहते हैं कि अहम् तो है ही नहीं, भ्रम मात्र है। भ्रम मात्र है तो ये भ्रम ही चुनेगा?
आचार्य: अहम् नहीं है, अहम् भ्रम है, ये वो ही बोले ना जिसका अहम् मिट गया है। पूर्ण सत्य तो कुछ बोलता नहीं, वह तो मौन होता है, निरपेक्ष होता है, न किसी वचन से उसका कोई लेना-देना है। आज तक आपने सत्य को कुछ बोलते सुना है? तो जो कुछ भी बोला जाता है, जिसके द्वारा ही बोला जाता है, वो किसी संदर्भ में बोला जाता है। जो बोला जाता है तो स्थिति सापेक्ष होता है।
'अहम् भ्रम है', ये बात क्या आत्मा ने बोली? आत्मा तो अपने बारे में कुछ बोलने आएगी नहीं, क्योंकि आत्मा को मिलेगा कौन कुछ बोलने के लिए। उसके अतिरिक्त कोई दूसरा नहीं, तो वह कभी घोषणा करे भी तो बिचारी किस से करे। जिधर देखो, वही-ही-वही है। जब भी बोलेगा तो कौन बोलेगा? अहम् ही बोलेगा।
अब अहम् बोले और फिर कहो कि अहम् भ्रम है, तो ये कुछ शोभा नहीं देता। जो बोल रहा है कि अहम् भ्रम है, क्या वह ब्रह्मस्थ हो गया है? क्या वो मिट गया है? अगर मिट गया हो तो कह दे कि थोथा अहम् भ्रम है और मैं तो ब्रह्म हूँ। "अहम् ब्रह्मास्मि"। किसी ऋषि ने कह दिया तो ऋषि का अधिकार था कहने का, वो कह सकते हैं कि अहम् की कोई सत्ता नहीं है, अहम् तो वास्तव में ब्रह्म ही है। या तो कह दो कि ब्रह्म है या फिर कह दो कि शुन्य है।
उन्हें हक था कहने का पर आम आदमी अगर बोले कि अहम् ब्रह्म है, तो हम जानते हैं कि ये बात सही नहीं है। सुबह से लेकर रात तक ज़िन्दगी में अहम् की ही दौड़ है। सब विचार, संभावनाएँ अहम् के ही रंग में रंगे हुए हैं। और उसके बाद हम यूँ ही सिद्धांतत: कहने लग जाएँ कि'अहम् तो होता ही नहीं, तो हम अपना ही नुक़्सान कर लेंगे।
समझ रहे हैं?
उससे कहीं ज़्यादा लाभप्रद है कि हम कहें कि अहम् निश्चित रूप से है, मेरे लिए तो है ही। वस्तुतः होता है कि नहीं होता है, ये मैं नहीं जानता पर मुझे तो ये पता है कि मेरी ज़िन्दगी में तो अहम्-ही-अहम् है। मेरी ज़िन्दगी में अहम्-ही-अहम् है और उसकी वजह से मुझे बड़ा कष्ट है, मुझे समाधान चाहिए। साधक के लिए ये वक्तव्य ज़्यादा लाभप्रद है।
क्योंकि देखिए, शास्त्रों से पढ़कर और मनीषियों से सुनकर बहुत हैं जो ये कहते घूम रहे हैं कि मात्र सत्य है, मात्र आत्मा है, माया तो होती ही नहीं, न अहम् है। इससे उनको क्या मिल गया? क्या ये बात उनके जीवन द्वारा प्रमाणित हो रही है? न! जीवन तो यही प्रमाणित कर रहा है कि माया-ही-माया है, अहम्-ही-अहम् है।
जब आपकी ज़िन्दगी ऐसी हो जाये कि अहम् बिलकुल विदा होने लगे, तब कहिएगा कि अहम् भ्रम है। नहीं तो ऐसा हो जाएगा कि जैसे बीमार आदमी हो और बार-बार दावा ठोकता हो कि बीमारी तो होती नहीं, कि बीमारी भ्रम है। ये व्यक्ति कभी बीमारी दूर नहीं कर पाएगा।
अहम् है, अहम् निश्चित रूप से है। आम आदमी के लिए तो अहम्-ही-अहम् है। बल्कि ज़्यादा पते की बात ये है कि आम आदमी के लिए आत्मा नहीं है। उसकी जिंदगी को देखोगे तो वो कह रहा है, 'आत्मा भ्रम है'। तुम्हें आत्मा कहाँ दिखाई देती है आम जनजीवन में? दिखाई देती है आत्मा? अहम् खूब दिखाई देगा। तो ये कहो कि हम सबके मुताबिक़ तो अहम् सत्य है, आत्मा भ्रम है। लेकिन क्योंकि हम आत्मा को भ्रम ठहरा रहे हैं, अहम् को सत्य कह रहे हैं इसलिए हमारे जीवन में बड़ा क्षोभ है, कलह है, बड़ा क्लेश है। तो ऐसे नहीं रहना, कुछ समाधान चाहिए।
प्र: आचार्य जी, जैसे आप कहते हैं कि एक केंद्र से काम करो तो एक केंद्र का क्या अर्थ है?
आचार्य: एक केंद्र से काम करने का अर्थ है कि तुम्हारे सारे प्रयत्न एक ही दिशा में होने चाहिए। एकनिष्ठ होने चाहिए। अपनी ऊर्जा को व्यर्थ मत जाने दो क्योंकि तुम्हारे पास उर्जा थोड़ी है। संतों ने बार-बार जताया है कि तुम छोटे से जीव हो, तुम्हारी बेड़ियाँ बहुत बड़ी-बड़ी हैं। तुम्हारे पास ऊर्जा थोड़ी है और तुम्हारे पास समय थोड़ा है।
एक तो तुम वैसे ही गरीब। गरीब ऐसे नहीं कि रुपया कम है, गरीब ऐसे कि समय कम है। गरीब ऐसे कि ऊर्जा कम है। एक तो वैसे ही गरीब और ऊपर से अगर तुमने अपना पैसा अंधाधुंध उड़ाना शुरू कर दिया तो कहाँ के रहोगे! अपनी ऊर्जा को दाँत से पकड़ करके खर्च करो। एक पल भी व्यर्थ विचार में मत जान दो। छोटी बातों में उलझो ही मत, तुम्हारे सामने बहुत बड़ी जंग है। जो छोटी बातों में उलझ रहा है, वो बड़ी जंग शुरू होने से पहले ही हार गया न।
जैसे किसी की रिवाल्वर में गोलियाँ ही हों कुल दो और उनसे भी उसने एक से मच्छर और दूसरे से छिपकली मार दी। ये गए थे विश्वयुद्ध लड़ने, रास्ते में क्या मिल गए? मच्छर और छिपकली। तो एक गोली दाग दी मच्छर को, दूसरी दाग दी छिपकली पर। ऐसी तो हमारी ज़िन्दगी है।
प्र: आचार्य जी, एक-दो साल से संपर्क में हूँ, तो कई बार आने के लिए विचार बनाया पर कुछ-न-कुछ बीच में आ जाता है। आज आया हूंँ, तो मन में ये है कि आज मेरी इच्छा थी आने की और मैं पहुंँच गया, तो ये भी अहम् है?
आचार्य: देखो, अहम् क्या है, समझना! अपनेआप को कुछ भी मानकर के, चाहे विचार करना, चाहे भाव करना, चाहे कर्म करना, ये सब अहम् है। अपनेआप को कुछ भी मानकर के अगर तुम बने हुए हो—हो सकता है कि तुम मान लो कि तुम बहुत महान हो, 'मैं महान हूँ, मैं बना हुआ हूँ'। तुम मान सकते हो कि तुम बहुत हीन हो, 'मैं हीन हूंँ, मैं बना हुआ हूँ, मैं बहुत विनम्र हूँ, मैं बना हूँ'—अपनेआप को कुछ भी मानकर तुम बने हुए हो तो ये ये अहम् है।
अभी यहाँ बातें चल रही हैं, सत्संग है। उसमें हमारे पास ये अवकाश ही नहीं होना चाहिए कि हम ये भी विचार कर सकें कि ये क्या हो रहा है, कौन कर रहा है, किसके साथ हो रहा है।
समझना बात को!
अगर तुमने इतना भी समय चुराया तो चोर ही हो तुम। ये विचार करने के लिए भी कि आचार्य जी क्या बोल गए, तुम्हें समय चाहिए। चाहिए कि नहीं चाहिए? अगर कोई इतना भी विचार करने लग गया है कि ये क्या हो रहा है, किसके द्वारा हो रहा है, और किसके साथ हो रहा है, तो समझ लेना कि तुमने सत्य से समय चुरा लिया और ये बड़ी भद्दी चोरी होती है।
सत्य से समय चुराया नहीं कि अहम् खड़ा हो गया। जिन्हें सुनना है वह तो सिर्फ़ सुन रहे हैं न। सीधे-सीधे सुन रहे हैं, वो अर्थ नहीं करेंगे, वह विवेचना नहीं करेंगे। वो इस घटना पर टीका-टिप्पणी करने में उत्सुक नहीं होंगे, यहाँ तक कि ये भी नहीं कहेंगे कि ये जो कुछ चल रहा है, मैं इस पर सुंदर कविता लिखना चाहता हूँ।
जब भी तुम तैर रहे होते हो जी-जान से, तो क्या तुम अपनी तैराकी पर कोई कविता गढ़ रहे होते हो, बोलो? तैरना ही काफ़ी होता है न? प्रार्थना में डूबे होते हो तो क्या उस वक़्त तुम ये कह रहे होते हो कि आ हा हा! कितना सुंदर मौका है कि मैं देव के सामने प्रार्थनारत हो पाया। क्या ये विचार भी होता है? कहने को ये सुविचार है पर क्या ये विचार भी बचता है? अगर ये विचार है तो इसका मतलब प्रार्थना में डूबे हुए नहीं हो। है न?
थोड़ा और ज़मीनी उदाहरण ले लो, जब खेल रहे होते हो और कोई ऐसा खेल है जिसने तुम्हें सोख लिया है बिलकुल, उस वक़्त क्या तुम्हें विचार आता है कि ये क्या हो रहा है, ईश्वर कौन है, और ईश्वर के ब्रह्मांड में ये टेनिस कोर्ट क्या है? मैं कौनसी क्रीड़ा में मगन हूँ। ये सब आता है क्या? फिर तो बस तुम हो, रैकेट है और बॉल है और बेसलाइन।
साधारण रूप से अगर तुम दुनियावी क्रियाओं में भी डूबते हो तो डूबने वाले का तुम्हें इल्म ख़त्म हो जाता है, हो जाता है कि नहीं? तो फिर अभी कैसे याद रह गया कि हम कौन, हमारे साथ क्या हो रहा है? बिलकुल बेहोश हो जाओ, बाद में कभी कुछ याद आए तो कर लेना। चौंक जाना! कहना, 'अरे! ये उस वक़्त क्यों नहीं सूझा'। बाद में हो सकता है कि तुम कहो कि अरे, उसके बाद पूछ लेते तो अच्छा होता। तो कोई बात नहीं, बाद के लिए ये है तो (विडियो रिकार्डिंग), अभी इनको छोड़ो!
मन बहुत छोटी शय है, छोटी चीज़ों को पकड़ना हो तो मन ठीक। जहांँ कुछ बड़ा घट रहा होता है, वहाँ मन को ये अधिकार मत दो कि टीका-टिप्पणी करे। हालांकि उसकी आतुरता बहुत रहेगी कि हम बता दें कि क्या हो रहा है, 'ये आचार्य जी हैं और ये दक्षिणी दिल्ली का एक जंगली पार्क है और यहाँ पर ये समूह एकत्रित हुआ है और आज पहला दिन है। और ये चर्चा हो रही है, सत्य के विषय में कुछ बोल रहे हैं। हाँ, मुक्ति, बंधन इत्यादि की कुछ बात कर रहे हैं। तीन लोग प्रश्न कर चुके हैं, अभी दो लोग और प्रश्न करेंगे फिर सूरज ढल जाएगा फिर ऐसे'।
ये तुमने क्या विवेचना करी है! यहाँ जो कुछ हो रहा है उसमें प्राण हैं, और तुमने जो अर्थ किया वो मुर्दा है। है कि नहीं, बोलो? पर मन यही चाहेगा, बड़ा आतुर होकर चाहेगा कि टीका-टिप्पणी कर दे, अर्थ निकाल ले। मन कहेगा, 'हांँ, कुछ हो रही होगी बड़ी चीज़, हम संक्षेप में बता देते हैं क्या हो रहा है। अरे! सत्संग हो रहा है।'
सत्य का मन को कुछ पता नहीं, पर सत्संग शब्द का इस्तेमाल वह हल्के में कर डालेगा।
जो हो रहा है होने दीजिए।