ज्ञान बड़ा या भक्ति? || (2014)

Acharya Prashant

8 min
406 reads
ज्ञान बड़ा या भक्ति? || (2014)

आचार्य प्रशांत: ज्ञान बिना भक्ति असंभव है। जो ये सोचे कि ज्ञान नहीं होगा, समझेंगे नहीं, बोध नहीं होगा पर भक्त बन जाएँगे, वो आत्मप्रवंचना में है, *सेल्फ-डिसेप्शन*। उसकी भक्ति फिर ऐसी ही होगी, कैसी वाली? (आँखें बंद करके भजन करने का अभिनय करते हुए) ये वाली भक्ति होगी।

असली भक्ति वो है जो बोध के बिलकुल साथ-साथ चलती है। इसीलिए मैंने कहा, असली भक्त वो है जिसे लाओ-त्सु भी सुहाए, जिसे अष्टावक्र से कोई विरोध ना हो। और पूरी अष्टावक्र गीता में मुझे ताज्जुब होगा अगर प्रेम शब्द कहीं भी आया हो। आया है क्या? कहीं नहीं। पूरी अष्टवक्र गीता में शायद ही भक्ति और श्रध्दा की बात होगी, है क्या?

प्रश्नकर्ता: एक श्लोक में श्रद्धा है, एक या दो में।

आचार्य: बस। पर असली भक्त वो है जिसे ज्ञान से कोई गुरेज़ नहीं। उसकी भक्ति ज्ञान को अपने में समेटे हुए है। और यदि तुम्हारी भक्ति ऐसी है जो मूढ़ता की भक्ति है, तो फिर उसमें कुछ नहीं रखा है। उसको ये कह रहे हैं कि वो एक गन्दा रिश्ता है। ये तो छोड़ ही दो वो परम रिश्ता है, फिर तुम्हारी भक्ति एक गन्दा रिश्ता है, इलिसिट लव है।

प्र: सर, जब आपने बोला था भक्ति ज्ञान की माँ है, तो ये वही मुर्गी और अंडे वाली समस्या हो गई।

आचार्य: कोई समस्या नहीं है, आप कहीं से भी आगे बढ़ लो। आपको जानना क्यों है? आप अपनी बात करो। आप कहीं से तो शुरुआत करो न। भक्ति सूत्र इसी में आगे कहते हैं कि व्यर्थ की बात करने में भक्त का मन नहीं लगता है। पढ़ा? आएँगे अभी उसमें। और छोटा सा सूत्र है, वो बस इतना ही कह रहा है कि भक्त वही जो फालतू वाद में पड़े ही न।

आपको क्या करना है इस बात से, मुर्गी और अंडे की समस्या से क्या करना है? कि भक्ति पहले आई या ज्ञान पहले आया? आप बात को समझ गए हो न। कचरे को जीवन से निकालना है, बात ख़त्म। कचरे को जीवन से निकालना है और जो सुपात्र है उसको उसकी सही जगह पर स्थापित होने देना है, बस हो गया। अब उसमें ज्ञान पहले आएगा या ये करने में भक्ति ज़्यादा है, क्यों इस बहस में पड़ें?

प्र२: आचार्य जी, जब वहाँ से आ रहे थे तो आपने जो ये बताई बात कि सामान्यतया तो भक्ति होती है और जो हम बात कर रहे हैं, तो एक दृश्य दिमाग में आ रहा है। परंपरागत भक्ति वो है जिसमें जिसके आप भक्त हैं, उसकी गाड़ी आगे और आपकी गाड़ी पीछे। और दूसरे में हम शायद बात कर रहे हैं भगवान की गाड़ी आगे है और आपकी पीछे है मगर लेन दूसरी है, आगे खुला है सब। तो कभी भी स्वतंत्रता से गति कर सकते हैं। हैं पीछे ही, हैं भक्त ही लेकिन गति खुली है।

आचार्य: जिस अर्थ में तुम कहना चाह रहे हो उस अर्थ में ठीक है। तुम ये कहना चाह रहे हो कि भक्ति बंधन नहीं देती।

प्र२: हाँ, कि इससे आगे नहीं बढ़ सकता मैं।

आचार्य: ठीक है, भक्ति बंधन नहीं देती। उस अर्थ में जो तुम कह रहे हो ठीक है, उसी अर्थ के लिए ये उदाहरण ठीक है। भक्ति का अर्थ ये नहीं है कि आपके लिए कोई सीमाएँ निर्धारित कर दी गई हैं। ना, भक्ति बंधन नहीं देती। वहाँ तक बात ठीक है।

प्र३: एक पंक्ति, 'रिटर्न टू द सोर्स ' (केंद्र की और लौटो), जो हमने कल पढ़ा था उसमें भी लिखी थी, कि तुम्हें अगर चुनना ही है तो पसंद-नापसंद के हिसाब से चुन लो, पर शुरुआत करना ज़रूरी है।

आचार्य: हाँ, अभी सही में समस्या शुरू करने की है। हम बहुत आगे-आगे के सवाल पूछ रहे हैं। आप ऐसे सवाल पूछ रहे हो जो आपके काम के नहीं हैं। अभी तो आपके सामने जो चुनौती है वो ये है कि शुरू तो करो। बहुत आगे के सवाल मत पूछिए, शुरू करिए।

प्र४: इसमें भी हम पूरी सुरक्षा ढूँढ रहे हैं कि पहले पूरी कहानी जान लें, उसके बाद शुरू करेंगे।

आचार्य: हाँ, बिलकुल, बिलकुल। एकदम ठीक पकड़ा आपने। मन बिलकुल यही करना चाह रहा है कि, "आखिर तक का बता दो, फिर हम फैंसला करेंगे कि अब क्या करना है। पूरी कहानी अंत तक बता दो कि आखिरी बिंदु पर क्या होता है, फिर हम निर्णय करेंगे कि कैसे चलना है और चलना भी है या नहीं चलना है।" ऐसे नहीं।

प्र४: पहला कदम ही श्रद्धा है।

आचार्य: हाँ। जो नकली भक्ति होती है वो उस सतही प्रेम की तरह होती है, वो उस कलुषित प्रेम की तरह होती है जिसमें देने मात्र में आनंद कभी होता ही नहीं, जिसमें बाँटने मात्र में आनंद कभी होता ही नहीं। नकली भक्त उस नकली प्रेमी की तरह है जो बाँटना नहीं जानता। हैप्पीनेस इन द हैप्पीनेस गिवन टू अनअदर (दूसरों को बाँटने से मिलने वाली ख़ुशी), वो नहीं होता।

मैं फिर दोहरा रहा हूँ — हम आगे तो बढ़ते जा रहे हैं पर मैं आश्वस्त नहीं हूँ कि हमारे मन से भक्ति का जो चित्र है पुराना, सड़ा-गला, वो साफ़ हुआ है। मंदिर में बैठकर के कीर्तन करने वाला ही भक्त नहीं है। अधिकांश कीर्तन करने वालों को भक्ति का कुछ नहीं पता।

भक्ति क्या है? वापस जाओ, उस बात को दस बार दोहराओ। भक्ति क्या है? कचरे को निकालना। जो ग़लत नाते जोड़े हैं उनसे मुक्ति, और जो एक मात्र सही नाता हो सकता है उसमें भक्ति। ये भक्ति है। मूर्ति के सामने खड़े होकर के नाचना आवश्यक नहीं है कि भक्ति हो।

जिधर का ग्रन्थ होगा, उधर की ही बात करेगा। कल जो बात हो रही थी उसमें कहा गया था कि जितने ही अद्वैतवादी हैं वो ज्ञान को श्रेष्ठ मानते हैं। मैंने कहा नहीं, ऐसा नहीं है। अब ये ग्रन्थ है तो इसमें भक्ति सबसे पहले आती है। कुछ नहीं, ये सब एक हैं। ना ऊपर, ना नीचे, सबका अपना-अपना माहात्म्य है।

प्र४: छब्बीसवें सूत्र में लिखा है, "बिकॉज़ इट इज़ ऑफ़ द नेचर ऑफ़ फ्रूट्स ऑफ़ ऑल योग (क्योंकि उसका स्वाभाव सब योगों की निष्पत्ति है)"। इसमें नेचर ऑफ़ फ्रूट्स वाली बात समझ नहीं आई।

आचार्य: जो सबकुछ करके मिलता है, समस्त योगों से जो फल उपलब्ध होता है, भक्ति वही फल है। योग का क्या अर्थ होता है? योग का अर्थ होता है युक्त हो जाना, मिल जाना, मिलन। योग के अंत में आता है मिलन और भक्ति शुरुआत ही यहाँ से करती है कि जुदा हूँ, मिलना है। तो इसीलिए समस्त योगों का जो फल है वो भक्ति में निहित है।

इसमें क्या नहीं समझ आ रहा? सीधा तो है।

प्र४: डिस्लाइक फॉर ईगोइज्म (अहंकार से अनासक्ति) तो समझ में आ गया, लव फॉर मीकनेस समझ में नहीं आया।

आचार्य: मीकनेस से क्या अर्थ है? मीकनेस का अर्थ है तुम बहुत फूले नहीं हो, अकड़ में नहीं हो, चौड़ में नहीं रहते हो। जीसस का मीकनेस पर बड़ा प्रसिद्द वचन है। याद भी होगा। क्या? जीसस ने कहा है उसके (परमात्मा के) दरवाज़े सबसे पहले मीक के लिए खुलते हैं। मीक से अर्थ यहाँ ये नहीं है कि गया-गुज़रा, कूड़ा-कचरा, दबा हुआ। मीक से अर्थ यही है कि जो ठसक में नहीं रहता। "द मीक शैल इन्हेरिट द किंगडम ऑफ़ द लॉर्ड (नम्र व्यक्ति ही परमात्मा के साम्राज्य में राज करेगा)"।

प्र४: उन्तीसवें सूत्र में म्युचूअली डिपेंडेंस (पारस्परिक निर्भरता) का क्या मतलब हुआ?

प्र५: लव विथाउट नॉलेज, नॉलेज विथाउट लव (ज्ञान के बिना प्रेम और प्रेम के बिना ज्ञान), यही है न?

आचार्य: हाँ, यही है *म्युचूअली डिपेंडेंस*।

प्र७: इसमें नॉलेज (ज्ञान) की जब बात कर रहे हैं तो किस चीज़ की नॉलेज की बात कर रहे हैं?

आचार्य: किसी चीज़ का नॉलेज नहीं, यहाँ पर नॉलेज का अर्थ है बोध। किसी वस्तु का ज्ञान नहीं, बोध। यहाँ पर किसी वस्तु के ज्ञान की बात नहीं हो रही है, यहाँ आत्मबोध की बात हो रही है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories